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Wednesday 30 September 2020

प्यार का तोहफ़ा

(जीवन के रंग)

  बंगाल के सबसे बड़े पर्व दुर्गा- पूजा पर बंगालियों का रंग-ढंग देखते ही बन रहा था। बंगाली स्त्रियों का कहना ही क्या,पूजा के पाँचों दिन षष्ठी से दशमी तक वे अलग-अलग परिधानों में जो दिखती हैं । सप्तमी की संध्या के लिए अलग साड़ी, तो अष्टमी के अलग वस्त्र। नवमी के दिन माथे पर लाल सिंदूर , सिर पर बड़ी-सी लाल बिंदी ,लाल रंग की साड़ी और उसी रंग की चूड़ियों में इन्हें देख ऐसा लगता है कि धरती पर मानो स्वयं देवी ही उतर आयी हों। दशमी की शाम वैसे तो माँ के जाने का गम होता है,फिर भी माँ को पूरे उमंग और उत्साह से भावपूर्ण विदाई देने के लिए ये बंगाली औरतें चौड़े लाल पाड़ वाली साड़ी पहनती हैं। सुहागिन स्त्रियाँ एक दूसरे संग सिंदूर की होली खेलती हैं ,  जिससे सभी की साड़ियाँ एक जैसी रक्तवर्णी हो जाती हैं। इनकी नम आँखों में अगले साल माँ के पुनः आगमन की प्रतीक्षा होती है। इसी आशावाद से यह मानव जीवन संचरित है। किन्तु सोनम मुखर्जी के लिए ऐसे पर्व सदैव दर्द का पैगाम लेकर आते हैं। उसके अपने जीवन में कोई आशा और उमंग जो नहीं रहा। दिल की ख़ामोशी चेहरे पर छिपाये नहीं छिपती। वह ऐसे उल्लास भरे अवसर पर भी नीली पाड़़ वाली पुरानी सफ़ेद साड़ी पहने अष्टमी व्रत-पूजन की तैयारी में जुटी हुई थी। 

डा0 सुशांत उसके दुःख से अनभिज्ञ नहीं है,किन्तु इस संदर्भ में जब भी कोई पहल करना चाहता, सोनम की गरिमामयी देवी तुल्य छवि जो वर्षों से उसके हृदय में है, संकोच की दीवार बन जाती है। आज वह चिकित्सक है,तो यह इस देवी के त्याग और तप का परिणाम है, परंतु बदले में सोनम को क्या मिला ? एकाकी जीवन, न अपना घर-न कोई स्वप्न ।जिसके लिए सुशांत स्वयं को जिम्मेदार मानता है। चाहे जैसे भी हो सोनम की खुशियाँ वापस लाकर ही रहेगा, इसे लेकर वह स्वयं को दृढसंकल्पित कर चुका था । वर्षों पूर्व माँ की मृत्यु से वीरान पड़े उसके घर में इस बार विजयादशमी और दीपावली मनायी जायेंगी , ऐसा निश्चय कर सुबह अवकाश के दिन भी हॉस्पिटल जाते समय उसने पहली बार अधिकार भरे स्वर में सोनम से कहा था -" शाम मैं आपको ऐसा तोहफ़ा दूँगा,जिसमें हम दोनों की खुशियाँ हैं,तैयार रहिएगा.. और हाँ, ना-नुकुर बिल्कुल नहीं चलेगा।" 

 सुशांत के जाने के पश्चात उसका यह 'सरप्राइज गिफ्ट' सोनम के मन को उद्विग्न किये हुये था। यह उपहार उसके लिए एक पहेली जैसा था। इस विषय पर वह जितना ही चिंतन करती, उतनी ही चिंतित होती जाती ।वह विचारों के दलदल की गहराई में धँसी जा रही थी । उसके मुखमंडल पर कभी स्त्रीयोचित लज्जा का भाव छा जाता तो कभी सामाजिक उपहास के भय से सिहर उठती । "क्या करे वह ? कैसे मनाए इस जिद्दी युवक को जिसने किशोरावस्था से लेकर अब-तक उसकी कोई भी बात नहीं टाली थी,मानो रोबोट हो,किन्तु इसबार उसके लाला ने उससे कुछ मांगा है ?" इस विषय पर वह स्वयं से अनेक प्रश्न करती और खुद ही निरुत्तर हो जाती। " हे ईश्वर ! तुझसे यही प्रार्थना है कि मेरे कारण  सुशांत की समाजिक प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने पाए।"  जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था , सोनम की धड़कनें तेज होती गयीं।इन दोनों के बीच वर्षों से पवित्र स्नेह का ऐसा संबंध है,जो बिना कहे एक दूजे की भावनाओं को बयां कर देता है, इसलिये सुशांत के निश्छल व मासूम हृदय की आवाज़ सोनम तक पहुँच रही थी। जिसने उसे विकल कर रखा था। "नहीं-नहीं , यह अनर्थ नहीं होने देगी।उसके वर्षों की तपस्या का परिणाम है डा0 सुशांत। यही कोई तीस वर्ष का ही तो है। अभी उसका पूरा भविष्य सामने है।"

  तभी उसके मानसपटल पर अतीत से जुड़ी अनेक खट्टी-मीठी यादें चलचित्र की भाँति दृश्यमान होने लगती हैं। अठारह वर्ष पूर्व जब वह  बीस की थी,तब अपनी विमाता से प्रताड़ित होकर घर छोड़ कोलकाता भाग आयी थी। भीड़ भरी सड़कों पर उसके तन को घूरती अनेक आँखों के मध्य सौभाग्य से सुशांत की विधवा माँ से कालीबाड़ी में भेंट हो गयी। जिनका ममत्व भरा आँचल उसका सुरक्षा कवच बन गया। उसकी काकी एक कुशल नर्स थी । दो-ढ़ाई वर्ष उनका यही सानिध्य ,भविष्य में सोनम और सुशांत की आजीविका का वर्षों सहारा बना रहा।

  उसे वह मनहूस दिन भलिभाँति याद है , जब जानलेवा ज्वर ने उसके आश्रयदाता से उसका जीवन छीन लिया था। महाप्रयाण से पूर्व उस विधवा माँ ने अपने इकलौते पुत्र को उसके समक्ष कर अश्रुपूरित नेत्रों से कहा था -" बेटी ,जब से तू आयी है, इस नटखट के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखा है। इस घर के कुलदीपक को बुझने मत देना। प्रयत्न करना कि यह पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाए। मेरे पास तुझे देने को इन आभूषण के सिवा और कुछ नहीं है , इन्हें रख ले। "

 जिसे सुनकर सोनम की आँखें भी बरसने लगी थीं । उसने रुँधे गले से कहा था-"काकी, ऐसा न कहें, हम आपको कुछ नहीं होने देंगे।" लेकिन अगले ही पल उसकी काकी की साँसें उखड़ने लगीं । फिर भी अपनी अधूरी बात पूरी करते हुये उन्होंने पुत्र से कहा था-" बेटा, यह सदैव याद रखना कि इस घर पर सोनम का भी तेरे समान अधिकार है। उसे कभी कष्ट मत देना।" और अगले ही क्षण करुण-क्रंदन से वातावरण बोझिल हो उठा था।

   उस दुःखद दृश्य का स्मरण कर सोनम की आँखें फिर से डबडबा उठी थीं ।वह यह कैसे भूल सकती है कि नवमी का ही दिन था जब काकी उसे एक बड़ा दायित्व सौंप विदा हो गयी थी। और आज उनकी मृत्यु के सोलह वर्ष पश्चात इसी दुर्गापूजा पर्व पर यह बावला सुशांत उसके लिए उपहार की बात कर रहा है। "डाक्टर हो गया तो क्या कोई अपनी माँ को भूल जाता है !  "नहीं-नहीं  ऐसा कोई तोहफ़ा स्वीकार नहीं करेगी। न ही पर्व की खुशियाँ मनाएगी । होता है नाराज तो हो ले।",ऐसा विचार कर वह पुनः अपनी स्मृतियों में खो जाती है।

