Followers

Wednesday 2 September 2020

मोक्ष



मोक्ष
*****
(जीवन के रंग)

   बचपन से ही वह सुनता आ रहा है कि जैसा कर्म करोगे-वैसा फल मिलेगा , किन्तु अब जाकर  इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पाप-पुण्य की परिभाषा सदैव एक-सी नहीं होती है। बहुधा उदारमना व्यक्ति को भी कर्म की इसी पाठशाला में ऐसा भयावह दंड मिलता है कि उसकी अंतर्रात्मा यह कह चीत्कार कर उठती है - " हे ईश्वर ! मेरा अपराध तो बता दे।" और प्रतिउत्तर में ज्ञानीजन कहते हैं -" तुम्हारा प्रारब्ध !" जिसके विषय में हमें कुछ भी नहीं पता..!!

   आज इस मलिन बस्ती के खंडहरनुमा मकान के बदबूदार बरामदे में जिस वृद्धा का निर्जीव शरीर पड़ा हुआ था, उसके साथ भी नियति ने कुछ ऐसा ही तमाशा किया था। उसकी मौत पर आँसू बहाने वाला कोई न था। मुहल्लेवाले उसकी काया को सद्गति देने की शीघ्रता में थे।शहर के उस छोर पर रहने वाले वृद्धा के पुत्र को सूचना भेजी गयी थी। बेटा नालायक ही सही किन्तु मुखाग्नि देने का अधिकार तो उसी का बनता है !

   मानव जीवन की यह कैसी विडंबना है कि जिस वृद्धा ने ताउम्र परिश्रम किया हो, बहुतों पर उसके उपकार रहे हों,लेकिन आखिरी वक़्त भाग्य ने उसे औरों के रहम पर छोड़ दिया था।  रबड़ी-मलाई वाला कुल्हड़ जिसने उसकी आत्मा को तृप्त कर मोक्ष प्रदान किया था, वह भी उसे  किसी ग़ैर ने ही दिया था। उसकी मृत्यु के समय मुख में तुलसी-गंगाजल डालना तो दूर आस- पास कोई न था। आज सुबह उसका निर्जीव शरीर देख सभी ने उसकी मुक्ति पर संतोष प्रकट किया था।

     दीनू भी वहीं ख़ामोश खड़ा था। उसका संवेदनशील हृदय वेदना से कराह उठा था । वह आसमान की ओर निगाहें उठा कर सवाल करता है- " क्या इसीलिए तुझे दीनबंधु कहा जाता है !" उसके मानसपटल पर इस वृद्धा को लेकर अतीत से जुड़ी अनेक घटनाएँ ताजी हो गईं।

    जिस बुढ़िया के कफ़न के लिए ये सभी आपस में चंदा कर रहे थे, उसे कभी परांठेवाली काकी के नाम से पुकारा जाता था। जिसकी मशहूर दुकान के गरमागरम आलू के परांठे इतने स्वादिष्ट होते थे कि दिन चढ़ते ही ग्राहकों की कतार लग जाती थी। दीनू का परिचय उससे तब हुआ था, जब वह पहली बार दस पैसा लेकर उनकी दुकान  पर रसेदार तरकारी लेने गया था। वह उसके दादी की उम्र की थी। तनिक सकुचाते हुये उसने दस का सिक्का और गिलास उसके सामने बढ़ाया था। 
    अच्छे पोशाक में खड़े इस बालक को विस्मित नेत्रों से देख काकी ने परिचय पूछा था। "अच्छा, तो तू मास्टर का लड़का है !" और फिर गिलास भर तरकारी उसे थमाते हुये पैसा वापस करने लगी। " नहीं ,आप इसे रख लो ,मम्मी डाँटेगी।" बच्चे ने दृढ़तापूर्वक कहा था। "अच्छा ठीक है रे ! पर क्या मैं तेरी दादी जैसी नहीं ?"

