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Sunday 29 July 2018

कोई निशानी छोड़,फिर दुनिया से डोल


एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल



  • किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार
किसीके वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है
      वॉयस आफ गॉड के इस गाने में छिपे संदेश को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा था कल अपने जन्मदिन पर । जीवन के इस निर्णायक वर्ष में अब जब पहुंच ही गया हूं, तो आत्मावलोकन के अवसर से वंचित नहीं रहना चाहता था । वैसे भी हम पत्रकार समाज के पथ प्रदर्शक कहे जाते हैं। हां, इस अर्थ युग में हम यह दायित्व कितना निभा पा रहे हैं , यह दांवा नहीं कर रहा हूं।  फिर भी उत्तरदायित्व है हमारा। पद भ्रष्ट हुये तो यह लेखनी जिसके हम सिपाही कहे जाते हैं, वह निश्चित ही हमें धिक्कारेगी। वैसे पत्रकारिता से पहले भी और बाद में भी एक जो मानव धर्म है, वही बयां कर रही हैं , गीत की ये पक्तियां। एक कशिश, एक आकर्षक में मैं बंध सा जाता हूं, सदैव ही मुकेश जी के गाये ऐसे गीतों को सुनके।  मैं  भरपूर लुफ्त उठाना चाहता था कल इन गानों का , परंतु ऐसा हुआ नहीं। खबरें एक के बाद एक आती ही चली गयीं , एक अपने शुभचिंतक की भी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। वह समाचार भी तो लिखना और  भेजना था। खैर, शाम ढलने से पहले अपने मुसाफिरखाने पर आ ही गया था। जैसे ही ईयरफोन कान में लगाया मुकेश के एक प्यारे से नगमे -
कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए
मेरे ख़यालों के आँगन में
कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए
     के साथ अपनी स्मृतियों को सांझा करने  लगा।  28 जुलाई वर्ष 1969 को ही सिलीगुड़ी के एक नर्सिंग होम में एक अति स्वास्थ्य शिशु के रुप में जन्मा यह पथिक तीन प्रांतों के कई जनपदों का भ्रमण करते, घर- परिवार से दूर वर्ष 1994 में इस अनजान नगर का वासी हो गया था ,कुछ यूं ही कि
सुनसान नगर अन्जान डगर का प्यारा हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ
आबाद नहीं बरबाद सही
 गाता हूँ खुशीके गीत मगर
 ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा
हंसती है मगर ये मस्त नज़र

     यहां अपनी पत्रकारिता का सफर कुछ ऐसा ही रहा। बस मेरी एक जिद्द ने मुझे बर्बाद कर दिया कि अपनी कलम से संस्थान की गुलामी के शर्त पर मैं बड़े अखबार में नहीं जाऊंगा। मुझे आजादी बचपन से ही पसंद थी, नहीं तो घर का त्याग क्यों करता। सो, कलम की आजादी हासिल की । मेरी खबरों की चर्चा शहर में निश्चित रही । लेकिन मैं श्रीहीन हूं । सो, परिणाम सामने है कि अपना जन्मदिन बंद कमरे में वहीं सूखी चार रोटी एवं थोड़ी सी सब्जी खा कर कुछ यूं मुस्कुराते हुये मना लिया कि

सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी
खुद पे मर मिटने की ये ज़िद थी हमारी
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी

