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Wednesday 3 July 2019

यातनागृह...!

यातना गृह..!
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   मीरजापुर के एक रईस व्यक्ति के " करनी के फल " पर लिखा संस्मरण
      यह पुरानी हवेली उसके लिये यातना गृह से कम नहीं है..मानों किसी बड़े गुनाह के लिये आजीवन कारावास की  कठोर सजा मिली हो ..  ऐसा दंड कि ताउम्र इस बदरंग हवेली के चहारदीवारी के पीछे उस वृद्ध को सिसकते एवं घुटते हुये जीवन व्यतीत करना है..यहाँ से तो उसकी अर्थी ही उठेगी..!
   एक छोटे से गंदे कमरे में उसे रखा गया है.. जहाँ बच्चे उसके लिये अनमने ढंग से सुबह-शाम की चाय और दो वक्त का भोजन रख आते हैं..पलट कर कभी कोई नहीं पूछता उससे कि दादा जी ! और कुछ चाहिए ..इसी मुट्ठी भर अन्न के लिये वह टकटकी लगाये रहता है,दरवाजे के चौखट की ओर ..
    चौकी पर पड़े-पड़े  यह बुड्ढा अब तो जब देखों खांसते रहता है.. सांसों की धौंकनी उसके वृद्ध काया को हिला कर रख देती है..
   लेकिन इससे कहीं अधिक पड़ोस वाले कमरे से पुत्रवधू का अपने पति को सम्बोधित कर  यह बुदबुदाना -  "  यह बुड्ढा मरता भी नहीं, दिन भर खाता है और रात में खांसता रहता.. । "
 ऐसे अनेक व्यंग्य वचन उसके हृदय को बींध जाते हैं ..पके आम सी जिस वय में प्यार की आवश्यकता होती हैं..अपनों का यह दुत्कार उसके लिये असहनीय है..अश्रु बुंदों से आँखें उसकी भरी रहती हैं.. ।
  सच तो यह अघोषित "यातनागृह "  उसका ही कर्मफल है..!नियति ने नहीं स्वयं इसका सृजन उसने अपनी जवानी के जोश में किया है..!
 कभी मेन रोड पर इतनी जमीनें थीं , उसके पास कि " बाबू साहब " कह लोग उसे सलामी दागा करते थें.. न जमींदारी थी उसके पास , न आय के साधन.. स्वयं अपने परिश्रम एवं पुरुषार्थ से उसने बिस्वा भर जमीन भी न खरीदी थी ..
   मित्र मंडली जो ऐसी मिली कि " झूम बराबर झूम शराबी "  का नृत्य देर रात तक इसी हवेली के अतिथि कक्ष में चला करता था..
   मुफ्त में दारू- मुर्गे की व्यवस्था हो तो यार-दोस्तों की क्या कमी है..?  अपने बैठके़ की रौनक देख बाबू साहब का सीना  दर्प से फुल जाया करता था,लेकिन तिजोरी तो खाली ही थी और गृहस्थी की गाड़ी भी खींचनी थी.. मेहनत कर कोई कारोबार भी उन्होंने नहीं कर रखा था..बाजार में उधार बढ़ने लगा और कोई तगादा लेकर घर के चौखट पर आए , तो उसकी यह गुस्ताख़ी माफ नहीं थी..।
    ऐसे में बाबू साहब के पास कर्ज से मुक्त होने के लिये एक ही विकल्प था , बाप- दादे की अचल संपत्ति ..कितनों की ही गिद्ध दृष्टि उसी पर तो थी..।
  बच्चे जब तक होश संभालते , बाबू साहब के हाथ से इस विशाल भूखंड का अधिकांश हिस्सा  फिसल गया .. सिर्फ यह हवेली जिसमें उनका परिवार था और समीप की एक जमीन ही शेष बची थी..पिता के नक्शेकदम पर पुत्र तो नहीं थें ..लेकिन बेरोजगार थें वे दोनों..हवेली के बड़े हिस्से को किराये पर दे दिया गया था साथ ही सड़क की ओर कुछ दुकानों का निर्माण , इन दोनों पुत्रों ने एक राजमिस्त्री के साथ मिलकर स्वयं मेहनत- मशक्कत कर किया था..कुल मिला कर यही दस-बारह हजार रुपये किराये से आ जाया करते थें और गृहस्थी की गाड़ी इसी किरायेदारी से बाबूसाहब का बड़ा लड़का खींच रहा था..   ऐसा लग रहा था कि इस पूर्व जमींदार परिवार के ये दोनों लड़के वक्त के ठोकर के साथ संभल गये हैं..।
    परंतु बाबूसाहब .. ?
 गरीबी और बेकसी की जिन्दा तस्वीर बन गये थें वे.. जेब खाली था फिर भी उनकी चटोरी जीभ कहाँ मानती थी .. घर पर उनके लिये दो वक्त की सूखी रोटी से अधिक कुछ भी न था .. बहू-बेटे जब भी सड़क के इस छोर से उस छोर तक की कीमती जमीन को निहारते .. उनका कलेजा बाहर आ जाता था..वे हाथ मलकर पछताते ..करोड़ों की ये सारी सम्पत्ति कभी उनके ही पूर्वजों की थी.. जिस पर उनके पिता ने गुलछर्रे उड़ाया था..अतः अर्जित किराए में से वे बाबू साहब को फूटी कौड़ी भी न देते थें..।
