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Friday 30 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
31/3/18

 रात्रि में लेखन कार्य मेरे लिये काफी कठिन प्रतीत हो रहा है। कल जो कुछ लिखा,आज सुबह जब देखा तो कुछ भाषाई अशुद्धियां थीं। क्यों कि निंद्रा का प्रभाव बढ़ता जाता है। दो तीन घंटे के कठोर श्रम से शरीर भी थका रहता है। ऐसे में यदि 11 बजे के आसपास कुछ लिखने बैठेंगे,तो स्वभाविक है कि जिस गंभीरता की उम्मीद अपनी लेखनी से चाहता हूं, वैसा हो नहीं पाता। सो, इसके लिये रविवार अथवा अवकाश का दिन कहीं अधिक उचित रहेगा। (शशि)

व्याकुल पथिक आत्मकथा

व्याकुल पथिक
30/ 3/ 18

  शास्त्रीपुल पर धूल भरे तेज आंधी का करीब एक घंटे तक मुकाबला और फिर साइकिल से दो घंटे पूरा शहर घुम कर अपने कुशल हॉकर धर्म को निभाते हुये वापस मुसाफिर खाने आया, तो वहां एक शुभचिंतक ने मेरे केश, चेहरे और वस्त्र पर जमी सफेदी ( बालू और धूल) की परत की और ध्यान दिलाई,  हाथ मुंह पानी से साफ करने को कहा। मेरा यहां और कहीं भी कोई घर परिवार तो नहीं कि तुरंत आवाज लगाता और तौलिया तथा कपड़े आ जाते।  खैर , छोड़े इन बातों का क्या ? यह तो मेरी नियति है।

              मैं जो कहना चाहता हूं, वह यह है कि जो ईमानदार पत्रकार शब्द का प्रयोग लोग अमूमन मेरे लिये करते हैं, यह अब और न करें। यह तमगा मुझे अत्यधिक पीड़ा देता है। इस  एक अवगुण के कारण आज मैं  राजकपूर साहब की "आवारा"  फिल्म की तरह  चेहरे पर झूठा मुस्कान लिये यह गुनगुनाता फिर रहा हूं कि घरबार नहीं संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं...।

 एक भूखा नंगा इंसान यदि ईमानदारी का जहर पीने चलेगा तो यही तो होगा न। अरे साहब, डाक्टर, इंजीनियर, पुलिस और प्रशासनिक सेवा के अफसर , राजनेता  , मंत्री, सरकारें ईमानदार तो इन्हें होना चाहिए। पर आप एक छोटे से अखबार के जिला सम्वाददाता हो, न उचित वेतन का पता, न मंजिल का और लगें शोर मचाने कि मैं तो लोभ मुक्त होकर पत्रकारिता करूगा।  तो मैं ललकार के कहता हूं कि जिलास्तरीय कौन ऐसा पत्रकार है , जिसने अपने पेशे का लाभ स्वहित में कमोवेश न लिया हो। यदि नहीं लिया होगा, तो वह भी आज मेरे ही जैसा एकाकी होगा। इसी अवसाद से बचने के लिये मैं जबरन मन की दिशा मोड़ रहा हूं। मैं पत्रकारिता में क्यों आया, इसीलिए न की भूखा था और किसी अपने के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहता था। पर जब पत्रकारिता से मुझे रोटी कमाने का बढ़िया मौका मिलने को हुआ तो मैं इस कमाई के माध्यम को पीत पत्रकारिता बता उससे मुंह मोड़ बैठा।  कितने ही अधिकारियों ने स्नेह भरे शब्दों में मुझे छोटे भाई और पुत्रवत समझाया था, तब कि जीवन के इस कड़ुवे सत्य को समझो  कि धन से ही घर परिवार है। कल को तुम्हारे भी बीबी बच्चे होंगे तो क्या करोगे ?  ईमानदारी के इस झूठे तमगे के जूनून में मैंने अपने गुरु जी का यह सबक भी भूला दिया था कि यदि समाज में रहना है तो धन चाहिए, नहीं तो संयासी बन कर वन की राह पकड़ लो। और आज जब मन व्याकुल है। ऐसा लग रहा है कि मन की पीड़ा मस्तिष्क में कहीं विस्फोट न कर जाए, तो इससे मुक्ति का एक ही आसान राह है कि मस्तिष्क को संज्ञा शून्य बना देना। सो, मैं भी अवसाद की जगह मन को वैराग्य की ओर ढकेल रहा हूं। अच्छे स्वादिष्ट भोजन की चाहत मुझे भी थी। परंतु इसी पत्रकारिता के मोह में जब अपने लिये बढ़िया भोजन भी समयाभाव के कारण नहीं पका पाया, तो इस वर्ष एक संकल्प के तहत ऐसे सभी स्वादिष्ट भोजय पदार्थों को त्याग दिया। धन का लोभ मुझे है नहीं और ढाई दशक के संघर्ष ने मुझे मृत्यु भय से भी मुक्त कर दिया है, यह मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं।

