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Thursday 24 January 2019

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
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    ऐसे राष्ट्रीय पर्वों पर यह चिन्तन- मंथन और खुली बहस होनी चाहिए कि आजाद हिन्दुस्तान में नैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक मूल्यों के लिहाज से हमने कितनी ऊँचाई तय की है और आम आदमी का जीवन स्तर खास आदमी के वैभव के समक्ष कहाँ पर टिक पा रहा है। जिन्होंने हमें आजाद मुल्क दिया ,हम उनके स्वप्न को कहाँ तक साकार कर पाये हैं।
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ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झनकार
ये इसमत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के
कहाँ हैं, कहाँ हैं मुहाफ़िज़ खुदी के
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं..

    1957 में रिलीज हुई प्यासा फिल्म का यह गीत है। जिसमें अभिनेता आजाद भारत के रहनुमाओं से यही सवाल कर रहा था । परिस्थितियाँ आज भी कमोबेश वही है, बस नीलाम घर का स्वरूप थोड़ा बदला हुआ है। उस वक्त सिक्कों की झंकार पर  बेबस अबलाओं की अस्मत बिकती थी और अब भद्रजनों का ईमान नीलाम होता है। जनता जहाँ न्याय की उम्मीद लेकर जाती है,जिसके हाथ भी वह सत्ता सौंपती है, वह लोकतंत्र की जगह भ्रष्टतंत्र का पुजारी , संरक्षक अथवा मूकदर्शक हो जाता है। ठगी सी रह जाती है जनता, वह फिर से पुकार लगाती है-

ज़रा इस मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कूचे ये गलियां ये मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ..
 
   सुबह साढ़े चार बजे जब होटल से निकलता हूँ और अपने शहर के मुकेरी बाजार तिराहे पर खड़ा अखबार का बंडल लेकर आने वाली जीप की प्रतीक्षा करता रहता हूँ , तभी इस कड़ाके की ठंड में जीवन का संघर्ष देखता हूँ। अलावा के लिये लकड़ी के अभाव में आजाद भारत के लोग सड़कों पर बिखरी पड़ी रद्दी सामग्री किस तरह से बटोर कर जला रहे होते हैं । यह गलन (ठंड) वैसे मुझे भी परेशान करता है, परंतु ललचाई नजरों से दूर से जल रही आग को देख गरमाहट महसूस कर लेता हूँ, क्यों कि जीप के आते ही अखबार वितरण के लिये साइकिल से नगर भ्रमण पर निकलना जो होता है। सोचता हूँ कि श्रम तो भरपूर करता हूँ , परंतु जेब खाली फिर भी क्यों है।
    उधर,  चुनाव को लेकर टिकट के अनेक दावेदारों ने अपनी तिजोरी खोल रखी है। करोड़ों में सौदा पटेगा और उससे दुगना- चौगुना खर्च होगा , परंतु किसी एक चौराहे पर अलावा जलवाने का कलेजा फिर भी नहीं है इन भावी प्रत्याशियों में। जब ढाई दशक पहले यहाँ की पत्रकारिता से जुड़ा था , तो पता चला था कि दस प्रतिशत कमीशन का खेल होता है, सराकरी धन से होने वाले विकास कार्यों में और अब किसी निर्माण कार्य पर स्वीकृत धनराशि का आधा भी ठीक से खर्च नहीं होता है। बनते ही सड़कें टूट जाती हैं, क्या किसी ठेकेदार को कठघरे में खड़ा होते देखा है आपने? पारदर्शिता किसी भी सरकारी कार्य में दिखती है आपको ?
   ऐसे भी अनेक लोगों के हाथ में आज अपना प्यारा तिरंगा है , वे ध्वज फहराते हैं , सलामी लेते हैं और हम बस ताली बजाते हैं। अपने राष्ट्रीय ध्वज को इनके गिरफ्त से किस तरह से आजाद कराया जाए । स्वच्छ प्रशासन का स्वप्न आम आदमी का पूरा हो। यह चुनौती नौजवानों के सामने है। क्रांति की उम्मीद तो सदैव इसी युवा वर्ग से रहती है। वह गीत है न -

हिंद के नवजवानो उठो शान से ,
अपनी हस्ती मिटा दो वतन के लिये....

