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Thursday 14 June 2018

हम न सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचें किया क्या है अर्पण


   


      आज सुबह  निकला तो हृदय को छूने वाले कर्णप्रिय भजन की यह पंक्ति " हम न सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचें क्या किया है अर्पण"  मेरे मन की वेदना से अनेकों सवाल करते मिली। सचमुच मैं बिल्कुल स्तब्ध सा रह गया कि आखिर क्या संदेश छिपा है, इस प्रार्थना गीत में !  स्वयं को एक बार फिर से टटोलने लगा मैं । अपनों से क्या मिला, समाज ने क्या दिया , यह उलाहना दे मन किस तरह से करुण क्रंदन करता आ रहा है ,  जाने कितने ही वर्षों से। मां के गुजरने के बाद कभी आंचल की छांव की चाहत, तो कभी घर-आंगन को अपनी किलकारियों से सराबोर करने वाले मासूम चेहरों की कल्पना , जिस सुख से मैं इस धरा पर मानव तन पा कर भी वंचित ही रह गया। या फिर स्वस्थ शरीर खोने की पीड़ा जैसी व्याकुलता से आंखें ना मालूम कितनी बार भर आई होंगी। क्या यही वेदना मेरी नियति है ? मैं ही एक इकलौता इंसान हूं, जो उस दयालु परमात्मा की कृपा से वंचित हूं। ऐसे अनेकों सवाल न जाने कब से मन को आहत करते रहे हैं। मैं एक कूपमंडूक सा उसी में उलझा पड़ा सिसकता रहा अब तक। क्या बताऊं दूर ना सही अपनों की ओर भी निगाहें नहीं डाली मैंने। वाराणसी में मेरे घर से ताऊ जी का मकान बहुत दूर नहीं है। वे मेरे  सगे ताऊ जी नहीं , मेरी दादी की बड़ी बहन के पुत्र हैं। फिर भी स्नेह मुझ पर उनका सदैव रहा है। यदि मैं कभी बनारस जाता भी हूं, तो कैंट से प्रेस के दफ्तर और फिर वहां से अपने मित्र कंपनी गार्डन को निहारते हुये सीधे ताऊ जी के घर ही जाता हूं। काफी बड़ा बंगाल है शहर में उनका। एक महाविद्यालय में विधि संकाय के विभागध्यक्ष रहें वे। सम्मान में बड़े-छोटे सभी उन्हें वकील साहब कहते हैं। तीन पुत्रियों के जन्म के काफी दिनों बाद पूजा पाठ से एक पुत्र धन की प्राप्ति हुई थी। सबके दुलारे विक्की बाबू जब छोटे थें, तो मेरे पापा के विद्यालय में ही पढ़ते थें। इकलौता संतान, पर  बेहद आज्ञाकारी था वह। जब किशोरावस्था समाप्ति की ओर थी,  एक दिन घर पर ही हुई एक दुर्घटना से ताऊ और ताई जी के आंखों का तारा , बुढ़ापे का सहारा अप्रत्याशित तरीक़े से छीन लिया गया । उसकी मौत ने सभी को स्तब्ध कर दिया था।नियति ने एक और छल किया । कुछ वर्षों बाद उनकी छोटी पुत्री जो तीनों बहनों में सबसे चंचल, हंसमुख एवं गृहकार्य में दक्ष थी, को ना मालूम किस बीमारी ने डस लिया कि शरीर का रंग काला पड़ता गया, वजन बिल्कुल ही गिर गया। इसके बावजूद भी उसने जीवन के लिये काफी संघर्ष किया। परास्नातक की शिक्षा दिलवाने के लिये ताऊ जी ने उसके लिये स्कूटी खरीदी थी। परंतु वह भी अपने भाई की राह पर बढ़ चली। आज जब मुझे इन दोनों छोटे-भाई बहन की याद रुला दे रही है कि किस तरह से मैं जब कभी मीरजापुर से वाराणसी उनके घर जाता था ,तो वे शशि भैया फालसा का शर्बत लें, यह खा लें न ? ताई जी की तरह ही इन सभी बच्चों का स्वभाव था। बड़ी दो पुत्रियों का विवाह हो गया और इन दोनों बच्चों को वे खो दिये। आप समझ सकते है कि उनपर क्या बीती होगी।       
              लेकिन, इस नियति को किस तरह से पराजित किया जाता है, इसे मैंने यहीं पर देखा है। कुछ महीने पूर्व संगीतमय देवी भागवत के आयोजन पर जब ताऊ जी के बुलावे पर मैं बनारस गया था।  वहां एक सुखद अनुभूति से मन प्रफुल्लित हो गया था । परिवार के तमाम सदस्य कथा सुनने जुटे हुये थें और इसी दौरान मुख्य यजमान की भूमिका में  बैंठी ताई जी भावमय मुद्रा में हाथ ऊपर किये नृत्य कर रही थीं। ताऊ जी बताते हैं कि तुम्हारी ताई जी को काफी मुश्किल से पुनःइस स्थिति में वापस ला पाया हूं । यह अंधकार से प्रकाश की ओर उनका कठिन सफर है। अब ताई जी मुझसे  बराबर यह कहती हैं कि पप्पी तुम एक बार तिरुपति वैंकटेश्वर बाला जी का दर्शन कर आओ, देखों अपना ही जिद्द ना करों। तुम भी स्वयं में परिवर्तन देख पाओगे। पर सिर झुकाये उनकी आज्ञा का निरंतर उलंघन करते आ रहा हूं। मुझे अपनी इन दो बूंद आंसुओं  में ईश दर्शन जो करना है।

शशि

(चित्र गुगल से साभार )
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मित्रों, विशेष यह कहना है कि अब मुझे भी कुछ पढ़ना हैं। अतः सप्ताह में हर दूसरे दिन ही हमारी मुलाकात होगी।
आप सभी का स्नेह मिल रहा है, इसके लिये आभार पुनः व्यक्त कर रहा हूं। हां , अपने 94 फॉलोवर का यह विश्वास  कभी नहीं टूटने दूंगा कि सपना नहीं बेचता मैं, हकीकत मेरी कहानी है। इस ब्लॉग को अस्तित्व में लाने के लिये मैं सदैव रेणु दी का आभारी हूं।
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