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Saturday 29 December 2018

छू कर मेरे मन को ...

छू कर मेरे मन को ...
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छू कर, मेरे मन को, किया तूने, क्या इशारा
बदला ये मौसम, लगे प्यारा जग सारा...

     ऐसी  "छुअन"  की चाहत भला किसे नहीं होती ।
 मन का मन से स्पर्श , शब्दों का हृदय से स्पर्श और ऋतुओं का प्राणियों से ही नहीं वरन् वनस्पतियों से भी स्पर्श सुख-दुख की अनुभूति करा जाता है। इस हेमंत और शिशिर ऋतु में बर्फिली हवाओं की छुअन जब चुभन देती है , तो अग्नि का ताप दूर से ही सुखद स्पर्श देता है। कुछ सम्बंध मनुष्य के जीवन में ऐसे भी होते हैं कि दूर हो कर भी उसका छुअन मधुर लगता है और कभी-कभी तन से तन का मिलन होकर भी कुछ नहीं मिलता है ।  परस्पर समर्पण भाव का स्त्री- पुरूष के जीवन में अपना ही कुछ आनंद है।

गीत की इन पंक्तियों की तरह ही-

न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन
निखर निखर गई सँवर सँवर गई
बनाके आईना तुझे ऐ जानेमन...

      युवा ही नहीं प्रौढ़ और वृद्ध  दम्पति को जब कभी सुबह हाथों में हाथ डाले प्रातः भ्रमण पर देखता हूँ, उस स्पर्श की भावनात्मक उर्जा की अनुभूति कैसी होती होगी सोचता हूँ। इसे तो जिनका कोई जीवन साथी हो, हमदर्द हो ,वो ही बयां कर सकता है , यदि मैं अपने मन को इस प्रेम सागर की गहराई में उतारने की मासूम सी कोशिश करूँ भी , तो "चुभन "के सिवा कुछ न मिलेगा।
     हाँ , इस छुअन को पत्नी और प्रेयसी की जगह माँ के स्पर्श  में निश्चित महसूस किया हूँ । बचपन कब का बीत गया फिर भी स्मृतियों में जब भी माँ चली आती है,दर्द कैसा भी हो पल भर के लिये ही सही ओठों पर एक मुस्कान तो आ ही जाती है,उनके स्नेह भरे स्पर्श को याद कर । यही मेरे जीवन भर की पूंजी है ।
   बात यहीं से शुरु करता हूँ , इस छुअन के अद्भुत प्रभाव का , जब कभी कोई सच्चा गुरू यदि कर्मपथ का अनुसरण करने वाले शिष्य की ज्ञानेन्द्रियों को अपनी उर्जा देने के लिये स्पर्श करता है , तो किस तरह से उसके मन - मस्तिष्क में एक विस्फोट सा होता है। रामकृष्ण परमहंस ने ईश्वर की खोज में निकले स्वामी विवेकानंद की जिज्ञासाओं को स्पर्श के माध्यम से ही शांत किया न..। गुरु की उर्जा का छुअन योग्य शिष्य को विवेकानंद बना देती है।
     मुझे भी एक अवसर मिला था। वाराणसी में कम्पनी गार्डेन में निठल्ले भटकने के दौरान गुरु स्वयं ही अपने आश्रम पर ले गये । लगभग छह माह रहा भी वहाँ। परंतु नियति में मेरे "पथ प्रदर्शक" नहीं " पथिक " बनना लिखा था।  वहाँ से मुजफ्फरपुर और फिर कालिम्पोंग चला गया। तन- मन से पूरी तरह स्वस्थ था आश्रम में , किसी तरह की मलीनता नहीं थी। गुरु की कृपा जब मिलने को हुई,तो परिजनों की याद आ गयी। अब एक अतृप्त मन लिये इस रंगमंच पर विदूषकों सा थिरक रहा हूँ।
  बालक जब रूदन करता है , तो माँ उसे अपनी वाणी से शांत करवाने का प्रयत्न करती है। लेकिन , बच्चा तब और तेज रोने लगता है, वह शांत तभी होता है जब माँ उसे गोद में उठा लेती है। माँ का प्यार भरा यह स्पर्श उसके कष्ट का हरण करता है। आपने ने भी देखा होगा कि माँ जब अपने शिशु का तेल मालिश करती है , तो तनिक रोने के बाद वह किस तरह से खिलखिलाकर हँसने लगता है। ऐसा इसलिये कि माँ के स्पर्श से उसके  ममत्व भरे उर्जा की अनुभूति उस अबोध बच्चे को होती है। छुअन क्या है,यह वह स्नेह है जिसकी भाषा पशु-पक्षी ही नहीं पेड़- पौधे तक समझते हैं।

   एक और दृष्टिकोण से इस छुअन को देखें , जब  इंद्र के कुकृत्य की शिकार अहिल्या पथरा गयी थी। तब मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पांव के स्पर्श ने पुनः उसे पाषाण से नारी बना दिया। वह ऋषि पत्नी थी । राम के समक्ष धर्म संकट था , परनारी को हाथ से स्पर्श कर नहीं सकते थें और पांव से भी स्त्री की मर्यादा का उलंघन था। परंतु उन्होंने एक नारी के अस्तित्व की रक्षा के लिये ऐसा किया। उनके छुअन का मतलब था कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र होने के नाते राजवंश ने अहिल्या की पावनता को स्वीकार किया , फिर प्रजा क्यों नहीं मानेगी। वन गमन के दौरान राम ने यही तो किया। भद्रजन जिन्हें अछूत मानते थें, जैसे केवट, शबरी और वानर जाति के लोग , उन सभी को अपने स्पर्श से बराबरी का सम्मान दिया।
   घायल पक्षीराज जटायु को गोद में उठा कर जब राम उसके बदन को सहलाते हैं , उसे पिता तुल्य बताते हैं। हम श्रोताओं को उस स्पर्श की अनुभूति कराते हुये मैंने देखा काशी में कि कुछ कथावाचकों के नेत्रों में जल भर आता था। वह छुअन प्रेमांशु बन गया। हर पीड़ा से मुक्त हो गया जटायु। यह सर्वोच्च पुरस्कार था उसका , रावण जैसे बलशाली से नारी की अस्मिता के लिये संघर्ष कर स्वयं का बलिदान कर देने का। ऐसा स्पर्श सम्पूर्ण रामायण में किसी अन्य को प्राप्त नहीं है।
    एक प्रसंग बलदेव दास बिड़ला जी का आता है। जब उन्होंने अपनी माँ का चरण स्पर्श कर अपना स्वयं का व्यवसाय करने की अनुमति मांगी थी। उनके पास कुछ रुपये थें। बताते हैं कि  माँ ने उन्हें आशीर्वाद में कहा था कि तुम्हें करोड़ों का घाटा लग जाय । बिड़ला जी माँ की वाणी को श्राप समझ कर रोने लगे, तो माता ने स्पष्ट किया कि पगले जब अरबों की सम्पत्ति तेरे पास होगी तब न करोड़ों की क्षति होगी। आज कितने ही करोड़ का सिद्धपीठ यहाँ विंध्याचल में बिड़ला जी का है ।ऐसे ही पड़ा रहता है।
    कभी कभी छुअन की चाह में जो चुभन मिलती है न, वह भी गजब की सकारात्मक उर्जा बन जाती है। बालक ध्रुव का स्मरण करें। पिता के गोद का स्पर्श ही तो चाहता था न वह, परंतु  सौतेली माँ की वाणी ने उस मासूम के हृदय को ऐसी चुभन दी कि उसने नारायणी सत्ता को हिला दिया।  अतः छुअन हो या फिर चुभन " उर्जा "दोनों में ही है । यह चुभन  ही है कि मैं ब्लॉग पर अपनी बातों को इस तरह से रख पाता हूँ।

   अपनी बात मैं इस पसंदीदा गीत से समाप्त करता हूँ,  जो कभी मुझे उस काल्पनिक दुनिया का स्पर्श कराता था , जिसकी चुभन अब दर्द दे जाती है -

आ जा पिया तोहे प्यार दूँ
गोरी बइयां तोपे वार दूँ
किस लिये तू, इतना उदास
सूखे सूखे होंठ, अँखियों मे प्यास
 किस लिये किस लिये हो
 रहने दे रे, जो वो जुल्मी है पथ तेरे गाओं के
पलकों से चुन डालूंगी मैं काँटे तेरी राहों के
 हो, सुख मेरा लेले, मैं दुख तेरे लेलूँ
तु भी जिये, मैं भी जियूँ हो...
(चित्रः गुगल से साभार)

Thursday 27 December 2018

मेले में रह जाए जो अकेला..