  विधि जब प्रतिकूल हो, पग-पग पर दुर्भाग्य सामने खड़ा होता है। गृहत्याग के बाद सोनम को इस दुनिया की बुरी निगाहों से बचाने के लिए उसे  काकी के ममत्व की जो छाँव मिली थी, अब वह भी नहीं रही। लेकिन सुशांत के साथ होने से उसका आत्मबल पहले की तरह कमजोर नहीं था। दृढनिश्चय के साथ अपने प्रारब्ध से वह टकरा गयी। 


   सुशांत उससे आठ साल छोटा है,किन्तु दोनों के इस अनाम पवित्र संबंध को लेकर कुत्सा और कानाफूसी  करने वालों की कमी नहीं थी। ताने सुनकर उसकी आत्मा तड़प उठती थी। फिर भी इसकी परवाह न कर एक निजी नर्सिंगहोम में नर्स के मामूली पगार से उसने अपना पेट और तन काट कर सुशांत की शिक्षा जारी रखी। उसकी स्नेह की छाँव और कठोर श्रम को देख नटखट सुशांत के हृदय में विद्यार्जन की ऐसी ललक जगी कि डिग्री मिलते ही वह कोलकाता के एक हॉस्पिटल का सितारा बन गया। समाज का भूषण है वो। पर हाँ,एक ऐसे जीवनसाथी की उसे ज़रूरत है,जो उसी की भाँति उसके लाला का ख़्याल रख सके। तभी वह अपने दायित्व से मुक्त होगी। माना कि थोड़ा जिद्दी है,पर दिल का सच्चा है। उसने कई बार इस विषय पर सुशांत की ख़ामोशी तोड़ने की कोशिश की और पूछा था-"लाला ! कोई पसंद की लड़की हो तो बता  दें । अच्छा, एक काम कर न्यूज़ पेपर में मैट्रिमोनियल कैसा रहेगा ? " लेकिन विवाह के नाम पर सुशांत के मुख पर ताला जड़ जाता। यह देख झुंझला कर वह कहती-"तो क्या जीवन भर मुझसे चौका-बर्तन करवाएगा ? रसोइए के हाथ के भोजन से तेरा हाज़मा खराब हो जाता है ।" प्रतिउत्तर में सुशांत मुस्कुराते हुये कहता- "बंदा हाजिर है। बोलो क्या खाना है।" और फिर आमलेट बनाने की तैयारी में जुट जाता। उसके ऐसे ही नटखटपन पर फ़िदा सोनम अपना गुस्सा थूक,उसकी हर ज़रूरत को अपनी प्राथमिकता समझती।

     लेकिन इस जीवन-संघर्ष में सोनम की अपनी खुशियाँ पीछे छूट चुकी थीं। कभी कोमलता और सुकुमारता की बेजोड़ मूर्ति थी वह। किन्तु समय के थपेड़े ने उसके गोरे गुलाबी रंग, मक्खन-सी काया पर असमय ही ग्रहण लगा दिया था।उसका जीवन रंगीनियों से दूर हो चुका था।जिसका उसे तनिक भी अफ़सोस नहीं है, क्योंकि वह काकी के विश्वास का मान रखने में सफल रही। यह उसकी कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी ? सोनम अतीत के इन्हीं तिक्त और मधुर क्षणों में खोयी हुई थी कि न जाने कब आहिस्ते से बाबू मोशाय सुनहरे रंग का एक खूबसूरत डिब्बा लिये उसके पीछे आ खड़े हुये।

 " सरप्राइज !",

सुशांत की आवाज़ सुनते ही सोनम हड़बड़ा कर सोफे पर से उठी ही थी कि शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है । अगले ही पल वह बाबू मोशाय के आगे बढ़े हुये बाँहों में होती है । क्षण भर के लिए दोनों की नज़रें मिलती हैं। सोनम ने देखा कि सुशांत की आँखों में वही मासूमियत उतर आयी है, जब सोलह वर्ष पूर्व माँ को खोने के बाद वह इसीप्रकार उससे आ लिपटा था। बस तब वह सिसक रहा था और अब वे आँखें खिलखिला रही हैं।

"पागल हो क्या बिल्कुल ? नवमी को काकी की बरसी है और तुम्हें यह परिहास सूझ रहा !", सोनम ने सुशांत को तनिक झिड़कते हुये कहा था। 

 "तो क्या हुआ,इतने साल हो गये हैं,माँ को गुजरे। भगवान राम का वनवास भी चौदह वर्ष में समाप्त हो गया था। और आप वहीं ठहरी हुई हैं।",तुनक कर सुशांत ने प्रतिवाद किया। 

"अरे ! यूँ नाराज क्यों होते हो, तुम्हें छोड़ मेरे पीठ पर और है ही कौन ? तुम पर अधिकार समझा, सो कह दिया। " सुशांत का उतरा हुया चेहरा देख सोनम से रहा नहीं गया। "अच्छा, लाओ मेरा उपहार ,जो कहोगे मानूँगी। यह हनुमान जी की तरह मुँह न फुलाया करो। मेरी तो जान निकल जाती है।" 

    "हाँ भई,ऐसा ही हूँ मैं ।आपकी तरह सदैव के लिए मौनव्रत थोड़े न किया हूँ। अच्छा, अपना वचन पूरा करें और यह परिधान शीघ्र पहन कर आयें   । हम दोनों दुर्गा पांडाल  घूमने चलेंगे। वह भी कार से नहीं, पैदल। जिसतरह माँ के संग गये थे।",बाबू मोशाय ने कनखियों से सोनम के मुख-मंडल को निहारा था,ताकि उसके चेहरे के भाव को परख सके। 

"ना बाबा ,यह नहीं हो सकता, वह भी लाल  छींटदार  लखनवी चिकन की साड़ी ! यह तो सुहागिनों के लिए होती है। इसे पहन कर वह भी तुम्हारे साथ पैदल ही सड़क पर ! ",ऐसे उपहार को देख सोनम का पूरा बदन थरथरा उठा था। यदि ऐसा अनर्थ उसने किया तो कैसे करेगी इस निष्ठुर सभ्य जगत का सामना ?

    यह सुनाते ही क्रुद्ध हो सुशांत सत्याग्रह पर अड़ गया। सीधे भूख हड़ताल की धमकी दे उसने लपक कर अटैची उठा ली, दो-चार कपड़े उसमें ठूँस दरवाजे की ओर जा बढ़ा। उसका ऐसा रूप पहले कभी सोनम ने नहीं देखा था। वह व्याकुल हो उठी थी, जैसे जल बिन मीन। अपने डाक्टर को मनाने के लिए वह दौड़ कर उसका बाँह पकड़ अपनी ओर खींचते  हुये अत्यधिक वेदना भरे स्वर में कहती है- " लाला, त्योहार के दिन ऐसे रुठे जा रहे हो ! कैसा निर्दयी है रे ! यह भी नहीं सोचा इस घर में मेरा क्या होगा?"


   पहली बार लाल जोड़े में सादगी भरा श्रृंगार कर सोनम सकुचाते हुये उसके समक्ष सिर झुकाये आ खड़ी होती है। उसका पवित्र मुखमंडल सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। उसका ऐसा भव्य स्वरूप देख सुशांत के का अंग -प्रत्यंग रोमांचित हो उठा था। उसे सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वही जीवनदायिनी  ,प्राण- पोषणी देवी उसके समक्ष खड़ी है, जिसका स्वप्न वह देखा करता है।जिसपर वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर है। इस तनमन अवस्था में उसे स्वर्गीय आनंद की प्राप्ति हो रही थी। वह कहता है- "क्या दर्पण में कभी स्वयं को देखा है ? साक्षात देवी दुर्गा का प्रतिबिंब लग रही हैं आप। याद रखें यह मानव जीवन वेदना की मूर्ति बनने के लिए नहीं है। समय और भाग्य के अत्याचार से हम मुक्त हो चुके हैं।"  सोनम गूँगी  गुड़िया की तरह जड़वत खड़ी रही। "अरे ! चलना नहीं है कि बस यूँ ही समय व्यतीत करते रहेंगे हम। एक बार बोल दिया न ,मार्ग में कोई नाक-सिकोड़े हमें फ़र्क नहीं पड़ता।"


