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Saturday 31 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 1 /4/18

 कल रात्रि 11 बजे तक शास्त्रीपुल पर अखबार के बंडल की प्रतीक्षा में खड़ा था। लेकिन, फिर भी बस नहीं आई तो खाली हाथ वापस लौट आया। आज रविवार है, तो पेपर आना नहीं है। ग्राहकों की शिकायत रहेगी की भैया आपसे स्नेह के कारण  अखबार ले रहा हूं, अन्यथा....। अब आप यह समझ नहीं सकते कि कितनी पीड़ा मुझे होती है। सुबह ही सवा पांच बजे इसलिये उठता हूं कि समय से मोबाइल पर समाचार टाइप कर प्रेस को भेज दूं। इस दौरान अपने ऊपर बस इतना ही समय देता हूं कि सुबह दैनिक कर्म से निवृत्त हो  दलिया पका और खा सकूं। फिर कचहरी, अस्पताल पोस्टमार्टम आदि जगह जा समाचार संकलन में दोपहर के ढ़ाई- तीन तो बज ही जाते हैं अमूमन। दोपहर बाद  करीब साढ़े तीन -चार बजे जब मुसाफिरखाने पर पहुंचता हूं, तो भूख लगी रहती है। बाहर का सामान अब मैं ग्रहण करता ही नहीं, न रात्रि में ही भोजय करता हूं। सो, यहां प्रेम भवन आते ही सब्जी बनाने की तैयारी में लग जाता हूं। उबली सब्जी लेता हूं। अतः ज्यादा समय इसे बनाने में नहीं लगता है। रोटी की व्यवस्था भी राही लाज में ही हो गई है। ऊपर अनिल बनवा दिया करते हैं। भोजन के बाद सिर्फ एक घंटे का समय अपने ऊपर दे पाता हूं। इसके बाद चिन्ता यह लगी रहती है कि बनारस से बस कितने बजे पेपर का बंडल लेकर  निकली है। अमूमन सायं 6 बजे के बाद ही बस चलती है। कल तो साढ़े 7 बजे बंडल लगा था। बस जब 11 बजे रात्रि भी नहीं आई, तो इस चिन्ता में वापस लौटना पड़ा कि आप सभी ग्राहकों से क्या कहूंगा।  जिस मार्ग पर जाम लगता है। उसे लेकर पुलिस की अपनी बहानेबाजी रहती है। वह यह कह बच निकलती है कि सड़क खराब है। जबकी कल पूर्णिमा था। कितने ही हजार दर्शनार्थी इसी मार्ग से विंध्याचल   आते है। परंतु कहां थी टेढ़वा और औराई के मध्य पुलिस की व्यवस्था। इन अफसरों को सोशल मीडिया पर चेहरा चमकाना पसंद है। परंतु बस यात्री कल मध्य में तीन चार किलोमीटर के जाम के कारण वाराणसी और जौनपुर से बाया गोपीगंज होते हुये पांच से छह घंटे में मीरजापुर पहुंच रहे थें। उन्हें जाम से मुक्ति दिलाने की कोई ठोस पहल उन्होंने की क्या। पूरी व्यवस्था ही ध्वस्त हो गई है। और मुझे जो लग रहा है कि वर्तमान सरकार में ये अधिकारी परम स्वतंत्र होते जा रहे हैं। मैं तो इसे नौकरशाही का राजनीतिकरण ही मानता हूं।  सो ,आप झेलो , परेशान हो हर छोटी छोटी समस्याओं को लेकर। इस पीड़ा का अनुभव मैं शास्त्रीपुल पर खड़ा खड़ा कल रात्रि 11 बजे तक कर रहा था। सोचा, तो यह था कि एक अनुशासित पार्टी के नेताओं के हाथ प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता आई है ,तो कुछ तो परिवर्तन व्यवस्था में दिखेगा ही। तो साहब यही परिवर्तन है कि सात बजे चली बस दो घंटे में यहां पहुंचने की जगा पता चला कि साढ़े 12 बजे रात आई थी। कितने ही दर्शनार्थी चैत पूर्णिमा पर्व के कारण बसों में थें, जो मार्ग में फंसे हुये थें। जबकि दो जनपदों की सीमा पर जाम लगा था। चील्ह और औराई पुलिस चुस्त रहती तो ऐसा नहीं होता। ट्रैफिक पुलिस भी लापता रहती है। ऐसे मौके पर, ऐसा मैं अनुभव कर रहा हूं। अब यात्रीगण इस अपना अच्छा दिन , समझे या बुरा। परंतु इस सरकार के बारे में मेरी मत बिल्कुल साफ है....

क्रमशः

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 31/3/18

 मैं यह नहीं साबित करना चाहता कि  ईमानदारी से पत्रकारिता करके मैंने कोई बढ़ा गुनाह किया है। मैं सिर्फ नये व युवा पत्रकारों को यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि यह राह कितना कठिन है। चकाचौंध भरी इस दुनिया में आप भी ऐसा ही कर कहीं अवसाद की ओर न बढ़ जाएं। क्यों इस रंगमंच पर आकर मैं जब सभी अपनों से दूर होता चला गया, तो उस एकाकीपन से उबरने के लिये मुझे कठिन संकल्प लेंने ही पड़ रहे हैं। संतोष इस बात का है कि मैं इसमें सफल हो रहा हूं। क्योंकि मैं अपने पेशे के प्रति अपनी ईमानदारी को यूं तो अवसादग्रस्त होकर जाने नहीं दूंगा। ताकि कल को लोग यह कहें देखों जरा इस पागल को भाई ,बड़ा ईमानदार पत्रकार बन रहा था ! अतः संकल्प शक्ति से मैं वैराग्य के मार्ग पर बढ़ कर अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहा हूं। भले ही रंगमंच का पात्र वही रहूं, परन्तु यह न कहना पड़े कि जीना यहां मरना यहां , इसके सिवा जाना कहा...। सो,  हर आसक्ति से परे होने का संकल्प लिया है। इसी कारण मैंने  प्रेम भवन में अपना नया आशियाना बनाया। तो एक बार फिर से मोह ग्रस्त होने का जब कुछ एहसास और मन में भारी पन भी हुआ, तो मैं राही लाज चला आया। चंद्रांशु भैया ने इसकी मुझे आजादी दे रखी है कि मैं यहां वहां कहीं भी रह सकता हूं। हां, यहां राही लाज में कोई भी सामग्री ऐसी मेरी नहीं है कि उससे आसक्ति बढ़े । सो, बिलकुल ही मुसाफिर सा हूं और आनंदित भी। अब किसी अपने ठिकाने के प्रति मोह मुझे कैसे जकड़ेगा ?

 रही बात आत्मकथा लेखन कि तो मैंने इसके रविवार का दिन चयन किया है अथवा फुर्सत में कभी भी । शेष अन्य दिन समय मिलना मुश्किल है। आज रात्रि तो वाराणसी से साढ़े सात बजे पेपर ही लगा है। बस साढ़े नौ बजे से पहले नहीं आएंगी। फिर अखबार बांटने में भी दो घंटे तो लग ही जाते हैं। अब साढ़े 11 बजे रात मुसाफिरखाने पर वापस  लौट कर आऊंगा, तो लिखूंगा क्या।(शशि)

क्रमशः

Friday 30 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
31/3/18

 रात्रि में लेखन कार्य मेरे लिये काफी कठिन प्रतीत हो रहा है। कल जो कुछ लिखा,आज सुबह जब देखा तो कुछ भाषाई अशुद्धियां थीं। क्यों कि निंद्रा का प्रभाव बढ़ता जाता है। दो तीन घंटे के कठोर श्रम से शरीर भी थका रहता है। ऐसे में यदि 11 बजे के आसपास कुछ लिखने बैठेंगे,तो स्वभाविक है कि जिस गंभीरता की उम्मीद अपनी लेखनी से चाहता हूं, वैसा हो नहीं पाता। सो, इसके लिये रविवार अथवा अवकाश का दिन कहीं अधिक उचित रहेगा। (शशि)

व्याकुल पथिक आत्मकथा

व्याकुल पथिक
30/ 3/ 18

  शास्त्रीपुल पर धूल भरे तेज आंधी का करीब एक घंटे तक मुकाबला और फिर साइकिल से दो घंटे पूरा शहर घुम कर अपने कुशल हॉकर धर्म को निभाते हुये वापस मुसाफिर खाने आया, तो वहां एक शुभचिंतक ने मेरे केश, चेहरे और वस्त्र पर जमी सफेदी ( बालू और धूल) की परत की और ध्यान दिलाई,  हाथ मुंह पानी से साफ करने को कहा। मेरा यहां और कहीं भी कोई घर परिवार तो नहीं कि तुरंत आवाज लगाता और तौलिया तथा कपड़े आ जाते।  खैर , छोड़े इन बातों का क्या ? यह तो मेरी नियति है।

              मैं जो कहना चाहता हूं, वह यह है कि जो ईमानदार पत्रकार शब्द का प्रयोग लोग अमूमन मेरे लिये करते हैं, यह अब और न करें। यह तमगा मुझे अत्यधिक पीड़ा देता है। इस  एक अवगुण के कारण आज मैं  राजकपूर साहब की "आवारा"  फिल्म की तरह  चेहरे पर झूठा मुस्कान लिये यह गुनगुनाता फिर रहा हूं कि घरबार नहीं संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं...।

 एक भूखा नंगा इंसान यदि ईमानदारी का जहर पीने चलेगा तो यही तो होगा न। अरे साहब, डाक्टर, इंजीनियर, पुलिस और प्रशासनिक सेवा के अफसर , राजनेता  , मंत्री, सरकारें ईमानदार तो इन्हें होना चाहिए। पर आप एक छोटे से अखबार के जिला सम्वाददाता हो, न उचित वेतन का पता, न मंजिल का और लगें शोर मचाने कि मैं तो लोभ मुक्त होकर पत्रकारिता करूगा।  तो मैं ललकार के कहता हूं कि जिलास्तरीय कौन ऐसा पत्रकार है , जिसने अपने पेशे का लाभ स्वहित में कमोवेश न लिया हो। यदि नहीं लिया होगा, तो वह भी आज मेरे ही जैसा एकाकी होगा। इसी अवसाद से बचने के लिये मैं जबरन मन की दिशा मोड़ रहा हूं। मैं पत्रकारिता में क्यों आया, इसीलिए न की भूखा था और किसी अपने के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहता था। पर जब पत्रकारिता से मुझे रोटी कमाने का बढ़िया मौका मिलने को हुआ तो मैं इस कमाई के माध्यम को पीत पत्रकारिता बता उससे मुंह मोड़ बैठा।  कितने ही अधिकारियों ने स्नेह भरे शब्दों में मुझे छोटे भाई और पुत्रवत समझाया था, तब कि जीवन के इस कड़ुवे सत्य को समझो  कि धन से ही घर परिवार है। कल को तुम्हारे भी बीबी बच्चे होंगे तो क्या करोगे ?  ईमानदारी के इस झूठे तमगे के जूनून में मैंने अपने गुरु जी का यह सबक भी भूला दिया था कि यदि समाज में रहना है तो धन चाहिए, नहीं तो संयासी बन कर वन की राह पकड़ लो। और आज जब मन व्याकुल है। ऐसा लग रहा है कि मन की पीड़ा मस्तिष्क में कहीं विस्फोट न कर जाए, तो इससे मुक्ति का एक ही आसान राह है कि मस्तिष्क को संज्ञा शून्य बना देना। सो, मैं भी अवसाद की जगह मन को वैराग्य की ओर ढकेल रहा हूं। अच्छे स्वादिष्ट भोजन की चाहत मुझे भी थी। परंतु इसी पत्रकारिता के मोह में जब अपने लिये बढ़िया भोजन भी समयाभाव के कारण नहीं पका पाया, तो इस वर्ष एक संकल्प के तहत ऐसे सभी स्वादिष्ट भोजय पदार्थों को त्याग दिया। धन का लोभ मुझे है नहीं और ढाई दशक के संघर्ष ने मुझे मृत्यु भय से भी मुक्त कर दिया है, यह मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं।

