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Tuesday 26 June 2018

बिना कोई पदचिह्न छोड़े यूं कैसे चला जाऊं...



 

 
    " भैया आपका स्किन( त्वचा) छोड़ रहा है " अभी पिछले ही दिनों प्रिय रामेश्वरम ने मुझसे कहा था। यह बता ही चुका हूं कि जब मीरजापुर आया था, तो उनके परिवार ने ही मुझे शरण ही नहीं स्नेह भी दिया था। सो, मेरे प्रति उनकी यह चिन्ता स्वाभाविक है। परंतु शरीर और बीमारी को  लेकर ऐसी चेतावनी से मुझे अब तनिक भी घबड़ाहट नहीं होती है। अतः मैंने भी प्रतिउत्तर में कह दिया कि अब तो सब कुछ समेट ही रहा हूं। इसे अन्यथा न लें ! समेटने का अभिप्राय मेरा यह है कि संसार के इस बाजार से निकल एकांत की ओर बढ़ रहा हूं। जहां  शांति है और मृत्युभय भी नहीं। करीब तीन दशक में चंद दिनों को छोड़ इस अकेलेपन ने मुझे असहनीय वेदना दी है। अजीब सी छटपटाहट और घबड़ाहट थी उस अकेलेपन में । आसपास किसी अपने को व्याकुलता से तलाशती रहीं तब मेरी ये निगाहें , कोई हमदर्द नहीं दिखा फिर भी , वह नगमा है न कि  "अब तक जो भी दोस्त मिले बेवफा मिले। " हां ,अब  उस अकेलापन से निकल एकांत यात्रा की ओर बढ़ रहा हूं। एकांत में न दर्पण मुझे भयभीत करेगा, न ही कोई स्नेह से यह कहेगा कि कितने दुर्बल होते जा रहे हो। भोजन एवं वस्त्र का लोभ भी कहां होता है इस एकांत में, फिर भी तेज में वृद्धि निश्चित होती है। इसी एकांत में ही तो  सृजन होता है। जहां सिद्धार्थ बुद्ध बन जाते हैं और शिव समाधि लगा महादेव । जीवन क्षणभंगुर है, सो जाहिर है कि यह पथिक भी चाहता है कि अपना कोई पदचिह्न वह इस संसार में छोड़ ही जाए। मित्रों यह जो पत्रकारिता है न , मेरी स्थाई पहचान नहीं है। बड़े पत्रकारों की गुमनाम जिंदगी मैंने इसी छोटे से मीरजापुर में देखी है। ऐसे बुझे दीपक की तरह मैं प्रस्थान करना नहीं चाहता, इसीलिये प्रयास है मेरा कि इस एकांत में कुछ तो सृजन कर जाऊं, ताकि यह ग्लानि न होने लगे कि आया था तो मुट्ठी बंधी थी और अब हाथ पसारे जा रहा हूं।निश्चित ही हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपने अनमोल जीवन में संघर्ष भरी वह आखरी बाजी जीतें, जहां अकसर लोग हार जाते हैं। जैसे किसी क्रिकेट मैच में हार रही टीम का खिलाड़ी आखिरी गेंद को बाउंड्री से बाहर भेज विजय पताका फहरा देता है। मेरी भी कोशिश है कि नियति संग जो मुकाबला चल रहा है , उस संघर्ष भरे जीवन के पिच पर नियति के हाथों बोल्ट होने से पहले ही गेंद को बाउंड्री से उस पार कर दूं। मेरे समझ से हर किसी को इसे गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए कि  अपने जीवन की फिनिशिंग किस तरह से की जाए । बचपन से लेकर प्रौढावस्था तक हम सभी नियति के समक्ष नतमस्तक है। लेकिन, इस एकांत यात्रा में अब मेरे पास एक अवसर है कि गेंद को बाउंड्री पार करवा , हारा हुआ मैच अपने नाम कर सकूं। अमूमन लोग यह नहीं सोचते कि जीवन के इस मैच में आखिरी गेंद पर उन्हें कुछ करना है। पूछने पर यही कहेंगे कि अभी तो बच्चों की शादी की है, नाती- पोते संग खेलना है , फिर उनका भी विवाह करना हैं और परनाना- परदादा बनना है। जब छोटा था, तो दादी कहती थीं  कि तुम्हारे विवाह और फिर वंशवृद्धि के बाद वे भी परदादी बन जाएंगी। तब स्वर्गारोहण के लिये सोने की सीढ़ी लग जाएगी। पहले के लोगों की ऐसी ख्वाहिश थी। पर मेरा कहां कोई वंश रहेगा।  फिर भी मुझे अपना विकेट फेंक कर नहीं जाना है, इस दुनिया से। राजनीतिक से जुड़ी सुर्खियों के लेखन से पत्रकारिता में मुझे यहां अलग पहचान निश्चित मिली है। फिर भी ब्लॉग लेखन में मेरा विषय सियासत नहीं रहा। मैं एक आम आदमी के संघर्ष को प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरे पास तो किसी महाविद्यालय की डिग्री तक नहीं है। पर मां सरस्वती ने जिन पर कृपा की है, उनसे बस इतना कहना चाहूंगा कि अपनी रचना को कल्पना लोक में न लेते जाएं, छोटे पर्दे के किसी धारावाहिक की तरह। उंगली पकड़ हमें धरातल पर भी  चलना सिखाये वे।
   विषय बोझिल होता जा रहा है, सो  आये यह प्यारा सा समर्पण गीत गुनगुनाए अपने प्रिय के लिये-

हो मिल जाएं इस तरह ...
दो लहरें जिस तरह...
कभी हो ना जुदा
हां ये वादा रहा
(शशि)
 चित्रः गुगल से साभार