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Wednesday 2 May 2018

श्रमिक धर्म

व्याकुल पथिक

               श्रमिक धर्म !

     ताकत और पैसे से यदि स्थाई पहचान खरीदी जा सकती , तो हम जैसे लोगों को कौन पूछता। यदि हम अपने कार्य के प्रति समर्पित हैं, तब कहीं भी अपनी पहचान बना सकते हैं, एक मजदूर के रुप में भी। यह तो सभी जानते है न मित्रों कि किसी किसी पान और चाय वाले की भी बड़ी पहचान हो जाती है। क्यों कि ग्राहकों को पता रहता है कि वहां बढ़िया सामान मिलेगा... हमारे जैसे लोग भी इस समाज के दर्पण बन सकते हैं । हो सकता है कि नयी पीढ़ी हमसे भी प्रेरणा ले। स्वयं को श्रमिक पत्रकार कह कर यदि मैंने अपने जैसे तमाम मजदूरों के हक अधिकार की आवाज उठाई है, तो इससे पहले अपने भी अंदर खूब झांक ताक किया हूं। तभी पूरे आत्मविश्वास के साथ ललकार कर कहता हूं कि हां, हूं मैं एक सच्चा श्रमिक । अन्यथा यूं ही मजदूर दिवस पर इंकलाब जिंदाबाद का यह उद्घोष न किया होता । हमारी मांग है कि हमें हमारे काम का उचित पारिश्रमिक मिले। हम यह तो नहीं कह रहे हैं न कि हमें  मोटर - बंगला मिले। परंतु परिवार चलाने भर का पैसा तो मिलना चाहिए ना । यह सवाल आप पूछ सकते हैं कि मेरा श्रमिक धर्म क्या है ? साथियों वह यह है कि अखबार वितरण को लेकर पाठकों को अपनी तरफ से कोई कष्ट ना दूं। वे अखबार लेते हैं और समय से बिल का भुगतान करते हैं। सो, यह मेरी जिम्मेदारी है कि परिस्थिति चाहे कैसी रहे, फिर भी समाचार पत्र उन तक पहुंच जाए। अब इसमें समर्पण क्या है, वह यह है कि भले ही जाम लगा हो और पेपर रात्रि आठ बजे की जगह  10 बजे भी आये, तब भी  मैं धैर्य रखते हुये बस के इंतजार में शास्त्री सेतु पर खड़ा रहूं। फिर जहां तक सम्भव हो सके साइकिल दौड़ाते हुये उसे ग्राहकों तक पहुंचा दूं। लेकिन, भाई मेरे यदि ग्राहकों का स्नेह भी हमें चाहिए, तो थोड़ा श्रम और करना होगा,  वह यह कि समाचार पत्र को साइकिल से फेंक कर देने कि जगह उसे पाठकों के हाथ में थमाना होगा या निश्चित स्थान पर उसे  रखना होगा। कभी कभी तो ऐसा होता है कि ग्राहक हमारे सम्मान में स्वयं हाथ आगे बढ़ा कर पेपर ले लेते हैं। इसी आत्मीय संबंध का परिणाम है कि  पेपर रात्रि 11 बजे भी देता हूं, तो भी ग्राहक लेने से इंकार नहीं करतें । क्या आप श्रमिक भी ऐसा ही कर रहे हैं , अपने अपने कार्यों के प्रति ! या फिर बस पैसे से मतलब है और कर लिया टाइम पास ! तो मित्रों बिना समर्पण भरे परिश्रम के हम सफल हो ही नहीं सकते हैं।  मैं बताऊं कि जब अखबार मेरे हाथ में रहता है, तो किसी मित्र की पुकार पर थोड़ा रुक कर चाय पीना तो दूर पैंट के जेब से मोबाइल फोन तक बाहर नहीं निकालता हूं। चाहे तो कोई भी फोन कर अजमा लें, जाहिर है कि  ग्राहक देवता की सेवा तब मेरा प्रथम कर्तव्य है। सो, ऐसे समय फोन करने वाले से मैं बेझिझक कह देता हूं -
  राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहां विश्राम...
 काम के प्रति यही समर्पण मुझे ग्राहकों का प्रिय बनाये हुये हैं, वे अखबार का नहीं शशि का मान रखते हैं।

(शशि)2/5/18