मेले में रह जाए जो अकेला..

(बातें कुछ अपनी, कुछ जग की)
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यदि खुशी और दो पल का साथ मयखाने में भी मिले , तो संकोच मत करो वहाँ जाने में । क्या करोगे आदर्श पुरुष बन कर ..?  यह समाज ये राजनेता , ये भद्रलोग तुम्हारे त्याग और बलिदान को अपने हानि लाभ के चश्मे से देखेंगे..
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते जाते रस्तें में यादें छोड़ जाता है
 झोंका हवा का, पानी का रेला
मेले में रह जाए जो अकेला
फिर वो अकेला ही रह जाता है ...

        देखते ही देखते वर्ष 2018 ने अलविदा कहने के लिये अपना हाथ उठा लिया है। अब वह इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा ,फिर कभी न आने के लिये। जिसका कोई अपना है , जिसके लिये उसने जीने की कोशिश की , उसे कुछ हासिल हुआ ,अन्यथा मेले में अकेला है। जाना तय है, सब-कुछ नश्वर है , समय कम है और आकांक्षाएँ अनंत है । अपनी तो एक छोटी सी चाहत थी , जो समय की किताब में किसी बेगाने,  अंजाने और बंजारे की तरह दफन होने को है इस वर्ष ,इसी दुनिया के मेले में । जैसे अच्छे दिन आने की ललक लिये आम जनता और मजीठिया आयोग की सिफारिश लागू होने की हम श्रमजीवी पत्रकारों की उम्मीद टूट गयी इस वर्ष भी ।
         बात अपने देश की राजनीति से शुरु करुँ , तो इस वर्ष ने "विधाता" कहलाने वाले लोगों को आईना दिखलाया है और सियासी जुमले के बादशाह के समक्ष वाकपटुता की राजनीति में अनाड़ी  " पप्पू "को खिलाड़ी बनने का एक अवसर भी दिया है। "नोटा" की पहली बार निर्णायक भूमिका दिखी अपने पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में। अपने यूपी में बुआ- भांजा मिल कर सियासी खिचड़ी पकाने की तैयारी में जुटे हैं। बिहार में भी विधान सभा चुनाव में सत्ता पक्ष को तलवार की धार से गुजरना होगा , यानी कि वर्ष 2019 के चार - पांच माह तो सियासी बिसात पर शह- मात के खेल में ही गुजर जाएँगे। किसी को राजनैतिक वनवास मिलेगा , तो किसी को राजपाठ । आम आदमी के लिए बस इस नगमे जैसा ही हो गया है आम चुनाव-

 देखें हमें नसीब से अब, अपने क्या मिले
अब तक तो जो भी दोस्त मिले, बेवफ़ा मिले
हमने उदासियों में गुज़ारी है ज़िन्दगी
लगता है डर फ़रेब-ए-वफ़ा से कभी कभी
ऐसा न हो कि ज़ख़्म कोई फिर नया मिले ...

    उदासी में जिंदगी गुजारने में वह दर्द नहीं होता , जितना उम्मीद टूटने पर ..।
   नववर्ष के स्वागत की अभिलाषा वर्षों पहले कोलकाता से बनारस वापसी के पूर्व बचपन में ही टूट गयी ,  क्रिसमस डे की अगली सुबह माँ का साथ छूट गया और फिर न ही ऐसा कोई अपना मिला कि नूतन वर्ष के उस पुष्प का एहसास मुझे होता। जीवन यादों की जंजीरों में कैद रहा , वायदों के टूटने से छला गया , अपना उजड़ा आशियाना भी इसी वर्ष कुछ दर्द और सबक दे गया । फिर भी वर्ष 2018 मेरे लिये कई मायनों में खास रहा। पीड़ा से भरा यह हृदय मेरा दुनिया की इस भीड़ में किसी अपने को तलाशते हुये , मानो मोमबत्ती की तरह स्वयं ही जल -जल कर , आँसुओं की तरह  ढुलक- ढुलक कर अंतिम भभक के साथ शांत होने को है । ऐसा लगा कि नियति के समक्ष सिर झुकाने की जगह उसने स्वयं के अस्तित्व को मिटाने की ठान ली हो।
    जिसके पास सबकुछ था बचपन में ,उसे इस वर्ष मुसाफिरखाना ने  यह पैगाम दिया-

जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
 आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
 कौन जानता किधर सवेरा...

    ब्लॉग पर आकर , " व्याकुल पथिक"  बना मैं  बेझिझक अपनी अनुभूतियों ,चिंतन और विचारों को व्यक्त करने लगा। मुझे अपने ऊपर सकारात्मकता का सिंबल लगवाना पसंद नहीं है। मैं जैसा हूँ , वैसा ही ब्लॉग पर भी जीता हूँ। यह वर्ष मेरे जीवन का वह पाठशाला रहा है, जहाँ  बाहर एवं भीतर के बंद कमरे में पढ़ने और पढ़ाने वाला मैं ही रहा । मेरी तन्हाई मुझे जख्म देती रही ,तो यह भी बताती रही कि दुनिया एक सर्कस है, तमाशा है और तू उसका "जोकर" है।  तेरा मेला, तेरा सपना, तेरा अपना सब पीछे छूट चुका है। जहाँ अब तू खड़ा है , उसी जगह , उसी रंगमंच पर  तुझे आखिरी शो अपने जीवन का करना है। अतः मन को कठोर कर ले ,क्यों कि दर्शक दीर्घा में तब वे तमाशबीन भी होंगे, जिन्हें तूने अपना समझा था, फिर भी तू आनजाने, बेगाने और बंजारे की तरह अपने रंगमंच पर आखिरी सांस लेगा..!
   यह 26 दिसंबर मुझे फिर से यही याद करा गया । माँ की विदाई  के साथ ही उनका वह हीरे का नथ ,जिसे उनकी सासु माँ ने दी थी, साथ ही माँ की उस अभिलाषा पर भी आँखें नम हो गयी, जो मुझसे थी उन्हें। उस नथ उनका वंश बढ़ाने की जगह पता नहीं किसी मीना बाजार में गुम हो गया..?
फिर भी-

ये जीवन है इस जीवन का
यही है,यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है यही है छाँव धूप...

  हम जैसों का जीवन चाहे जैसा हो , सांसों की माला पूरा   करके ही जाना है। कायरों की तरह पलायन भी कर जाते हैं अनेक , परंतु खुदकुशी  से बेहतर है कि इस दुनिया को देखिये , दुनियादारी से मुक्त होने के लिये, इस उम्मीद से भी की कोई तो अपना होगा ,भले ही यह नगमा ही आपकी किस्मत हो-

आसमान जितने सितारे हैं तेरी महफ़िल में
 अपनी तक़दीर का ही कोई सितारा न हुआ
इस भरी दुनिया में, कोई भी हमारा न हुआ
गैर तो गैर हैं, अपनों का सहारा न हुआ ..