    देर रात तक सोनम को वह कोलकाता के मशहूर दुर्गा पांडालों में घुमाता रहा। भव्य पांडाल ,पूजा की पवित्रता,रंगों की छटा,तेजस्वी चेहरों वाली देवियाँ,धुनुची नृत्य, सिंदूर खेला और भी बहुत कुछ दिव्य और अलौकिक दृश्य वर्षों बाद देख वह अचम्भित-सी रह जाती है,मानो किसी नयी दुनिया की सैर कर रही हो, क्योंकि बीते तमाम वर्षों में उसका सफर घर से नर्सिंग होम तक ही रहा। पांडालों में जनसमुदाय उमड़ा हुआ था। इतनी भीड़ देख कर बिछुड़ जाने के भय से उसने सुशांत के बायें हाथ को कस कर पकड़ रखा था। ऐसे सौंदर्य,लज्जा, स्नेह,गर्व और विनय की देवी को सुशांत भी भला क्यों खोना चाहेगा ? घर लौटते समय उसने सोनम को उसके उसका मनपसंद  बंगाली मिष्ठान 'संदेश' खिलाया था। मेले की थकान से उसका शरीर शिथिल अवश्य पड़ गया था ,परंतु सदैव उदास रहने वाला मुखड़ा खिल उठा था। शुष्क आँखों में रोशनी थी। अब-तक अनजाने मोह से जूझ रहा उसका हृदय कुछ कहना चाहता था, फिर भी वह मौन रही।

   सुशांत दृढ़ चित्त मनुष्य था। उसे देवी प्रतिमा के समक्ष यह संकल्प लिया था कि सोनम की सूनी मांग उन्हीं की तरह लाल सिंदूर से भरी होगी । यह दीवाली उनके लिए विशेष होगी। 

वह जनाता था कि ऐसा हृदय कहाँ,जिसे प्रेम न जीत सके। प्रेम में फैली हुई बाँहों का आकर्षण भला किस पर न हुआ हो। वह इस तथाकथित सभ्य समाज को यह संदेश भी देना चाहता था कि यदि अधिक उम्र के लड़कों से लड़कियों को विवाह दिया जाता है,तो विशेष परिस्थितियों में वर से यदि कन्या ज्येष्ठा हो तो उसे भी वही मान मिलना चाहिए। सोनम को वह तब से चाहता था, जबसे स्वयं उसने यौवन की दहलीज पर पाँव रखा था। बस उसे अपने आत्मनिर्भर होने की प्रतीक्षा थी। ताकि वह सोनम को ढेरों खुशियाँ दे सके। उन दोनों के मध्य जो पवित्र रिश्ता रहा, उसे अब वह एक नाम देना चाहता है।  


     उधर, सोनम उसकी मंशा अनभिज्ञ थी। अपने लाला के प्रति उसके मन में शुद्ध स्नेह तो था, किन्तु स्वार्थ नहीं। उसने यह कल्पना तक नहीं की थी सुशांत कभी इसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखेंगा। वह स्तब्ध थी, आवेश में कहती है-"लाला ,क्या तू मेरी जगहँसाई करवा के रहेगा ?" किन्तु सुशांत निस्संकोच भाव से उसके हर प्रश्न का उत्तर दिये जा रहा था। वह कहता है - "मैंने एक नारी के सारे भाव मातृत्व, पत्नीत्व, गृहिणीत्व आपमें देखा है। मेरे लिये स्त्री कुत्सित वासना का माध्यम  नहीं है। वर्षों से साथ में हूँ,क्या आपको कभी मेरे आचरण में खोट नज़र आया?"उसके अधिकार भरे शब्दों में प्रेम का  गंगाजल छलक रहा था । उसकी मनोदशा देख सोनम को भी जीवन का मनोहर राग सुनाई देने लगा था। आँखों से प्रेम की किरणें निकलने लगी थीं। देखते ही देखते प्रेम से दोनों विह्वल हो उठे थे।मानो प्यासे को ठंडे जल की झील गई हो । संकोच की दीवार टूट चुकी थी।इसे सोनम की सहमति समझ सुशांत यह मधुर गीत गुनगुने लगता है-


ना उम्र की सीमा हो,ना जन्म का हो बंधन।

जब प्यार  करे कोई , तो देखे केवल मन।


    उधर, सोनम ! वह तो अपने पिया के रंग में रंगी जा रही थी। वीरान  घर में पवित्र अनुगूँज फिर से गूँजने लगी थी। किसी ने सत्य ही कहा है- "जब भी जीवन में सुनहरा पल आपके सामने हो उसके स्वागत से मुँह मत मोड़ो। छूट गया तो वापस नहीं आएगा।" और सोनम इस सच से अब नज़रें नहीं चुराना चाहती थी।

-व्याकुल पथिक

Wednesday 23 September 2020

कर्मफल

 


कर्मफल

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जीवन के रंग

     पितरपख का महीना चढ़ते ही गनेशू सेठ स्वर्गलोक सिधार गये। उन्होंने न किसी की सेवा ली न दवा-दुआ ! इतवार की सुबह आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही प्राण पखेरू उड़ गये। मुख में तुलसी-गंगाजल डालने का अवसर भी प्रियजनों को नहीं दिया। उन्हें इसकी ज़रूरत भी नहीं थी,ताउम्र अपने व्यवसाय को ही देवता समझ जो पूजा था। दाँतों से दमड़ी पकड़ने की कला में वे पूरे इलाके में विख्यात, यूँ कहें कुख्यात थे।जीवन के आखिरी दिनों तक दुकान में आसन जमाये रहे। पुत्र ने धंधे में तनिक भी उदारता बरती नहीं कि ग्राहकों के सामने ही लगते नसीहत देने । घंटों व्यापार की रीति-नीति समझाते।व्यवसाय में संबंधों की उपेक्षा की बात कहते। चंदा-सहयोग माँगने वालों को ढ़ोंगी बता, उनसे सावधान करते। यह भी उपदेश देते कि कुशल बनिया वो ही है,जो धंधे में पराई पीड़ा को अपने दिल से न लगाता हो। सेठजी स्वयं तो दर्शन-पूजन , दान-पुण्य एवं व्रत-उपासना से दूर रहते और यदि घर-दुकान में एक अगरबत्ती से अधिक बेटे-बहू ने सुलगायी नहीं कि ऐसा शोर मचाते मानो खजाना लुट गया हो। उनकी बस एक ही आकांक्षा थी--घर आयी लक्ष्मी तिजोरी से बाहर न जाए, इसीलिए उन्होंने न तो कभी अपने संकीर्ण हृदय का विस्तार किया और न ही संचित धन का धर्म-कर्म और समाजसेवा जैसे कार्यों में सदुपयोग ।


   उनका धन-लक्ष्मी से अत्यधिक स्नेह स्वभाविक था।जिसकी कृपा से वे गनेशू से सेठ गनेश प्रसाद बने थे। जब-तक जीवित रहें मुग्ध नेत्रों से अपने खजाने को तौलते रहे। धन देखते ही उनके हृदय में हिलोरें उठने लगतीं।आनंद से रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठता। बचपन में एक साइकिल तक को तरसने वाले सेठ की कोठी की शोभा अब बाहर खड़ी महंगी मोटरगाड़ी बढ़ाने लगी थी। शहर के उन चंद उद्यमियों में उनका नाम मिसाल था, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से विरासत में मिली बंजर भूमि पर सोने की फसल उगाई थी। फिर भी उनसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं थी। उनका सबसे बड़ा शत्रु यह कंजूसी ही थी। जिसे वे खुद के अमीर होने का राज समझते।धीरे-धीरे बेटे-बहू भी उनके रंग में ढलते गये। कृपणता के मामले में बाप-बेटे का रिश्ता लक्खीमल-करोड़ीमल जैसा था। घर के मुखिया के रूप में वे सर्वमान्य रहें,पूरा परिवार उनके इशारे पर चलता था।