           खैर मैं बता रहा था कि यहां  पत्रकारिता में मुझे पहचान बनाने का जो पहला अवसर मिला,वह रहा नगरपालिका परिषद अध्यक्ष वर्ष 1995 का चुनाव। मुझे इस पर रिपोर्टिंग करनी थी। इस भगवा गढ़ में मेरे  अखबार के तमाम ग्राहक भाजपाई थें। तब भाजपा उम्मीदवार रहें बैजनाथ केशरवानी भी मेरा अखबार  कम से कम एक वर्ष से तो लेते ही रहे होंगे। और भी भाजपा व्यापारी नेता तब तक गांडीव के अच्छे पाठक हो गये थें। उन दिनों करीब साढ़े 6 बजे  मैं वाराणसी से पेपर का बंडल लेकर मीरजापुर आ ही जाता था। और उस समय भी पैदल ही शहर में घुम घुम कर पेपर बांटा करता था। मेरी लेखनी चलने लगी थी।  जो कुछ त्रुटियां रहती भी थी, तो वहां डाक देख रहें कमलनयन मधुकर जी या फिर अत्रि अंकल उसमें सुधार कर मुझे बताया सिखाया करते ही थें। पुलिस विभाग में यहां मेरी पकड़ कैसे बढ़ी और क्यों तब के अधिकारी इस अनाड़ी कलम के नौसिखिये सिपाही से भय भी खाते थें और सम्मान तो देते ही थी। इस पर बाद में चर्चा करुगां। डा० राधारमण चित्रांशी जी का व्यापक प्रभाव तब वाराणसी जोन.के पुलिस महकमे पर था। अतः एस एन साबत साहब जब यहां के कप्तान थें, तो उनका भी काफी स्नेह मिला। हां, तब भी छोटे बड़े पुलिस अधिकारी यह बात अच्छी तरह से समझ गये थें कि अन्य नये पत्रकारों की तरह मेरे किसी कड़ुवे समाचार पर वे मुझ पर आंखें नहीं तरेर सकते हैं। खैर , पुलिस और अपनी पत्रकारिता के संदर्भ में खास बातें फिर कभी करुंगा। अभी तो नगर निकाय चुनाव पर बता रहा था कि भगवा गढ़ में किस तरह से उसके प्रत्याशी की पराजय का संकेत मैंने बेखौफ अपनी लेखनी से कर दी थी। उस चुनाव में प्रतिद्वंद्वी के रुप में बतौर निर्दल प्रत्याशी अरुण कुमार दूबे  जिन्हें दादा सम्मान से लोग कहते थें खड़े थें। तब नागरिक संगठन और भाकपा माले के नेता जैसे अरुण कुमार मिश्रा, मो० सलीम, शरद मेहरोत्रा आदि ने , जो एक चर्चित सियासी जुमला उछला था, वह रहा "अरुण नहीं यह आंधी हैं मीरजापुर का गांधी है"।  इस नारे का यहां के मजदूर तबके और युवाओं पर खासा प्रभाव पड़ा। अखबार बांटते हुये मैं भी इनकी नुक्कड़ सभाओं में पहुंच जाता था।(शशि)

क्रमशः

Thursday 29 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
29/3/ 18

   सफर की बात जब कर ही रहा हूं, तो पत्रकारिता के क्षेत्र में मेरी यात्रा की पहली परीक्षा वर्ष 1995 का नगरपालिका परिषद मीरजापुर चुनाव रहा। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि अपने कार्य के प्रति निष्ठा मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। मैं जो ठान लेता हूं , वह कर भी लेता हूं।  जैसे ब्लॉग पर प्रतिदिन मुझे कुछ लिखना है, तो फिर आंखें नींद से कितनी भी भरी क्यों न हो , चंद शब्द लिखूंगा जरूर। पर आज बिल्कुल थका हुआ हूं। अभी थोड़ी देर पहले ही अखबार बांट कर आया हूं। सुबह साढ़े पांच बजे से पहले  उठ जाता हूं। कल मुकदमे की तारीख भी तो हैं। तो जेब भी टटोलना पड़ता  है। खैर , मैं बात नगरपालिका परिषद अध्यक्ष पद  के  चुनाव से जुड़े पत्रकारिता की कर रहा हूं। जिसमें मैं सौ फीसदी अंक प्रयास करने में  सफल रहा। यही से मेरे अखबार के दफ्तर में बतौर पत्रकार मेरा कद ऊंचा हुआ था।....

क्रमशः

Wednesday 28 March 2018

आत्म कथा मेरी यात्रा

व्याकुल पथिक
जीवन यात्रा
28/3/ 18

  यात्री को बढ़िया मुसाफिरखाना मिल जाए, तो यह उसके लिये सुकून की बात तो है। लेकिन, पथिक को पता रहता है कि यह यात्री निवास उसका मंजिल नहीं है, बल्कि एक पड़ाव है। उसे तो और आगे का सफर तय करना है। तब कहीं जा कर वह अपने आशियाने तक पहुंच पाएगा। अतः अपने पथ और मंजिल दोनों की बखूबी जानकारी राहगीर रखता है। लेकिन,  यदि कोई जब यह कहे
    मुसाफिर हूं यारो  न घर है न ठिकाना, मुझे बस चलते जाना है...।
     यह पथिक भी बचपन से यात्रा पर ही तो है। परंतु मंजिल से अंजान रहा। सो, घर ठिकाने की तलाश में वर्षों से सुबह से शाम तक भटक रहा है। कभी बढ़िया सराय मिला, तो कभी घटिया। अब जब आत्मकथा लेखन में जुटा हूं, तो चिन्तन करता हूं कि यह कैसी विडंबना भरी जीवन यात्रा है मेरी। जन्मा तो सिल्लीगुड़ी(बंगाल) के एक बढ़िया नर्सिंग होम में। वर्षों बाद ननिहाल में एक पुत्र का जन्म हुआ इसी लिये ,सभी आनंदित थें। क्यों मेरे नाना जी को पुत्र नहीं था, तब उनका कारोबार वहीं था। इसके बाद जीवन यात्रा कुछ ऐसी उलझी कि युवा अवस्था तक कोलकाता से वाराणसी फिर वहां से कोलकाता और पुनः वाराणसी  हो मुजफ्फरपुर और वहां से भी वापस वाराणसी होते हुये कालिंगपोंग जा पहुंचा। युवा हो रहा था,  गोरखालैंड आंदोलन के बावजूद पहड़ों पर बेखौफ मचल रहा था। प्रातः भ्रमण वहां मुझे बहुत पसंद था। भले ही एक बार जीवन जोखिम में पड़ गया था और मुझे संदिग्ध बाहरी व्यक्ति समझ नेपाली युवकों ने खुखरी लेकर घेर लिया था।मेरे लिये हमसफर की तलाश सबसे पहले वहीं से शुरु हुई। पहाड़ी हवा और अच्छा भोजन के कारण सारे कपड़े छह माह में ही छोटे पड़ गये थें। परंतु यहां भी मुझे मंजिल नहीं मिली। सो, वापस आकर वाराणसी से घर से निकल एक आश्रम की ओर कदम बढ़ाया । वहां भी मंजिल नहीं मिला, तो सादगीभरे जीवन को छोड़ फिर से मुजफ्फरपुर होते हुये एक बार पुनः कालिंगपोंग जा पहुंचा और वहां से काशी वापस आने के बाद जब इस विंध्यक्षेत्र में आया हूं। तभी से  (वर्ष 1994 ) अब तक यहीं इसी रंगमंच पर यह गुनगुना रहा हूं

 जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां...
   
    एक बार दिल्ली एम्स में इलाज के लिये जरूर गया था। हां , बचपन से लेकर मीरजापुर आने से पूर्व तक मेरी यात्रा जो भटकाव भरी थी। अब यहां उसका पथ निश्चित था। करीब तीन वर्ष से भी अधिक समय तक मेरी यात्रा की जो राह रही, वह वाराणसी से मीरजापुर तक प्रतिदिन आना जाना था। बाद मे यह यात्रा औराई से मीरजापुर तक समिति हो गयी । और अब कोई तीन वर्षों से शहर से शास्त्री पुल तक की यात्रा हो गयी है। इसके बाद साइकिल से पूरे शहर की यात्रा करता हूं। मौसम या स्वास्थ्य प्रतिकूल भी रहा, तो भी इस यात्रा म़े व्यवधान नहीं आया।

         यहां मीरजापुर में हॉकर और रिपोर्टर से भी बड़ी एक चुनौती मेरे सामने एक और रही। वह यह कि नीचीबाग, वाराणसी  जाकर वहां कार्यालय से गांडीव लेकर मीरजापुर की बस पकड़ यहां आने की। जब तक प्रबंधक मंजीत सिंह रहें, तो वाराणसी -मीरजापुर आता जाता था। फिर अरुण अग्रवाल जी प्रबंधक बन कर आये। उन्होंने कहा कि खर्च बहुत है। ऐसा करों कि औराई आ कर पेपर लो। पहले वहां तक एक आदमी प्रेस से पेपर लेकर आता था, हम सभी का। फिर और भी पैसा बचाने के लिये बंडल को बस से लगाया जाने लगा।  और यही से मेरी परेशानी बढ़ती ही गई। बंडल लेने के लिये लगभग 18- 19 वर्ष मैंने औराई में चौराहे पर खड़ा होकर गुजारा है। जाड़ा, गर्मी और बरसात में भी, एक यंत्र मानव की तरह हर तकलीफ को सीने में दबाये, चेहरे पर मुस्कान लिये औराई चौराहे पर खड़े खड़े वाराणसी मार्ग को निहारता रहता। वाराणसी से वह बस कब आएगी पता नहीं रहता, क्योंकि इतना ही बतया जाता है कि फलां नंबर की बस इतने बजे चली है। अब कहीं जाम लगा हो या बस खराब हो गई हो, क्या पता। धूल उड़ा रही सड़क किनारे चुपचाप खड़ा रहता।  फिर जब पेपर काफी विलंब से लगने लगा , जिस कारण औराई से मीरजापुर के लिये रात्रि में साधन का अभाव दिखा , तो मैंने मीरजापुर में बंडल लेना शुरु किया। अब बस शास्त्री सेतु तक कि यात्रा पर देर शाम निकलता हूं।
     हां अब जो यात्रा करने के लिये व्याकुल हूं, वह है मुक्ति पथ की यात्रा। जहां, से आगे न कोई सफर है, न ही हमसफर ।(शशि)