   दीनू के परिवार के लिए वह सबसे बुरा दौर था। उसके पिता दिन भर चप्पल घिसते फिरते और शाम को उसकी माँ को यह चिंता खाये जाती कि सूखी रोटी कैसे पति के सामने रखी जाए ? पापा के लिए परांठे की दुकान से मसालेदार सब्जी लाने का सुझाव दीनू का ही था। घर की परिस्थिति देख वह समय से पहले होशियार जो हो गया था।

   एक दिन परांठेवाली दादी ने उसकी माँ से कहा -"बहू, मैं तो गँवार हूँ। हो सके तो मेरे पोते को अपने घर बुला लिया कर।तेरे बेटे के साथ कुछ पढ़ने-लिख लेगा ।" अपने पोते को गिनती-पहाड़ा रटते देख काकी दीनू को ढेरों आशीर्वाद देती। मानो उसके अरमान को पर लग गये हों। दो परिवार एक-दूसरे के करीब आ गये थे। एक के पास धन था,दूसरे के पास विद्या।

   वक़्त ने अचानक करवट लिया और फिर काकी की खुशहाल दुनिया में भूचाल-सा आ गया। वर्षों पुरानी उसकी दुकान खाली करा ली गयी। वह आँचल पसार दबंग भूस्वामी के पाँव पकड़ गिड़गिड़ाती रह गयी । उसे बनारस जैसे शहर की इस बड़ी मंडी में नयी दुकान नहीं मिली। आजीविका के लिए बेटा-बहू नगर के बाहरी इलाके में जा बसे। नयी जगह पर धंधा चला नहीं ,तो वे दोनों काकी पर बरसते। इंसान हर दुःख सह लेता,अपनों का तिरस्कार नहीं।

     मन कठोर कर काकी अपने पुराने मुहल्ले में आ गयी। यहाँ आकर उसे बोध हुआ कि दुनिया तो पैसे की है, जब धन नहीं तो आत्मसम्मान कैसा ? अब उनके प्रति सभी का दृष्टिकोण बदल गया था। पेट पालने के लिए उसने एक चबूतरे पर  बैठ वर्षों टॉफी-बिस्कुट बेचा था। उम्र के साथ-साथ उसके जीवन में अंधकार बढ़ता जा रहा था। उसका परिवार और स्वप्न दोनों बिखर गया था । मानो ग़रीबी और बेबसी की जिंदा तस्वीर हो वह। काकी को इस हाल में जब भी  दीनू देखता उसका कलेजा धक से रह जाता, किन्तु उसमें दयाभाव दिखलाने के सिवा कुछ भी मदद करने का सामर्थ्य न था। ऐसी स्थिति में उसे अपनी दीनता पर लज्जा आती।

   पिछले कुछ दिनों से काकी इसी बरामदे में टूटी खाट पर निःसहाय पड़ी हुई थी। अतिसार की बीमारी ने उसके तन को निचोड़ लिया था। उसकी साँसें मंद पड़ती जा रही थीं। आसपास अपना कोई न था। मन को दिलासा देने के लिए   वह अपने सुनहरे अतीत को याद कर रही थी। पति के मृत्य शोक को किनारे कर उसने कितने जतन से अपने पुत्र मोहन को पाला था। दिन-रात छाती फाड़कर काम करती थी। नाते-रिश्तेदार से लेकर मुहल्ले-टोले वालों के दुःख-दर्द में भी कभी पैसे से मदद में पीछे न हटती। जिसका यही फल मिला उसे ? धीरे-धीरे उसके तन की पीड़ा पर मन की वेदना भारी पड़ती जा रही थी।

     जिन नाती-पोते के लिए रात में पड़ोस की दुकान से रबड़ी-मलाई भरे कुल्हड़ घर लेकर आती थी, आज जब वह बेसुध खाट पर पड़ी है तो इन सभी की आँखों का पानी मर गया है। किसी ने नहीं सोचा कि बुढ़िया क्या खाती है ?  वृद्धावस्था में स्वादेन्द्रिय कम विद्रोह नहीं करती है । रबड़ी-मलाई की याद आते ही काकी के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा था। वह अपनी अन्य पीड़ा को भूल स्वादेन्द्रिय की गुदगुदाहट के वशीभूत हो जाती है । "आह ! कितनी स्वादिष्ट मलाई थी। काश ! कोई हितैषी होता जो उसकी आत्मा को तृप्त कर देता।"  मलाई का स्वाद उसे बेक़ल किये हुये था। जिस पर नियंत्रण पाना उसके बस में नहीं जान पड़ता था। "हाँ, दीनू से कह के देखूँ।और किसी से कहने में तो लज्जा आएगी। कहीं झिड़क न दें मुहल्लेवाले कि इस बुढ़िया को देखों आँव पड़ रहा है और मलाई खाएगी।"