      योग्य उत्तराधिकारी पाकर सेठ को विश्वास हो गया था कि ऐसे पुत्र के रहते उनकी दौलत पर समाज का कोई भी परोपकारी प्राणी डाका नहीं डाल सकता। फिर भी मन में जिसे लेकर आशंका थी, वह था उनका पौत्र भोंदू। तीन बहनों के बाद जब उसका जन्म हुआ था, तो सेठ ने यह कह कर किसी विशेष आयोजन पर पहरा बैठा दिया था कि लड़का जब-तक पाँच साल का नहीं हो जाए, उसके जन्म की खुशी में कोई भी उत्सव घर में नहीं होगा। लेकिन बच्चे के ननिहाल से आये ढेरों उपहार की गिनती करने वे स्वयं दरवाजे पर जा डटे। बच्चे की तीनों सगी बुआ भी अपने पिता की इस कंजूस पर तुनक उठी थीं।जिस कारण अनेक दिनों तक उन्होंने मायके की ओर झाँका भी न था । बच्चे के जन्म पर मायके से कीमती उपहार मिलने की उम्मीद जो टूट चुकी थी। ऐसे शुभ कार्यक्रमों में बुआओं का हक-पद बनता ही है।पिता की कंजूसी से उनकी ये अभिलाषा धरी रह गयी थी।


  वैसे भोंदू बच्चे का असली नाम नहीं था। हाँ, गनेशू उसे भोंदू कह इसलिए पुकारते ,क्योंकि वह अपने बाप-दाद की तरह धन-संग्रह की प्रवृत्ति से दूर था।जब-तब चोरी-छिपे अपने जेबख़र्च से ग़रीब सहपाठियों का सहयोग किया करता था। धन के संबंध में उसकी यह उदारता भला कंजूस सेठ को कैसे सहन होती,जिसने अपने जीवनकाल में भूल कर भी मदद के नाम पर किसी को फूटी कौड़ी न दी हो।इसलिए उन्होंने अपने कुलदीपक को धन-संचय संबंधी नसीहत देने के लिए अपनी पाठशाला में बुला लिया। बच्चे के समक्ष दानशीलता के दुर्गुण पर  घंटों व्याख्यान देते। घर आये अतिथि को शनिदेव समान बताते। ऐसी विपत्ति से निपटने के लिए उन्होंने जिन युक्तियों का सहारा लिया था, यह सब सबक भोले बालक को रटाते। उसे बार-बार  चेताते - "बेटे, यही मेरी अमीरी का राज है। इस फ़न में तेरा बाप भी पक्का है। अब तेरी बारी है ।"


    गनेशू सेठ में इस कंजूसी के अतिरिक्त कोई बुराई नहीं थी। मुहल्ले में हर कोई इसका साक्षी है कि उसने धूर्तता से यह धन अर्जित नहीं किया। उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया,किसी की शिकवा- शिकायत नहीं की।उनकी आँखों में तो उनका धंधा नाचता रहता,अन्य कार्यों के लिए वक़्त कहाँ था ? वे हर उस व्यक्ति की दृष्टि में शांतिप्रिय थे, जो उनकी तिजोरी पर बुरी नज़र नहीं रखता था। किन्तु कंजूसी के काले रंग पर और कोई रंग चटख हो भी तो कैसे , इसीलिये शुभचिंतकों में सेठ के सूमपना के किस्से उनके जीवनकाल में ही मशहूर थे। उनके सारे गुणों पर यह एक अवगुण भारी था।


   तो फिर सेठ की ऐसी सुखद मृत्यु उनके किस कर्मफल का पुण्य-प्रताप था ? मुहल्ले-टोले में इसीपर  नयी बहस छिड़ी हुई थी। आखिरकार बूढ़े भगेलू भगत से रहा नहीं गया- "भगवान के दरबार में यह कैसा अंधेर है ? इस पापात्मा को ऐसी सद्गति !" "हाँ भईया ,गज़ब कलयुग है ! जिसने कभी एक दमड़ी परोपकार पर ख़र्च नहीं किया,उस बूढ़े को ऐसी सुखद मौत!"-गंगा स्नान कर लौटी श्याम दुलारी काकी का स्वर भी कम कसैला नहीं था। यूँ समझे कि सेठ का स्वर्गारोहण उसपर सदैव तंज़ कसने वालों के रंज का कारण बन गया था।


      गनेशू सेठ की पुत्रियों का ससुराल दूर था। उनके आने के पश्चात कृत्रिम शोकाकुल वातावरण में अंतिम संस्कार की क्रिया पूर्ण हुई। अब रात्रि हो चुकी थी। नाते-रिश्तेदार अपने घरों को लौट गये थे। फुर्सत मिलते ही सेठ की बहू ने अपने पति  से कहा- "अजी सुनते हो ! बाबूजी कितने पुण्यात्मा थे, जो पितरपख में ऐसी सुखद मृत्यु मिली ? मैं तो इतना ही चाहती हूँ कि वे जहाँ भी हों ,अपनी छाया हमपर बनाए रखें। कुछ भावुक सी हो गयी थी सुमन।

   " हाँ, भई! मरे भी तो रविवार बंदी के दिन, व्यापार को भी क्षति नहीं पहुँची। यदि और दिन जाते तो दुकान जो बंद करनी पड़ती। " सेठ के लायक पुत्र ने पत्नी की ओर देख अपनी सहमति जताते हुये कहा।

   "अरे हाँ, वे तो कोरोना संक्रमणकाल में गये हैं। ऐसे में तेरही भोज की बस औपचारिकता ही हमें निभानी है।ऐसे नाज़ुक वक़्त में किसी के दरवाजे आता कौन है ?अन्यथा बड़ा आयोजन करने में डेढ़-दो लाख गल जाते, जिसे देख उनकी आत्मा भी दुःखी होती,किन्तु देखो जी, पिताजी ने मरते दम तक हमारा कितना ख्याल रखा।"

    मुदित मन से सेठ की पुत्रवधू ने जैसे ही अपनी बात पूरी की ही थी कि सामने भोंदू को खड़ा पाया। जिसकी दृष्टि निरंतर उस कूड़े के ढेर पर टिकी हुई थी। जिसपर बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्लियाँ पड़ी हुई थीं।सुबह इसी पर उसके दादा का पार्थिव शरीर रखा गया था। वह उस ओर संकेत कर सवाल करता है - " वह तो ठीक है माँ,परंतु यह बर्बादी क्यों ? सैकड़ों रुपये की सिल्लियों को आपने कूड़े में फेंक दिया ! और आप दोनों कहते हो कि दादाजी हमें आशीर्वाद दें! अरे ! उनकी आत्मा रो रही होगी, धन की ऐसी बर्बादी पर।"


  तनिक ठहर कर भोंदू ने फिर कहा - " और सुनो माँ , जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो आप दोनों कोरोना से मरना। मुझे न तो इन सिल्लियाँ पर पैसे खर्च करने पड़ेंगे और ना ही आपके क्रियाकर्म पर। सुना है कि यह काम सरकार अपने पैसे से करती है। हाँ माँ, तब दादा जी कितने खुश होंगे मुझ पर, आप दोनों से भी अधिक और उनकी अधूरी आकाँक्षा पूर्ण हो जाएगी,तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। है न पिताजी ! "


  अपने इकलौते पुत्र के ऐसे विचार जानकर अज्ञात भय से सिहर उठे थे वे दोनों। उनका मुख मलिन पड़ गया था पुत्र के शब्द तीर की भाँति मर्म- स्थल को छेद गये ।दानशीलता को सबसे बड़ा अवगुण समझने वाले गनेश सेठ ने जिस अच्छे दिन का सृजन अपने परिवार के लिए किया था,उसी कृपणता ने उनके परिवार की संवेदनाओं का इस प्रकार हरण कर लिया था कि बारह साल का मासूम बालक पैसे बचाने के लिए अपने माता-पिता को कोरोना से मरने की बात कर रहा है। क्या धन का लोभ मानव की आत्मा को इतने नीचे गिरा देता है ? किसी ने उचित ही कहा है-"बाढ़ै पूत पिता के धर्मे।"


    गणेश सेठ तो चले गये,किन्तु धन-संग्रह के प्रति उनकी अत्यधिक लालसा उनके परिवार का कर्मफल बन उसके उज्जवल भविष्य को निगलने  बढ़ी आ रही है। संभवतः इसे ही प्रारब्ध कहते हैं। जो पूर्व जन्म का संचित कर्म नहीं होता,वरन् इसी जन्म में स्वयं अथवा अपनों के द्वारा किये गये कर्म का फल है। संबंधित व्यक्ति अथवा उसका परिवार इसके दंड से अछूता नहीं है।इसलिए इस दम्पति को ऐसा लग रहा था मानो उनका अपना पुत्र ही दंड हाथ में लिए न्याय का देवता शनि बना सामने खड़ा हो...!