क्रमशः

Tuesday 27 March 2018

व्याकुल पथिक आत्मकथा

व्याकुल पथिक

27/ 3/18

  जिसे हिंदी ही ठीक से नहीं लिखने आती हो, वह भला लेखक बनने का दिवास्वप्न क्यों देखें। सबसे अधिक डांट मुझे इस विषय में पड़ी है विद्यालय में। पर जो अध्यापक थें मेरे, उन्हें यह नहीं पता कि कोलाकाता में रहने के कारण बंगला भाषा का और वहां ननिहाल में ही कुछ उड़िया भाषा का भी प्रभाव मेरी भाषा शैली पर पड़ा। बाद में कालिंगपोंग गया, तो वहां नेपाली बोलने लगा। रही सही मेरी हिंदी भी चौपट हो गई। व्याकरण का ज्ञान तो मुझे बिल्कुल भी अब नहीं है। पत्रकारिता में आना मेरे जीवन की एक बड़ी दुर्घटना थी। एक हाथ में कलम , तो दूसरे में.पेपर थमा दिया गया। पर जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं कि चुनौती कितनी भी कठिन हो, कदम बढ़ा लिया तो वापसी करना मेरा स्वभाव बाल्यकाल से ही नहीं रहा। हां, एक बात बताना चाहता हूं कि मैं यह आत्मकथा इस लोभ से नहीं लिख रहा हूं कि इसे पुस्तक का रुप दे दिया जाए। लोग मुझे पत्रकारिता जगत में संघर्ष का प्रतीक समझ मरणोपरांत मेरे चित्र पर माला पहना कर मेरी आदर्श एवं संघर्षमय पत्रकारिता का बखान करें। जिस तरह से संतान की उपेक्षा के दंश से वृद्धावस्था में व्यथित  माता पिता की मृत्यु के बाद वही पुत्र जब उनकी बड़ी सी तस्वीर अपने ड्राइंगरुम में लटका स्वाग रचते हैं। मैं यह कड़ुवा सच आपको बार बार बताना चाहता हूं कि आज के इस पत्रकारिता जगत में यदि आप जिला प्रतिनिधि / ब्यूरोचीफ के पद पर हैं, तो आपके लिये समाज सेवा का कोई स्थान नहीं है। प्रेस आपसे सिर्फ व्यवसाय मांगेगा सर्वप्रथम। विज्ञापन हित में  खबरों को तोड़मरोड़ के आपकों प्रस्तुत करते रहना होगा। हां, यदि मेरे तरह निर्भिक सम्वाददाता/ जिला प्रतिनिधि बनने की चाहत रखेंगे, तो बाहरी ही नहीं अपनी बिरादरी के भी शत्रुओं से घिरते जाएंगें। और फिर क्या होगा पता है, अवसर मिलते ही वे जब प्रत्यक्ष प्रहार नहीं कर सकेंगे , तो आपकी किसी कमजोरी का लाभ उठा मुकदमे आदि में फंसा ही देंगे। तब क्या होगा। आज के सम्पादक पहले की तरह उदार नहीं है। न ही वे कोई खतरा मोल लेना चाहते हैं। उन्हें तो बस माल(व्यवसाय) चाहिए।  आप अपनी बेगुनाही की लगाते रहें कितनी भी क्यों न गुहार , परंतु जिस संस्थान के लिये आपने दशकों खून पसीना बहाया हो, वहां से आपकों निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। हां, इतना रहम आप पर किया जा सकता है कि उस अखबार के दफ्तर के दरवाजे आपके लिये बंद न किये जाएं। परंतु प्रश्न यह है कि पैसा कहां से आएगा मुकदमा लड़ने का। आपने अनैतिक तरीके से भले ही कुछ न कमाया हो। लेकिन, यदि मुकदमे में फंसे तो सबकों सुविधा शुल्क देते रहना होगा। आपका परिश्रम का पैसा  तारीख दर तारीख  वकील, मुंशी, पेशकश सभी लेते रहेंगे और आप लाचार, बेवश , उपहास के पात्र बने किसी तरह से मुकदमा खत्म हो , इसकी प्रतीक्षा में टूटने लगेंगे। आपका सम्पादक दूर बैठा बैठा अलग फटकार लगाता रहेगा। हालांकि ऐसी स्थिति में एक बड़ा लाभ यह भी होता है कि अपने पराये की पहचान हो जाती है। कौन कितनी पुरानी बातों का बदला ले रहा है। वह भी बेनकाब हो जाता है।  मेरे कितने ही पत्रकार साथी मित्र और वे लोग जो मेरी कलम को दबाना चाहते थें, वे मुझे फंसाने के लिये इतने गिर सकते हैं, यदि मुकदमा ही नहीं होता तो मुझे इस कड़ुवे सच का ज्ञान कैसे होता। फिर भी आज मेरी जो पहचान है न, उसके इर्द गिर्द भी ये बड़े अखबारों के तथाकथित पत्रकार आ तो नहीं ही सकते हैं। हां, बड़े बैनर का लाभ उठा वे अपनी ठेकेदारी जरुर चमका सकते हैं। सो जरा विचार करें कि आपकों जिला प्रतिनिधि बन कर मेरी ही तरह एक ही जिले में सड़ना है, दुश्मनों से घिरना है अथवा आगे का सफर भी तय करना है। हां,  बड़ा सवाल तो यह है कि आज की पत्रकारिता में आप करेंगे क्या। जब मैं आया था , तो सिखाया गया था कि जन समस्याओं पर अधिक ध्यान दूं। स्थानीय लोगों से वार्ता कर बिजली, पानी सड़क , अस्पताल की समस्याओं पर कलम चलाऊं। प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के कामकाज पर लिखूं। हो सके तो गांव- किसानों तक कलम को ले जाऊं।  और अब कि पत्रकारिता यह है कि यदि कहीं मुख्यमंत्री योजना के तहत सामुहिक विवाह हो रहा है। तो उसमें यह ढूंढ़ा जाए कि किसी को खराब आभूषण तो नहीं मिल गये हैं, या कोई जोड़ी नाबालिग तो नहीं है। ठीक है, यह भी एक खबर है, लेकिन प्रमुख  समाचार तो यही होना चाहिए कि डेढ़ सौ कन्याओं का हाथ पीला हुआ। (शशि)

Monday 26 March 2018

आत्म कथा

व्याकुल पथिक
26/3/18

      आत्म कथा लिखना कितना पीड़ा दायी होता है। इसका एहसास अब मुझे हो रहा है। बिखरे एक एक रिश्ते सामने सजीव हो उठ रहे हैं। बचपन से लेकर करीब आठ -दस वर्ष पूर्व तक मैं जिनके पीछे दौड़ा अथवा जो मुझे चाहते थें, वे सभी एक एक कर दूर होते चलें। फिर भी मै इसी रंगमंच पर उसी तरह से तना हुआ खड़ा और डटा रहा। जो दर्द दिल में था, उसका तनिक भी प्रभाव अपनी लेखनी पर नहीं पड़ने दिया।
        मैंने खूब डट कर पत्रकारिता की है। जो चाहा, जैसे चाहा, उसे लिखा। जो लिखा वह सत्य के करीब रहा। यही मेरी पहचान रही। इसी कारण अपनों से दूर जाने के बावजूद मुझे बहुतों का साथ मिला।  जो किसी अच्छे सरकारी नौकरी अथवा व्यापार में भी नहीं मिलता। यही मेरी बड़ी उपलब्धि है कि इस अनजान शहर में अब सब पहचान वाले हो गये हैं। जो चेहरे से नहीं जानता , वह नाम से जानता था । एक बार की बात बताऊं मैं विंध्याचल गया। मंदिर पर किसी युवा तीर्थ पुरोहित ने अपने स्वभाव के अनुरूप रोकटोक शुरु कर दिया। मै भी अपने स्वभाव के अनुसार यह कम ही बताता था कि पत्रकार हूं। सो, अगला क्या समझे। लेकिन, इतने में पीछे से किसी की आवाज आई कि ये तो गांडीव के पत्रकार शशि गुप्ता हैं। मुझे तब आश्चर्य हुआ कि जो पंडा अभी कुछ देर पहले तक मुझ पर बरस रहा था, वह स्नेह की बरसात करने लगा। अपने व्यवहार से कुछ झेप रहा था वह , कहता मिला कि आप ही शशि भैया है।नाम सुना था, आज मुलाकात भी हो गई। कारण यह रहा मित्रों कि उसे मेरा निष्पक्ष और बेखौफ समाचार लेखन पसंद था। परंतु अब मैं इस समाचार लेखन कार्य से भी मुक्त होना चाहता हूं।और यदि आप युवा भी इस धंधे ( यहीं कहूंगा) में आना चाहते हैं, तो मैं यही कहूंगा कि अपना युवा काल पत्रकार कहलाने के प्रयास में बेजा न करें। पत्रकारिता अब समाज का दर्पण नहीं रहा। यह खरीद फरोख्त की वस्तु हो कर रह गई है।
      इसीलिये इस पहचान से मैं आजाद होना चाहता हूं। मुक्ति पथ जिसे वैराग्य पूर्ण स्थिति मैं कहता हूं। वही मेरा गणतव्य है। जो अवसर  27 वर्षों  पूर्व  मुझे आसानी से मिल रहा था उस आश्रम में, उसे त्यागने की बड़ी कीमत मैंने चुकाई है। ऐसे में लम्बी सांसें लेकर आंखें बंद करने से भी मन को बड़ी शांति मिलती है मुझे। स्मृतियों में जो कुछ है, वह धुमिल पड़ने लगता है। किसी ने क्या कष्ट दिया अथवा स्नेह ही क्यों न दिया हो, मैं इनसे ऊपर उठना चाहता हूं। लेकिन,
ऐसा भी नहीं है कि मैं जिस रंगमंच पर तब और अब भी खड़ा हूं । वह मेरी विवशता है। मैं जब चाहता इसका परित्याग कर सकता था । पत्रकारिता में आकर धन अर्जित करना या फिर स्वयं को समाज का एक विशिष्ट व्यक्ति समझ कर दर्प से इतराना मेरे स्वभाव में नहीं है। अनेक ऐसे अवसर आये जब मैं प्लेटफार्म बदल सकता था। परंतु स्वभाव से मैं हठी हूं। किसी की अधिनता स्वीकार नहीं मुझे । सो, सीना ताने खड़ा रहा। पहचान मेरी  धीरे धीर अब बदलने लगी थी। मैं भले ही अखबार बांटता था, परंत मेरी छवि कभी और हॉकरों की तरह नहीं रहीं। बल्कि लोग तो मुझे देखते ही यह कहते थें कि शशि यदि मौजूद है, तो वह दबेगा नहीं, लिखेगा जरुर। उनका यह विश्वास मैं तब टूटने भी नहीं देता था। शाम होते होते गांडीव की टंकार सुनाई पड़ने लगती थी। यह भी भय नहीं था मुझे कि स्वयं ही खबर छाप कर उसे बांटने निकला हूं, तो कोई विवाद नहीं कर बैठै। ऐसा शायद इसलिये क्योंकि लोगों को मुझसे स्नेह था और अब भी है। वे कहते कि क्या खराब छपा है, सही तो लिखा है। बात समाप्त हो जाती थी। हां, लेखनी के माध्यम से मैंने किसी का भयादोहन कभी नहीं किया। अनजाने में कभी कोई समाचार कुछ गलत छपा भी हो, तो सत्यता ज्ञात होते ही , उसमें सुधार करना भी अपना कर्तव्य समझता रहा। (शशि)

