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Sunday 4 November 2018

आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ..

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 यहाँ मंदिर पर बड़े लोग सैकड़ों डिब्बे  मिठाई दनादन बंधवा रहे हैं। ये बेचारे मजदूर तो ऊपरवाले का नाम ले, अपने मन की इच्छाओं का दमन कर लेते हैं , परंतु इन गरीबों के बच्चों को कभी आप ने दूर से टुकुर- टुकुर ताकते इन मिष्ठान्नों की ओर देखा है..? 
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हर मज़हब का एक ही कहना जैसा मालिक रक्खे रहना
जब तक साँसों का बंधन है जीते जाओ सोचो मत
कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत
सोच से ही सारी उलझन है जीते जाओ सोचो मत ...

     जैसा मालिक रखे ..?  धर्मग्रंथों तक में बयां कुछ ऐसी ही बातें आज भी पहेली है मेरे लिए। अरे जनाब !  कठपुतली और इंसान में फ़र्क होता है । हमारे पास मस्तिष्क है, हृदय है, भावनाएँ हैं, सम्वेदनाएँ हैं, अपना ईमान और कर्म भी है, फिर हम क्यों यह आकांक्षा न करें कि हमें भी हमारा उचित कर्मफल मिले..? यदि एक विद्यार्थी जो अपने जीवन में किये कठिन अध्ययन का कर्म फल अथार्त जीवकोपार्जन के लिये उचित आजीविका की व्यवस्था, जहाँ यदि निष्ठापूर्वक वहाँ अपनी सेवा दे रहा है तो उचित पगार , एक पत्नी  अपना सर्वस्व समर्पित करने के पश्चात पति के प्रेम,  एक पिता जिसने अपने पुत्र को अपने तप से स्वालम्बी बनाया , वह वृद्धावस्था में उससे थोड़ा सा स्नेह, सम्मान एवं दो वक्त की रोटी ,समाज जिसने हमे पहचान दी , वह हमसे उचित कर्म एवं राष्ट्र जिसकी माटी में हम पले-बढ़े वह संकट काल में अपने वीर सपूतों से रक्त (बलिदान) की आकांक्षा नहीं रखे, तो फिर इस सामाजिक ताने-बाने की क्या आवश्यकता है ..?  तृष्णा से ही हर भले बुरे कार्य सम्पन्न होते है । प्रणय, वैराग्य और सन्यास भी तो इसी तृष्णा की ही उपज है न..।  मैं तो इसी लौकिक जगत के में विश्वास रखता हूँ। मेरे लिये अलौकिक शब्द  सिर्फ काल्पनिकता है। जैसा कि मेरा बाल मन चाँद- सितारों में अपनी माँ को ढ़ूंढा फिरता है।
 अतः  उपदेशकों की जलेबी की तरह गोल- गोल बातें मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आती है ..।
    और न ही यह कि जैसा कर्म करेगा, वैस फल देंगे भगवान , यह है गीता का ज्ञान...
    मैं तो  इंसान को नियति का खिलौना मानता हूँ। धर्म- कर्म से इस निष्ठुर नियति को क्या मतलब।
     आज अपने शहर के कसरहट्टी इलाके से गुजर रहा था। देखा  पीतल के बर्तन बनाने वाले तमाम श्रमिक हाथ और पैर की एड़ी से भी बर्तन बनाने वाले पीतल के चादर को रगड़- रगड़ कर चमका रहे थें। इन्हीं में कुछ वृद्ध श्रमिक भी थें।  जिन्होंने होश सम्हालते ही इस क्षेत्र में आकर पापी पेट के लिये काम करना शुरू कर दिया था और अब उनके जीवन की चिमनी बुझने को है, सो भभक रही है। तन-मन- धन तीनों ही खो चुके हैं ऐसे बर्तन निर्माण करने वाले मजदूर , फिर भी बिल्कुल यंत्र मानव की तरह कार्य करते ही जा रहे थें , ये सभी। मेरा भावुक मन कांप उठता है , दुर्गा देवी मंदिर वाले इस मुहल्ले से होकर गुजरने से । जब साइकिल के पहिये ही आगे को बढ़ना नहीं चाहते हैं, यह सब देख कर ,तो बाइक और कार से चलने की अभिलाषा भला कहाँ से जगेगी..?
 सोच रहा हूँ कि इस बर्तन मंडी जैसे ही श्रमिकों एवं दीन हीन लोगों के अनेक ठिकाने हैं , इस दुनिया के मेले में , जहाँ के शोरगुल में इंसानियत का जनाजा यूँ ही खामोशी से निकलता रहता है..
    मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन
     आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ..

