फेरीवाला
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वही अनबुझी-सी उदासी फिर से उसके मन पर छाने लगी थी। न मालूम कैसे यह उसके जीवन का हिस्सा बन गयी है कि दिन डूबते ही सताने चली आती है। बेचैनी बढ़ने पर मुसाफ़िरख़ाने से बाहर निकल वह भुनभुनाता है-- किस मनहूस घड़ी में उसका नाम रजनीश रख दिया गया है ,जबकि उसके खुद की ज़िदगी में चाँद के खिलखिलाने का अवसर ही न आया हो । जीवन का यह पड़ाव उसे कचोट रहा है। "आखिर, किसके लिए जीता हूँ मैं ..?" किन्तु इस प्रश्न का उत्तर स्वयं उसके पास भी नहीं है।
और तभी उसकी संवेदनाओं से भरी निगाहें उधर से गुजर रहे एक वृद्ध फेरीवाले पर जा टिकती हैं। वह बूढ़ा आदमी किसी प्रकार अपने दुर्बल काया, मन और प्राण लिये डगमगाते , लड़खड़ाते कदमों से उसी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। उसके कंधे कपड़ों के गट्ठर के बोझ के कारण आगे की ओर झुक गये थे। झुर्रीदार पिचका हुआ चेहरा, आँखों के नीचे पड़े गड्ढे और माथे पर शिकन उम्र से कहीं अधिक मानो उसकी दीनता की निशानी हो। किन्तु वह मानव जीवन के उस संघर्ष का भी मिसाल है, जिससे परिस्थितियों के समक्ष अभी घुटने नहीं टेके हैं।
चिलचिलाती धूप में दिन भर सड़कों पर पाँव घसीटते ,मुँह बाए गलियों में ग्राहकों को तलाशते हुये उसकी पिंडलियाँ बुरी तरह से दुखने लगी थीं।सड़क किनारे एक अतिथि भवन के चबूतरे को देख उसके बदन में थरथराहट हुई थी और वह धौंकनी-सी तेज होती अपनी साँसों को विश्राम देने के लिए धम्म से उस पर जा बैठता है। कंधे से गट्ठर का बोझ हटा वह चारदीवारी से सट कर अपनी पीठ सीधी करता है। अपने तलुओं को सहलाते हुये उस बूढ़े आदमी ने अपनी धुँधलाई आँखों से आसमान की ओर देखा था।
मानो अपना अपराध पूछ रहा हो। सामने की दुकान पर कुछ लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। यह देख बूढ़े ने भी अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला था और फिर न जाने क्या सोच कर दाँत किटकिटाने कुछ बुदबुदाने लगता है। उसके उदास चेहरे के भाव में यकायक परिवर्तन देख रजनीश की उत्सुकता उसमें बढ़ने लगी थी । यूँ कहें कि उसकी पत्रकारिता कुलबुला उठी थी। किन्तु बिना संवाद के किसी के अंतर्मन को पढ़ना आसान तो नहीं होता ? औरों का दर्द वही समझ सकता है जो स्वयं भी उससे गुज़रा हो।
इस लोकबंदी ने रजनीश को भी फिर से पटरी पर ला खड़ा किया है। वर्षों की उसकी पत्रकारिता अब दो वक़्त की रोटी देने में भी समर्थ नहीं है। अक्सर छोटे संस्थानों में काम करने का यही हश्र होता है। किन्तु जहाँ कभी अपनत्व मिला हो, रोटी मिली हो, उसके प्रति मोह मानव स्वभाव है।उम्र के इस पड़ाव पर इस संदर्भ में हानि-लाभ की चिन्ता कर वह अपने कष्ट को सिर्फ़ और बढ़ा ही सकता है, इसलिए रजनीश इस मानसिक पीड़ा से उभरने की कोशिश कर रहा है। वह ईश्वर को धन्यवाद देता है कि उसके पास कुछ पैसे हैं ...और उस होटल के मालिक को भी जहाँ उसने शरण ले रखी है। अन्यथा आज इसी बूढ़े फेरीवाले की तरह वह भी दर-दर भटकते रहता ।