 

  तभी उन्हें फ़क़ीर बाबा की वही चिरपरिचित आवाज़ सुनाई पड़ती है। बाबा सेठ की दुकान पर आया करते थे। अपनी आदत के अनुसार बाप-बेटे दोनों ने ही कभी फूटी कौड़ी भी उन्हें न दी थी। और बाबा यह कह आगे बढ़ जाते थे-" ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा।" 


    सेठ गनेश प्रसाद के साथ भी यही हुआ,जिस दौलत को उन्होंने आजीवन हृदय से लगाए रखा ,दबे पाँव आयी मौत ने इतना अवसर भी नहीं दिया कि वे मृत्युलोक से प्रस्थान के पूर्व  अपनी तिजोरी में संचित उसी सम्पत्ति को अंतिम बार जीभर कर देख लेते।


   - व्याकुल पथिक



Wednesday 16 September 2020

दुःख! तुम लौट आओ

 दुःख! तुम लौट आओ


( जीवन के रंग)

 दिन भर अंगार बरसाने के बाद आसमां ने नीलिमा की भीनी चादर ओढ़ ली थी। जलती धूप से राहत मिलते ही लोकबाग खरीदारी अथवा मनोरंजन के लिए घर से निकल पड़े ,जिससे बाज़ारों में रौनक छा गयी। फलों की दुकानों पर लंगड़ा और दशहरी आम के खरीददारों की भीड़ लगी हुई थी। इस वर्ष मौसम अनुकूल होने से फलों का राजा आम ख़ास ही नहीं आमजनों के लिए भी सुलभ था। इन दुकानों पर निम्न-मध्य वर्ग के ग्राहकों को देख दीपेंदु का मन हर्षित हो उठा था। 


    यूँ तो आम हो या लीची उसकी स्वयं की स्वादेन्द्रिय इनके लिए अब कभी नहीं तरसती-तड़पती है । उसे तो यह भी नहीं पता कि पर्व-उत्सव के दिन कब निकल जाते हैं। वह पेट की आग बुझाने के लिऐ जैसे-तैसे कुछ भी बना-खा लेता है। जिह्वा पर नियंत्रण पाने में परिस्थितियों ने उसकी भरपूर मदद की है। थाली में पड़ीं कच्ची-पक्की रोटियाँ और उबली सब्जी उसके लिए पकवान समान हैं । जीवन की धूप-छाँव से दीपेंदु नहीं घबड़ाता, क्योंकि वह समझ चुका है कि जीवन की महत्ता वेदनाओं और पीड़ाओं को हँसते-हँसते सह लेने में है।


     फिर भी आज न जाने क्यों इन आमों के देख अतीत से जुड़ी अनेक घटनाओं का स्मरण हो आया । इस आनंद-स्मृति में उसे गुदगुदी-सी होने लगी। बात तब की है,जब वह अनाथ नहीं था। उसका अपना छोटा-सा घर था। माता-पिता और भाई-बहन संग थे। परिवार के सदस्यों में कितना स्नेह था, संवेदनाएँ थीं, सच्चाई की झंकार थी। सहानुभूति, दया और त्याग जैसे गुणों के कारण आनंद और उत्साह दो मासूम बच्चों की तरह उसके घर-आंगन में किलकारियाँ भरा करते। उसके परिवार में यदि कुछ नहीं था तो वह थी लक्ष्मी की कृपा। जिसका सामना उसका परिवार बड़े धैर्य के साथ कर रहा था। उन दिनों उसके पिता अपनी शिक्षा की डिग्री लिये नौकरी की तलाश में बनारस जैसे शहर में चप्पलें घसीट रहे थे। जीविका के लिए कोई ठोस आश्रय नहीं था। पुरुषार्थ कर के भी लक्ष्मी को प्रसन्न नहीं कर पाने का उन्हें दुःख था। बिना किसी जुगाड़ के नौकरी उस जमाने में भी इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितना की अब है। 



    धन के अभाव में दरिद्रता का दारूण दृश्य उत्पन्न हो गया,फिर भी परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति समर्पित थे। मिल कर दुःख बाँटने से कोई पीछे नहीं हटता। उसके परिवार की खुशी का यही राज था। दीपेंदु की माँ बड़े घर की बेटी थी। ससुराल के अभावग्रस्त जीवन ने उन्हें विचलित अवश्य किया, किन्तु शीघ्र ही परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने खुद को ढाल लिया। वे कोयल और शक्कर के अभाव में छत पर गिरे बरगद के सूखे पत्तों से अँगीठी सुलगा गुड़ के चूरे से चाय लेतीं,लेकिन उनके मुख से उफ ! किसी ने नहीं सुना। पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए दस-पाँच पैसे तक का हिसाब रखते। हर रात्रि जब वे ख़र्च पर नियंत्रण के लिए डायरी लेकर बैठते माथे पर चिन्ता की लकीरें और गहरा जातीं । हृदय-पीड़ा आँखों में न समाती और प्रभात होते ही बच्चे रट लगाने लगते - "मम्मी! भूख लगी है। नमक-रोटी दो न।"  ज़िगर के टुकड़ों की यह करुण पुकार सुनकर नित्य नयी चुनौतियों के साथ उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती। किन्तु जीवन के इस संघर्ष में किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। आशा का झिलमिलाता दीपक बुझने नहीं पाए इसके वे लिए एक-दूसर के मनोबल को ऊँचा रखते।


      दीपेंदु को भलिभाँति याद है कि इस विपत्ति में भी उसके परिवार में भाग्य का रोना नहीं था। उन तीनों बच्चों के लिए घर में होली, दीपावली और दशहरा जैसे पर्वों पर पकवान बनते। पूड़ी-कचौड़ी, दहीबड़ा-कांजीबड़ा और मगदल वे तीनों भाई-बहन त्योहारों पर छककर भोजन करते, क्योंकि ऐसे स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए उन्हें अगले किसी उत्सव की प्रतीक्षा जो करनी पड़ती थी। पर्वों पर रुपये-आठ आने के पटाखे अथवा रंग-अबीर उसके पिता लाना नहीं भूलते। पर्वों पर नये वस्त्र नहीं बने तो क्या हुआ,वे ऐसे स्वच्छ पोशाक पहनते , जिसे देख अड़ोस-पड़ोस के बच्चे यह नहीं कह सकते थे -" तुम बहन-भाइयों ने होली पर पुराने कपड़े पहन रखे हैं।" और हाँ, खिचड़ी(मकर संक्रांति) पर्व पर उन तीनों बच्चों के लिए माँ चूड़ा-लाई और गुड़ से निर्मित कनस्तर भर लड्डू बनाना कैसे भूल जातीं। बच्चों से ही तो सारे उत्सव हैं। 


  "वाह! घर के बने पकवान कितने स्वादिष्ट थे ! कितना स्नेह छिपा था इनमें।" बचपन के उन दिनों का स्मरण होते ही दीपेंदु का हृदय पुलकित हो उठा था। वे भी क्या दिन थे,जब दस पैसे की चाय लेने वह भागा-भागा उस खंडहरनुमा मकान में नीचे से ही चायवाले काका को पुकारते घुस जाता था।स्नेहवश वे मखनहिया दूध से बनी अपनी चाय से उसका गिलास भर देते थे। घर लौटते ही माँ उसे ढेरों आशीष देते न थकती।वह स्वयं से वार्तालाप में कुछ इस कदर खो-सा गया था कि सड़क पर हो रहे शोर-शराबे और मोटर-गाड़ियों की आवाज़ तक उसे नहीं सुनाई दे रही थी। 


     पिताजी को अपने रिश्तेदारों से  मदद लेना पसंद न था।घर की आर्थिक स्थिति को देख दीपेंदु समय से पहले समझदार हो गया था, इसीलिए त्योहार मनाने में उसके गुल्लक का भी छोटा-सा योगदान हुआ करता था। मिट्टी का शिवलिंग बना तो कभी आसमान से कट कर छत पर आ गिरीं पतंगों को आकर्षक बना कर वह मुहल्ले के दो-चार बच्चों को बेच दिया करता था। यदि कभी किसी हितैषी ने चार आने भी दिये तो उसे चाट-पकौड़ी में उड़ाने की जगह इसी गुल्लक में सहेजता । खिलौनेनुमा प्लास्टिक का यह गुल्लक ननिहाल में उसे बैनर्जी दादू ने दिया था। जो अब यहाँ बचत का महत्व समझा रहा था। यदि किसी पर्व पर जब कभी उसकी माँ के गहने,बरतन, साड़ी और पुराने उपन्यास बिके थे, तो उससे पहले उसका गुल्लक खाली होता था। ऐसा कर उसे खुशी मिलती थी। हर्ष-विषाद युक्त हृदय से उसके माता-पिता आपस में चर्चा करते - "हमारे ये बेसमझ बच्चे कितने बुद्धिमान हो गये हैं!हम क्या इन्हें कभी खुशियाँ नहीं दे पाएँगे ?"