     कल धनतेरस है, सो इस दुर्गा मंदिर के बाहर बड़े से स्टाल पर देशी घी की तमाम तरह की मिठाइयाँ, काजू नमकीन सहित अन्य सामग्रियाँ सजी हुई हैं। बड़े लोगों की खरीदारी जारी है। यहाँ अपने शहर में दुर्गा पूजा और रामलीला कमेटियों से जुड़े आयोजक भी पांच दिवसीय दीपामाला पर्व पर मिष्ठान तैयार करवा प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों से अपेक्षाकृत कुछ कम मूल्य पर ब्रिकी किया करते हैं। फिर भी दुर्गा मंदिर के सामने ही बर्तन बना रहे तमाम श्रमिकों में से किसी को भी मैंने मंदिर के बाहर सजे इन महंगी मिठाइयों को खरीदते -खाते नहीं देखा। इन श्रमिकों की छोड़े मेरे जेब में स्वयं कभी इतना पैसा नहीं था कि मैं मंदिर पर जाता तो मुझे मिठाई मिल जाती , आधे मूल्य पर..। तब न समझ में आता कि  गरीबों के लिये भी मंदिर और रामटेक पर बिक रहीं मिठाइयों को खरीदने का विकल्प है। खैर, अब पहचान वाला पत्रकार हूँ, तो महंगी से महंगी मिठाइयों के अनेकों डिब्बे मेरे पास भी आते रहते हैं, परंतु मैंने स्वयं इनका त्याग कर दिया है, तो जो मिला उसमें से अधिकांश बांट देता हूँ।
     दूसरी और यहाँ मंदिर पर बड़े लोग सैकड़ों डिब्बे मिठाई दनादन बंधवा रहे हैं। बेचारे मजदूर तो ऊपरवाले का नाम ले, अपने मन की इच्छाओं का दमन कर लेते हैं , परंतु इन गरीबों के बच्चों को कभी आप ने दूर से टुकुर- टुकुर ताकते इन मिष्ठानों की ओर देखा है..? यही कहेंगे न कि कहाँ फुर्सत है भाई , यह सब देखने और सोचने की। अपने बीवी-बच्चे की डिमांड पहले पूरी करूँ कि  बेफिजूल की बातों में उलझा रहूँ। ठीक हो तो सोचते हैं सभी, अब " अपना परिवार " का मतलब यही तो है न कि मियां- बीवी और उनके बच्चे.. ?  जब अपना परिवार का दायरा ही इतना संकुचित हो गया है, तो फिर बाहरी दुनिया में कौन-कैसे जीवन व्यतीत कर रहा है , उसमें झांक ताक से क्या मतलब।जब भी मैं इस मंदिर के बगल वाली गली से गुजरात हूँ, तो एक ही प्रश्न मेर मन में हर बार उठता है कि कहाँ हैं, इनके भगवान..? दिन भर ये श्रमिक परिश्रम करते हैं , अपने कर्म पथ पर डटे हैं और इनमें से अनेक बुरी आदत से ग्रसित भी नहीं हैं। फिर क्यों इनके पास इतना धन नहीं हो पाता कि मंदिर के बाहर सजी देशी घी की ढ़ेरों मिठाइयों में से एक- दो किलो अपने परिवार के लिये भी खरीद लें। न कर्म में इनके कोई अवगुण है, न ही धर्म में। ये सभी इन भद्रजनों से कहीं अधिक निष्ठा एवं विश्वास से मंदिर के चौखट पर शीश नवाते हैं।
      जब हम  नियति का तमाशा हैं, कोई पैमाना नहीं है ,कुछ भी कर्मफल तय नहींं है,  तो फिर क्यों दैव- दैव पुकार नेत्रों से नीर बहाऊँ ,  इन उपासना स्थलों  पर ..??

     बचपन में यह सब बहुत किया, निष्काम भाव से किया, युवावस्था की और बढ़ा तो काशी में रह कर ब्रह्ममुहूर्त में नियमित  गंगा स्नान किया ,शिव मंदिरों में  अपने आराध्य देव को कमंडल से गंगा जल भी चढ़ाया और संतों के प्रवचनों पर भी कान दिया। फिर भी नियति के समय चक्र ने मुझे यतीमों से भी बदतर जीवन दे रखा है।
   जब सभी को तीज- त्योहार मनाते देखता हूँ, तो मेरे इस विकल मन की वेदना भी अनंत हो जाती है..

  पतझड़ सा जीवन है, प्यार की बहार दो
 प्यासी है ज़िंदगी और मुझे प्यार दो
 प्यार का अकाल पड़ा सारे ही जग में
 धोखे हुए हर दिल में, नफ़रत है रगरग में
 सब ने डुबोया है मुझे, पार तुम उतार दो
 मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम सँवार
 दो प्यासी है ज़िन्दगी तुम मुझे प्यार दो ...
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   यह नियति कितना निष्ठुर है, ऊपर पोस्ट मेरा यह समाचार फुर्सत से आप भी पढ़े , फिर विचार करें...!!


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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