क्रमशः

Sunday 25 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
25/3/ 18

    विचित्र विडंबना है , हम आज राम जन्मोत्सव मना रहे हैं, तो जगह जगह ध्वनि विस्तार यंत्र (डीजे) के माध्यम से तेज आवाज निकाल कर। जिन जिन स्थानों पर वे लगे हैं, वृद्ध और बीमार जन इससे तकलीफ में दिखें। अपने दर्प के लिये दूसरों को कष्ट देना , क्या यही हमारा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रति समर्पण और भक्तिभाव है। दिन चढ़ते ही कितने ही लोगों की यह शिकायत मुझ तक आ पहुंची कि बड़ी ऊंची आवाज में डीजे बजा रहे हैं , कृपया व्हाट्सएप पर ग्रुप में कुछ पोस्ट कर दें। उधर , पुलिस जब कोई कार्रवाई करती है, तो विरोध प्रदर्शन। अहंकार भरे तेज स्वर में जय श्री राम बोलने से ही तो हम सच्चे रामभक्त नहीं हो जाएंगे। सवाल यह है कि भगवान राम के जन्मोत्सव पर आज हममें से कितनों ने उन्हीं की तरह आचरण करने का संकल्प लिया। जरा हाथ उठा कर  मन को टटोलते हुये बताएं आप भी  !
 
   मैं तो अभी इंद्रियों के संयम के मामले में तीसरे ही  पायदान पर फंसा हुआ हूं। स्वाद और अनर्गल ढंग से धन के अर्जन के लोभ पर नियंत्रण के बाद मेरा जो प्रयास चल रहा है, वह वाणी पर संयम है। अधिक बोलूंगा  तो जाने अनजाने में असत्य बोलूंगा, यह तो तय है। इसीलिए महापुरुष जन अधिक से अधिक मौन धारण किये रहते हैं सम्भवतः । इससे चिंतन शक्ति भी बढ़ती है। सो, इस प्रयत्न में रहता हूं कि अनावश्यक  वाणी को कष्ट न दूं। तभी और ऊपर वाली सीढ़ी पर पांव जमा सकूंगा। पर याद तो यह भी रखना है कि जितनी ऊंचाई पर चढ़ेंगे। फिसलने पर चोट लगने का खतरा भी उतना ही अधिक है। अतः प़ांव जमा जमा कर चढ़ना चाहता हूं। जो मैल वर्षों से तन मन पर जमा है। उसे इतनी शीघ्रता से कोई केमिकल डाल कर  साफ तो नहीं किया जा सकता है न।

        जब बात सत्य-असत्य बोलने की करता हूं , तो तो मुझे अपने बचपन का एक रोचक प्रसंग याद हो आता है। मेरे पिता जी कुछ अधिक ही अनुशासन प्रिय थें। एक बार उन्होंने मुझे घी लेने चिन्हित किराने की दुकान पर भेजा। वह दुकान कुछ दूर पर थी। बालक था, सो पास के ही एक दुकान से घी ले चला आया। परंतु यह बात छिपाये रखी। चाहे जैसे भी घर पर यह झूठ पकड़ में आ ही गया। इसके बाद मेरी जम कर खबर तो ली ही गई। साथ ही एक सादे पन्ने पर यह लिख कर मुझसे रामायण में रखने को कहा गया कि अब कभी झूठ नहीं बोलूंगा। यह नैतिक भय दिखलाया गया कि यदि झूठ बोला, तो बहुत पाप लगेगा। इससे मेरा बाल मन तब काफी सहम गया था। ठीक से याद नहीं है कि कितने महीनों तक फिर झूठ नहीं बोला था ।

क्रमशः

Saturday 24 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक

24/3/18

आज दोपहर बाद जब विंध्याचल धाम में चल रहे माता का भंडारा से वापस आटो से शहर की ओर लौटा और लालडिग्गी पर उतर राही लाज की ओर पैदल आ रहा था, तभी अचानक गनेशगंज तिराहे पर किसी ने मुझे पुकारा कि अंकल-अंकल। देखा तो एक प्यारा सा बालक खड़ा था। जो कह रहा था कि सड़क पार करवा दीजिए। भीड़ काफी थी। इसके बावजूद बाइक फर्राटे भर रही थीं। सो, यह देख मैंने जिस दायीं हाथ से पहले उसे पकड़ा था, अब बायीं ओर ले लिया , फिर पूरी तसल्ली कर उसे सड़क उस पार छोड़ा । यह करते हुये मुझे कितना सुखद एहसास हुआ,इसके लिये शब्द नहीं है। स्मृतियों में अपना बचपन भी याद हो आया।  परंतु अब तो सारे रिश्ते ही बिखर चुके हैं। बस स्मृति शेष होने को है। उम्मीद करता हूं कि जिस तरह से अच्छे भोजन एवं धन के लोभ से मैं पूर्ण रुप से मुक्त हो गया हूं। धीरे धीरे सभी इंद्रियों पर भी नियंत्रण कर ही लूंगा। क्यों बचपन से ही मैं हठी जो हूं। जो ठान लिया , सो किया अवश्य है। मेरे गुरुजन कहते थें कि तुम्हारी मेधाशक्ति भले ही उतनी तीव्र न हो। लेकिन तुम्हारा श्रम , तुम्हें पहले पावदान पर ला खड़ा करता है। इसी कारण मैं अपनी कक्षा में सदैव ही प्रथम स्थान पर बना रहा। नहीं तो अपने वर्ग में तो जरुर ही। वाराणसी से वापस कोलकाता में जब दर्जा 6 में भर्ती हुआ। तो वहां की पढ़ाई के लिहाज से मैं कमजोर छात्र था विद्यालय का। लेकिन, जब वार्षिक परीक्षा परिणाम आया , तो मेरा नंबर प्रथम रहा और स्कूल के नियमानुसार कक्षा 7 में वहां मैं ही मानिटर होता। सहपाठी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थें , लेकिन नानी का निधन हो गया और मेरा दुर्भाग्य मुझे वापस वाराणसी खींच लाया। काश ! इस तरह से मां(नानी) मुझे छोड़ कर ना जाती। मां का प्यार मुझे उन्हीं से मिला और कुछ मौसी जी से भी। खैर , बचपन की बातें फिर इस बालक के अंकल की एक पुकार से ताजी हो आईं। जब व्याकुलता बढ़ती है, तो किशोर दा की एक गीत

 कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन , बीते हुये दिन वो मेरे प्यारे पल....

इसे सुनने के लिये मन मचल उठता है। पर मैं तो ठहरा यहां एक रंगमंच का कठपुतली मात्र । सुबह से देर रात तक एक ही शो इन करीब ढाई दशक से कर रहा हूं। और अब मैं इतना कुशल हॉकर हो गया हूं कि रात्रि 11 बजे भी पेपर अपने ग्राहकों को देता हूं , तो उसे  नहीं लेने की बात न कह वे यह कहते है कि शशि भाई कल सुबह दे देंते ,थक गये होंगे आप। क्या ऐसा कोई पाठक मिलेगा आपको। जो शाम का पेपर अगले दिन भी लेने को तैयार हो। परंतु इसके लिये बड़ा त्याग भी किया हूं। इस कुशल व विदूषक हॉकर ने मेरे सभी अपनों को मुझसे एक एक कर छीन लिया। जब गांडीव लेकर मीरजापुर आया था, तब से अब तक अपने परिवार के सिर्फ एक वैवाहिक कार्यक्रम में मैं शामिल हो सका, वह रहा ताऊ जी की बड़ी पुत्री का विवाह और फिर उनके इकलौते पुत्र के दुर्भाग्यपूर्ण मौत पर उनके घर पहुंचा था। इसके बाद बहन की शादि, ताऊ जी की छोटी पुत्री की मृत्यु,मौसा जी की दुर्घटना में मौत और फिर उनकी इकलौती पुत्री की शादी, जिसे मैंने अपनी गोद में खिलाया था, बहन और दो दिनों बाद पिता जी की मौत, इन सभी मांगलिक अमांगलिक कार्यक्रमों में शामिल होने की जगह इस शहर की सड़कों पर पैदल दौड़ लगाता हुआ , बाद में साइकिल से आप तक अखबार पहुंचा रहा था।मेरी सारी संवेदनाएं मर चुकी हैं। मैं इस रंगमंच का एक विदूषक मात्र हूं। यहां जो संबंध बने , जो अपने लगें। उनके भी ऐसे कार्यक्रमों में कहां शामिल हो पाया ठीक से। क्या अब भी आप कहेंगे कि मैं एक कुशल समाचार पत्र विक्रेता नहीं हूं।
    और रही बात पत्रकारिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी की तो,
गुरुजी (पं० रामचंद्र तिवारी) के निधन पर भी उनकी अंतिम यात्रा में न शामिल हो, मैं उनके जीवन पर और उनके साथ गुजरे दिनों को कलमबद्ध करने में जुटा था । ताकि शाम तक वह सब आ जाये। इस पर चर्चा बाद में करुंगा, अभी तो हॉकर बनने की बात चल रही है।(शशि)

क्रमशः

Friday 23 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

आत्मकथा

23/3/18

आज शहीद दिवस है। मेरी इच्छा रही कि एक बार फिर से  भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांति और विचारों को और करीब से जाना जाए । उस युवा तेज को नमन करने से पूर्व उनके चिन्तन को समझना जरुरी है। पर मेरा दुर्भाग्य यह है कि सुबह सवा 5 बजे से रात्रि कम से कम 12 बजे तक इधर उधर का काम करने के बावजूद अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये कोई समय नहीं है मेरे पास। रात्रि 11 तो पेपर बांटने में ही बज गया है। इसके बाद दिन भर की थकान का असर यह रहता है कि नींद की देवी आगोश में लेने को आतुर है। ऐसे में सलीम भाई द्वारा पोस्ट किये भगत सिंह के आखिरी पत्र  को पढ़ कर ही ,उन्हें मन ही मन नमन कर ले रहा हूं। हां , अपने पत्र में उन्होंने जो अंतिम इच्छा जताई थी। जिसके  लिये ये पढ़े लिखे तेज और संस्कार से पूर्ण युवक हंसते हुये फांसी पर जा लटके थें। उनकी इस अंतिम इच्छा का जो परिणाम सामने है, उसे देख मेरे मन की व्याकुलता बढ़ गई है।

  क्योंकि भगत सिंह चाहते थें  कि उन्हीं के शब्दों में...

" दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी पर चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्रज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।"


 पर जाहिर है कि आजाद भारत में स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है।  ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो ये अमर क्रांतिकारी चाहते थें। आज के अभिभावक भौतिकवाद का लबादा इस तरह अपने बच्चों पर लादते जा रहे है कि सोच अब उनकी यह हो गई है कि पड़ोसी का बच्चा  भले ही भगत सिंह बने , पर हमारा लाल किसी भी जुगाड़ से टाटा , बिरला और अंबानी  बन जाए। थोड़ा ठहर कर सोचता हूं, तो लगता है कि हमारे पत्रकारिता जगत में भी तो यही सब हो रहा है। ढ़ाई दशक पूर्व जब मैं इस क्षेत्र में आया तो कलम की धार परखी जाती थी और अब पैसे की ताकत....।  इसी कारण जिस रंगमंच पर मैं खड़ा हूं, आसपास कोई नहीं है। परिवार का हर सुख एक एक कर पीछे छुटते चला गया । हर रिश्ते बिखर गये। जब अपनों के यहां शहनाई बजे या अर्थी सजे , उससे इस रंगमंच पर आने के बाद मेरा कोई वास्ता ही नहीं रहा, तो फिर आप किसी से संबंध की चाहत कैसे रख सकते हैं।  कभी कभी सोचता हूं कि चलों अच्छा ही है कि घर परिवार नहीं है यहां । यदि होता तो अपनों की नजर में और भी लज्जित होना पड़ता। क्यों मेरा हाल यह है कि एक कुशल हॉकर से ऊपर उठ कर एक श्रमिक पत्रकार बना तो जरूर, परन्तु साथ ही चुनौती बढ़ती ही चली जा रही है। पहले साढ़ नौ बजे तक अखबार बांट कर खाली हो जाता था। अब रात्रि 11 बज रहे हैं।  फिलहाल, बात मेरे हॉकर बनने कि हो रही थी।  तो जिस शख्स ने मेरे लिये घर -दुकान जाकर गांडीव लेने का अनुरोध किया , वे हैं लल्लू राम मोदनवाल जी।  इन्होंने ही मुझे उस समय के बड़े व्यापारी नेता दीपचंद्र जैन जी से मुलाकात करवाई थी। सच कहूं तो यह जैन साहब की ही देन है कि तमाम व्यापारी गांडीव लेने लगे थें और उनका स्नेह भी मिला। (शशि)

क्रमशः

Thursday 22 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

22/3/18


वर्तमान में पत्रकारिता की स्थिति पर जब चिंतन करता हूं, तो मन की व्याकुलता और भी बढ़ती जा रही, क्यों कि अपने जनपद के मीडिया जगत में बहस इन दिनों  इस बात की हो रही है कि शराब की दुकानों की नीलामी में किस किस पत्रकार की लाटरी निकली। जिसकी गोटी लाल हुई, वह 56 इंच तक सीना फुलाए है। ताल ठोंक कहता फिर रहा है कि अब आया साहब असली पत्रकारिता का मजा। पायो जी मैंने राम ना भाई "जाम" रतन धन पायों। इस सोमरस की प्राप्ति ही पत्रकारिता का सबसे बड़ा अमृत रहा उनके जीवनकाल का है । पर जो पत्रकार इस नीलामी में खाली हाथ लौटा ,वह मुहर्रमी सूरत बनाये हुये है। पत्रकारों के इस विवशता भरे पतन को अफसर यह कह महिमामंडित कर रहे हैं कि उनका भी तो घर संसार है। फिर धंधा शराब का हो या और कोई बुराई ही क्या है, उसे करने में। हमारे वरिष्ठ साथी प्रभात मिश्र जी से भी एक आलाअधिकारी ने गत दिनों यही बात कह दी कि आपकी बिरादरी वाले भी तो तगड़ी कसरत कर रहे थें, मदिरालय पाने के लिये। अब जिस शख्स ने पत्रकारिता और खेती किसानी में अपना पूरा जीवन बिताया है।उसके सामने अधिकारी यह चुटकी ले, तो अफसरों का यह उपहास हम जैसों के लिये कितना पीड़ादायी  है, इसके लिये शब्द नहीं है। वैसे प्रभात भैया ने उक्त अफसर को अपनी भाषा में समझा दिया था कि ये साहब ,रंगा सियार पत्रकार हर किसी को न समझ लें। परंतु यह कह हम पत्रकार मुक्त नहीं हो सकते हैं, अपने दायित्व से । सोचता हूं कि हम क्यों राह भटक रहे हैं। कल तक जो कलम नशा मुक्त समाज के लिये चलती थी। वह स्वयं उसमें डूब गयी ? इसके लिये जिम्मेदार सिर्फ पत्रकार ही है या फिर हमारा समाज और उसकी व्यवस्था भी। यदि पत्रकारिता में पूरा यौवन नष्ट करने के बाद हमें शराब बेचना पड़े , तो चेहरे पर भले ही मुस्कान क्यों न हो, पर अन्तर्रात्मा जरुर कराह रही होगी !
            खैर वर्ष 94- 95 में मैं उस स्थिति में नहीं था कि खुद के पत्रकार होने पर गर्व कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे एक कुशल समाचार पत्र विक्रेता बनना था। जिस लड़के ने हाई स्कूल की परीक्षा में गणीत विषय के दोनों पेपर में 49-49 फीसदी अंक पाया हो। जिसने कभी अपने सुनहरे भविष्य का खूब ताना बाना बुना हो। वह अब पैदल ही अनजाने शहर की गलियों में गांडीव ले लो की पुकार लगाये, तो उस समय मुझ पर क्या गुजराती होगी, शब्दों में बयां नहीं कर सकता था। उन दिनों को याद कर आज भी आंखें नम हो आती है। तब न कोई साथी था, न कोई सहारा था। यहां शहर में जिस शख्स ने मुझे सबसे पहले गांडीव बेचने का हुनर सिखाया था। वे हैं, प्रदेश सरकार के पूर्व कैबिनेट मंत्री डा० सरजीत सिंह डंग के अनुज भूपेंद्र सिंह डंग साहब। नगर के मुकेरी बाजार में उनकी दुकान है। आधा शहर पेपर बांटते हुये जब मैं उनकी दुकान पर पहुंच अभिवादन कर यह पूछता कि साहब गांडीव लेंगे। तो थोड़ा कड़क आवाज में प्यार भरी झिड़की देते हुये वे कहते कि जरुर लूंगा। परंतु एक शर्त है, मैं जो बता रहा हूं , उसे बोल कर पेपर बेचो। सरदार जी मेरा पेपर लेते कोई अच्छा सा हेड लाइन मुझे रटाते। जिसे ऊंची आवाज में बोलता हुआ मैं  अन्य क्षेत्रों से होते हुये  स्टेशन रोड की ओर बढ़ता था। मेरी झिझक मिटाने के लिये ही वे ऐसा करते थें, इसे मैं बखूबी जानता था। बाद में जब मुकेरी बाजार वाली दादी जी के घर पर रहने लगा, तब भी मेरे अंदर छुपे पत्रकारिता के गुण को विकसित करने में वे सहायक बनें। वे जनसत्ता पढ़ने को मुझे दिया करते थें। राजनीतिक से जुड़ी खबरें मैं अब इतनी आसानी से लिख पाता हूं। इसके पीछे "जनसत्ता" और  "इंडिया"  टूडे की अहम भूमिका है। यह दोनों पत्र -पत्रिका मेरे गुरु हैं।(शशि)

क्रमशः

Wednesday 21 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

22/3/ 18

   करीब ढा़ई दशक से एक ही रंगमंच का कलाकार होकर भी  इतनी व्याकुलता क्यों है ? क्या खोया क्या पाया, इस पर आत्मचिंतन अपनी आत्मकथा के माध्यम से अब जब कर रहा हूं, तो यह व्याकुलता भी उतनी ही बढ़ती जा रही है, जिस दर्द को वर्षों पूर्व लगभग भूल सा गया था, वह कहानी फिर से याद हो आई है। जबकि अभी तो पहला अध्याय ही पूरा नहीं हुआ है।
     सच कहूं तो जिस रंगमंच पर मैं खड़ा हूं, अब वह बदबूदार हो चुका है। दुर्गंध के कारण घुटन महसूस कर रहा हूं। मुक्ति पथ की चाहत लिये व्याकुल पथिक बना भटक रहा हूं।  पता नहीं राह मिलेगी भी या फिर आखिरी शो भी इसी रंगमंच पर करना होगा, ठीक से कुछ नहीं कह पाता। हां,इतना तो अच्छी तरह जानता हूं कि जुगाड़ वाली आज की पत्रकारिता में मेरी इंट्री कब की बंद हो चुकी है। जहां से वापसी नहीं होने वाली है।
   अखबारनवीस की चमक दमक वाली झूठी दुनिया मेरा उपहास उड़ा रही है।  रात्रि में जब कभी 11 बजे साइकिल से अखबार बांटता गलियों में भटकता रहता हूं, तो युवा वर्ग के नये मीडिया कर्मी मुझे पागल , सनकी, मंदबुद्धि  प्राणी समझ बैठते हैं।  तो फिर आप ही बताएं कि इतने लंबे संघर्ष में मैंने क्या पाया। हां , कहने को इतनी पुंजी तो मेरे पास है ही कि प्रलोभन मेरी कलम पर भारी नहीं पड़े।
        धन की बहुत चाहत बचपन से ही मुझे नहीं थी। फिर ठहरने को जब स्थान मिल गया हो। मुकेरी बाजार वाली दादी ने भोजन की समस्या दूर कर दी हो। तो गांडीव कार्यालय से प्रतिदिन मिलने वाला चालीस रुपया , जो बाद में  प्रति माह दो हजार रुपया कर दिया गया। उसी में मैं आनंद महसूस करने लगा। फिर एक अच्छा हॉकर और पत्रकार बनने की बारी आई...।