   इस वर्ष ने मुझे अनेक प्रलोभनों से मुक्त किया। धन, स्वादिष्ट भोजन और अपना आशियाना तीनों की चाहत से मुक्त हो चुका हूँ ,फिर भी दिल के किसी कोने में थोड़ी सी उम्मीद बची थी कि कोई मुझे समझता है, इस 26 दिसंबर की शाम वह शमा भी बुझ गयी, माँ की चिता की अग्नि की तरह, जिसकी राख आज भी दर्द देती है साथ ही यह संदेश भी  कि यह दुनिया दो दिन  मेला , पंक्षी तो चला अकेला ।
     नववर्ष में प्रयास रहेगा कि उस उत्तरदायित्व को ठीक से निभाता रहूँ , जो समाज के प्रति है। हाँ, पत्रकारिता अब बोझ लग रही है, इस वर्ष मैंने कुछ भी खास नहीं लिखा। जब तक लिखा था , जम कर लिखा था और डट कर लिखा था। परंतु न तो समाज उस अर्थयुग में उसका मूल्यांकन करता है और न ही  हम जैसों को इसका पारिश्रमिक मिलता है कि सम्मानजनक जीवन हो हम श्रमजीवी पत्रकारों का।

    चलते चलते एक आखिरी बात एक गीत की इन पंक्तियों के साथ कहूँगा-

हमको जो ताने देते हैं, हम खोए हैं इन रंगरलियों में -
 हमने उनको भी छुप छुपके, आते देखा इन गलियों में
 ये सच है झूठी बात नहीं, तुम बोलो ये सच है ना
कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना
छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना ...

   अतः यदि खुशी और दो पल का साथ मयखाने में भी मिले , तो संकोच मत करो वहाँ जाने में । क्या करोगे आदर्श पुरुष बन कर ..?  यह समाज ये राजनेता , ये भद्रलोग तुम्हारे त्याग और बलिदान को अपने हानि लाभ के चश्मे से देखेंगे। वे तो अब हनुमान जी की जाति - धर्म तय करने लगे हैं। यह जीवन प्रेम करने के लिये है। राम ने शबरी का झूठा बेर खाया , सिद्धार्थ ने बुद्ध बनने के लिये नर्तकी का खीर खाया , कृष्ण ने विदुर पत्नी का साग खाया ।
 और " प्यासा " फिल्म के नायक  ने जब पग - पग अपनों से ठोकर खाया , तब उसे  वह मिला जिसे समाज ने ठुकराया था ,जो समाज की नजर में पतित थी । लेकिन उसी ने इस ठोकर खाये शायर को अपना दामन दिया , प्यार दिया । जाति, धर्म और कर्म से परे है यह प्रेम की नगरी। इस विशाल दुनिया रुपी इस खारे समुद्र से यदि बूंद भर प्रेम का जिसे मिल गया, वह धनवान है, बाकी सब कंगाल। यह मत सोचो इस अमृत का पान किसने और किन परिस्थितियों में कराया, बस उसके स्वाद की अनुभूति करो । अनेक ऐसे अतृप्त मन हैं , जिन्होंने जीवन की हर शाम खारे समुद्र के किनारे गुजारा, सिर्फ इसलिये इस खारे समुद्र में वे उतरत रहे कि एक बूंद "मीठा जल" प्राप्त हो जाए। मन की प्यास बुझ जाए। फिर भी मोती नहीं मिली ,खाली सीपी मिली ।  उसके हर प्रयत्न का उपहास हुआ । उसकी इस "प्यास" को "तृष्णा" बता दिया गया। वह टूट गया और डूब गया , शेष बचती है तो उसकी दास्तान.. !

क्या साथ लाए, क्या तोड़ आए
रस्तें में हम क्या क्या छोड़ आए
मंज़िल पे जा के याद आता है
जब डोलती है जीवन की नैय्या
कोई तो बन जाता है खेवैय्या
 कोई किनारे पे ही डूब जाता है...

   इस वर्ष को अलविदा करते हुये , अपनी जीवन नैय्या के विषय में अब भी उस मासूम बच्चे सा सोच रहा हूँ , माँ के बाद जिसका कोई खेवैय्या नहीं है। वह छाया नहीं है, वह ममता नहीं,वह प्रेम नहीं है , जो सामर्थ्य प्रदान करे इस पथिक को, मंजिल दिखा सके , फिर भी नववर्ष का सामना करना है ,कर्मपथ पर डटे रहना है। 

Saturday 22 December 2018

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
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किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार
किसीके वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है ...

   सोचता हूँ कि " मुस्कुराहट "और " प्रेम " में कितना प्रगाढ़ सम्बंध है । एक दूसरे के पूरक हैं ये दोनों , बिल्कुल दीया और बाती की तरह, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व कहाँ। यदि चोट " दिल " पर लगती है, तो दर्द " मुस्कान " को होता है। अतः दिल दुरुस्त रहे ऐसा कोई " प्यार " चाहिए। अन्यथा मन का दीपक बुझा नहीं कि मुस्कान गायब ,  फिर कृतिमता मिलेगी , बनावट और सजावट मिलेगा । लेकिन मन की पुकार कुछ यूँ होगी-

बाहर तो उजाला है मगर दिल में अँधेरा
समझो ना इसे रात, ये है ग़म का सवेरा
क्या दीप जलायें हम तक़दीर ही काली है
उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है..

   मन का अंधकार " मुस्कान " से मिटता है,यह तय है । वह मंद- मंद मुस्कान ,जिसकी खोज में राजमहल का वैभव छोड़ सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनने के लिये निकले थें। उनमें यह सामर्थ्य था कि औरों को भी इससे अवगत करा सके। लेकिन यदि कोई उद्धव  प्रेम विरह से पीड़ित वृज बालाओं को  ज्ञान का मुस्कान बांटने पहुँच जाएँ, तो क्या होता है..? इन दिनों यही हो रहा है , स्वयं की आवश्यकताओं मे तनिक भी कमी आते ही विकल होने वाले ये ज्ञानी लोग औरों को मुस्कान बांटते हैं। मित्र , यह तुम्हारे बस की बात नहीं है, अपने किसी प्रियजन का तनिक वियोग  होगा नहीं कि तुम भी अपने ज्ञान की गठरी फेंक बना लोगे मुहर्रमी सूरत ।
 यह दुनिया ज्ञान- विज्ञान से नहीं प्रेम से चलती, करुणा से चलती है , औरों का दर्द लेने वालों से चलती है। अपनी कथनी और करनी में अंतर रखने वालों से नहीं।
     ठीक है कि जीवन की राह में हर पथिक को मुस्कान की तलाश होनी चाहिए, मुसाफिरखाना उसकी मंजिल नहीं है,  फिर भी सोचे जरा कि यह ( मुस्कान) बाजार में बिकाऊ थोड़े ही है।यह मोल नहीं ली जा सकती है, मांगी भी नहीं जा सकती है, चुराई भी नहीं जा सकती है और न ही उधार ही ली जा सकती है। यह भी जानता हूँ कि इसे पाने वाला मालामाल हो जाता है। इससे बड़ी कोई सम्पत्ति नहीं है और यह भी कि हमें इतना भी निर्धन नहीं होना चाहिए कि दूसरों को एक मुस्कान रुपी उपहार भी न दे सके।
   तब भी यही कहूँगा कि इसे पाने की आकांक्षा में यदि हम अपनी स्मृति , अपनी वेदना ,अपनी पहचान का परित्याग कर देंगे  , तो फिर कुछ शेष नहीं बचेगा , सिवा इसके की लोग हमें विक्षिप्त कहें। ठहाका लगाते ऐसे पागलों से सड़क पर सुबह रोज ही मुलाकात होती है। इन्होंने अपने हर दर्द को स्मृति से निकाल रखा है, पर वे सामान्य इंसान नहीं कहे जाते है ।
        बचपन की बात करूं तो इस ठंड के मौसम में जब भी घर पर मटर,गोभी, मूली और बथुआ के पराठे बनते थें,मेरे चेहरे पर स्वभाविक मुस्कान आ जाती थी , परंतु आज कोई यदि चार रोटी और थोड़ी सी सब्जी उपलब्ध करवा देता है , तो एक चमक अवश्य उसी चेहरे पर होती है, लेकिन यह बेबसी लिये होती है। एक सवाल लिये होती है-

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो
बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पिए जा रहे हो..