  उधर, दिन ढलते ही हवेली के बाहर ऊपर सड़क किनारे भोला मिष्ठान और शिवम चाट भंडर , रामू खटिक की गुमटी में रखा दशहरी और लगड़ा आम, चंदूभाई की कुल्फी एवं ठंडई की दुकान पर ग्राहकों को इन तमाम तरह के व्यंजनों का रसास्वादन करते देख बाबू साहब से तनिक भी सब्र न हो पाता था..वो कहा गया है न कि वृद्ध और बच्चे की प्रवृति एक समान होती है..  ललचाई आँखोंं से यह वृद्ध भी छड़ी का सहारा लिये,सड़क पर आ खड़ा होता था..इस उम्मीद से कि कोई पुराना दोस्त - यार दिख जाए और कुछ न सही तो पुराने  एहसानों को याद कर कोई छोला-समोसा ही पूछ ले..।
    पर हाल यह था कि जेब खाली क्या हुआ कि बाबू साहब को सामने देखते ही कभी उनसे दुआ-बंदगी करने वाले यूँ दिशा बदल लेते थें ..मानों काली बिल्ली रास्ता काटने खड़ी हो..
 उनकी भूख तो घर के दो वक्त की रोटी से मिट सकती थी..
पर चटोरी जीभ न मानी.. जिसने जीवन रस का भरपूर स्वाद लिया हो, उसकी रसना मानती भी तो कैसे..?
   आखिरकार एक दिन लज्जा का आवरण हट गया .. अपने निर्बल काया को लाठी के सहारे घसीटते हुये यह बूढ़ा आदमी
किसी पड़ोसी से दस रुपया का नोट मांग आया..
 जमींदार परिवार से होने का उसका दम्भ अब  दीनता में बदल चुका था..
   वह दिन भी आया ,जब बाबू साहब की इस नयी आदत से परेशान पड़ोसियों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिये..      फिर तो एक कुल्हड़ चाय के लिये भी किसी भले आदमी की तलाश इस बूढ़े व्यक्ति को करनी पड़ती थी..।
   इसी बीच पड़ोसी मोहल्ले के तीन युवकों ने बाबू साहब से नजदीकी बढ़ा ली.. कोई एक माह तक इन तीनों ने उनकी  रसना को कुछ इस तरह से तृप्त कर दिया कि उनका रोम- रोम इन युवकों को आशीर्वाद देने लगा..।
 और एक दिन हवेली से समीप की शेष बची एक मात्र जमीन का सौदा बिना अपने पुत्रों को बताये डेढ़ लाख रुपये में बाबू साहब ने इन युवा मित्रों से कर लिया..।
 जमीन की रजिस्ट्री के बाद ये युवक महीनों फिर न दिखें..उधर, बाबू साहब ने भी चार - छह महीने में ही सारा धन उड़ा दिया..।
  ठीक छह माह बाद एक दिन बाबू साहब की चीख -पुकार की आवाज सुन पड़ोसी उस पुरानी हवेली की तरफ दौड़े.. देखा कि दोनों पुत्र यमराज की तरह पिता के सीने पर चढ़ हुये हैं.. तब पड़ोसियों को भी पता चला कि उन तीनों युवकों ने जिस जमीन का गोपनीय सौदा बाबू साहब के साथ किया था..वह हवेली के बाहर वाला वह हिस्सा था.. जिसे छल से उन्होंने अपने नाम करवा लिया था..इसी पर उनके पुत्रों ने दुकानें बनवा उसे किराये पर दे रखी हैं .. जो इस परिवार की रोजी- रोटी का जरिया है..।
  युवा मित्रोंं द्वारा किये गये इतने बड़े धोखे से बाबू साहब से कहीं अधिक उनके पुत्र सदमे में थें.. और अपनी इसी चटोरी जीभ के कारण ही बाबू साहब आज भी इसी हवेली में अपने ही पुत्रों द्वारा बंधक बना कर रखें गये हैं.. उन्हें पागल घोषित कर दिया गया है..परिवार का हर सदस्य उनसे घृणा करता है.. इस यातना गृह से वे बाहर नहीं निकल सकते हैं.. उन पर चौकन्नी निगाहें रखी जाती है..।
   किसी मांगलिक समारोह में भी वे नहीं जा सकते.. भला पागल इंसान को कोई पूछता हैं..।
    अपनी ही हवेली में कैद अपराध बोध से भरे इस बूढ़े आदमी के विकल हृदय से एक ही आवाज आती है अब -     " मेरा मर जाना ही अच्छा है..।"
     -व्याकुल पथिक
     ( 25 मई 2019 )
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   ( इस लेख के पात्र काल्पनिक नहीं हैं। डेढ़ माह पूर्व लिखा लेख है। अतः यह वृद्ध अभी जीवित है अथवा यातना गृह से उसे मुक्ति मिल गयी है। इसकी जानकारी नहीं है। )