परिस्थितियों में समानता ने रजनीश को उस फेरीवाले के और करीब ला दिया था। उसने देखा गट्ठर में बंधे गमछे और लुंगी को चबूतरे पर छोड़ वह बूढ़ा हैंडपंप की ओर बढ़ जाता है। प्यासे कंठ को तृप्त करते समय भी उसकी निगाहें अपनी अमानत (गट्ठर) पर जमी रहीं। खुदा का शुक्र है कि ग़रीबों के लिए अब भी मुफ्त में यह जल उपलब्ध है, अन्यथा इस पर भी बाज़ारवाद की मुहर लग चुकी है।
फेरीवाला अब स्वयं को कुछ हल्का महसूस कर ही रहा था कि भगौने में खदकती चाय की खुशबू उसके घ्राणेंद्रिय में अनाधिकृत रुप से प्रवेश कर जाती है, जो उसके स्वादेन्द्रिय को विद्रोह के लिए बराबर उकसा रही थी। वह फिर से अपनी जेब को टटोलने लगता है। दिन भर के मेहनत-मशक्कत के बावजूद बिक्री के कोई दो सौ रुपये मुश्किल से उसके हाथ आये थे। संभवतः इसीलिए उसने अपनी चाय की तलब को बलपूर्वक रोक रखा था । " हे ईश्वर ! ये कैसी लाचारी है कि दिन भर चप्पल घिसने के बाद भी एक कुल्हड़ चाय इस वृद्ध को नसीब नहीं है !" यह देख रजनीश के हृदय में एक तड़प-सी उठती है कि फिर किस व्यवस्था परिवर्तन की बात चुनावों में हमारे रहनुमा करते हैं। इसीबीच चबूतरे पर रखे गट्ठर को खोल लुंगी और गमछे को तह करते समय फेरीवाले की नज़रें वहीं खड़े रजनीश से मिलती हैं।
"क्यों चाचा,बाज़ार तो मंदा रहा होगा न ?" रजनीश स्वयं को रोक नहीं सका था और इसी के साथ दोनों के बीच वार्तालाप शुरु हो जाती है। बूढ़े ने उसे बताया कि उसका नाम सिब्ते हसन है और वह अकबरपुर का रहने वाला है। बाल बच्चेदार है, पर पेट तो सबका अपना है। लोकबंदी के बाद पहली बार वह धंधे पर निकला है। कोरोना के भय से कब तक बैठकर खाता। बच्चों को आस लगी रहती है कि अब्बा कुछ लेकर आएँगे, किन्तु यहाँ आकर बाज़ार का जो हाल देखा,उससे उसका दिल बैठा जा रहा है। क्योंकि इन दो सौ रुपये में उसका अपना मुनाफ़ा साठ रुपये ही है। इनमें से दस के नोट तो मुसाफ़िरख़ाने के बरामदे में रात्रि गुजारने के देने होंगे और फिर पेट की आग भी तो अभी शांत करनी है। वैसे, इस लोकबंदी के पहले वह जब भी इस शहर में आता था तो हजार-बारह सौ की बिक्री हो ही जाती थी,किन्तु इस बार घर वापसी के लिए भाड़े तक का पैसा नहीं निकला है।
"तो और मुझसे क्या जानना चाहते हो आप ?" सिब्ते हसन अब धीरे-धीरे उससे खुलने लगा था। "मैं एक पत्रकार हूँ। कोराना काल में आप जैसे रोज कमाने-खाने वालों के दर्द से रूबरू होना चाहता हूँ। "अपनी मंशा स्पष्ट करते हुये रजनीश ने कहा था।
यह सुन बूढ़े के बदन में सिर से पाँव तक लर्ज़िश हुई थी।वह आसमान की ओर निगाहें उठा कर कहता है -" अबतक तो किसी तरह गुजारा हो गया ,आगे रब जाने ?" इस बार उसके स्वर में काफी वेदना थी। उसके पास जो थोड़ी बहुत पूंजी थी, उसे बीते साढ़े चार महीनों में घर में बैठे-बैठे खा चुका है।वह कहता है- " ठीक है कि सरकार इस संक्रमणकाल में हमें मुफ़्त में चावल दे रही है,किन्तु परिवार का ऊपरी खर्च भी तो है। बाल- बच्चों को ऐसे कैसे तरसते छोड़ दिया जाए ? आखिर सत्ता में बैठे नेता भी तो औलाद वाले हैं,क्या उन्हें हम जैसों पर जरा भी रहम नहीं है ?" सिब्ते दिल का गुबार निकाले जा रहा था।