     मेरे कई पैसे वाले मित्रों का संदेश आया कि कहां केक कट रहा है, बताएं न कहां आऊं ? दरअसल उनका दोष नहीं है, यह समाज भी यही समझता है कि पत्रकारों की दुनिया बड़ी चमक- दमक वाली है। पर हम जैसों के लिये नहीं, यह उनके लिये है जो घर से सम्पन्न हो,कारोबारी हो या फिर जुगाड़ तंत्र के खिलाड़ी हो। अब जहां तक केक काटने की बात है, तो वर्ष 1993 में आखिरी बार कोलकाता में केक काटा था, इसके बाद भी कभी जन्मदिन मनाया , मुझे तो याद नहीं । उस 28 जुलाई की खुबसूरत यादें मैं कहां भूल पाया हूं अब भी। लम्मे समय से बीमार चल रहीं मां(नानी) ने वहां कोलकाता में मेरे दोनों ही बर्थडे पर एक दिन पहले से ही तैयारी करनी शुरू कर दी थी। तरह- तरह के व्यंजन बने थें। रिबन,बैलून और पुष्प से कमरे की आकर्षक सजावट की गयी थी। अस्वस्थ मां को इस तरह से हड़बड़ी में कभी नहीं देखा था। मुनिया कहां हो, चलों यह पहनों, जाओ भगवान जी को प्रणाम करो आदि-आदि...
      भोजन व्यवस्था पर उनका विशेष ध्यान था। सांगरी की सब्जी, कांजीबड़ा, काफी बड़े भगौने में केशर, बदाम आदि मेवा डाला हुआ खीर और मिठाइयां तो तमाम थीं ही। रजनीगंधा फूल की बड़ी -बड़ी मालाओं से देवताओं और पूर्वज( बाबा की मां) की सजी तस्वीरों एवं पूजा स्थल का श्रृंगार देखते ही बनता था। एक बड़ा माला मेरे लिये भी था , इनमें से। लिलुआ से फोटो खिंचने बड़ी मां( नानी) के पुत्र आये थें। बाबा नीचे गिफ्ट एवं कपड़े की दुकान पर पहले ही ले जाते थें। प्यारे देखो यह चलेगा ? बाबा के इस प्यार को भला मैं कैसे भुला पाऊंगा । नीचे कारखाने से हाड़ी दादू
शाम ढलने से पहले ही खोवा, संदेश, चाकलेट पाउडर , चेरी से निर्मित खूबसूरत केक भेज देते थें। अब मां ही नहीं तो फिर  जन्मदिन कैसा।
   यहां तो जो पहचान है, वह यह कि मैं एक मस्त फकीर हूं। हां, मेरी लेखनी की भी कुछ पहचान है,तभी तो पीएचडी किये लोग भी इस इंटर पास पत्रकार को सर जी कहते मिल जाते हैं।  इस सम्मान का हकदार मैं कैसे हुआ जानते हैं, सिर्फ उत्साह से। हमारा सबकुछ क्यों न चला जाए, लेकिन हम उत्साह से लबरेज हैं, तो हानि भी सहन कर लेंगे साथ ही कर्म पथ से भी विचलित नहीं होंगे। अपनी कहूं तो जो व्यक्ति हिन्दी में गोबर गणेश रहा, उसी ने समाचार लेखन की अपनी एक अलग शैली विकसित कर ली। यह न्यूज और व्यूज की खिचड़ी जिसमें जिसमें जायके के लिये कुछ तीखा- मीठा मसाले का जो मैंने प्रयोग किया। वह पाठकों को पसंद आया, संस्थान ने भी हस्तक्षेप नहीं किया, इस तरह से मैं मीरजापुर का गांडीवधारी हो गया। परंतु यह तभी सम्भव हुआ जब मैं सच की राह पर रहा।  मेरे समक्ष किसी का जुगाड़ तंत्र काम नहीं आता था। पर एक बात कहूं, अपनी लेखनी को तो मैंने इस जुगाड़ तंत्र से बचा लिया। लेकिन, मैं टूटता ही गया

दिल जाने, मेरे सारे, भेद ये गहरे
खो गए कैसे मेरे, सपने सुनहरे

    सम्भवतः मेरा यही दर्द मेरी लेखनी में  समाती जा रही है। फिर भी जिस स्थान पर मैं हूं, आप सभी प्रबुद्ध जन भी हैं। हमें कोई तो राह निकालनी ही होगी कि इस जुगाड़ तंत्र के समक्ष प्रतिभाएं कुंठित न हो, ईमान आंसू न बहाये , सच राह न बदल ले और पथिक व्याकुल न हो। तभी न हम और आप भी ...

 मर के भी किसी को याद आयेंगे
किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे
कहेगा फूल हर कली से बार बार
जीना इसी का नाम है