      बात यदि उस  प्रेम की करे जिससे मुस्कान आती है , तो इसके विविध रुप है, माँ, पत्नी, प्रेयसी और संतान ही नहीं अन्य प्राणियों से भी, जिनसे हम स्नेह करते हैं। जिनके वियोग पर दर्द होता है , यह पैमाना हर किसी के लिये एक जैसा नहीं है। सवाल यह है कि इस जुदाई, इस धोखे और इस तन्हाई  को मुस्कान में फिर से कैसे बदला जाए।  जब तक ब्लॉग पर नहीं था, किसी को अपने दर्द का एहसास नहीं होने दिया। आज भी उसी तरह मुस्कुराता हूँ। चंद लोग ही तो मेरे ब्लॉग पर जाते हैं। यह अखबार का पन्ना थोड़े ही है, हर कोई उलट पुलट ले। जब एक चेहरे पर कई चेहरे वैसे भी लगाते हैं लोग , तो मुस्कान वाला चेहरा क्यों खराब.. ।
     इन पवित्र आँसुओं का कोई मोल नहीं है , इस समाज में , इस महफिल में। जब तक कोई अपना न हो, हर किसी से हर कोई यह सवाल नहीं करता -

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो
आँखों में नमी, हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
क्या गम है जिसको...

   इसके लिये भी " दिल से दिल तक " का कोई रिश्ता होना चाहिए,  ऐसी मुस्कान के पीछे छिपे दर्द को समझने के लिये । अन्यथा तो यह दुनिया नौटंकी है , सर्कस है । यहाँ मनोरंजन पसंद है लोग , आपका दर्द नहीं चाहिए उन्हें । अतः माँ की मौत की खबर पर भी रंगमंच के उस महान कलाकार "जोकर" की तरह ठहाका लगाइए ,कुछ ऐसा हास्य-विनोद कीजिये जिससे दर्शक दीर्घा  में बैठे लोग ताली बजाएँ और उनका पैसा वसूल हो ।  इस रंगमंच पर आपके दर्द को ही नहीं, आपकी मौत को भी आपके अभिनय का अंग समझ वे खुश हो शोर मचाए , कुछ ऐसा कर चलो  मित्र । ये दुनियावाले  हमसे-आपसे यही चाहते हैं न...।
      यह सत्य जानते हुये कि इंसान की सम्वेदनाओं , भावनाओं और आकांक्षाओं से  दुनिया नहीं चलती। यह झूठी मुस्कुराहटों,झूठे वायदों एवं झूठे रिश्तों  का घरौंदा है। ऊपर से देखने में सुंदर , पर अंदर से खोखला है। ऐसे में यह नादानी  फिर क्यों करते हैं हम-

जिन ज़ख्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो..

Wednesday 19 December 2018

अनजान गुनाहों के लिये मुस्काता हूँ




अनजान गुनाहों के लिये मुस्काता हूँ
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कागज के रुपयों के  वास्ते नहीं ,
चंद टुकड़े रोटी के लिए मुस्काता हूँ;
  आवारा,भूखे  पशुओं सा ,
तेरा जूठन पाने के लिए मुस्काता हूँ।


स्नेह पाने के लिए नहीं मैं ,
बेगाना कहलाने के लिए मुस्काता हूँ;
बेशुमार दर्द को सह कर भी ,
निगाहों में तेरी बेरुख़ी के लिए मुस्काता हूँ।


जिस पथ पर पहचान मिली ,
नहीं मंजिल,तिरस्कार के लिए मुस्काता हूँ;
कुछ रातें सड़क पर गुजरीं ,
अब  "पथिक" कहलाने के लिये मुस्काता हूँ।

  शहनाई बजी न साथी मिला ,
अब तो   तन्हाई  के लिए मुस्काता हूँ;
  तेरी जुदाई का  ये महीना है  माँ !
 आंचल तेरा पाने  के लिये मुस्काता हूँ।


भूख ने छीने शब्द मेरे ,
चूर किये स्वप्न तेरे ,
बन न सका  तेरा  मैं ''राजाबाबू '',
अनजान इन गुनाहों के लिये मुस्काता हूँ।


शब्द नहीं पास तुझे पुकारने को ,
पास अब तेरे आने के लिये मुस्काता हूँ ;
फर्क नहीं जहाँ इंसान और हैवान में ,
उस जहां से जाने के  लिये  मुस्काता हूँ।


(व्याकुल पथिक)






    

Saturday 15 December 2018

कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा


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यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो...

  इन दो पंक्तियों में समाहित है सारी दुनियादारी । गैरों की बात छोड़े आपनों को भी गिराने से लोग पीछे न रहते हैं । वे छल करते हैं , द्वंद करते , स्नेह करते हैं ,  औरों को गिरा कर खुद संभलने के लिये..।   लेकिन , समर्पण भी कहाँ कोई शीघ्र करता है। संघर्ष ही इस प्रकृति का सत्य है। पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही संघर्ष ने अपने पांव रख दिये थें इस धरा पर..।

    शिशिर और बंसत के संघर्ष को ही देखें न..।  ऋतुराज से पराजित होने से पूर्व शिशिर अपना पूरा पराक्रम दिखलता है। मेघ वर्षा तक करता है। कितनी ही बार भगवान भास्कर को बादलों के पीछे ले जाता है। परंतु पराजित होना उसकी नियति है। उसका कर्मपथ सूना रह जाता है। शरद और हेमंत की तरह वह विजेता नहीं बन पाता।  उसके संघर्ष की दास्तां को मदनोत्सव अपने पांवों तले कुचल जाता है। लोग यह भुला बैठते हैं कि इसी शिशिर ने ही उन्हें उर्जा दी है, वही अन्नदाता है  हमारा , जिसके कर्म से ही हम यह बसंतोत्सव मना रहे हैं। इंसान की भी कुछ ऐसी ही फ़ितरत है , कब बदल जाए उसकी नियत यह नियति को भी कहाँ पता। सारे उदार कर्म, भावनाओं और स्नेह पर पल भर में प्रश्न चिन्ह लग जाता है। पथिक कर्मपथ पर रह कर भी शिशिर की तरह शिथिल हो जाता है ,अतीत बन कर रह जाता है , उसकी शीतलता को कष्टकारी बता सभी उसका तिरस्कार करते हैं , इस दुनिया के मेले में और वे बिना उसके त्याग और दर्द को समझे बसंतोत्सव मनाते हैं ।
   बंधु यह मदनोत्सव हर किसी के किस्मत में नहीं हो ,  परंतु सिहरन भरी शिशिर की ये रातें निश्चित हैं, करवटें बदलने को , इन तन्हाइयों में और जब भी तिरस्कृत हृदय धौकनी  बन स्वयं से प्रजवल्लित अग्नि को ही गति दे , उसी में धधकने लगे , जल कर खाक होते तन- मन की गरमाहट में  जीवन का रहस्य खुलने लगता है, पर्दा उठने लगता है ।
 ऐसे में  प्रिय की तलाश में " घुंघट "के पट खुलते हैं या फिर "  घुंघरु " के महफिल में पहुँच मुसाफिर परायों में अपनों की खोज करता है। मयखाना उसे खाला का घर नजर आता है ,  हृदय की वेदना शब्द बन जाती है  -

 हमसे मत पूछो कैसे, मंदिर टूटा सपनों का -
 लोगों की बात नहीं है, ये किस्सा है अपनों का
 कोई दुश्मन ठेस लगाये, तो मीत जिया बहलाये
 मन मीत जो घाव लगाये, उसे कौन मिटाये न ..