    काकी के इस बालहठ ने दीनू के हृदय को हिला कर रख दिया था। वह समझ गया था कि दीपक बुझने से पहले भभक रहा है। काकी के सूख चुके तन-मन में नवजीवन का संचार अब संभव नहीं था। .....उस रात दीनू दबे पाँव आया था। उसके हृदय में एक द्वंद जारी था। जिसे परे रख उसने अपने ही हाथों से स्नेहपूर्वक काकी को मलाई खिलायी थी। होठों पर जीभ फेर काकी ने गदगद स्वर में उसे जी भर के दुआएँ दी थी। उसकी आखिरी इच्छा जो पूरी हो गयी थी।  

      दीनू ने काकी को अमृत दिया अथवा विष  उसे नहीं पता। वह सिर्फ़ इतना जानता है कि उस कुल्हड़ भर मलाई ने उसकी परांठेवाली दादी की आत्मा को तृप्त कर दिया था। जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो गया था। फिर कभी वह अपने पुत्र और पौत्र से मिलन के लिए नहीं तड़पेगी। मलाई के लिये नहीं तरसेगी। क्योंकि काकी जीवन का हर रंग देख इस निष्ठुर जगत से जा चुकी थी। उसे मोक्ष मिल गया था। 

    वह आर्द्र नेत्रों से काकी के उज्जवल पड़ चुके मुख को देखता है। जिसपर अद्भुत शांति थी। दीनू जीवन और जगत के इस रहस्य को समझ गया था कि आज जो राजा है कल वह भिखारी हो सकता है।जिसे यह बोध हो गया कि महल और मिट्टी का अस्तित्व एक ही है, वही सुखी है। तभी उसे वही चिरपरिचित आवाज़ सुनाई पड़ती है-राम नाम सत्य है..।

 - ©व्याकुल पथिक




    

25 comments:

  1. मार्मिक आलेख।
    परिभाषाएँ तो देश-काल के अनुसार बनती हैं।

    ReplyDelete
  2. मोक्ष की एक परिभषा ये भी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी ,उचित कहा आपने, अंतिम समय यदि मन को तृप्ति मिल गयी, तो आगे मुक्ति ही है।

      Delete
  3. शशि जी बहुत कुछ सीखा जाती है आपकी ये कहानी।"जिसे यह बोध हो गया कि महल और मिट्टी का अस्तित्व एक ही है, वही सुखी है"आपकी कहानी का ये वाक्य अपने आप में जीवन का सार है जो मनुष्य इसे समझ गया और संसार के भौतिकवाद के जाल में फंसने से बच गया शायद उसने ही जीते जी मुक्ति और मोक्ष दोनों का अनुभव कर लिया !

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी आभार प्रवीण जी। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहती है।

      Delete
  4. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 04-09-2020) को "पहले खुद सागर बन जाओ!" (चर्चा अंक-3814) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

    ReplyDelete
  5. मंच पर स्थान देने के लिए आभार मीना दीदी।

    ReplyDelete
  6. बहुत कुछ छिपा है, दादी के देहांत में!
    बस आंखें हों!

    ReplyDelete
  7. बेहद मार्मिक कहानी। जिसके ऊपर बितती है, वही जानता है। कभी-कभी संबंध विडंबनाओं के रूप में सामने आते हैं। कोई कह सकता है कि यह संभव नहीं है, तो कोई कह सकता है कि इस दुनिया में सब कुछ संभव है। भविष्य में क्या है, कोई नहीं जानता। भाग्य महत्त्वपूर्ण है इसमें कोई दो राय नहीं। मनुष्य को यथाशक्ति हमेशा सावधान रहना चाहिए। जो लोग कभी मुखर थे, अब मौन हो गए हैं। जो लोग हमेशा गतिशील रहते थे, अब जड़वत हो गए हैं। जिन्हें महफ़िल पसंद थी, अब वह एकाकी जीवन जी रहे हैं। जब कोई विकल्प नहीं है, तो हर ग़म पर मुस्कुराना, मोक्ष के मार्ग में एक क़दम है। कभी-कभी बदली हुई परिस्थितियाँ दुर्भाग्य लेकर आती हैं। कठोर से कठोर किरदार भी उन परिस्थितियों को संभाल नहीं पाते। थककर अंत में इस दुनिया से मुक्ति चाहते हैं। शशि भाई बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने। 🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी अनिल भैया, सदैव की तरह विषय को विस्तार देती स्नेहिल प्रतिक्रिया।
      इसीलिए नियति का जीवन में विशेष महत्व है। हम उसके समक्ष विवश हैं।🙏

