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Wednesday 12 September 2018

विलायती बोलीः बनावटी लोग

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   हमारे संस्कार से जुड़े दो सम्बोधन शब्द जो हम सभी को बचपन में ही दिये जाते थें , " प्रणाम " एवं  " नमस्ते " बोलने का , वह भी अब किसमें बदल गया है, इस आधुनिक भद्रजनों के समाज में...
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     सान्ध्य दैनिक गांडीव में प्रकाशित
      हिन्दी दिवस पखवाड़ा पर अपने जनपद में कुछ विशेष कार्यक्रम होते तो नहीं दिखा , क्यों कि हिन्दी गंवारों की भाषा हो गयी हैं और तथाकथित भद्रजनों ने विलायती बोली, संस्कार एवं परिधान की ओर कदम बढ़ा रखा है। हम हिन्दी भाषी उनके पीछे दौड़ रहे हैं।  विद्यालयों के नाम के आगे कान्वेंट लिख देने से, उसका नाम ऊँचा हो जाता है, भले ही दुकान फीकी क्यों न हो ? किसी आयोजन में महिला ने अंग्रेज़ी में दो- चार शब्द बोल क्या दिये, वह विलायती मैम हो गयी और जिस बच्चे ने अंग्रेजी में कविता सुनाई थी , देखें न कितनी तालियाँ बजी उस पर... और हिन्दी का झंडा उठाने वाले मासूम बच्चे किस तरह से सिर झुकाएँ जमीन की ओर नजर टिकाये रहते हैं। कभी देखा आपने, पर इस वेदना से मैं गुजरा हूँ ।
   अपने मीरजापुर की बात करूँ तो  हिन्दी नवजागरण काल में भारतेंदु मंडल का केंद्र रहा  यह जनपद । यहीं नगर के  तिवरानी टोला स्थित प्रेमघन जी की कोठी पर  भारतेंदु बाबू , आचार्य रामचंद्र शुक्ल, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' एवं राजेंद्र बाला घोष( बंग महिला) जो कि प्रथम हिन्दी कहानी लेखिका हैं ,का जमघट लगता था। पं० मदनमोहन मालवीय जी का भी इसी कोठी पर आगमन हुआ है। जबकि इसी नगर के गऊ घाट महादेव प्रसाद सेठ का  मतवाला प्रेस था। रमईपट्टी से आचार्य रामचंद्र शुक्ल और चुनार से बेचन शर्मा 'उग्र' यहीं तो आते थें।  सुप्रसिद्ध इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल भी इसी लालडिग्गी के ही थें। बंग महिला इसी सुंदरघाट की यहीं। इनके पश्चात पुनः लगभग ढ़ाई- तीन दशक बाद समालोचना के क्षेत्र में  डा० भवदेव पांडेय ने मीरजापुर को गौरवान्वित किया था।
       काशी से मीरजापुर तक इन महान हिन्दी साधकों की कर्मभूमि को नमन करने का मुझे भी सौभाग्य प्राप्त है। इसी कारण ब्लॉग पर वरिष्ठ जनों की हिन्दी भाषा से संदर्भित रचनाएँ देख कर मेरा भी हिन्दी प्रेम जाग उठा साथ ही कुछ ग्लानि भी हुई कि एक हिन्दी समाचार पत्र का ढ़ाई दशक से जनपद प्रतिनिधि हूँ, फिर भी कलम कहीं-कहीं अटक ही जाती है, अपनी भाषा को लेकर । अतः जब से ब्लॉग पर आया हूँ, हर सम्भव यह प्रयास कर रहा हूँ कि और अधिक शुद्ध हिन्दी लिख सकूं। अभी पिछले ही दिनोंं प्रमुख ब्लॉग " पांच लिकों का आनंद" में खड़ी हिन्दी के जनक बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र  के संदर्भ में सुन्दर रचनाएँ पढ़ने को मिली।  तो मैंने भी सोचा की काशी से मीरजापुर की अपने जीवन यात्रा में हिन्दी की उपयोगिता पर क्यों न एक संस्मरण ही लिख मातृभाषा के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करूँ। परंतु किस तरह  एवं किस अधिकार से , जब मैंने   पत्रकारिता में आने से पूर्व तक अपनी मातृभाषा के प्रति गंभीरता दिखाई ही नहीं हो। वाराणसी में हरिश्चन्द्र इण्टर कालेज में पूरे चार वर्षों तक मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते ही सामने  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ही तो प्रतिमा का दर्शन  होता था और स्मारक पर मोटे अक्षरों में यह अंकित रहा -