क्रमशः

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

22/3/ 18

   करीब ढा़ई दशक से एक ही रंगमंच का कलाकार होकर भी  इतनी व्याकुल क्यों है ? क्या खोया क्या पाया, इस पर आत्मचिंतन अपनी आत्मकथा के माध्यम से अब जब कर रहा हूं, तो यह व्याकुलता भी उतनी ही बढ़ती जा रही है, जिस दर्द को वर्षों पूर्व लगभग भूल सा गया था, वह कहानी फिर से याद हो आई है। जबकि अभी तो पहला अध्याय ही पूरा नहीं हुआ है।
     सच कहूं तो जिस रंगमंच पर मैं खड़ा हूं, अब वह बदबूदार हो चुका है। दुर्गंध के कारण घुटन महसूस कर रहा हूं। मुक्ति पथ की चाहत लिये व्याकुल पथिक बना भटक रहा हूं।  पता नहीं राह मिलेगी भी या फिर आखिरी शो भी इसी रंगमंच पर करना होगा, ठीक से कुछ नहीं कह पाता। हां,इतना तो अच्छी तरह जानता हूं कि जुगाड़ वाली आज की पत्रकारिता में मेरी इंट्री कब की बंद हो चुकी है। जहां से वापसी नहीं होने वाली है।
   अखबारनवीस की चमक दमक वाली झूठी दुनिया मेरा उपहास उड़ा रहा है।  रात्रि में जब कभी 11 बजे साइकिल से अखबार बांटता गलियों में भटकता रहता हूं, तो युवा वर्ग के नये मीडिया कर्मी मुझे पागल , सनकी, मंदबुद्धि  प्राणी समझ बैठते हैं।  तो फिर आप ही बताएं कि इतने लंबे संघर्ष में मैंने क्या पाया। हां , कहने को इतनी पुंजी तो मेरे पास है ही कि प्रलोभन मेरी कलम पर भारी नहीं पड़े।
        धन की बहुत चाहत बचपन से ही मुझे नहीं थी। फिर ठहरने को जब स्थान मिल गया हो। मुकेरी बाजार वाली दादी ने भोजन की समस्या दूर कर दी हो। तो गांडीव कार्यालय से प्रतिदिन मिलने वाला चालीस रुपया , जो बाद में  प्रति माह दो हजार रुपया कर दिया गया। उसी में मैं आनंद महसूस करने लगा। फिर एक अच्छा हॉकर और पत्रकार बनने की बारी आई...।

क्रमशः

Tuesday 20 March 2018

आत्म कथा

व्याकुल पथिक

20/3/18


तो बात मैं स्टेशन रोड वाली दादी जी की कर रहा था। रिश्ता भले दूर का मेरा उनका रहा। लेकिन, दिल उनका वात्सल्य प्रेम से भरा था। फिर तो मैं उनकी ही पराठा-सब्जी की दुकान पर रात्रि का भोजन भी कर लेता था। यहां आधा लीटर दूध की और एक प्याली मलाई की व्यवस्था हो जाती थी। वाराणसी से मीरजापुर आ कर पैदल देर शाम से लेकर नौ बजे राघ्रत्रि तक दर दर भटकते हुये, अनजान मुहल्ले गलियों से गुजरते हुये अखबार बांटने के बाद मेरे पांव जमीन पर ठीक से नहीं पड़ते थें। व्याकुल और नींद से बोझिल आंखें स्टेशन रोड की राह निहार रही होती थी, वहां तक पहुंचते पहुंचते मन बिलख उठता था। बरबस जुबां पर मदर इंडिया फिल्म का यह दर्द भरा नगमा दुनिया में अगर आये हैं, तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा....आ जाता था।

            कहां तो  छात्र जीवन में धूप में घर से बाहर बिना छाता लिये निकलने नहीं दिया जाता था। हिदायत मिलती थी कि चाहो तो रिक्शा कर लेना। और अब जीवन के सबसे बड़े  संघर्ष में मैं अपनों से काफी दूर अनजाने शहर में सड़कों को नाप रहा था, तो कहां कोई साथी था। फिर भी गजब का उत्साह था मुझमें । शायद आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर होने का जोश हो । यह भी जानता था की यहां दादी जी की दुकान पर अमृत तुल्य भोजन मिलना तो तय ही है। जब भी बनारस की बस छूट जाती थी। और बारी सामने स्थित रेलवे स्टेशन पर रात गुजारने की आती थी, तो  रात्रि मैं उनके यहां विश्राम अब तो कर ही सकता था।

          यह अस्थायी शरण स्थल मेरे लिये और मेरी पत्रकारिता के लिये भी कितना उपयोगी निकला, वर्ष भर बाद मुझे तब समझ में आया जब मुकेरी बाजार वाली दादी जी ने मुझे अपना एक और पुत्र ही मान लिया। फिर तो कष्टकारी बनारस के रात्रि सफर से मैं मुक्त हो चला। ये नयी वालीं दादी जी के यहां मुझे अपने घर से भी अधिक स्वादिष्ट भोजन के साथ ही रात्रि शरण लेने के लिये स्थान जो मिल गया। अपने यहां उन्होंने मुझे रख लिया। सो, अगले दिन सुबह मैं बनारस जाने लगा। सच कहूं तो शरण स्थल का यही तो प्रभाव है कि यदि हम स्थान का चयन सही करेंगे, तो वह स्थान आपको ऊर्जावान बनाता रहेगा । आज भी मेरी स्मृति में उस वाराणसी में रहते हुये उस आश्रमसुख की याद बरबस आ गई । जहां पहुंच कर कुछ महीनों के लिए मेरा जीवन ही बदल गया था।  लेकिन इस पथिक को तो लम्बा सफर तय करना है, काफी भटकना है । सो , मन की चंचलता मुझे आश्रम से बाहरी दुनिया में फिर से रिश्तेदारों के दरवाजे तक ले गई। उस आश्रम जीवन की दिव्यता की चर्चा फिर कभी करुंगा। आज रात्रि के 12 बज चुके हैं। अतः सभी को शुभ रात्रि मित्रों।

क्रमशः

Monday 19 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
आत्मकथा

19/3/18

सोच रहा हूं कि अपने बारे में लेखन कार्य का विचार मन में पहले क्यों नही आया। कुछ लिखता तो चिन्तन शक्ति बढ़ती। पूर्व में जाने अनजाने में की गई गलतियों से सबक लेता।। पर मैं सिर्फ मरा-कटा, हत्या, दुराचार और राजनीति पर बड़ी बड़ी खबरें लिखता रह गया। हां जन समस्याओं को भी बखूबी उठाया हूं। जिस दौरान मित्र कम शत्रु अधिक बना लिया । तभी तो कुछ मित्रों ने ही लंगड़ी मारने के लिये मुकदमे में फंसा दिया है मुझे । क्यों कि सच सुनना किसे पसंद है। और आज की पत्रकारिता चाटूकारिता भरा व्यापार बन कर रह गई है। इस भंवरजाल से सहज ही निकला नहीं जा सकता है।  परंतु मैं तो अपने बारे में सच सच लिख ही सकता था। समाज को आईना दिखलाता रहा , पर अपने अन्तर्मन में नहीं झांका।  और अब जब आत्मकथा लिख रहा हूं, तो की गयी गलतियां एक एक कर मन मस्तिष्क को बोझिल बनाते जा रही हैं। हालांकि लेखनी के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति से मन का बोझ हल्का भी हो रहा है। आत्मबल बढ़ रहा है और वैराग्य भाव की ओर आकर्षण भी। चलों इतना तो अच्छा हुआ ही,  एकाकी जीवन से बाहर निकल मोबाइल के स्क्रीन पर मैं अपने लिये कुछ तो टाइप कर रहा हूं। संग्रह कर रहा हूं। शेयर कर रहा हूं और पोस्ट भी। ओ कहा गया है न कि इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल... । तो साहब मैं बोल तो नहीं लेखन संग्रह कर रहा हूं।

       अब जो सबक मैं अपने अनुभवों के आधार पर आपसे सांझा करने जा रहा हूं। वह है लक्ष्य के मध्य कोई मोह नहीं होना चाहिए। मोह चाहे वस्तु का हो, व्यक्ति का हो अथवा अपनी पहचान का ही क्यों न हो। सोचे जरा आवश्यकता अनुसार सवारी हम नहीं बदलेंगे तो फिर गणतव्य तक कैसे पहुंचेंगे। मैंने भी यही गलती की । वह यह रही कि एक ही समाचार पत्र का आश्रय लिया रहा। उसे ही अपना रंगमंच समझ बैठा। नहीं, तो उस दौर में मेरे परिश्रम से हर प्रमुख समाचार पत्र के स्थानीय जिला प्रतिनिधि प्रभावित थें। जब यहां वर्ष 1994 में आया तो समय कोई मोबाइल फोन नहीं था, न  ही फैक्स मशीन । बाद में  दैनिक जागरण  प्रतिनिधि के पास फैक्स मशीन आ गयी। बाकी अन्य लोग तारघर अथवा एक धनाढ्य राजनेता/ कालीन निर्यातक के यहां से फैक्स भेजते थें। लैंडलाइन से बिल काफी उठता था। उस दौर में भी मैं समाचार संकलन के क्षेत्र में किसी से पीछे नहीं था। अन्य पत्रकार कहते भी थें कि  साइकिल से तुम कहां कहां कैसे चले जाते हो। समाचार संकलन, उसे  ईमानदारी से निष्पक्ष भाव से लिखना, अखबार लाना और फिर उसका वितरण तभी से आज तक मैं करते ही आ रहा हूं। न अपने न ही अपनों के बारे में हाल खबर रखने का फुर्सत तब मुझे मिला और न ही अब। खैर मेरे इसी श्रम को देख दैनिक जागरण का स्थानीय कार्यालय जब अस्तित्व म़ें आया, तब भी मुझे अवसर दिया गया था, बार बार कहा जा रहा था कि शशि वहां नहीं तुम्हारा भविष्य यहां बड़े समाचार पत्रों में है और फिर  उसके बाद जब अमर उजाला तथा हिंदुस्तान की पहचान बढ़ी , तो बाद में उनके दफ्तर में भी मेरी पूछ थी ही। मैंने कुछ लोगों की नियुक्ति की सिफारिश तक की। वे मुझे चाहते थें और मैं गांडीव नहीं छोड़ना चाहता था। क्यों वह मेरी पहचान ,मेरी कर्मभूमि , मेरा रंगमंच सभी कुछ तब तक बन गया था। उस समय के अपने कार्यालय के सभी वरिष्ठ कनिष्ठ सदस्यों से मेरा लगाव बन गया था। सच पूछे तो वे ही मेरे अभिभावक बन गये थें। सरदार जी, डाक्टर साहब, अत्रि जी इन तीनों वरिष्ठ जनों को मैं अंकल ही कहता था। वहीँ मधुकर जी एवं सत्येंद्र जी मेरे हर समाचार को सुधार कर यह बतलाते रहते थें कि किन शब्दों का प्रयोग कहां पर सटीक रहेगा । तब संस्थापक सम्पादक जी आदरणीय डा०भगवान दास अरोड़ा जी, संपादक राजीव अरोड़ा जी और शशिधर सर का भी आशीर्वाद मिला। तो यहां मीरजापुर में भी गांडीव में खरी- खरी बातें लिखने से मेरी बड़ी पहचान हो गई थी।(शशि)
क्रमशः

