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Sunday 1 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक 1 / 4 / 18

आत्मकथा

    जनता से जुड़े किसी चुनाव को करीब से देखने और उससे कहीं अधिक उस पर अपनी कलम चलाने का यह मेरा पहला अवसर था। लगभग दो वर्षों की पत्रकारिता में मैं तब इतना तो अनुभवी हो गया था कि मुझे कहां,क्या और कैसे लिखना है। सो, अरूण दादा और कामरेड साथियों का भाषण कुछ अधिक गौर से सुनता था। उस समय पोस्टर वार जबर्दस्त हुआ। नागरिक संगठन की भी इसमें विशेष भूमिका थी। भाजपा को घेरने के लिये बड़े ही सटीक मुद्दे उछाले जा रहे थें। जो मुझे सही प्रतीत हो रहा था। सो, स्वतः ही मेरी लेखनी चल गई इस मीरजापुर के गांधी पर । पता नहीं  राजनीति से जुड़ी हलचलों को लिखना अचानक ही क्यों तब मुझे इतना भाने लगा कि एक समय बाद में ऐसा भी आया कि गांडीव का मीरजापुर वाला कालम पाठकों की नजर में राजनीति का अखाड़ा बन गया। तमाम राजनेताओं ने तब गांडीव लेना इसीलिए शुरु कर दिया था ।इसलिये शायद कि वे जिले की सियासत से पूरी तरह से अपडेट हो जाते थें ,गांडीव पढ़ कर । तब सोशल मीडिया का युग तो था नहीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी स्थानीय समाचार इतना कहां दिखलाते थें। एक बात यह भी रही कि यहां के लोग  इतना तो कहते ही थें कि यदि शशि ने लिखा है, तो उसमें सच्चाई होगी ही। पाठकों का यही विश्वास था। जबकि मुझे राजनीति का ककहरा तक नहीं पता था, फिर भी जिज्ञासा प्रबल रही। अतः मैं तब जो वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता और बुद्धिजीवी रहें, उनसे पूछता भी था। मैं इस मामले में भाग्यशाली हूं , जिसे सर्वप्रथम यहां पं० रामचंद्र तिवारी( अब स्वर्गीय) और वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्रनाथ जायसवाल जिन्हें सभी लल्लू बाबू कहते हैं, का सानिध्य प्राप्त हुआ। बाद में आज अखबार के जिला प्रतिनिधि रहें  सलिल भैया का स्नेह भी मिला। क्राइम की खबर में तब दैनिक जागरण देख रहें सुरेश चंद्र सर्राफ  जी का भरपूर सहयोग मिलता था।  साथ ही धुंधीकटरा स्थित राजमोहन भैया के यहां भी जाता था। वहां संतोष श्रीवास्तव मास्टर साहब  ,जो कभी गांडीव भी देखते थें, वे भी मेरा उत्साहवर्धन करते ही थें। बाद में पत्रकारिता के क्षेत्र में भरपूर जानकारी रखने वाले सर्वेश जी के यहां भी गया। परंतु अखबार बांटने और प्रतिदिन बनारस आने जाने के कारण मेरे पास पढ़ने लिखने और किसी के सानिध्य में बैठ कर समाचार लिखने का समय कम ही था। हां , वरिष्ठ पत्रकार लल्लू चाचा के घर पर तब सुबह पहुंच जाया करता था। करीब एक-दो घंटे वहीं बैठ कर समाचार लिख लिया करता था। निर्भिक पत्रकारिता मैंने उन्हीं से सीखीं है और गंभीर पत्रकारिता अपने गुरु जी यानि   स्व० रामचंद्र तिवारी जी से। उत्साहवर्धन मेरा सलिल भैया ने खूब किया। सरदार भूपेंद्र सिंह डंग मुझे जनसत्ता पढ़ने को देते ही थें। इस तरह से राजनीति की खबर लिखने में मुझे रुचि बढ़ती ही गई। दरअसल  ऐसी खबरों कि चर्चा भी खूब होती थी। शाम ढलते ही लोग गांडीव तलाशने लगते थें। ऐसे में जब मैंने अपने कालम में अरुण दादा की खबरों को प्रमुखता देना शुरू कर दिया। उन्हें चेयरमैन की कुर्सी का प्रबल दावेदार बतला दिया, तो हमारे डाक इंचार्ज मधुकर जी थोड़ा चौंके, शायद सोचा हो कि इस लड़के को हो क्या गया है। वे मीरजापुर रह चुके थें। यहां तमाम उनके परिचित भी थें। सो, मेरी एक खबर पर उन्होंने टोक ही दिया कि जनसंघ के गढ़ में मुहं टेढ़े को जीता रहे हो ! मैंने भी पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया कि सर उनकी जीत कोई रोक नहीं सकता। अब आप समझ लें कि भाजपाइयों से अच्छी मित्रता के बावजूद मैंने अपने कलम के साथ यह पहला न्याय किया।  किसी प्रलोभन में फंसा नहीं। उस समय गांडीव का यहां शहर में कुछ तो प्रभाव था ही। पेपर मार्केट में थें ही कितन। दैनिक जागरण, आज, राष्ट्रीय सहारा, भारतदूत और गांडीव तथा अंग्रेजी का अखबार एनआईपी । इसके अतिरिक्त जो पेपर थें कोई खास चर्चा में नहीं थें। हां, अमृत प्रभात , स्वतंत्र भारत, जनवार्ता के पत्रकार भले ही दमदार थें। बहरहाल, मेरी समीक्षा सही निकली और दादा लगभग 6 हजार मतों से विजयी हुयें। इसके बाद से अब तक मेरी कोई समीक्षा गलत नहीं हुई है। हालांकि चुनाव आयोग की पाबंदी के कारण विगत कई चुनावों से हार जीत की समीक्षा मतदान के पूर्व मीडिया नहीं करती है। नहीं तो इसे लेकर भी कलम को धन सम्पन्न प्रत्याशी खरीद लेते थें। एक बार एक बड़ा प्रलोभन भरा प्रस्ताव मेरे समक्ष भी आया था।

क्रमशः