"अरे साहब ! उनके साहबज़ादे तो कैफ़े-रेस्टोरेंटों में हजारों ऊपरी उड़ा देते हैं और हम हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले ग़रीब-गुरबे अपने बच्चों को गोश्त का एक टुकड़ा तक नहीं दे पा रहे हैं। लानत है हमपर और ऐसी व्यवस्था पर ...।" हर एक बात एक आह -सी बन निकलती रही थी उसकी जुबां से।
रजनीश को ऐसा लगा कि मानो ऐसे श्रमजीवियों की यह ' आह ' ज्वालामुखी में बदलने ही वाली हो , न जाने कब इनमें से लावा फूट पड़े और एक नयी क्रांति को जन्म दे। इस नयी व्यवस्था में इन्हें समानता का अधिकार प्राप्त हो, किन्तु सियासतबाज कम चालक नहीं होते, वे हर बार आमचुनाव में जातीय-मज़हबी ढोल बजा कर इन्हें बरगला ही लेते हैं और यह ज्वालामुखी फिर से ठंडा पड़ जाता है।
आज पूरे दिन इस शहर में जब वह बौराया-सा घूमता रहा तो उसने महसूस किया कि वह सच में बूढ़ा हो गया है। इन साढ़े चार महीनों में सड़क पर पैदल चलने का अभ्यास क्या छूटा कि उसके बदन पर बुढ़ापे का जंग लगते देर न लगी। वह कहता है- "जब तक काम पर निकलता था मेरा शरीर रवा था,लेकिन आज तो पाँवों ने बिल्कुल जवाब ही दे दिया है। " अब दुबारा मीरजापुर में वापसी कब होगी , यह उसे भी नहीं पता। और जब धंधा है ही नहीं तो क्यों यहाँ आकर अपनी हड्डियाँ तोड़ता फिरे..।
वैसे तो सिब्ते आजम धंधे के लिए बनारस और जौनपुर भी जाता रहा है, किन्तु मिर्ज़ापुर से उसका जुड़ाव-सा हो गया है। वह कहता है कि अन्य बड़े शहरों में लूटमार है,बेअदबी है और यह जिला अब भी अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर है। यहाँ लोगों के दिल में मुहब्बत है, जो उस ग़रीब को भी ' मौलाना ' कह के बुलाते हैं। वह कहता है कि खाना और भाड़ा बनारस जैसे शहरों में सस्ता है और व्यवसाय भी ठीक ही हो जाता है,परंतु अदब से बात करने वाले लोग यहाँ की तरह वहाँ नहीं हैं। उसकी बातों से लगा कि वह खुद्दार इंसान है।अपने धंधे में भी मुनाफ़ा उताना ही लेता है, जितना वाजिब है। जैसे देश भर की ईमानदारी का जिम्मा सिब्ते जैसे मेहनतकश लोगों ने ही ले रखा हो।
इस शहर में वह तब से आ रहा है, जब मुसाफ़िरख़ाने का किराया चार-पाँच रुपये हुआ करता था और अब यह बढ़ कर साठ हो गया है। इसलिए उसे गंदगी से पटे इस अतिथिगृह के बरामदे में ही रात काटनी पड़ती है। अतिथिगृह क्या इसे कूड़ाघर ही समझें,क्योंकि यहाँ सिब्ते आजम जैसे ग़रीब मुसाफ़िर जो ठहरते हैं। शहर में स्वच्छता अभियान की डुगडुगी बजाने वाले जनप्रतिनिधियों की दृष्टि न जाने क्यों इसके बदबूदार शौचालय की ओर नहीं गयी है ! मच्छरों का गीत सुनते हुये यह बूढ़ा फेरीवाला एक और रात यहीं गुजारने को विवश है। और हाँ, मुनाफ़े के साठ रुपये में से दस तो ऐसे ही चला गया, शेष बचे पचास जिसमें रात का खाना और सुबह वापस अकबरपुर जाने के लिए वाहन के भाड़े की व्यवस्था करना है। वह हाईवे पर खड़ा होकर किसी ट्रक वाले से मिन्नत करेगा, क्योंकि बस की यात्रा आज उस जैसों के लिए सपना है। किन्तु उसे अपने कष्ट की नहीं फिक्र इस बात कि है कि उसे खाली हाथ देख अपनों की वह उम्मीद टूट जाएगी,जिसके लिए वह इस शहर में आया है।
ख़ैर, भारी मन से रजनीश से विदा लेते हुये वह कहता है- " आप भले आदमी जान पड़ते हो, जो मुझ जैसों में भी आपकी रूचि है। आपसे बात करके मन कुछ हल्का हुआ है,अन्यथा आज का दिन तो मेरे लिए बहुत तकलीफ़देह रहा।"
