Followers

Friday 7 June 2019

ख़्वाब उजाले की.. !


ख़्वाब उजाले की.. !
***************
कुछ तो था मुझ में
जो तुमने भरोसा पाया
दोस्त तो और भी थें
पर क्यों मेरे करीब आया ?

उजड़ी हुई दुनिया थी मेरी
और  वो तन्हाई
दर्द फिर भी न था कोई
ना हम आहें भरते ।

लूटे अरमानों के घरौंदे
न  सजाया  करते _
रखते थे ख़्याल मेरा
तब तुम ये कह के ।

जब नहीं चाह थी और
 न हम रोया करते
क्यों उजाले की हसीं
ख़्वाब  दिखाया करते ?

मांगा  तुमसे भी ना था
कुछ हमने तो कभी
बस जुदाई की ये बातें
तुम  ना यूँ  करते  ।

तेरे तो अपने थें बहुत
और मनमीत भी है
मेरी ज़िंदगी में न था कोई
 ए दोस्त इक तेरे सिवा ।

रूठते भी थे तुम तो
 हम  यूँ  मनाया करते
 मानो हो परवरदिगार
तुम  ही  क़िस्मत मेरे !

 जाने क्या हुई भूल जो
 ये सजा फिर से मिली
 ना दोस्ती का ख़्याल रहा
 न आँसुओं पे रहम आया !

यादों  के  मक़बरे  में
जब कभी पाओगे हमें
खिलखिला के झगड़ना
 तुम वही बुद्धू कह के ।

वो ! जाने वाले न ठहर
और क्यों रोकूँ भी तुझे ?
इस अंधेरे में उजाले की
अब न ख़्वाहिश है मुझे ।

बुझते शमा को दिल से
जलाएँ भी क्यों लोग ?
बाजार  में रौशनी की
नुमाइश क्या कम है ??

 दर्द  दिल का फिर ना
  यूँ  अब  बताएँगे  तुझे
 खुशियों भरी महफ़िल हो
 लो  ये दुआ करते है ..!!

  -व्याकुल पथिक
    

रामनाम सत्य ..!!!


