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Wednesday 5 August 2020

यादों की ज़ंजीर

 
  यादों की ज़ंजीर

    रात्रि का दूसरा प्रहर बीत चुका था, किन्तु विभु आँखें बंद किये करवटें बदलता रहा। एकाकी जीवन में वर्षों के कठोर श्रम,असाध्य रोग और अपनों के तिरस्कार ने उसकी खुशियों पर वर्षों पूर्व वक्र-दृष्टि क्या डाली कि वह पुनः इस दर्द से उभर नहीं सका है। फ़िर भी इन बुझी हुई आशाओं,टूटे हुये हृदय के आँसुओं और मिटती हुई स्मृतियों में न जाने कौन सा सुख है,जो उसे बिखरने नहीं देता है। वह जानता है कि ज़िदगी के सभी अक्षर फूलों से नहीं अंगारों से भी लिखे जाते हैं। संवेदनाओं को जागृत करने वाली ऐसी मार्मिक अनुभूति उसके लिए किसी दुर्लभ निधि से कम नहीं है।अब तो मनुष्य कृत्रिम जीवन का अभ्यस्त हो गया है, उसमें सहज प्रेम है कहाँ। फ़िर क्यों यही स्मृति आज़ उसके चित्त को पुनः उद्विग्न किये हुये थी ?

   " उफ ! यह मनहूस दिवस हर वर्ष न जाने क्यों मेरे उस घाव को हरा करने चला आता है,जिसे समय और विस्मृति ने भर दिया है।" --सिर को तकिए में धँसाते हुये भरे मन से बुदबुदाया था विभु। हाँ, यह दिन उसके लिए विशेष हो सकता था ,यदि कोई अपना समीप होता। ऐसे ख़ास अवसर पर वह बिल्कुल असहज हो उठता है, क्योंकि स्नेह की ही नहीं पेट की भूख भी शांत करना उसे कठिन प्रतीत होने लगता है । माँ की मृत्यु के पश्चात उसे अपने जन्मदिन पर बढ़िया व्यंजन खाने को नहीं मिला है। यूँ तो जेब में पैसे हैं,परंतु इच्छाएँ मर चुकी हैं। उसके हृदय में एक टीस सी उठती है, उन दिनों को याद कर के ।

    वैसे तो वह दिन भर मित्रों द्वारा भेजे ढेर सारे शुभकामना संदेशों में खोया रहा। परंतु ऐसे सुंदर  शब्दों से मनुष्य के उदर की क्षुधा तो शांत नहीं होती है , इसलिए शाम ढलते ही आत्माराम का रुदन शुरू हो गया था । पेट में चूहे उधम मचाने लगे थे। आज़ अपने अवतरण दिवस पर वह कुछ अच्छा भोज्य सामग्री मांग रहा था। उसकी यह गुस्ताख़ी विभु के लिए असहनीय थी। वह बूरी तरह से झुंझला कर कल के बचे हुये दो करेले उबाल लाता है। " चल अब खा इस कड़वे चोखे संग ये सूखी रोटियाँ, आज़ भी तुझे यही मिलेगा। सsss..ले ! मिठाई चाहिए न ?" -उसकी फटकार सुन आत्माराम किसी मासूम बच्चे-सा सहम उठता है । उदर की पीड़ा शांत होते ही कमरे की बत्ती बुझा कर वह धम्म से बिस्तर पर जा गिरा था और फ़िर से यादों ने उसे अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया। वह कहता है-"  माँ ! काश तुम्हारे ही जैसा स्नेह करने वाला कोई और उसके जीवन में होता। किसी के हृदय में उसके लिए भी प्रेम होता। "  तेज गति से भाग रहे मन से वह क्यों बार-बार एक ही प्रश्न करता है-"उफ! ये यादें रात में ही क्यों इतना सताती हैं ! क्या किसी दुःखी इंसान के हृदय को कुरेदने के लिए इन्हें भी एकांत की तलाश होती है ?"

   तभी उसके मानसपटल पर चलचित्र की तरह अनेक स्याह-श्वेत दृश्य उभर आते हैं। और फ़िर वह बचपन की मधुर स्मृतियों में खोता चला जाता  है। माँ के जीवनकाल में अपने उस आखिरी जन्मदिवस की एक-एक बात उसे स्मरण होने लगी थी । इस सुखद अनुभूति ने मानों उसके तप्त हृदय पर ठंडे पानी की फुहार डाल दिया हो, किन्तु वह नादान यह कब समझेगा कि ये यादें उस जंजीर की तरह हैं, जिससे मुक्त हुये बिना आगे की यात्रा संभवः नहीं है। जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं ,जब मन के आगे मस्तिष्क का बस नहीं चलता है।

     विभु को माँ के हाथों से निर्मित नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों की याद आने लगती थी। तब घर में सुबह से ही कितना चहल-पहल रहती थी। बाबा ने टोकरी भर कर रजनीगंधा और गुलाब के पुष्पहार मंगा रखे थे। ठाकुरबाड़ी को ही नहीं, कमरे में जितनी भी तस्वीरें लगी होती थीं, वे सभी इस दिन इनसे सुशोभित होती थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियों पर रोली और चंदन  लगाये जाते थे। रंग-बिरंगे झालर और गुब्बारों से दुल्हन की तरह कमरे और बारजे को सजाने की व्यवस्था का दायित्व स्वयं उसके नाजुक हाथों में होता था। अब तो यह सोच कर उसे विश्वास ही नहीं होता है कि इतनी छोटी-सी अवस्था में ऐसे जटिल कार्य वह कैसे कर लेता था !