रजनीश यह जान कर स्तब्ध है कि रंगीन कपड़ों को बेचने वाले की ज़िंदगी कितनी बदरंग है।वह मोबाइल फोन निकाल फेरीवाले से उसका एक फ़ोटो लेने की इजाजत मांगता है। यह देख उत्सुकतावश सिब्ते उससे पूछता है- "आप जो छापोगे, क्या उसका कुछ लाभ मुझ जैसों को मिलेगा ?" यह सुन फिर से रजनीश का मन तड़प उठता है, वह अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये कहता है -" बड़े मियां , मैं तो एक मामूली पत्रकार हूँ, तुम्हारी समस्या से बस अख़बार का पन्ना रंग सकता हूँ, इससे अधिक मुझमें कुछ भी सामर्थ्य नहीं है। " अच्छा, खुदा हाफिज़ ..! और फेरीवाला आहिस्ता-आहिस्ता मुसाफ़िरख़ाने की ओर बढ़ जाता है। उन दोनों में फ़र्क़ इतना है कि सिब्ते को सिर्फ़ एक रात अतिथिगृह में गुजारनी है और रजनीश को ताउम्र।
लेकिन कुछ अनसुलझे प्रश्न रजनीश का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं ----- ऐसे मेहनती लोग जिन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने का प्रयास नहीं किया, उन्हें किस बात की सज़ा मिली है? क्यों मिल रही है ? इन मेहनतकश लोगों की ये कैसी भाग्य-रेखा है? क्या यह इनके पिछले जन्मों के कर्म का परिणाम है अथवा इसके लिए हमारी सामूहिक अर्थव्यवस्था दोषी है ? ग़रीबी से मुक्ति के लिए क्या ये इसीप्रकार ताउम्र छटपटाते रहेंगे ? है कोई मसीहा जिसकी आँखों में इनके लिए इंसाफ़ हो? तो क्या यही ईश्वरीय न्याय है...!!!
- व्याकुल पथिक
'रंगीन कपड़े बेचने वालों की जिंदगी कितनी बदरंग है' गागर में संवेदना का सागर भरती यह पंक्ति मन को भिजा गयी। आभार।
ReplyDeleteजी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार भैया जी।🙏
Deleteशशि जी बहुत ही मार्मिक रचना और इस सत्य को दर्शाती हुई कि बहुत जटिल होता जा रहा है जीवन इस कोरोना के संक्रमण काल में। ईमानदार मेहनतकश लोगों के लिए जीवन सदैव संघर्षों से भरा रहा है किन्तु अब ऐसे लोगोँ को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए पहले से कई गुना ज्यादा काम करना पड़ रहा है फिर भी परिणाम अपेक्षा से कोसों दूर है। आज कई रजनीश और सिब्ते आजम जैसे लोग हर दिन निराश हो रहे हैं सिर्फ इसलिए कि वो सम्मानजनक जीवन जीना चाहते हैं और उन्हें अपने कर्म पर भरोसा है किन्तु ऐसे लोगों के प्रति समाज की संवेदनहीनता उन्हें अत्यंत मानसिक पीड़ा दे रही है।
DeletePraveen Kumar Sethi
ReplyDeleteजी प्रवीण जी, समाज ऐसे जनप्रतिनिधियों का चयन करते आ रहा है,जो जुमलेबाजी कर कुर्सी पकड़ के खेल में जुटे हैं। वे सिर्फ़ अपनी दुनिया रंगीन चाहते हैं।
विस्तार से प्रतिक्रिया के लिए आभार।