      Delete
  8. बहुत मर्मान्तक सृजन शशि भैया | बूढी माँ के माध्यम से आपने समाज में बढ़ते जा रही वरिष्ठजनों की व्यथा को शब्दों में साकार किया है | उसके साथ ही काकी की अच्छे दिनों की जीवटता और उनका ह्रदय विगलित कर देने वाला अंतिम समय जीवन की बहुत बड़ी सीख है | बुढापे में ना तो खाली हाथ रहना अच्छा है ना ज्यादा हठी होना | हठ के साथ साथ घर छोड़ना अपना स्थान बड़ी आसानी से दूसरों को सौंपना है |जब अपने - अपने ना हुए दूसरे क्यों गले लगाने लगे | दीनू जैसा व्यक्ति , जो अंतिम इच्छा पूरी कर व्यक्ति को मोक्ष प्रदान कर दे , सबको कहाँ मिलता है | आत्मा को भिगोने वाले इस शब्द चित्र के लिए हार्दिक शुभकामनाएं| मंजे हुए लेखन के साथ आपकी रचना में भावों की प्रगाढ़ता अत्यंत प्रभावी और सराहनीय है | सस्नेह शुभकामनाएं आपके लिए | यूँ ही आगे बढ़ते रहिये |

    ReplyDelete
    Replies
    1. Renu Bala
      रेणु दीदी ,आपकी ऐसी स्नेहिल प्रतिक्रिया से मेरी लेखनी को बल मिलता है। दूसरों का उत्साहवर्धन करने वाले कम ही लोग हैं इस दुनिया में।🙏

      Delete
  9. शशि भाई, आजकल कई वृद्धजनों का यहीं हाल है। बच्चे माँ-बाप को खाना भी खिलाते है, तो एह्सान जताते है कि हम तो खाना दे रहे है, गांव में जाकर देखों लोग खाना भी नहीं देते! बहुत ही मार्मिक शब्दों में आपने काकी की व्यथा बताई है। बहुत ही सुंदर्।

    ReplyDelete
  10. आदरणीय शशि जी, वृद्धावस्था की वेदनाओं को अभिव्यक्त करती सुंदर रचना।--ब्रजेन्द्रनाथ

    ReplyDelete
  11. मार्मिक कहानी

    ReplyDelete
  12. मार्मिक कहानी।

    ReplyDelete
  13. सुप्रभात भाई
    बेटा कैसा भी हो मुखाग्नि देने का हक़ उसी को है
    -डा0 एस एन पांडेय

    Ji Bhai sb,
    Bahut hi marmik lekh.lekin is nishthur jagat mein bhi samaj ke Deenu jaise logon ka maanveeya bhavana- janit kritya bahut hi aatm- tosh pradan karta hai.
    🙏🏻🌹
    मेरे एक वरिष्ठ अधिकारी मित्र की प्रतिक्रिया

    शशि भैया सादर प्रणाम🙏 आपकी की कहानी समाज को जगाने का काम किया है जीते जी मलाई और रबड़ी भी नहीं पूछी जाती और मरने के बाद घि तक मुंह में डाले जाते हैं✍ मैं तो यही कहूंगा किसी को अनाथ ही ना होने दें की अनाथ आश्रम खोलने की जरूरत पड़े🙏💐 बहुत ही मार्मिक कहानी लगा आपका👌 ढेर सारी शुभकामनाएं आपको जादूगर रतन कुमार🙏💐🌹

    ReplyDelete
  14. जिंदगी के अंतिम पड़ाव में दीनू जैसा एक नेक आत्मा का होना सभी के लिए जरूरी है।
    मुझे याद है घण्टाघर चौराहे पे चर्च के सामने एक कुंआ था।जिसके नीचे एक बुजुर्ग दम्पति दो रुपये में लोगो की छुधा मिटाती थी।और उनके साथ भी यही हुआ था।
    बहुत ही मार्मिक कहानी शशि भैया🙏

    ReplyDelete

yes