Monday 1 July 2019

रेणु दी..

रेणु दी..
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 " शशि भाई , यदि आप चाहते हैं कि आपकी बात अन्य पाठकों तक पहुँचे, तो आपको अपने ब्लॉग में काफी कुछ सुधार करना पड़ेगा । "
  ...यह रेणु दी ही थीं , जिन्होंने " व्याकुल पथिक " को गत वर्ष सर्व सुलभ बना दिया था। मेल पर भेजे गये उनके संदेश ने आभासीय दुनिया में प्रथम बार मुझे उस पवित्र स्नेह का आभास करवाया जो " बहन- भाई " के मध्य होता है।
   कहना नहीं होगा कि अब जबकि पथिक का ब्लॉग सूना पड़ा है, उसकी लेखनी ठहर गयी है , उसकी चिन्तन शक्ति , उसकी पहचान और उसका आत्म सम्मान सब-कुछ इसी आभासीय दुनिया में नष्ट हो चुका है। ऐसे में उसके हृदय के रिसते हुये घाव पर किसी ने मरहम का फाहा रखने का प्रयास किया है , तो वे श्रीमती रेणुबाला सिंह ही हैं, जिन्हें मैं स्नेह से रेणु दी बुलाया करता हूँ।
    ब्लॉग पर मौजूद इस साहित्यिक जगत में जब भी यह लगता है कि यहाँ निखालिस कुछ भी नहीं है। इस तथाकथित संवेदनशील मंच पर निर्मल अश्रुओं का कोई मोल नहीं है। ऐसे में रेणु दी मेरे लिये वह आदर्श साहित्यकार हैं , जिनके हृदय में कृत्रिमता तनिक भी नहीं है।
  मुझे उनकी रचानाओं, उनकी लेखनी और ब्लॉग जगत में उनकी  विशिष्ट पहचान से कहीं अधिक उनका व्यवहारिक पक्ष पसंद है।अपने अंदर के पत्रकार अथवा बहन के प्रति प्रेम भाव में ऐसा मैं कदापि नहीं कह रहा हूँ । उनमें अनजाने लोगों के प्रति भी जो सहयोग की भावना है, वे उन्हें एक साहित्य प्रेमी से ऊपर मानव की विशिष्ट श्रेणी में ला खड़ा करता है। जो वास्तविक साहित्यकार का श्रृंगार है ।
  मैंने देखा कि उन्होंने निश्छल एवं निस्वार्थ भाव से "शब्द नगरी " , " प्रतिलिपि " और " ब्लॉग " पर कनिष्ठ रचनाकारों का न सिर्फ उत्साहवर्धन किया है, वरन् उनकी कविता एवं लेख की त्रुटियों को भी मधुर संबोधन के साथ सुधारने का कार्य किया है। ऐसा करने में समयाभाव के कारण वे अपनी रचना न लिख पाती हो, फिर भी इस आभासीय जगत के अनजाने लोगों के सहयोग के लिये सदैव तत्पर रहती हैं। जिनमें से एक मैं भी था । यूँ कहूँ तो इस " व्याकुल पथिक " ब्लॉग पर मुझसे कहीं अधिक उनका ही अधिकार बनता है और इस ब्लॉग के सूनेपन से यदि कोई आहत है , तो वे रेणु दी हैं । वे ब्लॉग पर मेरी वापसी चाहती हैं । हाँ ,मीना शर्मा दी भी इसके लिये मेरा उत्साह बढ़ा रही हैं।  परंतु  दुर्भाग्य के प्रहार को बदलने में इस बार असमर्थ-सा हूँ । अस्वस्थता के कारण पुनः आश्रम जीवन संभव नहीं है। अतः एकांतवास ही एकमात्र विकल्प है। इस आभासीय जगत की पाठशाला में मैंने जीवन का वह अंतिम कष्टप्रद अध्याय पढ़ा है । जिसने स्वास्थ्य से कहीं अधिक मेरे उस अपनत्व -भाव पर प्रहार किया है, जिसके लिये मैं आजीवन भटकता- फिसलता रहा। सो, अब यह काया ढांचा मात्रा है। जिसमें स्पंदन नहीं है।यह मेरे हृदय की दुर्बलता रही कि इस आभासीय संसार में वर्षों बाद स्नेह और अपनत्व की भूख पुनः जगा बैठा।
    फिर भी रेणु दी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त किये बिना , इस आभासीय दुनिया से विदाई , उनके ही जैसे उन भद्रजनों का अपमान करना होगा , जिनमें दूसरों के प्रति सहयोग की भावना है।
    रेणु दी के ब्लॉग पर जाने से और उनके द्वारा लिखी श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ने से ,यह आभास होना कठिन है कि यह ऐसी गृहणी के द्वारा लिखा गया लेख अथवा कविताएँ हैं, जो सुबह से रात्रि तक अपने पारिवारिक दायित्वों में व्यस्त रहती हैं और इसके पश्चात भी अपने साहित्य प्रेम के कारण देर रात कम्प्यूटर पर बैठ इस सीमित समयावधि में ही नयी रचनाओं का सृजन करती हैं साथ ही दूसरों की रचानाओं पर अपनी प्रतिक्रिया भी देती हैं। ऐसे अनेक नये रचनाकार जिनका " कमेंट बाक्स " खाली पड़ा रहता है, उसके उत्साहवर्धन के लिये रेणु दी की प्रथम टिप्पणी उसपर निश्चित ही दिखाई पड़ती है। कभी इन्हीं में से एक मैं भी था।
   
