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कल्लू ने पूरा इलाका छान मारा था। बचा-खुचा भोजन भी किसी बंगले के बाहर नहीं मिला ।कूड़ेदानों में मुँह मारा, वह भी खाली। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इंसानों ने उन जैसे घुमंतू पशुओं के पेट को लॉक करने की यह कौन सी नयी तरक़ीब निकाली है। उसकी आँतें कुलबुला रही थींं। सप्ताह भर तो बिना भोजन के गुजर गये, अब क्या प्राण ले कर छोड़ेगा इक्कीस दिनों का यह लॉकडाउन।
कल्लू मुहल्ले का सबसे समझदार कुत्ता था। रात्रि में चौकीदार रामू ड्यूटी पर हो न हो, लेकिन उसकी वफ़ादारी में कभी कोई कमी नहीं रही। तनिक भी आहट हुई नहीं कि मैदान में आ डटता था।
अब इस संकटकाल में मनुष्यों ने अपने पेट पूजा की व्यवस्था तो कर ली है। समाजसेवियों के सहयोग से प्रशासन उनके लिए ख़ूब लंच पैकेट बाँट रहा है, किन्तु उन जैसे सड़कों पर विचरण करने वाले मूक प्राणियों की भला कौन सुधि लेता ? उनकी इस स्थिति पर किसी का दिल नहीं पसीजा , क्योंकि वे सभी तो इस सृष्टि के अभिशापित जीव हैं। इस पृथ्वी पर अपना साम्राज्य स्थापित करने वाले मनुष्य ने उनका हर प्रकार से शोषण किया है। परंतु विडंबना यह है कि प्रकृति संग जब भी मानव का संघर्ष हुआ है , उसके कर्मों का दण्ड उन निरीह प्राणियों को उनसे कहीं अधिक सहना पड़ता है ।
भूख से बेहाल कल्लू प्रश्न करता है - " हे ईश्वर ! यह कैसी निष्ठुरता है। हमने तो कभी भी तेरी रत्नगर्भा का दोहन नहीं किया। ठगी, चोरी और जमख़ोरी नहीं की। असत्य भी नहीं बोला । कर्म से पीछे नहीं हटा, फ़िर ऐसी सज़ा क्यों ? "
तभी उसकी दृष्टि ललकी पर पड़ती है। बेचारी चलने में भी असमर्थ दिख रही थी।
"अरी बहन ! तुझे क्या हो गया है ? कितनी दुर्बल हो गयी है तू ? "
ललकी पर तरस खाते हुये कल्लू अपना दर्द भूल गया ।
" मेरे भाई क्या बताऊँ ? मनुष्य का स्वभाव तो तुम जानते ही हो। जबतक उसका स्वार्थ था , मैं गौमाता थी। अब इस बूढ़ी गाय के थन में दूध कहाँ ? फ़िर वह क्यों देगा मुझे चारा-पानी ?"
- यह कहते हुये ललकी की आँखों से आँसू बह चले थे।
काश ! कोई कसाई ही उसे पकड़ ले जाए। पिछले सात दिनों से वह खाली पड़ी इस फल और सब्जी मंडी का चक्कर काट रही है ,फ़िर भी खाने को कुछ नहीं मिला है । कैसे इक्कीस दिनों तक वह भूख से संघर्ष करेगी ? ललकी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
वह पूछ रही थी - " वाह प्रभु ! कहने को मेरे में तैतीस करोड़ देवी-देवताओं का निवास है।
पवित्र कार्यों में मेरे दूध की ही नहीं, गोबर और मूत्र तक की उपयोगिता है। परंतु क्या यह न्यायसंगत है कि मंदिर का कपाट बंद होने पर भी मनुष्यों ने तुम्हारे लिये भोग-प्रसाद की व्यवस्था कर रखी है और हमें मुट्ठी भर भूसा भी नहीं । क्या मैंने भी तुम्हारी वसुंधरा को पीड़ा दी है ? "
दोनों का वार्तालाप सुन रही मुनमुन बंदरिया का दर्द भी छलक उठता है।
" अरी मुनमुन बहना ! तुझे क्या हुआ ? इस लॉकडाउन में तेरा तो रंग चोखा होगा। छलांग मारी नहीं की भोजन हाज़िर। तुम तो हम दोनों की तरह भोजन नहीं तलाशती होगी न ? "
- नटखट मुनमुन को गुमसुम देख आश्चर्यचकित हो ललकी और कल्लू एक साथ पूछ बैठते हैं।
" क्यों भाई ,इस विपत्ति में मैं ही मिली हूँ, उपहास के लिए ? "
बीच में ही उनकी बात काटते हुये मुनमुन सुबकने लगी ।
" गलती हो गयी बहन ! अच्छा चल अब तू भी अपने दिल का दर्द हल्का कर ले । क्या इन मनुष्यों ने तुझे भी प्रताड़ित किया है। "
- कल्लू ने सहानुभूति प्रदर्शित करते हुये कहा ।
" तो सुनो भैया ! इस कंक्रीट के शहर में कितने वृक्ष तुम्हें दिख रहे हैं ? सच-सच बताना । हनुमान जी पर तो रावण ने अशोक वाटिका उजाड़ने का आरोप लगाया था और यहाँ इन मनुष्यों ने अनगिनत उपवन उजाड़ दिये । हमारा भोजन छीन लिया और अब इस लॉकडाउन में सज़ा हम निर्दोष जीव भुगतें ! यह अन्याय नहीं तो और क्या है ? "
इनकी वार्तालाप चल ही रही थी कि सामने से गुजर रहे भोंदू गदहे पर उनकी नज़र पड़ गयी। बेचारा भूख से बेहाल , ऊपर से पीठ पर दो नौजवान सवार । उसकी टाँगें लड़खड़ा रही थीं।बस अब गिरा की तब गिरा , भोंदू का तो कुछ ऐसा ही हाल था। इन युवकों ने लॉकडाउन का उलंघन किया , तो पुलिस ने उन्हें गदहे पर बैठा दिया था।
" लो देख लो कल्लू भाई ! इंसानों को मिला यह दण्ड भी अब हम जानवर भुगते , हमपर यह कैसा अत्याचार है ? "
ललकी और मुनमुन को सृष्टि का यह रहस्य बिल्कुल भी समझ नहीं आ रहा था कि तभी बुद्धिमान कल्लू जोर से ताली मारता है--
" ओह ! समझ गया - समझ गया ..बहन ! यह अन्याय नहीं, यही ईश्वरीय न्याय है। तभी तो महात्मा जी अपने भक्तों से कहा करते थे -
" समरथ को नहीं दोष गुसाईं। "
उनकी जिज्ञासा को विराम मिलता है और तीनों पुनः भोजन की तलाश में निकल पड़ते हैं।
--- व्याकुल पथिक