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Tuesday 1 January 2019

जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे

जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे
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   भावना और विवेक में एक द्वंद वर्षों से मेरे हृदय में रहा है। भावना विजयी होती है, क्षणिक इठलाती है और फिर आहत हो छटपटाती है , तो विवेक मुस्काता है। वह पथिक को उलाहना देता है कि क्षणिक सुख का स्मरण कर अपने लिये देखों किस दुख का सृजन तुमने किया है।
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जो राह चुनी तूने, उसी राह पे राही चलते जाना रे
 हो कितनी भी लम्बी रात, दिया बन जलते जाना रे
कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया
सेवा में सभी की उसने जनम बिताया
कोई कितने भी फल तोड़े, उसे तो है फलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे...

       नववर्ष का स्वागत मैं इस संदेश को आत्मसात कर करना चाहता हूँ। जाने - अनजाने किन्हीं परिस्थिति में , विवशता या भावुकता में जिस राह का चयन मैंने किया , पथिक बन मुझे चलते ही जाना है , रंगमंच पर अपनी भूमिका पर खरा उतरने का प्रयास करते हुये , अनंत में विलीन होने तक । इस एकाकी राह में जिन्होंने ने भी स्नेह दिया, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुये आगे बढ़ते ही जाना है। इस सबक को सदैव याद रखते हुये कि किसी मुसाफिर का यहाँ कुछ भी अपना नहीं होता। बटोही का कोई घर नहीं होता, वर्ष 2018 ने मुझे आशियाने से वंचित कर दिया और बीता वर्ष होटल में गुजारा। इस राह का चयन भी मैंने ही किया और जाता भी कहाँ.. ?
   रात की तन्हाई विकल मन लिये व्याकुल पथिक बने गुजरा। दूध ब्रेड और दलिया पर ही गुजर गये बीते वर्ष के अधिकांश दिन। यह कोई साधारण दर्द नहीं था । लम्बे एकाकी जीवन की प्रथम अनुभूति  रही मेरी, हृदय की इसी पीड़ा ने मुझे शब्द दिया, विचार दिया,लेखन कार्य के लिये प्रेरित किया।
     किशोरावस्था से ही भटकता रहा हूँ  मैं , किसी अपने की तलाश लिये, जिसमें माँ जैसा निश्छल  प्रेम मैं पाता । जिन्होंने थोड़ा भी स्नेह दिया , चाहे जिस भी संबंध से मैंने अपना सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दिया ,  फिर भी किसी के घर में ,  मन मंदिर में मेरे लिये कोई स्थान नहीं बना । बस इस दर्द को लिये आगे बढ़ते ही जा रहा हूँ-

जीवन के सफ़र में ऐसे भी मोड़ हैं आते
जहाँ चल देते हैं अपने भी तोड़ के नाते
कहीं धीरज छूट न जाये, तू देख सम्भलते जाना रे
 उसी राह पे राही चलते जाना रे..

    मेरा विवेक सदैव मुझे समझाता है कि किसी को अपना समझोगे तो ठोकर लगेगा ,वेदना मिलेगी और जब तुम उसे पुकारोगे , तो राह में फिर से स्वयं को अकेला पाओगे। परंतु इस वर्ष मैं उसे यह संदेश देना चाहता हूँ कि राह में जहाँ भी , जिसने भी , जैसे भी और जो भी स्नेह दिया उसे स्मृति में सजा लो , फिर बढ़ चलों और आगे -और आगे मंजिल की तलाश में। तुम्हें अपनी भावनाओं से कोई द्वंद नहीं करना है ।  जो खो  गया उसके पीछे नहीं दौड़ना है। उसके छल को नहीं , उसमें समाहित उस क्षणिक स्नेह को समेटना है।
जिन्होंने तुम्हें ठगा, उस ठगी के गम में भी नहीं फंसना है , यह  सोचना है कि यहाँ तुम्हारा अपना क्या था , अन्यथा फिर तू कैसा पथिक ..?
    तुझे भावुकता से ऊपर उठना है। इस दिवास्वप्न से भी कि काश !  कोई हम जैसों से भी स्नेह से यह पूछता कि कमरे पर कब पहुँचे , आज कैसे क्या भोजन बनाओगे, मन नहीं करता होगा न , थक भी गये होगे और तनिक मुहँ भी फुला यह कहता कि तुम न खाओगे तो मुझे भी कुछ अच्छा न लगेगा। माँ, पत्नी और प्रेयसी के अतिरिक्त  हम बंजारे कभी किसी के लिये प्राथमिकता नहीं होते हैं। फिर भी हमें चलते जाना है-