कोरोनावायरस के दौर में समाज का सभी तबका प्रभावित हुआ है। विशेष रूप से ईमानदारी और मेहनत से खाने-कमाने वालों पर गाज गिरी है। लॉकडाउन ने श्रम को उसकी गतिशीलता से वंचित कर दिया है। इस कारण पूँजी का निर्माण नहीं हो पा रहा है। पहले की बचत पहले ही ख़त्म हो गई है। अभूतपूर्व स्थिति है। सरकारी ख़ज़ाने धीरे-धीरे खाली होते चले जा रहे हैं। बाज़ारों में रौनक नहीं है। दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी आधे-अधूरे वेतन पर ही संतोष कर रहे हैं। प्राइवेट सेक्टर से नौकरियों का जाना ज़ारी है। तमाम युवा घरों पर बैठ गए हैं। व्यवस्था को ठीक होने में समय लगेगा। तब तक कई लोगों के सपने टूट जाएंगे। उनके अंदर काम करने का दमखम नहीं रहेगा। फेरी वालों की तो कमर ही टूट गई है। सैकड़ों किलोमीटर दूर से आकर गलियों में घूम-घूमकर अपना सामान बेचने वाले मंदी के शिकार हो गए। पहले खाने का इंतज़ाम किया जाए तो फिर पहनने-ओढ़ने का इंतज़ाम हो। आपकी कहानी का नायक कोरोना काल के दुःख को और बढ़ा रहा है। इसमें उसका कोई योगदान नहीं है। वह हालात का शिकार है। सरकारों को फेरीवाले की दृष्टि से संसार को देखना होगा। कोरोना के नाम पर सैनिटाइजर और मास्क का खर्च भी ग़रीबों के लिए एक भार बनकर रह गया है। ग़रीब खुली हवा में साँस लेना चाहता है। वो काम चाहता है। वो काम का दाम चाहता है। माहौल तो अनुकूल हो जाए। बहुत बढ़िया लिखा है शशि भाई आपने।🌹
ReplyDeleteसदैव की तरह विस्तार से प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार अनिल भैया। 🙏
Deleteविचित्र विडंबना है सरकार का तनिक भी ध्यान ऐसे वर्ग के प्रति नहीं है।
वह तो यह ढोल बजा रही है कि प्रवासी श्रमिकों को काम दिया जा रहा है, मज़दूरों को पैसा दिया जा रहा, परंतु कोई यह बताए कि इस फेरीवाले को पाँच किलोग्राम निःशुल्क चावल के अतिरिक्त आजीविका के लिए क्या दिया गया। अभी तो कुछ और महीने बाज़ार में सुधार नहीं होना है, तो क्या इन्हें इनकी नियति के भरोसे छोड़ दिया जाए ..?
जी मंच पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार मीना दीदी जी।🙏
ReplyDeleteबढिया ।
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार दीदी जी।
Deleteसार्थक और मार्मिक।
ReplyDeleteदूसरे लोगों के ब्लॉग पर भी टिप्पणी किया करो।
आपके यहाँ भी कमेंट अधिक आयेंगे।
जी गुरु जी ।
Deleteअब स्वास्थ्य बहुत ठीक नहीं रहता है।अतः ब्लॉग पर सक्रियता कम हो गयी है। सप्ताह में एक पोस्ट कर देता हूँ। ब्लॉग पर पाठक भी काफी कम हो गये हैंं ?
हाँ,यहाँ अपमानित करने वाले अधिक हैं। ऐसा मेरा अपना अनुभव है।🙏
फेरीवाला के माध्यम से सर्वहारा वर्ग की पीड़ा को दर्शाने में सफल रही है आपकी यह कहानी!
ReplyDeleteजी भैया जी , हृदय से आभार।
Deleteबहुत ही प्यारी रचना हैं 🌹 🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना शशि भैया, ताउम्र रंगीन कपड़ो से लोगो को खुशियां देने वाला ताउम्र अपने परिवार को वो खुशी की रंगीनियत नही दे पाता।
ReplyDeleteजी आभार आशीष जी।
Deleteसिब्ते का दर्द बेशक शारीरिक होना चाहिए था पर अपनों के सपनों को पूरा ना कर पाने के दर्द से ज्यादा परेशान हैं. हृदय की अंतरात्मा को झकझोर दिया है भैया आपने. मानवीय संवेदनाओं से दूर होता समृद्ध समाज किस नैतिकता की पाठ पढाती हैं भैया. काश! सिब्ते का आपसे पूछा गया सवाल सच हो जाए और ये लेखनीय उस रहनुमा की ऑखों तक पहुंचे जिसकी असल जरूरत है उन जैसे जरूरतमंदों के लिए कि क्या 'इससे हम जैसों का भी कुछ भला होगा?