     अरे हाँ ! याद आया, दूर्गापूजा पर पूरे परिवार के साथ वह शहर के पांडालों की सजावट देखने निकलता तो कबीरचौरा पर हलवाई की उस दुकान से लिये गये लौंगलता की मिठास वर्ष भर कायम रहती थी और होली पर बंगाली टोला के रसगुल्ले को कैसे भुला सकता है वह। जिसे खरीदने के लिए रिक्शे के पैसे की बचत की जाती। पाँव थक जाते, परंतु चेहरे पर मुस्कान होती। लाटभैरव के नक्कटैया की रात घर में पहली बार रेवाड़ी-चूड़ा पिताजी लेकर आते। वे तीनों बच्चों को मध्यरात्रि लाग और चौकियाँ दिखलाने ले जाते। 


   "अहा ! धनाभाव में सुख से भरे उन दिनों पर सारे धन-दौलत न्योछावर है।" दीपेंदु अपने उस दुःख भरे सुनहरे दिनों के स्मरण-लोभ में डूबता ही जा रहा था। उसे याद है कि उन बच्चों के जन्मदिन पर केक और मिष्ठान मंगाने में अभिभावक  असमर्थ थे, किन्तु चावल-दूध की खीर का भगवान को भोग लगाया जाता था। मेवे, इलाइची और केशर के सुंगध न सही,इसमें प्रेम की अद्भुत मिठास घुली होती थी। प्रसाद तो वैसे भी अमृततुल्य हो जाता है। सावन में ठेकुआ  चढाने वे सभी दुर्गाजी और मानस मंदिर जाते। मार्ग में लिये गये दो- तीन भुट्टे में ही पूरे परिवार की आत्मा तृप्त हो जाती थी। इनको खरीदने के लिए पैसे की व्यवस्था पहले से करनी पड़ती थी। फिर भी वे सभी कितने खुश थे।

 

   और उस दिन जब माँ ने नज़रें नीचे कर पिताजी से कहा था -"सुनते हैं ! बच्चों ने इस बार आम नहीं खाया है। वैसे,इसके लिए वे जिद्द नहीं करते,किन्तु यदि हो सके तो..।" वेदना से भीगे इस स्वर को सुनकर उसके पिता ने दुःख भरी दृष्टि से उसकी माँ को देखा था और फिर उन दोनों की गर्दन झुक गयी थी। उसी रात जब वे काम से लौटे तो उनके रुमाल में कुछ बँधा हुआ था। अत्यधिक उमस से बेचैन दीपेंदु को नींद नहीं आ रही थी।तभी उसने देखा कि माँ उन आमों के गले और सड़े हुये हिस्से को अलग कर रही थीं। एक सभ्रांत परिवार की स्त्री के लिए ऐसा करना लज्जाजनक था। डबडबा उठीं अपनी आँखों को उन्होंने बड़ी सफाई से बच्चों से छिपा लिया।



   दीपेंदु समझ गया कि पैसे के अभाव में उसके पिता ने अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा को ताक पर रख उन बच्चों के लिए उस ढेर में से कुछ आम छाँट लाये थे,जिन्हें दुकानदार सड़ा-गला और गुलगुले समझ अलग रख दिया करते थे। ग़रीब-गुरबे कम दाम पर इन्हें खरीद ले जाते। यह देख उस नासमझ बालक का हृदय में कंपन-सी उठी थी । उसे ऐसा आभास हुआ कि इन दागी आमों की मिठास ने उसकी आत्मा हमेशा के लिए तृप्त कर दी हो। अब भला बाज़ार में बिक रहें आमों में वह रस कहाँ? इन्हें खिलाने वाले वे अपने प्रियजन कहाँ ?


     जिस दुर्लभ निधि के स्मरण-मात्र से उसे परमसुख की अनुभूति हो रही थी।नस-नस में बिजली-सी दौड़ आयी थी। वह समझ गया है कि दुःख तो जीवन का सबसे बड़ा रस है,जो सबको माँजता है, सबको परखता है। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है। इसे संभाल कर रखना चाहिए। क्योंकि सुख के आते ही उसका परिवार बिखर गया था, संवेदनाओं के तंतु कमजोर पड़ गये थे और महत्वाकांक्षा ने आपसी संबंधों के मध्य दीवार खड़ी कर दी थी। काश ! दुःख के वे ही दिन  वापस लौट आते। उसके एकाकी जीवन में फिर से स्नेह रूपी पीयूष-वर्षा होती। दीपेंदु अपने नेत्रों से बह चले अश्रु प्रवाह को नहीं रोक पा रहा था।


-व्याकुल पथिक


 


Wednesday 9 September 2020

औक़ात

औक़ात
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  अरुण दा अब हमारे बीच नहीं रहें। कोरोना संक्रमण ने शोषित-उपेक्षित वर्ग के हक़-अधिकार के लिए ताउम्र संघर्ष करने वाले इस सादगी पसंद राजनेता को जिस दिन अपने गिरफ़्त में लिया,उसी दिन यह आशंका गहरा गयी थी कि  दादा का उसके खूनी पंजे से बचना संभव नहीं है। उनके शरीर में पहले से ही वे सारे रोग मौजूद थे,जिसके गृह में प्रवेश करते ही कोरोना की मारक क्षमता प्रबल हो जाती है, इसलिये उन्हें बचाया नहीं जा सका। तमाम छोटे-बड़े श्रमिक आंदोलनों में कभी मेघ-गर्जना करने वाले इस महान आत्मा के निधन पर मानो पूरा शहर शोकाकुल हो उठा था। एक सच्चे जनसेवक के लिए इससे बड़ी और क्या श्रद्धांजलि होगी ? मृत्यु तो जीवन का अंतिम सत्य है। प्राणी चाहे कितना भी सामर्थ्यवान हो, किन्तु मृत्युदेवी के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण करना ही पड़ता है।

      वैसे, उम्र के इस पड़ाव पर उनकी राजनैतिक गतिविधि शिथिल पड़ गयी थी, किन्तु इस शहर में दबंग राजनेता के रूप में उनकी वही पुरानी पहचान कायम थी। वे किसी पद-प्रतिष्ठा के मोहताज नहीं थे। उन्होंने विलासिता के जाल में फँस कर अपने संस्कारों को कभी गिरने नहीं दिया। सफेद मोटा कुर्ता पहने कद-काठी से मज़बूत इस शख्स में न जाने कौन-सा ऐसा जादू था कि उसकी एक आवाज़ पर असंगठित मज़दूर  तबके के लोग अनुशासित सिपाहियों की तरह एक मंच पर आ जुटते थे। जो अरुण दा को देवता समझते , उनकी पूजा करते और उनके लिए प्रचंड शासन-शक्ति से भी टकरा जाते थे। 