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

      मैं उसे ध्यान से पढ़ता भी था, लेकिन मुझमें एक अहम यह था कि विज्ञान वर्ग का छात्र हूँ, हिन्दी भी क्या पढ़ना - लिखना है। कभी यह नहीं सोचा कि जिस कालेज में पढ़ रहा हूँ, जिसका नाम उस पर अंकित है, वे ही उस खड़ी हिन्दी के जनक हैं, जो आज हमारे शब्द हैं। वैसे मैं हिन्दी में भी ठीक -ठाक अंक पा गया। परंतु जो प्रदर्शन मेरा गणित में था, उससे काफी पीछे रहा हिन्दी में।  जब मेरी आगे की शिक्षा बाधित हो गई । समय चक्र मुझे मुजफ्फरपुर और कलिम्पोंग घुमाते- टहलाते वापस काशी ले आया। अब -जब से पत्रकारिता में आया हूँ, लेखनी से ही रोजी-रोटी है मेरी।
    हिन्दी के संदर्भ में अपनी बात यहीं से प्रारम्भ करना चाहता हूँ ,जब वर्ष 1994 में मुझे सांध्यकालीन समाचार पत्र गांडीव के लिये मीरजापुर जनपद का समाचार संकलन करना था। युवा था, उत्साह से भरा हुआ था, अतः वाराणसी से मीरजापुर बस से बंडल ले जाने, उसे वितरण करने में तनिक भी कठिनाई की अनुभूति नहीं हुई, परंतु मेरे समक्ष चुनौती यह रही कि समाचार किस तरह से लिखूँ । मेरा यह स्वभाव था कि जो भी कार्य करूँ , उसमें अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन रहे । उस समय मेरा एक मित्र पीएचडी कर रहा था। उसे मेरा चिन्तन बहुत पसंद था, उसके भी अपने विचार थें ही , उसने पहला समाचार मुझे लिख कर दिखलाया। वहीं अपने प्रेस में जो वरिष्ठ जन थें ,वे मेरे समाचार को शुद्ध करते थें, उसे पुनः मुझे पढ़ने को देते थें। हाँ , यहाँ मीरजापुर में स्व० पं० रामचन्द्र तिवारी जो पत्रकारिता में मेरे गुरु थें। जिन्हें मैं बाबू जी कहता था। उनकी पुस्तक की दुकान थी,जहाँ  डा० भवदेव पांडेय, डा० राजकुमार पाठक सहित अनेक साहित्यकार, पत्रकार, संगीतकार आदि विचार - विमर्श के लिये आते थें। जिनसे मुझे ज्ञात हुआ कि हिन्दी नवजागरण काल में मेरी इस कर्मभूमि की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही। जिससे हिन्दी के प्रति मेरी अभिरुचि बढ़ी। बाबू जी के कहने पर मैंने तब श्री राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा की पुस्तक " शुद्ध हिन्दी कैसे सीखें " खरीदी थी।  जिससे हिन्दी मेरी कुछ शुद्ध हो गई और समाचार लेखन में आसानी हुई। वैसे, मेरी भाषा पर कोलकाता और कलिम्पोंग में रहने का दुष्प्रभाव भी पड़ा। वहाँ, थोड़ा - बहुत बंगला और नेपाली भाषा भी जो बोलता था ।