रामनाम सत्य ..!!!
***************


रामनाम सत्य .. रामनाम सत्य..
       क्या कोई शवयात्रा है ? सड़क पर तो ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा था..   फिर क्यों भरी दुपहरी में यह व्यक्ति  ऐसे बुदबुदा रहा था .!  क्या यह उसका अंतर्नाद है अथवा विरक्त मन की आवाज ..ठीक से  समझ नहीं पा रहा था मैं, उसकी इस मनोदशा को..!!!
      देखने में विक्षिप्त तो न था..!  सोसायटी में खासी पहचान है उसकी .. कपड़े भी ठीक-ठाक पहन रखे हैं ..केश जरूर अस्त -व्यस्त है..
    न जाने क्या चल रहा था उसके दिमाग में..  बगल से गुजरे पहचान वाले लोग तक उसे दिखाई नहीं पड़ते.. धक्का खाये जा रहा था औरों से.. इस  बावले को हो क्या गया है ..?
किस वेदना से यह इस तरह से आहत था कि उसे हर किसी की नजरों से छिपाये ,  सीने में दबाये और सिर झुकाये चला ही जा रहा था..।
     डगमगाते-लड़खड़ाते हुये कदमों से किसी प्रकार अपनी निर्बल काया,मन और प्राण लिये आहिस्ता-आहिस्ता बस सड़कें नापे जा रहा था ..मोटर- गाड़ियों तक का शोर न सुन पा रहा था वह पागल.. हाँ, पागल ही तो होते हैं ऐसे इंसान ..?
 लेकिन, वह विक्षिप्त नहीं था , अर्द्ध विक्षिप्त भी न था.. उसने अपने जीवन के तिक्त क्षण अनेक बार देखे हैं। जीवन की शून्यता एवं दर्द से ऊपर उठ चुका था।
    उसकी लेखनी कभी आग उगलती थी, पर आज वह स्वयं सुलग रहा है..
     कहाँ को निकल पड़ा यह, इस चटख धूप में - माँ गंगा के दर्शन को या गुरु के आश्रम .. ऐसी मनोदशा में ये दोनों स्थान उसके उद्विग्न चित्त को तनिक विश्राम देते हैं..परंतु आज वह किस राह पर बढ़ा जा रहा है..?
   कठोर से कठोर दुखों में भी जो आँखों में आँसू नहीं लाता था, वह जीवन का दांव कैसे हार बैठा है..! जिसने जीवन रस का तनिक भी स्वाद न चखा , उसकी फिर कैसी कामना और लालसा है..  स्वयं में एक पहेली ही तो है , यह आदमी ..?
        अभी पिछले ही दिनों तो सरकारी अस्पताल के मेडिकल वार्ड में निढाल पड़ा दिखा था ।  खून चढ़ाये जाते समय किस तरह से इधर- उधर वह टुकुर- टुकुर ताक रहा था। उसकी मनोदशा देख  सीनियर नर्स ने ममत्व से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा था कि इस बहन पर भरोसा रख।
   हर किसी मरीज के अपने तीमारदार थें वहाँ..कितनी आत्मीयता से वे सभी अपने बीमार परिजनों की देखभाल कर रहे थें और यह बावला मोबाइल हाथ में लिये सुबह- शाम न जाने किसका इंतजार करता दिखता.. कोई आता भी तो न था उसके पास.. !
    लेकिन, कोई तो था उसका अपना ,पर कौन.. ?
 मोबाइल फोन में लगे नोटिफिकेशन की जैसे ही आवाज़ आती , वह झट उसका स्क्रीन  टटोलने लगता था.. कभी अंदर तो कभी बाहर ,उसकी यह बेचैनी बतलाती थी कि आभासीय दुनिया में ही सही कोई था उसका भी ..कौन हो सकता है भला इस यतीम का ..! कभी किसी से जिक्र तक तो नहीं की  थी ..।
    मानव के अंतरमन को समझा आसान नहीं होता.. परंतु मोबाइल स्क्रीन पर जिस तरह से नम आँखों से उसकी कंपकंपाती उंगलियाँ दौड़ने लगती थी, वह इस बात का संकेत था कि इस हाल में भी उसके मन में किसी के स्नेह की शीतल छांव की ललक थी.. अन्य मरीजों की तरह उस तीमारदार का जिसका संबंध शायद उसी मोबाइल फोन से था..  जो अब उसके लिये कबाड़ है..उसमें न जीवन है, न वह स्पंदन है , न संवेदनाएँ हैं और ना तो वह आवाज ही , जिससे उसके वीरान जीवन में कुछ पल के लिये मधुरता आ जाती थी..।
     जिसने स्वार्थ की तराजू पर कभी रिश्ते को नहीं तौला था,  उस शाम न जाने क्यों तनिक अपनेपन के लिये  तड़प उठा था यह जिद्दी इंसान..मोबाइल पर संदेशों का कुछ लम्बा ही आदान- प्रदान होता रहा.. फिर ऐसी क्या कड़वी बात हुई कि तकिये में चेहरे को छिपाये पूरी रात सिसकता रहा वह..बिल्कुल उस मासूम बच्चे की तरह ,जिसकी माँ का स्नेहिल आंचल उससे रूठ गया हो.. उसकी सुर्ख लाल आँखें गवाह हैं, उस सुबह वह बिल्कुल अकेला हो चुका था..जिसने उसे स्नेह का पुनः आभास कराया था ,  इस आभासीय दुनिया में उससे सम्पर्क भंग हो चुका था..अपनेपन की ललक ठंडी पड़ चुकी थी.. जीवन का यह सच  _  " रामनाम सत्य है " ..  महामंत्र बन उसे मुक्तिपथ की राह बता रहा है .. महा श्मशान की यात्रा पर अकेले  निकल पड़ा है वह .. हर मानव को यह सफर करना पड़ता है, परंतु जीवन के पश्चात ..
    अनेक लौकिक संस्कारों से वंचित रह गया यह विचित्र प्राणी जीवित अर्थी बन स्वयं ही अपने अंतिम संस्कार को निकल पड़ा है..
  देखने से तो यही लगता है कि उसने हॉफ सेंचुरी भी नहीं लगाई है.. फिर उम्र के इसी पड़ाव पर यह शीघ्रता ..?   यूँ कुटुम्ब एवं मित्र जनों से दूर वह अनंत की यात्रा पर बढ़ चला है..।
  न जाने कौन सा अपराध बोध है उसमें मन में ..  चिता  की राख बन गंगा मैया के आंचल में समाने की यह छटपटाहट उसकी.. माँ से मिलन की यह आखिरी ख़्वाहिश है उसकी..।
   स्नेह-समर्पण का उसके नहीं मोल रहा, निष्ठुर नियति ने  छीन लिया हर सहारा उसका , जिसे भी जीवनदायिनी समझा..उसके ममत्व एवं अपनत्व के लिये तड़पा.. स्नेह के लिये मुहँ खोलते ही जल के बुझ गये मन के सारे दीपक उसके .. हिय में सुलगती आग अब दावानल बनने को है..या फिर बुझने को है उसकी जीवन ज्योति..! आँखों के आँसुओं को पीकर वो तो चला मरघट की ओर.. अब न किसी को पुकारेगा, न ही कोई शेष अभिलाषा है उसकी..
 और कितनी बार अग्नि परीक्षा से गुजरेगा वह , निष्कपट होकर भी क्यों कलंकित रहा पूरा जीवन उसका .. ?
       इन अनेक सवालों को लिये,  फिर भी शुभ दिवस, शुभ संध्या एवं शुभ रात्रि कहने वाले किसी अपने की मधुर स्मृति में खोया बटोही निकल पड़ा है, अपने अंतिम सफर को ..  तुम क्या जानो ,कभी कितना हँसमुख था, तूफानों में तरणी खेने वाला यह इंसान.. आज ख़ामोशी के चादर में लिपटा, जैसे कुदरत ने दे दी हो उसे कफ़न प्रीति का..
     इस दुनिया के मेले में जब नहीं रहेगा वह ,कोई तो पुकारेगा उसे अंतर्मन से  , तुम कहाँ चले गये ..?
   पर जिस पवित्र स्नेह की चाह थी , जीवित तो न पा सका उसे ..
    काश  ! उस मधुर स्वर को वह आखिरी बार सुन पाता.. उस स्नेहिल अभिवादन की अनुभूति पुनः कर पाता..  जीवन सफल बना जाता.. हंस अकेला उड़ जाता..क्या उसे कुछ भी न देगा यह सभ्य समाज.. क्यों करवाता है फिर कर्म की पूजा और धर्म का यशोगान..क्यों खो गये उसके स्वप्न सारे..?
    निर् निमेष निहारता वह नभ को , न पूछता है कोई सवाल.. !!!
                 
                           - व्याकुल पथिक