      राष्ट्र भक्ति से भरे ऐसे गीतों को सुनकर कभी अपना भी मन भी झुम उठता था, बाहें फड़फड़ाने लगती थीं और देश प्रेम जाग उठता था। राष्ट्रीय पर्वों पर आज भी इन गीतों को सुनना मैं पसंद करता हूँ , अनेक सवाल मन में लिये, जिसका जवाब हमारे रहनुमाओं के पास नहीं है और कभी होगा भी नहीं , क्यों कि कठघरे में वे स्वयं हैं। मैं नहीं समझ पाता कि एक सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र ,जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था,जिसने सम्पूर्ण विश्व को मानवता का संदेश दिया, उसी देश में असमानता की खाईं इतनी गहरी क्यों हो चली है।
          छात्र जीवन की अनेक स्मृतियाँ ऐसे राष्ट्र पर्व से जुड़ी हैं। जब कुछ बनने की चाहत, कुछ करने की आकांक्षा थी। कितने शान से तिरंगा हाथ में लिये हम सभी बच्चे अपने विद्यालय जाया करते थें । वहाँ गुरुजनों से ऐसे पर्व की महत्वता को जानते समझते थें , सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ ही एक प्रमुख आकर्षण हम बच्चों को वहाँ मिलने वाला मिष्ठान होता था। युवावस्था में प्रवेश करने से पूर्व तक देशप्रेम की भावना कुछ ऐसी थी कि दिन भर राष्ट्रीय पर्व से जुड़े गीत सुना करता था। वाराणसी में पिता जी के विद्यालय में झंडारोहण की तैयारी से संबंधित सारा कार्य मैं ही करता था,  सजावट का यह गुण मुझे अपनी मौसी से प्राप्त हुआ है। अब यह बात और है कि न मैं अपने आशियाने को सजा पाया और न जीवन को , फिर राष्ट्र की सजावट में मेरी उपयोगिता कहाँ से रहती ?
       मेरी वे सारी महत्वाकांक्षाएँ , जो युवावस्था तक  राष्ट्र ,समाज , परिवार और स्वयं को लेकर थी, इस चिन्तन तक सिमट कर रह गयी है कि अपने देश में व्यवस्था परिवर्तन सम्भव नहीं है । न तो भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन मिलेगा और न ही भय मुक्त जनता होगी । पत्रकार हूँ अतः इन ढाई दशकों में करीब से राजनीति में बहुत कुछ परिवर्तन देखा हूँ। अपने प्रदेश में मंडल - कमंडल का कमाल देखा , जाति - मजहबी बयार  ,धनलक्ष्मी का धमाल और जुमलेबाजों की सरकार भी देखा हूँ। सत्ता परिवर्तन के लिये  हर तरह की राजनीति हुई, परंतु गरीबों की पहचान नहीं बदली, रोटी, कपड़ा और मकान की मांग नहीं बदली , नौजवानों की बेरोजगारी नहीं बदली और दौलतमंदों की तिजोरी नहीं बदली। हाँ, जिन क्रांतिकारियों ने अपनी हस्ती वतन की आजादी के लिये मिटा दी थी , आज उनके पथ पर चलने वालों की राह जरूर बदल गयी है। लोगों की  सोच बदल गयी है , वे चाहते हैं कि पड़ोसी का बेटा भगत सिंह बने, लेकिन उनका लाल टाटा, बिड़ला और अंबानी हो जाए, चाहे किसी भी तरह से ।  इतना तक भी ठीक परंतु नौजवान क्या चाहते हैं , इसपर चिन्तन और चिन्ता दोनों की ही आवश्यकता है। पहला तो यही कि वे रोजगार सरकारी नौकरी चाहते हैं। चाहे जिस भी प्रकार से उच्चशिक्षा की डिग्री उनके पास है ही। जिसकी ललक में वे कमोबेश दौड़-भाग करते है। लेकिन , जनसंख्या विस्फोट का दंश झेलते हैं। हजार में एक को आर्थिक रुप से सुखमय जीवन का यह मधुकलश (सरकारी नौकरी) मिल पाता है। शिक्षा प्राप्ति के बाद कुछ युवक छोटे- बड़े  पैतृक अथवा नये व्यवसाय में जुट जाते हैं , तो कुछ दूसरों की चाकरी करते हैं और सम्मान भरा जीवन चाहते हैं ।
  अब जब राजतंत्र नहीं रहा, देश गुलाम भी न रहा , ऐसे में फिर आमजन को उसके ही द्वारा चुनी गयी सरकार से यह उम्मीद तो रखनी ही चाहिए न कि भले ही वह प्राइवेट सेक्टर में हो, लेकिन उसके श्रम का इतना मूल्य मिलता रहे कि वह अपने परिवार का सामान्य तरीके से भरण पोषण कर ले। पहला अन्याय युवाओं के साथ यही से शुरू होता है कि आर्थिक स्थिति में बिल्कुल असमानता है। प्राथमिक पाठशाला का एक सहायक अध्यापक चालीस हजार से ऊपर  वेतन लेकर कक्षा से अकसर लापता रहता है और उससे कहीं योग्य शिक्षक छोटे शहरों में प्राइवेट स्कूल की नौकरी में मात्र पाँच हजार में पसीना बहा रहा है। सुबह से रात तक घर -घर जा बच्चों को पढ़ा कर अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा है। यह एक बानगी है। रोजगार की असमानता वाली इसी स्थिति से गुजर रहे करोड़ों लोग जिनकी मूलभूत आवश्यकताओं को निर्ममता के साथ बदस्तूर उसी तरह से कुचला जा रहा है, जैसा कि राजतंत्र में और गुलाम भारत में होता रहा । फिर यह शिकायत स्वभाविक है -