           खैर मैं बता रहा था कि यहां  पत्रकारिता में मुझे पहचान बनाने का जो पहला अवसर मिला,वह रहा नगरपालिका परिषद अध्यक्ष वर्ष 1995 का चुनाव। मुझे इस पर रिपोर्टिंग करनी थी। इस भगवा गढ़ में मेरे  अखबार के तमाम ग्राहक भाजपाई थें। तब भाजपा उम्मीदवार रहें बैजनाथ केशरवानी भी मेरा अखबार  कम से कम एक वर्ष से तो लेते ही रहे होंगे। और भी भाजपा व्यापारी नेता तब तक गांडीव के अच्छे पाठक हो गये थें। उन दिनों करीब साढ़े 6 बजे  मैं वाराणसी से पेपर का बंडल लेकर मीरजापुर आ ही जाता था। और उस समय भी पैदल ही शहर में घुम घुम कर पेपर बांटा करता था। मेरी लेखनी चलने लगी थी।  जो कुछ त्रुटियां रहती भी थी, तो वहां डाक देख रहें कमलनयन मधुकर जी या फिर अत्रि अंकल उसमें सुधार कर मुझे बताया सिखाया करते ही थें। पुलिस विभाग में यहां मेरी पकड़ कैसे बढ़ी और क्यों तब के अधिकारी इस अनाड़ी कलम के नौसिखिये सिपाही से भय भी खाते थें और सम्मान तो देते ही थी। इस पर बाद में चर्चा करुगां। डा० राधारमण चित्रांशी जी का व्यापक प्रभाव तब वाराणसी जोन.के पुलिस महकमे पर था। अतः एस एन साबत साहब जब यहां के कप्तान थें, तो उनका भी काफी स्नेह मिला। हां, तब भी छोटे बड़े पुलिस अधिकारी यह बात अच्छी तरह से समझ गये थें कि अन्य नये पत्रकारों की तरह मेरे किसी कड़ुवे समाचार पर वे मुझ पर आंखें नहीं तरेर सकते हैं। खैर , पुलिस और अपनी पत्रकारिता के संदर्भ में खास बातें फिर कभी करुंगा। अभी तो नगर निकाय चुनाव पर बता रहा था कि भगवा गढ़ में किस तरह से उसके प्रत्याशी की पराजय का संकेत मैंने बेखौफ अपनी लेखनी से कर दी थी। उस चुनाव में प्रतिद्वंद्वी के रुप में बतौर निर्दल प्रत्याशी अरुण कुमार दूबे  जिन्हें दादा सम्मान से लोग कहते थें खड़े थें। तब नागरिक संगठन और भाकपा माले के नेता जैसे अरुण कुमार मिश्रा, मो० सलीम, शरद मेहरोत्रा आदि ने , जो एक चर्चित सियासी जुमला उछला था, वह रहा "अरुण नहीं यह आंधी हैं मीरजापुर का गांधी है"।  इस नारे का यहां के मजदूर तबके और युवाओं पर खासा प्रभाव पड़ा। अखबार बांटते हुये मैं भी इनकी नुक्कड़ सभाओं में पहुंच जाता था।(शशि)

क्रमशः