   कैसी है यह दुनिया और कैसे हैं ये माटी के पुतले, बस फरेब ही अथवा और भी कुछ है इस जहां में..?

      क्या मिलता है किसी के ख्बाबों के घरौंदे को उजाड़ कर , उसके कोमल हृदय पर प्रहार कर , ऐसी तन्हाई देकर जहाँ से मुसाफिर के लिये मंजिल नहीं  होती , उसकी दुनिया मुसाफिरखाने से मयखाने की ओर बढ़ने लगती है ..

 जाने क्या हो जाता, जाने हम क्या कर जाते
 पीते हैं तो ज़िन्दा हैं, न पीते तो मर जाते
दुनिया जो प्यासा रखे, तो मदिरा प्यास बुझाये
 मदिरा जो प्यास लगाये, उसे कौन बुझाये ...

  तब इस मदिरा मे जो  कड़ुवाहट है , वह मधुर लगता है, शीतल लगता है, एक मदहोशी सी छाने लगती है , मानो बसंत द्वार पर दस्तक दे रहा हो।
    कुछ देर के लिये ही सही यह मदिरा भी अमृत बन जाती है। जब मैं प्रथम बार कालिम्पोंग में रहा , बगल के आवास में एक कश्मीरी पंडित जिन्हें मैं अकंल कहता था, रहते थें। हम दोनों हर शाम अपने - अपने बारजे पर होते थें । उनकी शाम  रंगीन होती थी और मेरी ठंडी।  देश- दुनिया की बातों का खजाना होता था, उस वक्त उनके पास।
  वहाँ , तब छोटे नाना जी के मिष्ठान के प्रसिद्ध प्रतिष्ठान जो उनके पितामह के नाम से है , कार्यरत एक नेपाली हर रात चावल से निर्मित मदिरा पी कर आता था । मधुर कंठ पायी थी, मेरी फरमाइश पर शुरु हो जाता था..

पत्थर के सनम, तुझे हमने, मुहब्बत का ख़ुदा जाना
 बड़ी भूल हुई, अरे हमने, ये क्या समझा ये क्या जाना
चेहरा तेरा दिल में लिये, चलते चले अंगारों पे
तू हो कहीं, सजदे किये हमने तेरे रुख़सारों पे
हम सा न हो, कोई दीवाना, पत्थर के ...

 एक दर्द उसके दिल में भी थी , अकसर कहता था वह क्या ठंडे पड़े हो साहब आप भी , पहाड़ी इलाका है, थोड़ी- थोड़ी पिया करो न..।  अभी पिछले ही दिनों यहाँ एक पार्टी थी,  जेंटलमैन और सोसायटी वाले जुटे थें। शाम ढलते ही नजारा बदल गया , महंगी सी महंगी बोतलें खुलने लगी थीं।  कुछ लेडी डाक्टरों ने तो कमाल कर दिया खुल्लम खुल्ला ही गटकने लगी वें ।  वो गीत है न-

   रात भर जाम से जाम टकराएगा
    जब नशा छाएगा तब मज़ा ...

इन्हें याद तब कहाँ रहता कि पिछले ही दिनों तो किसी सामाजिक मंच पर उपदेशों का पिटारा लिये खड़ी थीं।

   ढ़ाई दशक पूर्व जब पत्रकारिता में आया था, हमारे सिनियर ने  यही सवाल किया था कि बेटे यदि महफ़िल में " हरिश्चंद्र " बनोगे तो " लल्लू "कहलाओगे..। कोई मुकाम नहीं हासिल कर पाओगे इस बोतल के बिना। मिलावट और दिखावट की यह दुनिया है, इसकी उंगली थाम कर चलो। शिशिर भी बसंत सी रहेगी तुम्हारी। मैंने उनकी नसीहत को समझने में देर कर दी बहुत..
   अब समझ में आ रहा है कि यह क्यों कहा किसी ने-
 " पीते हैं तो ज़िन्दा हैं, न पीते तो मर जाते "।

    यह  कोई जाम नहीं है, यह हमारी सम्वेदना है , तन्हाई है, उपहास है, बेगाने होने का दर्द है, जिसे हम पीते हैं, इसके साथ।
   इस ठंड भरी रातों में इस ठंड भरी राहों में शिशिर और बसंत के फासले को कुछ इस नजरिये से समझने की कोशिश कर रहा हूँ ।
   हम कर्म पथ पर होकर भी शिशिर की तरह कर्मफल से वंचित रहें, वे बंसत बन हमारी फसल काट रहे हैं।
  हमें वे सीखा रहे हैं कि कुछ नवीनता लाओ, कुछ विविधता लाओ, कुछ उल्लास लाओ ,तुम भी अपने जीवन में..
   उनकी नजरों में शिशिर की कोमलता का कोई मोल नहीं है।
    फिर भी स्मरण रखें अन्नदाता तो इस जगत के हम तीनों बंधु ( शिशिर, हेमंत और शरद) ही हैं। हमारी ही उर्जा , हमारी ही कमाई पर जीवन है ।  बसंत तो क्षणिक है, लूटपाट कर चला जाएँगा।
 अतः शिशिर हर वर्ष पुनः अस्तित्व में आता है , इन धरती पुत्र कृषकों के लिये, अपने उपहास को भूला कर , यह पैगाम देने के लिये-

कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो..

शशि
मो० 9415251928  /  7007144343

Friday 14 December 2018

आईना वो ही रहता है , चेहरे बदल जाते हैं


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जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है..

   तो मित्रों , सियासी आईने की तस्वीर एक बार फिर बदल गयी । जिन्हें गुमान था , उनका विजय रथ रसातल में चला गया। सिंहासन   पर बैठे वज़ीर बदल गये हैं। भारी जश्न है चारोंओर, पार्टी में इस राजनैतिक वनवास के समापन का श्रेय युवराज को दिया जा रहा है। अब तो अगले वर्ष दीपावली मननी तय है , ऐसा कहा जा रहा है। हम पत्रकारों को भी पटाखा फोड़ने वालों ने जल- जलपान करवाया था , उनका फोटो आदि प्रकाशित कर हमने भी अपना कर्म पूरा किया।
    परंतु जब ब्लॉग पर होता हूँ , तो एक पत्रकार की जगह बिल्कुल आम आदमी सा सोचता हूँ कुछ अपनी और कुछ जग के बारे में। उन उम्मीदों के बारे में, जो इलेक्शन बाद जनता करती है और फिर पूरे पाँच वर्षों तक वह मिमियाती है, चिल्लाती है, झल्लाती है। वह ऐसा सियासी आईना  बन कर रह जाती है , जिसमें उसकी तस्वीर न कभी बदली है और ना ही बदलेगी.. !  वो गीत है न -

आईना वो ही रहता है , चेहरे बदल जाते हैं
आंखों में रुकते नहीं जो, आंसू निकल जाते हैं
 होता है जब प्यार तो , लगता है पानी शराब
दो घूँट पीते ही लेकिन होंठ जल जाते हैं..

