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Friday 23 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

आत्मकथा

23/3/18

आज शहीद दिवस है। मेरी इच्छा रही कि एक बार फिर से  भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांति और विचारों को और करीब से जाना जाए । उस युवा तेज को नमन करने से पूर्व उनके चिन्तन को समझना जरुरी है। पर मेरा दुर्भाग्य यह है कि सुबह सवा 5 बजे से रात्रि कम से कम 12 बजे तक इधर उधर का काम करने के बावजूद अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये कोई समय नहीं है मेरे पास। रात्रि 11 तो पेपर बांटने में ही बज गया है। इसके बाद दिन भर की थकान का असर यह रहता है कि नींद की देवी आगोश में लेने को आतुर है। ऐसे में सलीम भाई द्वारा पोस्ट किये भगत सिंह के आखिरी पत्र  को पढ़ कर ही ,उन्हें मन ही मन नमन कर ले रहा हूं। हां , अपने पत्र में उन्होंने जो अंतिम इच्छा जताई थी। जिसके  लिये ये पढ़े लिखे तेज और संस्कार से पूर्ण युवक हंसते हुये फांसी पर जा लटके थें। उनकी इस अंतिम इच्छा का जो परिणाम सामने है, उसे देख मेरे मन की व्याकुलता बढ़ गई है।

  क्योंकि भगत सिंह चाहते थें  कि उन्हीं के शब्दों में...

" दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी पर चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्रज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।"


 पर जाहिर है कि आजाद भारत में स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है।  ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो ये अमर क्रांतिकारी चाहते थें। आज के अभिभावक भौतिकवाद का लबादा इस तरह अपने बच्चों पर लादते जा रहे है कि सोच अब उनकी यह हो गई है कि पड़ोसी का बच्चा  भले ही भगत सिंह बने , पर हमारा लाल किसी भी जुगाड़ से टाटा , बिरला और अंबानी  बन जाए। थोड़ा ठहर कर सोचता हूं, तो लगता है कि हमारे पत्रकारिता जगत में भी तो यही सब हो रहा है। ढ़ाई दशक पूर्व जब मैं इस क्षेत्र में आया तो कलम की धार परखी जाती थी और अब पैसे की ताकत....।  इसी कारण जिस रंगमंच पर मैं खड़ा हूं, आसपास कोई नहीं है। परिवार का हर सुख एक एक कर पीछे छुटते चला गया । हर रिश्ते बिखर गये। जब अपनों के यहां शहनाई बजे या अर्थी सजे , उससे इस रंगमंच पर आने के बाद मेरा कोई वास्ता ही नहीं रहा, तो फिर आप किसी से संबंध की चाहत कैसे रख सकते हैं।  कभी कभी सोचता हूं कि चलों अच्छा ही है कि घर परिवार नहीं है यहां । यदि होता तो अपनों की नजर में और भी लज्जित होना पड़ता। क्यों मेरा हाल यह है कि एक कुशल हॉकर से ऊपर उठ कर एक श्रमिक पत्रकार बना तो जरूर, परन्तु साथ ही चुनौती बढ़ती ही चली जा रही है। पहले साढ़ नौ बजे तक अखबार बांट कर खाली हो जाता था। अब रात्रि 11 बज रहे हैं।  फिलहाल, बात मेरे हॉकर बनने कि हो रही थी।  तो जिस शख्स ने मेरे लिये घर -दुकान जाकर गांडीव लेने का अनुरोध किया , वे हैं लल्लू राम मोदनवाल जी।  इन्होंने ही मुझे उस समय के बड़े व्यापारी नेता दीपचंद्र जैन जी से मुलाकात करवाई थी। सच कहूं तो यह जैन साहब की ही देन है कि तमाम व्यापारी गांडीव लेने लगे थें और उनका स्नेह भी मिला। (शशि)

क्रमशः