तेरे प्यार की माला कहीं जो टूट भी जाये
जनमों का साथी कभी जो छूट भी जाये
दे देकर झूठी आस तू खुद को छलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे


हाँ,  यदि कभी किसी ने अपनापन दिखला कर पूछ लिया तो वह दिन हम जैसों के लिये निश्चित ही " खास " हो जाता है। फिर भी इस अनजाने स्नेह पर हम  इतना न इतराए कि इसमें कमी आने पर एक और वेदना को गले लगा बैठें । अतः जिन्होंने ने हम जैसों को स्नेह दिया , उनके लिये दुआ करते जाना है ।
   अब जब यह मन रूपी मोमबत्ती जलते - जलते, आंसुओं में ढुलक- ढुलक  कर राख हो गयी है। तो जीवन के उस दर्द से बाहर आना चाहता हूँ।
   इसकी प्रेरणा मैं प्रतिदिन सुबह त्रिमुहानी के समीप गंगाघाट से ऊपर एक मंदिर के चबूतरे पर बैठे उस वृद्ध व्यक्ति से ले रहा हूँ , जिसकी मुस्कान नियति ने अवश्य छीन ली है, परंतु उसके नेत्रों को नम होने भी नहीं दिया है। हाँ ,ये आँखें  समय के थपेड़ों से आहत हो कुछ पथरा सी अवश्य गयी है , फिर भी उसमें किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं है , कोई चाहत नहीं है , कोई लोभ नहीं है, कोई लालसा नहीं है , कोई भावना नहीं है, पर वह मृत भी नहीं है, उसकी ये आँखें कुछ तो बोल रही हैं, शायद यही कि

तेरी अपनी कहानी ये दपर्ण बोल रहा है
भीगी आँख का पानी, हक़ीकत खोल रहा है
जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे...
 
 सुबह उठने के पश्चात यह अधेड़ व्यक्ति हाथ जोड़े उसी मंदिर के बाहर चबुतरे पर बैठे जहाँ वह रात्रि में विश्राम करता है , अपनी नजरों से दूर गंगा मैया की याद में खोये रहता है, जैसे मैं दिल पर लगे हर जख्म के बाद माँ को याद करता हूँ।  सुबह  के अंधकार में प्रतिदिन मैं इधर से भी गुजरता हूँ। एक ही मुद्रा में ये व्यक्ति गंगा घाट की ओर देखते ही रहता हैं । मानो कि गंगा मैया से कुछ पूछ रहा हो, पर क्या किसी से कोई शिकायत भी तो नहीं है उसे। हम दोनों एक दूसरे का सिर झुका कर सम्मान करते हैं, फिर में अपनी राह पकड़ लेता हूँ।
    भावना और विवेक में एक द्वंद वर्षों से मेरे हृदय में रहा है। भावना विजयी होती है, क्षणिक इठलाती है और फिर आहत हो छटपटाती है , तो विवेक मुस्काता है।
     वह पथिक को उलाहना देता है कि क्षणिक सुख का स्मरण कर अपने लिये देखों किस दुख का सृजन तुमने किया है।  यह भावना तो " जल "जैसी है , जिसमें  हम तैर तो सकते हैं , परंतु घर नहीं बना सकते हैं । इसके लिये विवेक जैसे " चट्टान "की आवश्यकता है। हर किसी ने भावना को मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता बतायी है।  परंतु क्या सचमुच भावना इतनी भी बुरी है। माना कि यह हृदय को आहत करती है, परंतु विवेक की प्राप्ति भी इसी से होती है। इस दुनिया के हर रंग को विवेक  से नहीं भावना से देखा जा सकता है।  आग के स्पर्श के बिना  हम कैसे विवेक से यह समझ पाएंगे कि इससे कितनी पीड़ा होती है।  फिर समाधान क्या है , सोचता हूँ  कि हम क्यों नहीं अपनी भावनाओं को विराट को समर्पित कर दें, वह किसी एक के लिये न हो ..? फिर छले जाने का भय कहाँ रहेगा।
    जो राह चुनी तूने, उसी राह पे राही चलते जाना रे..