हिन्दी की उपेक्षा
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हिन्दी पखवाड़ा दिवस मनाया जा रहा है , फिर भी हिन्दी उपेक्षित है। कहीं किसी विद्यालय में बच्चों के मध्य निबंध प्रतियोगिता का आयोजन आपने देखा ? क्या आलेख लिखवाये जा रहे हैं अब ..? हिन्दी की कक्षा में बच्चों को खड़ा कर के उसकी पुस्तक का कोई पृष्ठ उसे पढ़ने को कहाँ जाता है क्या अब...?
   इतना ही नहीं मित्रों हमारे संस्कार से जुड़े दो सम्बोधन शब्द जो हम सभी को बचपन में ही दिये जाते थें , " प्रणाम " एवं
" नमस्ते " बोलने का , वह अब किसमें बदल गया है, इस आधुनिक भद्रजनों के समाज में ,  यह तो आप सभी जानते हैं कि बच्चा बोलना भी नहीं सीखा अभी कि उसे दोनों हाथ मिला कर जोड़ने की जगह हाथ हिलाने को कहा जाता है। उसकी बोली फूटी भी नहीं कि उसे सजीव/ निर्जीव जो भी सामने है, उसका हिन्दी नाम न बता लग जाते हैं अंग्रेज बनाने। इसके बाद से तो बच्चे की दो नाव की सवारी जो शुरू हुई , फिर हो गया हिन्दी का कबाड़ा साहब। कितने कष्ट का विषय है कि विद्यालयों में अध्यापक शुद्ध हिन्दी नहीं जानते हैं , समाचार पत्रोंं की भाषा आप देख ही रहे हैं  , विडंबना तो यह है कि इन अशुद्धियों पर हम सभी को तनिक भी ग्लानि नहीं होती है। हम सभी से बचपन में अभिभावक कहते थें कि हिन्दी ठीक करनी है, तो " आज" समाचार पत्र पढ़ा करों। अब क्या स्थिति है समाचार पत्रों की ? सब- कुछ समाप्त हो रहा है  और हम प्रबुद्ध जन हिन्दी दिवस मना रहे हैं।
     परंतु हममें से बहुतों के बच्चे कान्वेंट स्कूल में पढ़ रहे हैं, क्यों कि हमें स्वयं नहीं विश्वास है कि हिन्दी से उनके लाडलों  का भविष्य उज्ज्वल होगा। अभिजात्य वर्ग में तो अंग्रेजी का ही बोल बाला है न ..? परंतु मैंने कोलकाता और कलिम्पोंग में रहते हुये दो बंगाली या नेपाली को अपनी मातृ भाषा भाषा छोड़ अंग्रेजी में बात करते कभी नहीं  देखा, आपने भी नहीं देखा होगा । फिर हम हिन्दी भाषी ही आपस में क्यों अंग्रेज बन बैठते हैं। यही सोच कर न कि समाज में हमारी अलग पहचान होगी। निश्चित ही विलायती परिधान, संस्कार और भाषा में हम औरों से विशिष्ट दिखेंगे, फिर भी आप अच्छी तरह से जानते हैं कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में चाहे कितना भी बड़ा राजेनता हो वह भाषण किस भाषा में देता है  ,  इसी तरह अभिनेता फिल्म का सम्वाद हिन्दी में ही बोलते हैं न ? नहीं तो जनता इन्हें ठुकरा देगी । बस मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि ठीक है अंग्रेजी का भी ज्ञान हो हमें , परंतु ये भद्रजन जो हैं , वे इतना तो कर सकते हैं न कि अंग्रेजी में गुटरगूँ करना बंद कर हिन्दी को अपना लें। अपने बच्चों को प्रणाम और नमस्ते कहना तो सीखा  दें। इतना सदैव स्मरण रहे कि जीवन में एक मोड़ ऐसा भी है, जब हर सम्वेदनशील इंसान अपनी बातों को लेखन के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं, उस समय मातृभाषा ही सबसे सरल और सुगम माध्यम है।



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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