     अरुण दा जब कालेज में पढ़ते थे, तो उन्होंने अपनी छात्र राजनीति को श्रमिक वर्ग के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था।  किसकी मजाल  कि किसी मज़दूर को मजबूर समझ वह उसका गला हलाल कर दे ? दादा की युवा फ़ौज उस पर हल्ला बोलने को तत्पर रहती थी। विधाता ने उन्हें अच्छी कद-काठी , अक्खड़पन के साथ कड़क आवाज़ भी दे रखी थी। वैसे भी जो व्यक्ति अपने ईमान पर डटा हो, उसे किसी प्रलोभन से डिगाना हँसी खेल नहीं होता है। मजदूरों के इस मसीहा पर आँखें तरेरने का मतलब था --'बर्रे के छत में हाथ डालना !' इसलिये धनबल और बाहुबल से यहाँ काम नहीं लिया जा सकता था। धनिकों का जुगाड़ तंत्र भी बेमानी था, कौन अफ़सर चाहेगा कि ऐसे आंदोलनकारी से बेज़ा उलझकर  नगर की शांति भंग होने दिया जाए।  और फिर तबादले से बचने के लिए वह 'कुर्सी पकड़' में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करे। 

      उनकी राजनीति जब चटकी तो सोशलिस्ट संगठनों ने आगे बढ़ कर सलामी ठोकी थी। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का सानिध्य प्राप्त हुआ और इसतरह से उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी श्रमिक वर्ग को समर्पित कर दिया था। ऐसे तबके के प्रति उन्हें सच्चा प्रेम था और इनके साथ अन्याय होने पर उनका हृदय तिलमिला उठता था, क्योंकि अन्य राजनेताओं की तरह ये सब उनके लिए 'वोट बैंक' नहीं थे। जिसका परिणाम यह रहा कि ऐसे अभागों पर अत्याचार कर जो लोग हँसते और तालियाँ बजाते थे, वे सब सहम उठे थे। 
   
     किन्तु सियासत में साफ़गोई भला कहाँ चलती है। यहाँ तो बगुला भक्त बन उन्हीं मछलियों को गटकना होता है, जो उसपर विश्वास करती हों। सो,इन ग़रीबों संग दग़ाबाज़ी वे कैसे कर सकते थे, इसीलिये सिद्धांत विहीन राजनीति करने वाली पार्टियों संग उनकी विधि न बैठ पायी। वे फिर से एकला चलो रे.. की डाक लगाने लगें। अब तरुणाई ढलने लगी थी। यहाँ तक की अपना घर भी नहीं बसाया ,क्योंकि उनका मानना था कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा यह वर्ग ही उनकी संतान है। जिनके लिए उन्हें कुछ करना है।

       अपने देश की सियासत का हाल यह है कि पूरे पाँच वर्षों तक बड़े राजनैतिक दलों के जनप्रतिनिधियों को कोसने वाली जनता को जब भी अपना प्रतिनिधि बदलने का अवसर मिलता है, तो वह फिर से दल, जाति और मजहब के मकड़जाल में उलझ जाती है। उसकी मति मारी जाती है, क्योंकि अगले पाँच वर्षों तक उसे पुनः हाय-हाय करने की आदत-सी पड़ चुकी है। अपनी जनसेवा के बल पर किसी निहंग द्वारा आम चुनाव जीतना इस अर्थयुग में चमत्कार से कम नहीं है। जनता की इसी कमजोरी का लाभ उठा कर धनबल, बाहुबल और जातिबल से संपन्न लोगों ने लोकतंत्र को जुगाड़तंत्र में बदल रखा है। जिस कारण सफ़ेदपोश जनता के लिए काम करने वाले सच्चे राजनेताओं को उनकी औक़ात जनता की अदालत में ही बता देते हैं, ताकि उसका मनोबल इसप्रकार से टूट जाए कि या तो वह राजनीति से सन्यास ले ले अथवा उन जैसे गिरगिट लोगों की टोली का हिस्सा हो ले। 

   किन्तु उस वर्ष म्युनिसिपैलिटी के इलेक्शन ने इतिहास बदल दिया था । बात सन् 1995 की है। निहंगों की फ़ौज को न जाने क्या सूझी कि उसने अपने प्रिय नेता का राजतिलक करने की ठान ली । चेयरमैन के उम्मीदवार के रुप दादा के नाम की घोषणा होते ही शहरी राजनीति में वर्चस्व रखने वाले एक दल के नेताओं ने उपहास किया था-"अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। इस चुनाव में उसे अपनी औक़ात समझ में आ जाएगी ।"

       उनका कहना अनुचित न था। एक और विशाल संगठन और उसके पारम्परिक समर्थक और दूसरी ओर मुट्ठी भर लोग। न कोई संगठन- न पार्टी। सबसे कठिन कार्य तो यह था कि घर-घर जाकर अपरिचित चुनाव चिन्ह की पहचान करवाना। और तभी श्रमिक वर्ग का सिंहनाद सुनाई पड़ा था- "अरुण नहीं,यह आँधी है, मीरजापुर का गाँधी है ।" इक्के, ठेले, रिक्शे और खोमचे वालों से लेकर हर मजदूर की जुबां पर सिर्फ़ यही जुमला था। देखते ही देखते ये मज़दूर मजबूर नहीं मज़बूत दिखने लगें ।  वज्रपात-सा हुआ था प्रतिद्वंद्वियों पर। चुनाव परिणाम जब आया तो औक़ात बताने वालों को खुद अपनी औक़ात समझ में आ गयी थी।

     यह चेयरमैन पद उनके जीवनभर की कमाई रही। जनता ने इस विश्वास के साथ उन्हें मीरजापुर का प्रथम नागरिक बनाया था कि जो व्यक्ति पूर्णतया निःस्वार्थ है,जिसे धन और कीर्ति की लालसा नहीं है,वही अन्य की अपेक्षा उत्तम कार्य कर सकता है।

    ख़ैर, इस  चुनाव के बाद दुबारा कोई इलेक्शन अरुण दा भी नहीं जीत सकें,क्योंकि जीवन में सुनहरा अवसर सदैव नहीं आता है। फिर भी उन्होंने अपने कार्यकाल में जनहित में जो कार्य किये,उसका गुणगान आज भी होता है।  किसी भी इंसान को उसका यही व्यक्तित्व और कृतित्व  अमरत्व प्रदान करता है।

---व्याकुल पथिक






Wednesday 2 September 2020

मोक्ष



मोक्ष
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(जीवन के रंग)

   बचपन से ही वह सुनता आ रहा है कि जैसा कर्म करोगे-वैसा फल मिलेगा , किन्तु अब जाकर  इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पाप-पुण्य की परिभाषा सदैव एक-सी नहीं होती है। बहुधा उदारमना व्यक्ति को भी कर्म की इसी पाठशाला में ऐसा भयावह दंड मिलता है कि उसकी अंतर्रात्मा यह कह चीत्कार कर उठती है - " हे ईश्वर ! मेरा अपराध तो बता दे।" और प्रतिउत्तर में ज्ञानीजन कहते हैं -" तुम्हारा प्रारब्ध !" जिसके विषय में हमें कुछ भी नहीं पता..!!

   आज इस मलिन बस्ती के खंडहरनुमा मकान के बदबूदार बरामदे में जिस वृद्धा का निर्जीव शरीर पड़ा हुआ था, उसके साथ भी नियति ने कुछ ऐसा ही तमाशा किया था। उसकी मौत पर आँसू बहाने वाला कोई न था। मुहल्लेवाले उसकी काया को सद्गति देने की शीघ्रता में थे।शहर के उस छोर पर रहने वाले वृद्धा के पुत्र को सूचना भेजी गयी थी। बेटा नालायक ही सही किन्तु मुखाग्नि देने का अधिकार तो उसी का बनता है !