 जनता जिसे मसीहा समझती है, उसकी ताजपोशी करती है, पर सिंहासन मिलते ही उनकी सोच बदल जाती है । याद करें कि किसानों, नौजवानों, कामगारों, व्यापारियों से लेकर आम आदमी की किस्मत बदलने वाले वे जुमले , जिससे पूरे देश की राजनीति बदल गयी थी। उसी दौर में हमारे मीरजापुर की बुझी काटन मिल की चिमनी में धुआँ करने की बात भी कही गयी थी । लेकिन,  राजनैतिक परिदृश्य बदलने से , क्या बदल गया आम आदमी का जीवन स्तर.. ?
   इसी बुझी चिमनी से चलकर पूछ ले आप या फिर यह गीत  गुनगुनाते इस सच्चाई को स्वीकार करें -

  चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्ताँ हमारा
रहने को घर नही है, सारा जहाँ हमारा
खोली भी छिन गई है, बेन्चें भी छिन गई हैं
सड़कों पे घूमता है अब कारवाँ हमारा
जेबें हैं अपनी खाली, क्यों देता वरना गाली
 वो सन्तरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बाँट ली हैं
फ़ुटपाथ बम्बई के हैं आशियाँ हमारा ..

    सुबह के अंधकार में  निकल कर देखें तो सही सड़कों के फुटपाथ पर भी हमारे जैसे ही लोग हैं, इनके जीवन में कब प्रकाश होगा..? ढ़ाई दशक से इसी शहर में आशियाना तो मेरा भी कोई नहीं है, परिश्रम कम नहीं किया है मैंने भी, पर  पथिक और मुसाफिरखाने का रिश्ता पुराना है।
    " अपना घर " इस  ख्वाहिश को बचनपन से ही हवा दी थी मैंने, कोलकाता में जब था, घोष दादू के गोदाम से बड़ा सा कार्टून ले आता था। दो मंजिला घर , उसका बारजा और चबूतरा तक बनाता था।  बेडरूम,  ड्रांइग रूम, किचन सभी बनाता था, खिलौने वाला पलंग, बर्तन, कुर्सी- मेज से उसे सजाता था। रंगीन बल्ब लगाता था। सुंदर रंगीन पेपर से बना यह मेरा घर , बचपन में मेरी उस आकांक्षा का प्रतिबिंब था, जो हर इंसान को होती है , बड़े होकर । परंतु किस्मत को तो मेरा उपहास पसंद था, माँ की मृत्यु के बाद मेरे बचपन का घरौंदा स्मृतियों की गठरी में समा गया। एक बंजारे सा भटक रहा हूँ और भला ऐसे अपरिचित व्यक्ति को स्नेह कौन करता है । हाँ, भावुकता में हर बार अपने हृदय को लहूलुहान कर लेता हूँ।  स्नेह के बदले तिरस्कार अथवा उपदेश ही तो अब तक मिले हैं। जिन्हें अपना समझा, उन्होंने पलट कर कह दिया आप हमारे है कौन ? कहाँ से लाता फिर मैं अपना घर ।
  फुटपाथ पर पड़े लोगों के ख़्वाब भी उनके नये रहनुमा इसी तरह तोड़ देते हैं।

    लेकिन , याद रखने वाली बात यह भी है कि  राजनैतिक जगत में जो  भी " विधाता " कहलाते हैं , जिनके पास सत्ता की शक्ति होती है, वे भी आज नहीं तो कल पैदल हो जाते हैं । हाँ,  यदि कर्मपथ पर रहें ,तो विपरीत परिस्थितियों में भी उनका सम्मान कायम रहेगा, अन्यथा-

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा
तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है
चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है
ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा
 खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा ...

    इस मानव जीवन का यही एक मात्र सत्य है , इसीलिए मेरे उन पंसदीदा गीतों में से यह एक है, जो मेरा मार्गदर्शन करता है, इस तन्हाई में। इस चमक- धमक वाली दुनिया में तमाम प्रलोभनों से मुझे मुक्त रहने के लिये निरंतर निर्देशित और प्रोत्साहित करता है। अन्यथा इस अर्थयुग की मृगमरीचिका निश्चित ही दौड़ाते रहती, उन्हीं रेगिस्तान में जहाँ, से फिर वापसी नहीं है।  मैं थोड़ा संभल गया , इसीलिए
व्याकुल पथिक बना उस मंजिल की तलाश में हूँ , जहाँ स्वेदनाएँ हैं , स्नेह है और यह संदेश है कि किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..
 कुछ न मिला इस जीवन से तो भी कोई गम नहीं, एक कोशिश तो की न , यह संतोष क्या कम है-

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही ..

   पत्रकार हूँ तो देश- दुनिया की खबर भी थोड़ी बहुत रखनी पड़ती है , अन्यथा टेलीविजन के स्क्रीन पर  यदि चुनाव परिणाम न आना होता,तो मैं नजर गड़ाने वाला भला कहाँ था। जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था कि पाँच राज्यों में जो चुनाव हुये हैं, वह भगवा बिग्रेड पर भारी पड़ेगा ,परिणाम वैसा ही निकला। नेपथ्य में रही कांग्रेस फ्रंट पर सलामी बल्लेबाज की तरह इस तरह से आ डटी है कि अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव तक वह इसी तरह से इस सियासी पिच पर बल्ला भाजती रहेगी ।
      उधर, सियासत के शहनशाह की वह चमक, धमक और हनक  वक्त के ताकत के समक्ष अतंतः  मंद पड़ ही गयी। हम चाहे कितनी भी ऊँचाई पर पहुँच जाएँ , परंतु हमें आना पुनः इसी जमीन पर है । आखिर इस बात को हम समझ क्यों नहीं पाते। जो अवसर हमें मिला है,उसका सदुपयोग करें , कर्म करते हुये नियति के हाथों पराजित हो भी गये , तो भी एक आत्मसंतुष्टि रहती है । देखें न पांच राज्यों में जो चुनाव परिणाम आया है ,उसमें मध्यप्रदेश ही एक ऐसा प्रांत रहा , जहाँ  सत्ताधारी दल अंत तक संघर्ष करते रहा , भले ही सरकार उसकी न बनी , फिर भी कांग्रेसियों को पटाखा फोड़ने से अंत तक रोके रखा न वहाँ के निवर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने। इस रोमांचकारी संघर्ष देख कर मुझे एक संतुष्टि की अनुभूति हुई कि कर्मपथ पर चलने वाला व्यक्ति  को जय- पराजय दोनों में ही लोग याद रखते हैं। अतः पराजित होकर भी शिवराज सिंह के संदर्भ में ससम्मान यह कहते मिल रहे हैं लोग कि डेढ़ दशक का उनका कार्यालय उम्दा रहा, वे तो फलां के कारण हारे हैं..।
   विजय तो खुशी देती है ही , परंतु पराजय भी जिसका मान बढ़ाये , वह  भी महान है , कर्मपथ पर है । जीवन के इस मंत्र को मैं राजनैतिक चश्मे से ही सही ,सिखना निश्चित चाहूँगा, मेरे  किसी  सेक्युलर साथी को इस पर आपत्ति हो सकती है , पर यह मेरा नजरिया है ।  मैं किसी अदृश्य शक्ति के समक्ष कभी गिड़गिड़ाता नहीं , फिर जाति- मजहब और सेक्युलर - कम्युनल को लेकर कैसा भय , चाहे जो आरोप लगे मुझपर ।

   एक बात कहूँ, ऐसा हम कब तक सोचते रहेंगे कि लोकतंत्र का यह सिंहासन जनता का है या जनता ही तख्तापलट करती है और जनता ही शासक है। जैसा कि कवि का कथन है-
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

 सच तो यह है कि यह तख्तोताज उनका है जो जनता को फुसला सके, बहका सके ,  कूटनीति का यह इंद्रजाल कभी समाप्त न होगा। सिंहासन जिसके हाथ लगेगा, वह जनता नहीं शासक होगा  ।

Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (आईना वोही हता है, चेहरे बदल जाते हैं ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Saturday 8 December 2018

ऐ दोस्त मुबारक हो तुझे प्यार की शहनाई

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अपनी जिंदगी उस सराय जैसी है , जिसे चाहने वाले तो रहे हैं , जहाँ शहनाई भी बजती है ,पर औरों के लिये ,जिसपर उसका अधिकार नहीं ..
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के जैसे बजती हैं शहनाइयां सी राहों में
 कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँही
 उठेगी मेरी तरफ़ प्यार की नज़र यूँही
 मैं जानता हूँ के तू ग़ैर है मगर यूँही
 कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है ...
   
    उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच चुका हूँ , फिर भी यह शहनाई कभी मेरी राहों में नहीं बजी। कभी - कभी तो यूँ भी लगा कि वह मुझसे अपना हिसाब बराबर कर रही है, एक दर्द भरी तन्हाई देकर। कुछ यादों को दे ,उन वादों को भुला वह मेरे ख़्वाबों के घरौंदे को रौंद चुकी है। मुझे दंडित करे भी क्यों न वह , मैं उस बनारस का रहने वाला हूँ , जहाँ कभी इस फन के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ा रहते थें। जिन्हें देश के सर्वोच्च  सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे तीसरे संगीतकार हैं , जिन्हें भारत रत्न मिला । मैं उसी काशी का लाल होकर भी इस शहनाई से दूर रहा, तो तन्हाई के करीब मुझे जाना ही था।  यह एक सबक है मेरे लिये कि हर किसी का आदर करूँ । अन्यथा शहनाई जैसा मधुर वाद्ययंत्र भी प्रतिकार करेगा, प्रतिशोध लेगा।
     अतः मेरी तरफ जो नजरें उठती रहीं हैं , वह सम्मान लिये होती हैं, स्नेह के लिये होती हैं , पर उसमें उस शहनाई की गूंज कहाँ होती है  , जिससे अपनी तकदीर हो, तस्वीर हो। किसी ने क्या खूब कहा है-

कोई गम नही एक तेरी जुदाई के सिवा,
मेरे हिस्से मे क्या आया तन्हाई के सिवा,
मिलन की रातें मिली, यूँ तो बेशुमार,
प्यार मे सबकुछ मिला शहनाई के सिवा..

        बचपन से ही देखता आ रहा हूँ  कि जब भी अपने घर (वाराणसी) के अड़ोस- पड़ोस में किसी भी तरह का मांगलिक कार्यक्रम होता था,मुख्य द्वार के बाहर चबूतरे पर शहनाई वादक आ डटते थें। परंतु पता नहीं क्यों इसकी आवाज़ , तब भी मुझे पसंद न थी और अब भी नहीं है। बचपन में कोलकाता में था , तो सुबह जब माँ जब मुझे पढ़ने के लिये जगाती थीं , तो उनका ट्राजिस्टर भी वंदेमातरम .. गीत सुनाने से पहले शहनाई बजाने लगता था , कभी-कभी झल्ला कर कह भी देता था मैं कि ,माँ से कि यह क्या पे-पा लगा रखी हैं, बंद कर दें थोड़ी देर के लिये इसे न ..।
    मंदिरों में बजने वाले घंटा- घड़ियाल, अज़ान की आवाज़ और दर्द भरे नगमे से लेकर गीतों भरी कहानियाँ तक पसंद थीं, लेकिन बेहद खूबसूरत से दिखने वाली शहनाई बजते ही उसकी गहराई में उतरने की जगह वहाँ से पलायन करने के लिये मन मचल उठता था, जबकि तबले की आवाज़ मुझे बेहद प्रिय है। सच कहूँ तो मेरी मौजूदगी में घर पर ऐसा कोई अवसर कभी न आया कि शहनाई बजी हो , क्यों कि बहन- भाइयों में बड़ा मैं ही था । नियति की यह भी कैसी विडंबना रही कि कोलकाता, मुजफ्फरपुर और कालिम्पोंग जहाँ मैं रहा , वहाँ भी परिवार के किसी सदस्य के विवाह बारात का अवसर नहीं आया, तो फिर कैसे बजती यह , इस मामले में मुझे मनहूस कहा जा सकता है।
    अतः दांवे के साथ अपने बारे में कह सकता हूँ कि जब भी इस शहनाई को लेकर मन मचला है, चोट कहीं न कहीं जोर की लगी है, वह दिल पर लगे या बदन पर ..। ऐसे में यह दर्द उपहास करता है, हम सहम जाते हैं, फिर यही पीड़ा विश्राम देती है , हृदय पुनः शांत हो जाता है। अपनी जिंदगी उस सराय जैसी है , जिसे चाहने वाले तो रहे हैं , जहाँ शहनाई भी बजती है ,पर औरों के लिये । जिसपर उसका अधिकार नहीं , सिर्फ इस दुआ के-
  मुझे ना मिली जो वो खुशी तूने पाई
  ऐ दोस्त मुबारक हो तुझे प्यार की शहनाई
  दुआ मेरे दिल की, दामन मे ना समाय
  तुझे प्यार मिले इतना जीवन मे ना समाय
 
     इस  मुसाफिरखाने में जहाँ मैं हूँ न कोई अपना है, ना पराया है। यहाँ न जख्म़ है, न स्नेह , हम जैसे मुसाफिरों की बस्ती है यह। यहाँ कोई शमांं जलाने नहीं आता अपने कक्ष में। सच यही है कि  पथिक को  राह में साथी सदैव बिछुड़ने के लिये मिलते हैं। मंजिल सबकी अपनी होती है, फिर कैसे बजती शहनाई.. । अब तो इस तन्हाई में यूँ लगता है-

दर्द गूंज रहा दिल में शहनाई की तरह,
जिस्म से मौत की ये सगाई तो नहीं,
अब अंधेरा मिटेगा कैसे..
तुम बोलो तूने मेरे घर में शम्मा जलाई तो नहीं!!

    मेरी बात यहाँ समाप्त नहीं हुई है । इसे किस्सा-कहानी आप न समझे यह मेरे जीवन का सच है।  मैं सदैव अपने अपने मन को ढ़ाढस वर्षों से देता आ रहा हूँ  कि बंधु "  शहनाई " न सही  " अनहद " की आवाज़ भी  है अभी इस जीवन की राह में..!!
आश्रम के अल्पकालीन जीवन में ऐसा बताया गया था।

     आदरणीया साधना वैद्य जी की एक रचना पढ़ रहा था " शहनाई का दर्द " ,  जिसमें दो बातें गौर करने वाली हैं पहला हर क्रंदन को मधुर संगीत में बदलों और दूसरा दर्द सह कर भी दूसरे को सुखी रखने का प्रयत्न करों।

     मेरा सदैव से यही मानना है कि किस्मत साथ न दे तो भी कर्म से विमुख क्यों रहा जाए। रात्रि की तन्हाई में जब अपनी शहनाई नहीं सुनाई देती, तो सुबह के अंधकार में औरों का संघर्ष भी तो मुझे नज़र आता है। वह दर्द मुझे नज़र आता है, जहाँ शहनाई की नहीं पेट की क्षुधा मिटाने की ललक होती है। और तब दिल से यह आवाज़ निकलती है-

  ये किस मुकाम पर हयात, मुझको लेके आ गई
 न बस खुशी पे कहां, न ग़म पे इख्तियार है ...

       वैसे, एक बात कहूँ , जिस भी घर में , जहाँ भी यह प्रेम की शहनाई बजती मुझे दिखाई पड़ जाती है न , मैं  ठहर कर उस दृश्य को निःसंकोच देखता हूँ। इन दिनों अपने शहर के प्रातः भ्रमण पर एक प्यारा जोड़ा दिखता है। खिलखिलाकर आपस में कदमताल करते हुये, स्वस्थ रहने के लिये इस दाम्पत्य प्रेम से उत्तम भी क्या कोई टॉनिक है ..?
     यदि पुरुष समाज थोड़ा सा झुककर अपने जीवनसाथी को वह उचित सम्मान/ अधिकार दे  दें , जिस पर उसका हक बनता है। तो फिर देखें न जो स्नेह उसने दिया वह किस तरह से यह मधुर संगीत उसके जीवन में सुनाती है-

  तेरे सुर और मेरे गीत
दोनो मिल कर बनेगी प्रीत
धड़कन में तू है समाया हुआ
ख़्यालों में तू ही तू छाया हुआ
दुनिया के मेले में लाखों मिले
मगर तू ही तू दिल को भाया हुआ
मैं तेरी जोगन तू मेरा मीत..