      वो कहते हैं न कि उत्साह में कष्ट सहने की दृढ़ता के साथ ही कर्म में प्रवृत्त होने का आनंद भी होता है। इसीलिए उसकी अस्वस्थ माँ में इस दिन न जाने कहाँ से इतना साहस आ जाता था कि रुग्ण शैय्या का त्याग कर वे दिन भर भोजनालय में डटी रहती थीं। कारखाने का वह बूढ़ा नौकर बड़े से भगौने में दूध पहुँचा जाता था। आहा ! मेवे से निर्मित केशर युक्त खीर का स्वाद भला वह कैसे भूल सकता है ! पाकशास्त्र में माँ का मुकाबला करना उनके मायके और यहाँ ससुराल में ,किसी भी स्त्री के लिए संभव नहींं था। देखते ही देखते कांजी बड़ा, दही बड़ा और कैर-सांगरी की सब्जी वे तैयार कर लेती थीं। अतिथि कितने भी हो, द्रौपदी का यह भंडार खाली नहीं होता था। 

   उसके वैष्णव भक्त परिवार में बाज़ार से केक लाना संभव नहीं था। यह भ्रांति थी कि हर प्रकार के केक में अंडे का प्रयोग होता है। इसीलिए प्रसिद्ध बंगाली मिठाई संदेश और कैटबरी कोको पाउडर से निर्मित केक तैयार करने की ज़िम्मेदारी उस बड़े से तोंद वाले कारीगर को सौंपी जाती थी, जिसे वह हाड़ी दादू कहता था। शाम होते ही विभु नये वस्त्रों में खिलखिलाते हुये केक के मेज के समक्ष जा पहुँचता। माँ के हाथों से केक खाने का आनंद ही कुछ और था। उपहार और धन की तब भी उसे लालसा नहीं थी, लेकिन माँ के द्वारा बनाए गये व्यंजनों पर टूट पड़ता था। भोजन करते वक़्त उनके लाडले को किसी की नज़र न लगे , इस पर माँ का सदैव ध्यान रहता था।

   ऐसे खुशनुमा माहौल के मध्य पल रहे बालक को उस दिन यह कैसे अंदेशा होता कि यह शाम फ़िर कभी उसके किसी जन्मदिन पर लौट कर नहीं आएगी। वह तो ममता का सागर लुटाने वाली माँ के लाड़ और दुलार की थपकियों में खोया हुआ था। माँ और बाबा दोनों ही उसकी शिक्षा को लेकर गंभीर थे। अपनी कक्षा में प्रथम आने पर उसे विशेष उपहार मिलने वाला था। किन्तु क्रूर नियति ने उपहार की जगह उसकी माँ को ही छीन लिया। मरघट पर बहे उसके अश्रु फ़िर कभी नहीं मुसकाये। अपना ही आशियाना उसके लिए पराया हो गया था। आँखों में डोलते सपने भयभीत करने लगे थे। किसी अपने की खोज में मिले दुत्कार ने उसके कोमल हृदय की भावनाओं को जला कर राख कर दिया था। वह निस्सहाय-  हो गया था। उसके माथे पर ममत्व का चुंबन करने वाला कोई नहीं रहा।

    तभी विभु को आभास होता है कि इस धुप्प अंधेरे में एक डरावनी परछाई उसे घेरे जा रही है। यह देख उसकी बरसती आँखें भय से झपकने लगती हैं। वह रुँधे गले से मदद के लिए स्मृतिशेष उन सभी प्रियजनों को पुकारता है, जिनसे उसे अत्यंत स्नेह है, किन्तु इस बंद कमरे में उसे सिर्फ़ उस काली परछाई का अट्टहास सुनाई पड़ रहा था। मानों वह पूछ रही हो - " यहाँ मेरे सिवा,तेरा हैं कौन ?" यह भयावह परछाई और कोई नहीं उसका सुनहरा अतीत था। 

      वह जानता है कि मनुष्य स्मृति-लोभ से मुक्त हुये बिना आत्मोत्थान को नहीं प्राप्त कर सकता है,क्योंकि यह ज़ंजीर बनकर हमारे पैरों में लिपट जाती है,यदि हमें आगे बढ़ना है, तो इस क़ैदखाने से बाहर निकलना होगा, फ़िर भी उसके विवेक पर भावना भारी पड़ जाती है... और साथ ही यादों की जंजीर की जकड़न भी। 

    उफ! परिस्थितियों ने उसके जीवन को किस द्वंद्व में उलझा दिया है ! ...अब तो कोई अवलंबन तलाशो विभु ।

  - व्याकुल पथिक