अंधेरे में जो बैठे हैं,
नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रोशनी वालों
बुरे इतने नहीँ हैं हम
ज़रा देखो हमें भा लो
कफ़न से ढांक कर बैठे
हैं हम सपनों की लाशों
को..
   युवावर्ग उस जुगाड़ तंत्र को भी देख रहा है कि कतिपय समाज के ठेकेदारों, राजनेताओं , अपराधियों और भ्रष्टजनों  ने किस तरह से राष्ट्र के सम्पूर्ण वैभव को अपनी मुट्ठी में कर रखा है। मानो देश की तकदीर को ही बंधक बना लिया हो।
 लोकतंत्र में एक और बड़ा उलटफेर हुआ है।पहले कुछ ही राजनेता , मुखिया और सम्पन्न व्यक्ति अपने वर्चस्व के लिये माफियाओं की बैसाखी खरीदते थें, परंतु जब से कुछ प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दलों ने विभिन्न प्रांतों में सत्ता पर अधिकार जमाना शुरू किया, माफिया स्वयं माननीय हो गये। जो दोनों हाथ से सरकारी खजाने को लूट रहे हैं, बिना किसी प्रतिरोध के, ऐसे लोग जब मंच से तिरंगा फहराएंगे और शुचिता की बातें करेंगे, तो निश्चित ही सच्चाई, ईमानदारी, पवित्रता , मानवता कर्तव्यनिष्ठा और राष्ट्र भक्ति जैसे गुण स्वतः ही जंजीरों में जकड़ जाएँगें। यह युवावर्ग इसीलिये गुमराह है। वह यह समझ रहा है कि सारा वैभव उसी के पास है जो चतुर बहेलिये की तरह हो और लोकलुभावनी बातों का जाल बिछा कर भोली जनता का आखेट करना जानता हो।
    दुर्भाग्य से आज ऐसे ही अनेक लोग हमारे बलिदानी क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के उत्तराधिकारी बन गये हैं। देश का नौजवान रंग बदलती इस दुनिया की रीति नीति को देख रहा है। उसी दौड़ में शामिल होने की होड़ में यह भूल बैठ रहा है कि "रंगे सियार" की स्थाई पहचान नहीं होती है। वहीं जिन्होंने त्याग किया, जो बलिदान से पीछे न हटें, आज भी यदि कहीं कोई  खंडहर है उनके नाम से तो वहाँ दीपक जलते हैं, श्रद्धा से जनमानस नतमस्तक होता है,  वे अमर हैं, यह बात इन नौजवानों को फिर से बतलाना होगा -

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा..।
(शशि गुप्ता)