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Thursday 24 May 2018

मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानों तो बहता पानी

      जब गंगा ने मुझे दिया जीवनदान

       मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानों तो बहता पानी
      जो स्वर्ग ने दी धरती को मैं हूं प्यार की वही निशानी..

       बचपन में जब से होश सम्हाला, तभी से यह भक्ति गीत सुनता आ रहा हूं। गंगा के दर्द , पीड़ा, वेदना, उपेक्षा और हम मनुष्यों द्वारा उसके प्रति कृतघ्नता का मुझे हर बार एहसास करता है यह गीत ! आज गंगा दशहरा है। सो, बचपन ना सही , परंतु युवा काल की अनेक यादें गंगा मैया से जुड़ी हुई है मेरी ..जब बालक था, तो सिर के घने केश आगे व पीछे से खड़े हो जाते थें। अभिभावकों ने बताया कि तीन भंवर हैंं तुम्हारे सिर पर। अतः आग, पानी और ऊंचाई से गिरने का खतरा बता कर मुझे इनसे दूर रखा जाता था। लड़के के लिये तड़प रहीं मेरी नानी मां अपने आखिरी मृत पुत्र के रुप में मुझे देखती थीं। तो यहां बनारस घर पर भी करीब ढ़ाई वर्षों तक जब तक छोटे भाई का जन्म नहीं हुआ, मैं ही सबका राजदुलारा था । याद है मुझे कि बचपन में दार्जिलिंग जाते समय पहाड़ी मार्ग पर किस तरह से अचनाक कार का दरवाजा खुल गया और मेरे शरीर का अधिकांश हिस्सा बाहर की ओर निकल आया था। यूं समझे की  खाई  में गिरते गिरते मैं बच गया था। किशोरावस्था तक मैं गंगा से दूर  रहा। परिवार के किसी सदस्य सम्भवतः मौसी - मौसा जी के विवाह के बाद गंगा पूजन के समय, बड़ी सी एक नाव पर सहमा-सहमा बैठा था बचपन में एक बार , इतना ही याद है। जब वाराणसी से कोलकाता आता -जाता था और ट्रेन राजघाट पुल पर से गुजरती थी अथवा किसी भी पुल- पुलिया से, भय से सिहर उठता था। परंतु काशी में रह कर आखिर गंगा से दूर कब तक रहता। जब बेघर सा हो गया था,  पापा के एक मित्र रहें शीतला चाचा जिन्होंने विवाह नहीं किया था, कुछ महीनों तक उन्हीं के विद्यालय में पढ़ाया भी। मुझे याद है कि तब गंगा दशहरा पर पहली बार मैं उनके साथ गंगा स्नान को गया था। उनका हाथ पकड़ मैंने खूब डुबकी लगाई थी। हर हर गंगे का जयघोष हो रहा था काशी के प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर । इसी दिन से ना जाने मेरे मन में कौन सी भावना जगी कि बचपन में गंगा को देख कर भयभीत होने वाला युवक , चुपचाप घर से अकेले ही लोटा लेकर सुबह उसी गंगाघाट पर चला जाया करता था। घाट की सीढ़ियों पर बैठ खूब स्नान करता था। अधूरी शीक्षा और परिवार से दूर होने की जो पीड़ा थी, वह गंगा में समा जाती थी। मन प्रफुल्लित हो जाता था। गंगा से भय धीरे- धीरे कम होने लगा और फिर एक दिन मैं सीढ़ियों पर नीचे और नीचे की ओर बढ़ने लगा। तभी मेरा दायां पांव सीढ़ी से अचानक उठ कर पानी की ओर चला गया। उस समय मेरी मनोस्थिति कैसी थी, वह शब्दों में किस तरह बताऊं। मेरे लिये जीवनदान था गंगा मां का कि तेज लहर के साथ वह पांव वापस सीढ़ी पर आ टिका। फिर भी मैं घबड़ाया नहीं और ना ही किसी को यह बताया ही। दादी को मैं परेशान नहीं करना चाहता था। उन्होंने तो अपना कमंडल तक मुझे दे रखा था। अवस्था मेरी तब करीब 21-22 की होगी, जब इस घटना के बाद मैंने ठान लिया की मुझे भी तैरना सीखना है, पर जेब तो खाली था , न ट्यूब,न टीन या डिब्बा, ऊपर से 58 किलो वजनी शरीर.. पर मेरा जैसा की स्वभाव है कुछ भी ठान लिया, तो पूरा करके ही रहता हूं। सो, सीढ़ी पकड़ के लगा पांव पानी में पटकने। बाद में गायघाट चला आया। यहां कमर तक ही पानी था। डूबने को कोई भय नहीं। दो घंटे सुबह और इतने ही देर तक शाम को इस घाट पर पानी में हाथ पांव मारता रहा। सांसें फूलने लगती थीं और शरीर में पीड़ा भी, परंतु तैराक बनने का मन में जो उत्साह था.. वह अतंतः भारी पड़ा। बरसात से पूर्व ही तैरना आ गया,वह भी बिना किसी के सहयोग से और फिर शरद काल में जब पूरा तैराक बन गया तो क्या होली क्या दीपावली , प्रतिदिन साढ़े चार बजे सुबह पंचगंगा घाट पर जा डटता था। शाम को गाय घाट पुनः चला आता था। बेरोजगार था , तो गंगा स्नान और मृत्युंजय महादेव मंदिर में दर्शन यही दिनचर्या रही मेरी ...अब देखें न इन ढ़ाई दशक में जब से यहां मीरजापुर में हूं एक बार भी गंगा स्नान नहीं किया हूं। हां, शास्त्री पुल पर से गंगा दर्शन तो सप्ताह में 5-6 दिन हो ही जाता है।       अब यदि बात उसके मैल धोने के करुं, तो इस पर कोई तीन दशक से देशी- विदेशी राग सुनता ही आ रहा हूं और इसी बीच गंगा को प्रदूषित करने वाले पापी उद्यमियों की संख्या बढ़ती गयी। उसके सीने पर तप रहें  रेत के बड़े- बड़े टीले आज उसकी पहचान को गंदे नाले में बदलने का षड़यंत्र रच रहे हैं। केंद्र की मोदी सरकार फिर से " नमामि गंगे योजना लेकर आयी है। पता नहीं हम अपनी राष्ट्रीय नदी, उससे भी बढ़ कर मां स्वरूप गंगा के साथ भी उसे स्वच्छ, निर्मल, अविरल करने की यह नौटंकी कब तक करते रहेंगे ! लेकिन हमारी जो भावनाएं हैं न , वह सदैव यही कहती रहेगी कि गंगा तेरा पानी अमृत ।
(शशि)