ReplyDelete-मंगलापति द्विवेदी, संपादक जयप्रकाश
अति सुन्दर
ReplyDeleteजाके पैर न फ़टे बिवाई ओ क्या जाने पीर पराई ,शशि भाई बहुत ही अच्छा तुलनात्मक लेख है आपका जो फेरी बाले व पत्रकार के दुःखो को बयां करता है ,मेरे एक मित्र ने कभी मुफलिसी के दौर की ब्याख्या करते हुए कबिता रूप में सुनाई थी कि अपनी हालत तो ये है जनाब की कभी घनी घना ,कभी मुट्ठी भर चना और कभी ओ भी मना , राजतंत्र से होते हुए यह गरीबी लोकतंत्र में विकराल रूप ले चुकी है , अमीरो के कुत्ते भी बासी रोटी नही खाते जबकि किसी गरीब को हाड़तोड़ मेहनत करने के वावजूद दो रोटी के लिए तरसना पड़ता है यह विषमता अब और बढ़ती जा रही है , कभी कभी सोचता हूं कि कहि किसी गरीब के पेट की आग धधक कर ज्वालामुखी न बन जाये और इन सम्बेदना से रहित अमीरजादों को जला कर राख न कर दे पर ऐसा हो नही पा रहा ,अब तो गरीब नौजवानों के लहू में वह उबाल नही रहा जो कभी अंग्रेजो की हुकूमत के चूले भी हिला देती थी ......
ReplyDelete-अखिलेश कुमार मिश्र 'बागी'
शशि भैया , एक फेरीवाले की व्यथा कथा के माध्यम से आपने कोरोनाकाल में हर दिन समस्याओं के पहाड़ से गुजरते --हर उस भुगत भोगी की व्यथा कथा से अवगत करवाया है जो हर रोज कुआँ खोदकर पानी पीताहै | साधन संपन्न और खाते - पीतेलोगों के लिए ये संकट काल मौजमस्ती और आराम का रहा , जबकि साधनहीन इस दौर में चिंता में आधे रह गये | मैं भी अपने शहर में देखती हूँ रेहड़ी वालों की मार्किट सूनीपड़ी है | ज्यादातर रेहड़ीयां विदा हो गयी | अगर कुछ हैं तो उनके आसपास ग्राहक फटकते भी नहीं | इस तरह के लोगों के घर यदि सरकार कुछ राशन पहुँचा भी दे तो उससे इनका कुछ भला होने वाला नहीं | ऊँट के मुंह में जीरा डालने वाली स्थिति बनी गुई है | दुआ है कि स्थिति सुधरे और किसी फेरीवाले अथवा अन्य किसी को भी भूखे पेट ना सोना पड़े |
ReplyDeleteजी दीदी
Deleteआभार।
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया सदैव इसी प्रकार प्राप्त होते रहे।🙏
"क्या यह इनके पिछले जन्मों के कर्म का परिणाम है अथवा इसके लिए हमारी सामूहिक अर्थव्यवस्था दोषी है ?"
ReplyDeleteशायद दोनों ही। मर्मस्पर्शी और यथार्थ का दर्शन कराती कथा,सादर नमन आपको
जी अत्यंत आभार🙏
Deleteप्रिय शशिभाई, कभी कभी मैं सोचती हूँ कि क्या इन लोगों की इस हालत का अंदाजा सरकार को नहीं होगा ? फेरीवाले, लोकल ट्रेन के डिब्बों में सामान बेचनेवाले, फूलवाली मौसी, गजरेवाली आक्का, दुकानों में काम करनेवाले लड़के..... सबका क्या हुआ होगा ? कैसे चूल्हा जलता होगा उनके घर ?
ReplyDeleteजी मीना दीदी,
Deleteपरंतु सरकार कौन है?
हम-आप ही तो हैं न !!!
आदरणीय सर,
ReplyDeleteआपकी यह कहानी बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील है। साथ ही साथ यह हमारे आगे समाज के कटु सत्य "निर्धनता" को जस का तस हमारे सामने रखती है।
इस कहानी के किरदार "फेरीवाला" के रूप में आपने हमारे आगे उस हर निर्धन मेहनतकश व्यक्ति को हमारे सामने रख दिया जिन्हें हम आप के जीवन में देखते रोज़ हैं पर उनके बारे में कभी विचार नहीं करते।
हृदय से अत्यंत आभार इस करूँ व भावपूर्ण कहानी के लिए जो हम सबको सहज ही किरदार से जोड़ देती है।
मेरा आपसे एक अनुरोध और है, कृपया मेरी रचनाएँ पढ़ कर मुझे प्रोत्साहन व मार्गदर्शन दें।
मैं एक कॉलेज छात्रा हूँ और आनंद के लिए कहानी व कविताएँ लिखती हूँ। आपका मार्गदर्शन व आशीष मेरे लिये अमूल्य होगा।