आत्मकथा 18 मार्च


जीवन की पाठशाला
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18/3/18

      चलों एक कार्य तो इस वर्ष मेरे हित में बहुत अच्छा यह हुआ कि विचलित मन की स्थिति को वैराग्य भाव की ओर बढ़ाने के लिये एक बड़े मोह का बंधन टूटता दिखा। चाहे घर-परिवार अपना हो अथवा मित्र- बंधु और शुभचिंतकों का, उनसे जुड़े होने का भी मोह तो होता ही है, जिससे मैं अब पूर्ण मुक्त हो गया हूँँ। जहाँँ अपना आशियाना था, जहाँँ भोजन करता था और जहाँँ परिवार के सदस्य की तरह होने के कारण एक फैमिली मेंबर की तरह ही तो था, वह स्थान अब अपना नहीं रहा। जब कभी किसी कारण भोजन नहीं किया, समय से घर (यही कहेंगे न)  पर नहीं पहुँँचा, तो स्वाभाविक है कि कहाँँ हैं, इतना तो पूछा ही जाता था। परंतु जहाँँ था, उनके पुत्र की शादी होने को हुई और फिर तब मुझे नये शरणस्थली की चिंता होने लगी। इस समस्या को चंद्रांशु भैया ने दूर कर दिया है। मैं उनके होटल में आ गया। गृहस्थी के ढेरों सामान जिसे वर्षों पूर्व कभी यह सोच कर खरीदा था कि  कभी अपना भी एक छोटा-सा आशियाना होगा ही, अब जब वह दिन आया ही नहीं, तो फिर इनका क्या प्रयोजन था। सो, अधिकाशं सामान हटा दिया और जो शेष बचा है, उससे भी मुक्त होना चाहता हूँँ। जितनी आवश्यकता सीमित होगी, मन का भटकाव उतना ही कम होगा । प्रथम आसान सीढ़ी इसके लिये मेरे विचार से भोजन है। तो मैंने  इस पर भी अंकुश लगा ही लिया हूँँ , यानी कि निश्चय कर  लिया कि दिन में दूध - दलिया और रोटी - सब्जी ही लूँँगा, रात्रि में इसकी जगह कोई हल्का आहार ले लूँँगा । सारे स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को मैंने लगभग त्याग ही दिया । लेकिन, तब जब मैं मीरजापुर आया तो अनेकों सपने जवां थें...
हाँँ, तो अपनी आत्मकथा में कल बात मीरजापुर में शरणस्थली की तलाश की कर रहा था।
   किन्तु आज की तरह तब  यह नहीं गुनगुनाता था कि मुसाफ़िर हूँँ यारों न घर है न ठिकाना, मुझे बस चलते जाना है...
   जबकि उस समय अपरचित शहर और अपरिचित लोग थें। किससे कहता कि  रात्रि गुजारने के लिये स्थान चाहिए। लॉज-धर्मशाला में पहले कभी ठहरा नहीं था। नियति का जरा खेल देखें की जिस युवक के अनेक धन सम्पन्न रिश्तेदार कई प्रांतों में हो। जिसका प्रथम पाठशाला कोलकाता के सबसे महंगे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में से एक रहा हो। वह व्यक्ति  मीरजापुर की सड़कों पर पैदल ही " गांडीव- गांडीव " की पुकार लगा रहा था। उसके पास रात्रि में सिर छुपाने के लिये  इस शहर में कोई स्थान नहीं था। यदि बस कभी 12 बजे रात बनारस पहुँँची, तो रात बिन भोजन ही गुजारना पड़ता वहाँँ अपने ही घर पर।
   ऐसे में आशा की किरण बनी यहाँँ मीरजापुर में स्टेशन रोड वाली दादी जी( अब स्वर्गीय)।
 -शशि गुप्ता

क्रमशः



Sunday 18 March 2018

व्याकुल पथिकःआत्मकथा

जीवन की पाठशाला
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18/3/18

      चलों एक कार्य तो इस वर्ष मेरे हित में बहुत अच्छा यह हुआ कि विचलित मन की स्थिति को वैराग्य भाव की ओर बढ़ाने के लिये एक बड़े मोह का बंधन टूटता दिखा। चाहे घर-परिवार अपना हो अथवा मित्र- बंधु और शुभचिंतकों का, उनसे जुड़े होने का भी मोह तो होता ही है, जिससे मैं अब पूर्ण मुक्त हो गया हूँँ। जहाँँ अपना आशियाना था, जहाँँ भोजन करता था और जहाँँ परिवार के सदस्य की तरह होने के कारण एक फैमिली मेंबर की तरह ही तो था, वह स्थान अब अपना नहीं रहा। जब कभी किसी कारण भोजन नहीं किया, समय से घर (यही कहेंगे न)  पर नहीं पहुँँचा, तो स्वाभाविक है कि कहाँँ हैं, इतना तो पूछा ही जाता था। परंतु जहाँँ था, उनके पुत्र की शादी होने को हुई और फिर तब मुझे नये शरणस्थली की चिंता होने लगी। इस समस्या को चंद्रांशु भैया ने दूर कर दिया है। मैं उनके होटल में आ गया। गृहस्थी के ढेरों सामान जिसे वर्षों पूर्व कभी यह सोच कर खरीदा था कि  कभी अपना भी एक छोटा-सा आशियाना होगा ही, अब जब वह दिन आया ही नहीं, तो फिर इनका क्या प्रयोजन था। सो, अधिकाशं सामान हटा दिया और जो शेष बचा है, उससे भी मुक्त होना चाहता हूँँ। जितनी आवश्यकता सीमित होगी, मन का भटकाव उतना ही कम होगा । प्रथम आसान सीढ़ी इसके लिये मेरे विचार से भोजन है। तो मैंने  इस पर भी अंकुश लगा ही लिया हूँँ , यानी कि निश्चय कर  लिया कि दिन में दूध - दलिया और रोटी - सब्जी ही लूँँगा, रात्रि में इसकी जगह कोई हल्का आहार ले लूँँगा । सारे स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को मैंने लगभग त्याग ही दिया । लेकिन, तब जब मैं मीरजापुर आया तो अनेकों सपने जवां थें...
हाँँ, तो अपनी आत्मकथा में कल बात मीरजापुर में शरणस्थली की तलाश की कर रहा था।
   किन्तु आज की तरह तब  यह नहीं गुनगुनाता था कि मुसाफ़िर हूँँ यारों न घर है न ठिकाना, मुझे बस चलते जाना है...
   जबकि उस समय अपरचित शहर और अपरिचित लोग थें। किससे कहता कि  रात्रि गुजारने के लिये स्थान चाहिए। लॉज-धर्मशाला में पहले कभी ठहरा नहीं था। नियति का जरा खेल देखें की जिस युवक के अनेक धन सम्पन्न रिश्तेदार कई प्रांतों में हो। जिसका प्रथम पाठशाला कोलकाता के सबसे महंगे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में से एक रहा हो। वह व्यक्ति  मीरजापुर की सड़कों पर पैदल ही " गांडीव- गांडीव " की पुकार लगा रहा था। उसके पास रात्रि में सिर छुपाने के लिये  इस शहर में कोई स्थान नहीं था। यदि बस कभी 12 बजे रात बनारस पहुँँची, तो रात बिन भोजन ही गुजारना पड़ता वहाँँ अपने ही घर पर।
   ऐसे में आशा की किरण बनी यहाँँ मीरजापुर में स्टेशन रोड वाली दादी जी( अब स्वर्गीय)।
 -शशि गुप्ता

क्रमशः

Saturday 17 March 2018

व्याकुल पथिक


व्याकुल पथिक

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
17/3/18

जब से सोशल मीडिया का उदय हुआ है, ज्ञान , विज्ञान , वैराग्य सभी कुछ गुड मार्निंग और गुड नाइट की तरह शेयर हो रहा हैं । लोग दूसरों के विचारों को पोस्ट कर ज्ञानी ध्यानी बन जा रहे हैं। परंतु ऐसे पोस्ट पर कितनों का ध्यान जाता है। हां,व्हाट्सएप स्क्रीन का चिन्ह नीला जरुर हो जाता है।  वहीं आप अपना लिखा कुछ पोस्ट कर के देखें कभी। दोनों में फर्क समझ में आ जाएगा। इसी लिये पत्रकारिता के क्षेत्र में जब मैं इसका ककहरा भी नहीं जानता था, तो भी नकल मार कर कोई खबर लिखना मुझे मंजूर नहीं था। उस दौर में  प्रेसनोट वाली पत्रकारिता बहुत कम होती थी। सच कहूं, तो उस समय की पत्रकारिता सच्चाई के इर्द गिर्द होती थी। समाचार और विचार दोंनों अलग अलग रखे जाते थें। लेकिन, मुझे यह पसंद नहीं था। सो, मैंने जब भी लिखा,जो भी लिखा, वह  समाचार और विचारों का घालमेल था। इसी तरह की लेखनी से ही मेरी स्वयं की पहचान बनी है। अन्यथा उस दौर में जो पत्रकार थें ,उनकी लेखनी से आलाअधिकारी भी घबड़ाते थें। एक नादान बालक सा मेरी क्या औकात। फिर भी वरिष्ठ पत्रकारों के सानिध्य में बहुत कुछ सीखा। इसी से अखबार की दुनिया में करीब ढाई दशकों के संघर्ष में मुझे जो पहचान ,सम्मान और अपनापन यहां मिला। वाराणसी में मास्टर साहब का पुत्र कहला कर शायद ही पाता। विंध्य  क्षेत्र है यह ,बाहरी लोग यहां तप करने ही तो आते हैं। सो, यदि यह सोच कर आंखें नम करूँ कि एक ही रंगमंच पर इतने लम्बे समय तक सबकों छोड़,  हर सम्बंधों से दूर अभिनय करता रहा। तो मन की इस व्याकुलता को शांत करने के लिये इसे तपोस्थली समझ नमन कर लेता हूं। मेरी इस पीड़ा का अनुमान आप युवा काल में मेरे मुस्कुराते चेहरे को देख शायद ही लगा पाए हो। एक कुशल विदूषक( जोकर ) का पहला पाठ यही तो होता है न ! जिसमें मेरा अभिनय अच्छा रहा। वैसे, जब मैं मीरजापुर आया था, तो यह बिल्कुल भी नहीं समझ पाया था कि नियति मुझे कहां खींच लाई है। मैं खुश इस लिये था कि चलों  मुझे किसी की अधिनता नहीं स्वीकार करनी पड़ी। मीरजापुर में अखबरा बिका न बिका , लाभ हानि की कोई चिन्ता उतनी नहीं थी। फिर भी पैदल ही जब शास्त्रीपुल से लेकर अखबार बांटते हुये रात्रि स्टेशन रोड बनारस बस स्टैंड पर पहुंचता था, तो धड़कनें बढ़ी रहती थीं  कि आखिरी बस न छूट जाए। यहां से पीलीकोठी , वाराणसी उतरता था। बस तूफान हो या मेल साढ़े 11 तो बज ही जाते थें। घर की राह में एक जगह ढाबे पर भोजन कर जब 12 बजे दरवाजे पर दस्तक देता , तो परिवार के सदस्यों का नींद टूट जाता था। उनका भाव समझ गया मैं। वैसे भी मेरा अखबार बांटना भला पसंद घर पर कौन करता। उनके सम्मान पर कलंक जो मैं बन गया था। सो, देर रात दरवाजा खोलने में घरवालों को परेशानी होने लगी। और उनके इस कष्ट को देख घर के प्रति मेरा वैराग्य भाव और प्रबल हो उठा । मैं भी घर न जाना पड़े, मीरजापुर पहुंच कर इस विकल्प की तलाश में जूट गया।(शशि)