        "  रेणु दी वह संपूर्ण आर्य नारी हैं ,जो साहित्यकार होने से पहले एक कुशल गृहणी हैं । अपने प्रियजनों संग रिश्तों की खुशबू को बरकरार रखने के लिए वे गृहस्थ धर्म का अनवरत निष्ठा पूर्वक पालन करते हुए, रात्रि में साहित्य सृजन के लिए सहर्ष तत्पर रहती हैं । जैसा कि प्रबुद्ध वर्ग के लिए कहा जाता है कि जिस तरह शरीर का खाद्य भोजनीय पदार्थ है, उसी तरह से मस्तिष्क का खाद्य साहित्य है।  सच कहूं तो रेणु दी में वह संवेदना और सहानुभूति है ,जो साहित्य की सृष्टि करती है। "

    परिस्थितिजन्य कारणों से परास्नातक की शिक्षा उन्होंने किसी कालेज जाकर न भी ग्रहण की हो, तब भी उनकी यह डिग्री गांव की बेटी की शिक्षा के प्रति समर्पण और संघर्ष की दास्तान है।
  रेणु दी की कविताओं में प्रकृति, सौंदर्य एवं मानव मन का सम्मिश्रित चित्रण है। हर शब्द बोलता है और व्यर्थ यहाँ कुछ भी नहीं है। वहीं, गद्य की बात करे ,तो उनका हर लेख विषय वस्तु को विस्तार के साथ समाहित किये हुये है। उसमें सम्पूर्णता है और सार्थकता भी।
  ब्लॉग पर रचनाओं की अधिक संख्या एवं पेज व्यूज के पीछे भागने वाले लेखकों के लिये रेणु दी का ब्लॉग " स्पीड ब्रेकर " है। जिस तरह से "गति अवरोधक" असावधान वाहन चालकों को सजग करता है। उसी तरह उनका ब्लॉग भी ऐसे लेखकों को सावधान करता है कि वे जरा ठहर कर अपनी रचनाओं की स्वयं समीक्षा करे ।
   स्वयं अपने कार्यों का मूल्यांकन करना ही  मनुष्य के लिये सफलता की दिशा में बढ़ता वह पहला कदम है , जो उसे शीर्ष पर ले जा सकता है। आत्मावलोकन कर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण  रखा जा सकता है।
  रेणु दी ऐसी ही रचनाकार हैं , जिन्हें यह पता है कि गृहस्थ धर्म ही उनकी प्राथमिकता है। सो, वे अपने कवि हृदय को अपने पारिवारिक दायित्व पर बोझ बनने नहीं देती हैं। जो एक कुशल गृहिणी का प्रथम कर्तव्य है।
     आज जब ब्लॉग जगत से दूर विकल हृदय लिये एकांतवास पर हूँ। मानसिक तनाव एवं अस्वस्थता के कारण " नेत्रों की ज्योति " बुझने को है। न्यूरो सर्जन के माध्यम से उचित उपचार होने तक ऐसे में लिखने- पढ़ने में असमर्थ रहूँगा। फिर भी प्रयत्न कर  रेणु दी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये इन चंद शब्दों को लिख सका हूँ । साहित्यकार तो मैं हूँ नहीं ,अतः मेरी यह धृष्टता वे अवश्य क्षमा कर देंगी, ऐसा मुझे विश्वास है।
   
              -व्याकुल पथिक
                20 जून 2019