   मानव जीवन की यह कैसी विडंबना है कि जिस वृद्धा ने ताउम्र परिश्रम किया हो, बहुतों पर उसके उपकार रहे हों,लेकिन आखिरी वक़्त भाग्य ने उसे औरों के रहम पर छोड़ दिया था।  रबड़ी-मलाई वाला कुल्हड़ जिसने उसकी आत्मा को तृप्त कर मोक्ष प्रदान किया था, वह भी उसे  किसी ग़ैर ने ही दिया था। उसकी मृत्यु के समय मुख में तुलसी-गंगाजल डालना तो दूर आस- पास कोई न था। आज सुबह उसका निर्जीव शरीर देख सभी ने उसकी मुक्ति पर संतोष प्रकट किया था।

     दीनू भी वहीं ख़ामोश खड़ा था। उसका संवेदनशील हृदय वेदना से कराह उठा था । वह आसमान की ओर निगाहें उठा कर सवाल करता है- " क्या इसीलिए तुझे दीनबंधु कहा जाता है !" उसके मानसपटल पर इस वृद्धा को लेकर अतीत से जुड़ी अनेक घटनाएँ ताजी हो गईं।

    जिस बुढ़िया के कफ़न के लिए ये सभी आपस में चंदा कर रहे थे, उसे कभी परांठेवाली काकी के नाम से पुकारा जाता था। जिसकी मशहूर दुकान के गरमागरम आलू के परांठे इतने स्वादिष्ट होते थे कि दिन चढ़ते ही ग्राहकों की कतार लग जाती थी। दीनू का परिचय उससे तब हुआ था, जब वह पहली बार दस पैसा लेकर उनकी दुकान  पर रसेदार तरकारी लेने गया था। वह उसके दादी की उम्र की थी। तनिक सकुचाते हुये उसने दस का सिक्का और गिलास उसके सामने बढ़ाया था। 
    अच्छे पोशाक में खड़े इस बालक को विस्मित नेत्रों से देख काकी ने परिचय पूछा था। "अच्छा, तो तू मास्टर का लड़का है !" और फिर गिलास भर तरकारी उसे थमाते हुये पैसा वापस करने लगी। " नहीं ,आप इसे रख लो ,मम्मी डाँटेगी।" बच्चे ने दृढ़तापूर्वक कहा था। "अच्छा ठीक है रे ! पर क्या मैं तेरी दादी जैसी नहीं ?"

   दीनू के परिवार के लिए वह सबसे बुरा दौर था। उसके पिता दिन भर चप्पल घिसते फिरते और शाम को उसकी माँ को यह चिंता खाये जाती कि सूखी रोटी कैसे पति के सामने रखी जाए ? पापा के लिए परांठे की दुकान से मसालेदार सब्जी लाने का सुझाव दीनू का ही था। घर की परिस्थिति देख वह समय से पहले होशियार जो हो गया था।

   एक दिन परांठेवाली दादी ने उसकी माँ से कहा -"बहू, मैं तो गँवार हूँ। हो सके तो मेरे पोते को अपने घर बुला लिया कर।तेरे बेटे के साथ कुछ पढ़ने-लिख लेगा ।" अपने पोते को गिनती-पहाड़ा रटते देख काकी दीनू को ढेरों आशीर्वाद देती। मानो उसके अरमान को पर लग गये हों। दो परिवार एक-दूसरे के करीब आ गये थे। एक के पास धन था,दूसरे के पास विद्या।

   वक़्त ने अचानक करवट लिया और फिर काकी की खुशहाल दुनिया में भूचाल-सा आ गया। वर्षों पुरानी उसकी दुकान खाली करा ली गयी। वह आँचल पसार दबंग भूस्वामी के पाँव पकड़ गिड़गिड़ाती रह गयी । उसे बनारस जैसे शहर की इस बड़ी मंडी में नयी दुकान नहीं मिली। आजीविका के लिए बेटा-बहू नगर के बाहरी इलाके में जा बसे। नयी जगह पर धंधा चला नहीं ,तो वे दोनों काकी पर बरसते। इंसान हर दुःख सह लेता,अपनों का तिरस्कार नहीं।

     मन कठोर कर काकी अपने पुराने मुहल्ले में आ गयी। यहाँ आकर उसे बोध हुआ कि दुनिया तो पैसे की है, जब धन नहीं तो आत्मसम्मान कैसा ? अब उनके प्रति सभी का दृष्टिकोण बदल गया था। पेट पालने के लिए उसने एक चबूतरे पर  बैठ वर्षों टॉफी-बिस्कुट बेचा था। उम्र के साथ-साथ उसके जीवन में अंधकार बढ़ता जा रहा था। उसका परिवार और स्वप्न दोनों बिखर गया था । मानो ग़रीबी और बेबसी की जिंदा तस्वीर हो वह। काकी को इस हाल में जब भी  दीनू देखता उसका कलेजा धक से रह जाता, किन्तु उसमें दयाभाव दिखलाने के सिवा कुछ भी मदद करने का सामर्थ्य न था। ऐसी स्थिति में उसे अपनी दीनता पर लज्जा आती।

   पिछले कुछ दिनों से काकी इसी बरामदे में टूटी खाट पर निःसहाय पड़ी हुई थी। अतिसार की बीमारी ने उसके तन को निचोड़ लिया था। उसकी साँसें मंद पड़ती जा रही थीं। आसपास अपना कोई न था। मन को दिलासा देने के लिए   वह अपने सुनहरे अतीत को याद कर रही थी। पति के मृत्य शोक को किनारे कर उसने कितने जतन से अपने पुत्र मोहन को पाला था। दिन-रात छाती फाड़कर काम करती थी। नाते-रिश्तेदार से लेकर मुहल्ले-टोले वालों के दुःख-दर्द में भी कभी पैसे से मदद में पीछे न हटती। जिसका यही फल मिला उसे ? धीरे-धीरे उसके तन की पीड़ा पर मन की वेदना भारी पड़ती जा रही थी।

     जिन नाती-पोते के लिए रात में पड़ोस की दुकान से रबड़ी-मलाई भरे कुल्हड़ घर लेकर आती थी, आज जब वह बेसुध खाट पर पड़ी है तो इन सभी की आँखों का पानी मर गया है। किसी ने नहीं सोचा कि बुढ़िया क्या खाती है ?  वृद्धावस्था में स्वादेन्द्रिय कम विद्रोह नहीं करती है । रबड़ी-मलाई की याद आते ही काकी के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा था। वह अपनी अन्य पीड़ा को भूल स्वादेन्द्रिय की गुदगुदाहट के वशीभूत हो जाती है । "आह ! कितनी स्वादिष्ट मलाई थी। काश ! कोई हितैषी होता जो उसकी आत्मा को तृप्त कर देता।"  मलाई का स्वाद उसे बेक़ल किये हुये था। जिस पर नियंत्रण पाना उसके बस में नहीं जान पड़ता था। "हाँ, दीनू से कह के देखूँ।और किसी से कहने में तो लज्जा आएगी। कहीं झिड़क न दें मुहल्लेवाले कि इस बुढ़िया को देखों आँव पड़ रहा है और मलाई खाएगी।"

    काकी के इस बालहठ ने दीनू के हृदय को हिला कर रख दिया था। वह समझ गया था कि दीपक बुझने से पहले भभक रहा है। काकी के सूख चुके तन-मन में नवजीवन का संचार अब संभव नहीं था। .....उस रात दीनू दबे पाँव आया था। उसके हृदय में एक द्वंद जारी था। जिसे परे रख उसने अपने ही हाथों से स्नेहपूर्वक काकी को मलाई खिलायी थी। होठों पर जीभ फेर काकी ने गदगद स्वर में उसे जी भर के दुआएँ दी थी। उसकी आखिरी इच्छा जो पूरी हो गयी थी।  

      दीनू ने काकी को अमृत दिया अथवा विष  उसे नहीं पता। वह सिर्फ़ इतना जानता है कि उस कुल्हड़ भर मलाई ने उसकी परांठेवाली दादी की आत्मा को तृप्त कर दिया था। जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो गया था। फिर कभी वह अपने पुत्र और पौत्र से मिलन के लिए नहीं तड़पेगी। मलाई के लिये नहीं तरसेगी। क्योंकि काकी जीवन का हर रंग देख इस निष्ठुर जगत से जा चुकी थी। उसे मोक्ष मिल गया था। 

    वह आर्द्र नेत्रों से काकी के उज्जवल पड़ चुके मुख को देखता है। जिसपर अद्भुत शांति थी। दीनू जीवन और जगत के इस रहस्य को समझ गया था कि आज जो राजा है कल वह भिखारी हो सकता है।जिसे यह बोध हो गया कि महल और मिट्टी का अस्तित्व एक ही है, वही सुखी है। तभी उसे वही चिरपरिचित आवाज़ सुनाई पड़ती है-राम नाम सत्य है..।

 - ©व्याकुल पथिक