क्रमशः

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
14/3/18


जिस व्यक्ति ने कभी किसी की आत्म कथा पढ़ी ही न हो, वह भला अपनी कहानी क्या लिख सकता है। विश्वास कीजिए मैं, तो अखबार के पन्ने भी ठीक से नहीं पलट पाता हूं। सुबह साढ़े 5 बजे जो उठा, तो फिर रात्रि में घड़ी की सूई 12 पर जाना तय है। लोग पूछते है कि भाई तुम फिर दिन भर करते ही क्या हो। घर गृहस्थी का भी तो बोझ नहीं उठाते हो, फिर भी व्याकुल हो।जब समाज में रह कर भी आप किसी के दुख सुख में शामिल न होंगे, तो उलहना सुनना पड़ेगा ही । सम्भवतः इसी पीड़ा ने मुझे लेखक बना दिया है। जो दर्द वर्षों से सीने में दबाये रखा । आंखों की नमी छुपाये, मुस्कुराने का अभिनय करता था। मानों, वही शब्द बन गये हो। पता नहीं कब इस जीवन का संध्याकाल आ जाए, याददाश्त साथ छोड़ने लगे और फिर अलविदा कहने वाली वह रात भी आ जाए !
    तो बात रोटी की तलाश में भटकते हुये वाराणसी के सांध्य दैनिक गांडीव के दफ्तर तक दस्तक देने की कर रहा था। कैसी विडंबना थी, जब कोलकाता में था ,तो आगे पीछे नौकर चाकर हुआ करते थें और अब यह हाल...। जबकि बनारस में भी घर पर पापा का एक छोटा सा अपना स्कूल चलता था ही।पर दुनिया के मेले में मैं बिल्कुल अकेला था तब भी और अब भी। हां, बिल्कुल अंजाना नया रंगमंच आवाज लगा रहा था ,तुम सब छोड़ के आ जाओ ...। यहां गांडीव कार्यालय पहुंचने की भी मेरी विचित्र अड़ियल रवैया ही था। परिवार से अलग होने के बाद कहीं नौकरी मुझे रास नहीं आ रही थी। कोई उच्च शिक्षा की डिग्री तो थी नहीं और न ही मुझे अधिनता किसी का स्वीकार था। परिजनों ने निठल्ला समझ नाता पहले ही तोड़ लिया था और मैंने भी ठान लिया था कि इस बार शरण लेने नाते रिश्तेदारी में नहीं जाना है। किसी के समक्ष हाथ फैलाना न तो तब मेरा स्वभाव था न ही अब है । भले ही भोजन के अभाव में कुछ दिन गुजरे हो। खैर माध्यम मिला और तब गांडीव में सरदार जी से मुलाकात हुई।ठीक से याद नहीं है, पर शायद वर्ष 1994 की बात है , तब चालीस रुपये रोज पर (नौकरी नहीं) मेरे समक्ष लक्ष्य रखा गया कि प्रतिदिन शाम को गांडीव ले कर वाराणसी से बस से मीरजापुर जाऊं और जो भी अखबार रात्रि में वहां वितरित कर सकूं, उसे कर वापसी बस पकड़ लौट आऊं। समाचार संकलन के लिये भी कह दिया गया। अब भला मैं क्या जानूं कि खबर कैसे मिलती है। तो बताया गया कि किसी प्रमुख चाय की दुकान पर वहां जाकर बैठा करों कुछ देर। लेकिन मेरा समस्या यह रही कि साढ़े चार बजे शाम अखबार गांडीव कार्यालय से लेकर पीलीकोठी बाद के दिनों म़े कैंट डिपो जाना । वहां से औराई और फिर जीप से मीरजापुर आना । महीनों इस अनजान शहर में मैं पैदल ही अखबार बांटता रहा। रात्रि नौ बजे स्टेशन रोड से बस पकड़ पीलीकोठी उतरता। स्वभाविक है कि घर पहुंचते पहुंचते रात्रि में घड़ी की सूई आपस में जुड़ जाती थीं। मेरी पहचान भी बदल गई। कहां बनारस में मैं मास्टर साहब का लड़का है, यह कहा जाता था और यहां ? अन्य हॉकरों से बिल्कुल अलग महंगे शूट पैंट और जूते में सड़कों पर गांडीव गांडीव की आवाज लगाते देख लोग चकित से हो जाते थें। बड़े बुजुर्ग स्नेह वश बुलाकर घर ठिकाना पूछने लगते थें। उन्हें लगता हो कि लड़का तो अच्छे घर का दिख रहा है, कहीं भाग के तो नहीं आया। (शशि)

क्रमशः

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
(आत्मकथा)

तो मै कह रहा था कि एक  बुजुर्ग ग्रामीण मेरे घर तब आया था,जब मैं हाईस्कूल में था। रात्रि 11 बजे मुझे बॉयोलॉजी से जुड़ा चित्र बनाते देख, उन्होंने मेरी हस्तरेखा देखी, फिर तपाक से कह दिया कि विद्या रेखा तो तेरे पास है ही नहीं ! दरअसल , जब मैं रात साढ़े दस बजे के बाद पढ़ता था,तो अभिभावक टोक देते थें कि लाइट बंद कर दो। पर भला मैं कहां मानता था। हो सकता है , जो सज्जन आये थें, इसी कारण उत्सुकता वश उन्होंने मेरे हाथ की रेखाओं पर नजर डाली हो। वैसे, मैं इन भाग्य रेखाओं में विश्वास तो तब भी नहीं करता था और अब भी ना ही कहूंगा। भले ही उक्त सच्चन का कथन सत्य हुआ । हाईस्कूल में काफी अच्छा रिजल्ट होने के बावजूद भी पढ़ाई छोड़ मुझे मौसी के घर जाना पड़ा। इसी में एक वर्ष बर्बाद हो गया। और तब जाकर पुनः बनारस आ कर इंटर किया। परिवार का साथ नहीं मिलने से पुनः आगे की शिक्षा छोड़ देनी पड़ी। सो, आज भी सोच में पड़ जाता हूं कि एक अनाड़ी सा दिखने वाला ग्रामीण कितनी आसानी से मेरी बर्बादी की भविष्यवाणी कर गया।

( शशि)13/ 3/18

क्रमशः

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
( आत्मकथा)
मेरे पत्रकारिता के क्षेत्र में आने की दास्तान भी कम रोचक नहीं है।नियति मुझे कहां से कहां ले आई। जन्म सिल्लीगुड़ी में हुआ। और इसके बाद कोलकाता, वाराणसी, मुजफ्फरपुर, कलिंगपोंग से होते हुये यहां तपोस्थली विंध्यक्षेत्र में चला आया  अपना कर्म करने। सच कहूं तो मैं भी यहां तप ही रहा हूं, यह जरुरी नहीं है कि हर साधक की तपस्या सफल हो। फिर भी  दुनिया के मेले में यहां अकेले ही रंगमंच पर अपनी भूमिका को बखूबी निभाने की कोशिश कर रहा हूं। कुछ लोगों ने राह में अल्प समय के लिये अपनापन दिखलाया, परंतु वह मेरा भ्रम रहा। ठोकर लगा तो फिर से सारा मेला पीछे छूट गया। परंतु मैं "रास्ते का पत्थर किस्मत ने मुझे बना दिया"  ऐसे दर्द भरे नगमे तो कतई नहीं गुनगुना चाहता हूं। क्योंकि यदि इन सांसारिक मोह पाससे मुक्ति पाना है, तो विरक्त भाव से  "चिदानंद रूपः शिवोहम" जरा इस मन को कहने दो। इसका अपना ही आनंद है। नश्वर संसार का यही सत्य है। जब कभी भी मन शांत रहता है, तो इसका एहसास कितना सुखद होता है, मैं बतला  नहीं सकता । काश! इसी स्थिति में हमेशा रह पाता। जब घर गृहस्थी नहीं है, तो तमाम प्रयोजन से क्या मतलब। यह विषय लम्बा है। अपनी बात किशोरावस्था से शुरू करुं , तो हाई स्कूल की परीक्षा का जब परिणाम आया, गणित में 98 फीसदी अंक की प्राप्ति पर मैं कुछ अधिक ही हर्षित था। हमारे अध्यापक और अभिभावक भी। पापा को मुझसे ढेरों उम्मीद थी। वो क्या बोल है पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा , ऐसी उम्मीद अभिभावकों को मुझसे थी। सभी कहते थें कि लड़का आगे जाएगा। परंतु आज भी याद है कि एक ग्रामीण व्यक्ति मेरे घर आया, जब मैं हाईस्कूल की परीक्षा की तैयारी कर रहा था। बायोलॉजी से जुड़ा कोई चित्र बनाने का अभ्यास प्रैक्टिकल हेतु देर रात तक कर रहा था। क्यों मेरे टीचर को मुझ पर इतना विश्वास था कि वह प्रैक्टिकल के दौरान आये एक्जामिनर से यहां तक कह बैठें कि इस लड़के से कोई भी सम्बंधित चित्र बनाने को कह दें, वह निराश नहीं करेंगा और न ही चित्र बनाने के लिये किसी पुस्तक  का पन्ना ही पलटेगा। परंतु होनी को कुछ और मंजूर था। कहां तो आसमां छूने की ख्वाहिश थी । एक गीत "आशा मेरी आशा ....आसमां को छूने की आशा" आज भी मुझे बहुत कर्णप्रिय लगता है। परंतु परिवार में कटुता कुछ ऐसी बढ़ी की बनारस से कोलकाता अपने ननिहाल चला गया। वहां से मौसी के यहां मुजफ्फरपुर । एक वर्ष इसी तरह बेजा चला गया। फिर बनारस आया और इंटर किया। संबंधों में दरार के कारण दादी ने घर से दूर नानी के छोटे भाई के यहां कलिंगपोंग भेज दिया। वहां उनकी तब सबसे नामी मिठाई की दुकान थी। कोई एक डेढ़ वर्ष  रहा वहां। पहाड़ों पर युवावस्था में थिरकता रहा। कभी कभी सिलिगुड़ी भी चला जाता था। पैसे का लोभ तब भी मुझे नहीं था।  उसी
 बीच पापा मम्मी  फिर वहां आये और मैं वापस बनारस चला आया । वहां घर पर कुछ दिनों बाद फिर से वही तनातनी शुरू।तो एक आश्रम में कुछ दिन समय गुजारने के बाद मुजफ्फरपुर होते हुये पुनः कलिंगपोंग और फिर से बनारस आ गया। परिवार में धन का अभाव तो नहीं था। एक छोटा सा विद्यालय भी घर में चलता था। परंतु अपना हाथ खाली था। रोटी के जुगाड़ में कुछ दिनों इधर उधर भटका। लेकिन जीवन में बड़ा मोड़ सान्ध्य दैनिक समाचार पत्र गांडीव के कार्यालय पर पहुंच कर आया। कहां तो कलम पकड़ने नहीं आता था और कहां  पत्राचार / हॉकर बना कर इस अनजाने शहर में भेज दिया गया। वहां प्रेस में मेरे पिता तुल्य सरदार मंजीत सिंह ने मेरा मार्गदर्शन किया। गांडीव की एजेंसी दिलवाई और  मुझे यह रंगमंच मिल गया।
क्रमशः

विंध्याचल

विंध्यवासिनी देवी