पैसे की पहचान यहां इंसान कीमत कोई नहीं !
मैं एक पत्रकार हूं, इसलिये समाज के हर तबके के लोगों के बीच उठना बैठना रहा है। अफसर की कुर्सी पर बैठे पढ़े लिखे लोगों की बनावटी मुस्कान मुझे मधुमक्खी के डंक सा दर्द दे जाती है। इसलिये तो मजदूरों का अपना पन कहीं अधिक भाता है। कोलकाता में भी था तो बालीगंज जब कभी जाना होता था तो मुंह बना लेता था। लेकिन लिलुआ जाने को कोई कहता, तो पूछे नहीं कितनी खुशी मिलती थी। मुझे समानता पसंद है, न कि अपने से ऊपर नीचे का भेदभाव। इसलिये तो यहां के पत्रकार संगठनों से मोहभंग हो गया था। सच कहूं तो जातिवाद का एहसास भी यहीं मीरजापुर आकर पत्रकारिता के दौरान हुआ मुझे। अन्यथा कक्षा 6 में जब कोलकाता में पढ़ता था, तो हमारे हिन्दी के अध्यापक ने मेरे एक सहपाठी से जब यह पूछा कि असली शेर है कि नकली, यह सुन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था कि सर जी यह क्या पूछ रहे हैं। यह तो मीरजापुर में पता चला कि क्षत्रिय के अतिरिक्त कुछ और जातियां भी सिंह लिखती हैं। खैर.. मैंने पत्रकारिता करते हुये जीवन के इस सच को करीब से देखा है कि रंगमंच पर आपकी भूमिका चाहे जितना भी उम्दा हो, परंतु कहलाएंगे विदूषक ही। कचहरी और आला अफसरों के दफ्तरों में रोजाना ही हाकिम हुजूर कह गिड़गिड़ाते निरापराध लोगों के चेहरे के दर्द को भी पढ़ता हूं। परंतु मदद मैं उनकी कुछ भी न कर पाता हूं। पहले जब युवा था , तो कम से कम लेखनी ही सही , उनके नाम कर देता था। पर अब जो कलम मेरे हाथ में देख रहे हैं न मित्रों वह हाथी के सजावटी दांत की तरह है। कारण अखबारों के मालिकान भी कुशल व्यापारी की तरह खबरों का मोलतोल करने लगे हैं और हम रिपोर्टर की मजबूरी है कि उनकी राह पर उनके अखबार में चलें। और क्या कहूं बंधुओं यही कि सुबह से लेकर रात तक व्हाट्सएप पर दूसरों से उधार में लिया ज्ञानगंगा बहाते रहें और खुद तरमाल गटकते रहें ! आखिर कब तक यह सब चलता रहेगा ! और हमारी अंतरात्मा रोती रहेगी कि..
पैसे की पहचान यहां इंसान की कीमत कोई नहीं , बच के निकल जा इस बस्ती में करता मोहब्बत कोई नहीं..
पहचान फिल्म का यह दर्द भरा नगमा सच पूछे, तो हम जैसे अनेक इंसानों की ही एक कहानी है।
शशि 18/5/18पर