    रविवार को जब कभी भी पुलिस अधीक्षक कार्यालय में स्थित परिवार परामर्श केंद्र की ओर मेरे कदम ठिठक जाते हैं, तो देखता हूँ कि कितने ही बिछड़े हुये दम्पतियों के टूटे वाद्ययंत्रों को पुनः समेटने और जोड़ने का प्रयत्न हो रहा होता है,ताकि इनके दाम्पत्य जीवन की शहनाई गूंजती रहे ।  किसी का चेहरा उदास न रहे , किसी की छाती दर्प से अकड़ी न रहे है। कोई थोड़ा झुक कर संभल जाएँ , फिर भी जिन्हें झुकना नहीं आता , वह अवसर गंवा देता है, बिखर जाता है उसका परिवार। इनसे बेहतर तो हम जैसे हैं , जिन्हें अपनी किस्मत से बस इतनी ही शिकायत है-

   हो, गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ
   दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ..

 शशि/ 9415251928 / 7007144343

Wednesday 5 December 2018

ढूँढती हैं नज़र तू कहाँ हैं मगर...

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हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें ...

     कहने को तो पत्रकार हूँ, परंतु देश- दुनिया की खबरों की जगह यह गीतों का संसार मुझे कहीं अधिक भाता है,अब उम्र के इस पड़ाव में । मैं हर उन सम्वेदनाओं की अनुभूति करना चाहता हूँ , जिससे मन के करुणा का द्वार खुले और मैं बुद्ध हो जाऊँ, शुद्ध हो जाऊँ , मुक्त हो जाऊँ, इस दुनिया की हर उस भूख से, छटपटाहट से । बिना किसी शोक, ग्लानि और विकलता के आनंदित मन से निर्वाण को प्राप्त करूँ ।  अन्यथा रात्रि में यह तन्हाई जगाती ही रहेगी, इन्हीं नगमों की तरह , साथ ही करवाती रहेगी मेरी स्मृतियों और इच्छाओं का संगम इसी प्रकार वह हर रात , मानों स्त्री- पुरुष हो ये दोनों । खैर , यह कोई नया दर्द नहीं है, इस खूबसूरत संसार में यदि हम जैसे न होते , तो इंसान यह कैस समझ पाता कि दुनिया रंगीन है या गमगीन।
    " प्यासा "और " जोकर " दो फिल्म मैं सदैव देखता हूँ , इन तन्हाई भरी रातों में, क्यों कि अज्ञात किसी शक्ति , किसी नियंत्रक , किसी नायक - खलनायक की खोज में मुझे कोई रूचि नहीं है। कर्म और किस्मत बस इन दोनों के इर्द गिर्द ही मेरा अपना चिन्तन है।  तो कह रहा था कि प्यासा वह पिक्चर है , जिसमें नायक चाहे कितने भी दर्द से गुजरा हो, लेकिन अंततः उसे  वह एक अपना मिल ही जाता है , जो मिटा देती है उसकी भूख ,जबकि जोकर में उसका किरदार  स्वयं को दुनिया के उस रंग मंच पर खड़ा पाता है कि जिस- जिससे उसने स्नेह/ प्रेम किया, सभी पराये होते गये। इस पीड़ा से,  उस भूख से उसे मुक्त मृत्यु की देवी ही कर पाती है। निर्धारित रंगमंच पर अपना कर्म करते हुये , यह गुनगुनाते हुये -
जीना यह मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ...

      इस जोकर की मृत्यु को और उसकी भूख को भी भले ही तमाशबीन ताली बजा नाटक समझे , परंतु पर्दा गिर चुका है, वह दर्द अब अनंत में समा चुका है। सच्चाई समझने में हो सकता है कि मृत जोकर के नब्ज़ को टटोलना पड़े इस समाज को। अपने दर्द को टूटे हुये दिल में दबाये अपने रंगमंच पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन अपनी मृत्यु में भी नौंटकी का एहसास कराने वाले महान विदूषक को भला मेरे जैसा कौन नहीं सलाम करना चाहेगा।
   सो, क्या हुआ जो यह जोकर बुद्ध नहीं हो सका, पर कर्मपथ पर उसकी शहादत को भी इतिहास के पन्नों पर  सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। इसीलिए तो वह मेरा सबसे प्रिय पात्र है। ऐसा पात्र जिससे कोई प्रेम करने वाला न हो, कोई दो वक्त की रोटी देने वाला भी न हो, वह अतृप्त मन वाले  शख्स के किरदार तथा उसके " भूख "को समझने में इस रंगीन दुनिया के खुशमिजाज लोगों को जरा वक्त लगा । बताते हैं कि यह पिक्चर पहले बाक्स आफिस पर असफल रही ,फिर खूब चली..।
    भूख कैसी भी हो , क्षुधा तृप्त तभी होगी, जब उचित भोज्य सामग्री हो। एक प्रकरण याद है मेरी मौसेरी बहन का पुत्र एक बार मेरे गोद में खेल रहा था, सदैव हँसते रहने वाला बालक अचानक रोने लगा,बहन ने कहाँ कि दूध बना रही हूँ, आप उसे फुसलाए तब- तक। अब मैं भांजे साहब को लिये कभी शीशे के बाक्स में तैरती मछलियों को दिखलता, तो कभी कुछ विनोद करता , थोड़े देर के लिये वह शांत हो जाता ,फिर पुनः और तेज रूदन करने लगता। हर अतृप्त प्राणी की भूख ऐसी ही होती है कि झुनझुने से उसे अधिक देर फुसलाया नहीं जा सकता।
   पर बच्चे और बड़ों के भूख में अंतर है। बच्चे को दूध मिला नहीं कि वह फिर से खिलखिलाने लगता है और बड़ों की तृष्णा शांत ही नहीं होती।
   सुबह जब भी मैं संकटमोचन मंदिर पर पहुँचता हूँ , तो यह देख चकित रह जाता हूँ कि दानदाताओं से जो भी कम्बल और अन्य गरम वस्त्र इन भिक्षुकों को मिलते हैं, अगले दिन वे गायब हो जाते हैं,इनके पास से। वे फिर से फटे चादर में लिपटे मिलते हैं। यही तृष्णा है , जो कभी नहीं मिटती।
 शरीर के आवश्यक वस्तुओं के उपभोग को तृष्णा नहीं कहते, यह तो भूख है, आवश्यकता है, परंतु जब वस्तुओं की लालसा बढ़ जाती है, तो वह तृष्णा में बदल जाती है। इन भिक्षुकों की भी यही गति है। इन्हें चाहे बढ़िया से बढ़िया कम्बल आप दें, परंतु इनकी तृष्णा इन्हें उसका उपभोग तक करने नहीं देती, क्यों कि वे इन्हें बेच देते हैं और इस आश में बैठे रहते हैं कि फिर कोई दूसरा दानदाता आकर इन्हें एक और कम्बल दे।
   अजीब दुनिया है यह भी कि कोई बिल्कुल भूखा है, उसे बातों का , वायदों का , सहानुभूतियों का , सम्मान का झुनझुना यह समाज थमाता है और वहीं जिसके पास सबकुछ है , उसको और भी मिलता ही जाता है। कितने ही गरीब हैं , जो कर्मपथ पर है ,उनको ससम्मान एक कम्बल तक कोई नहीं देगा। आज सुबह साढ़े चार बजे होटल से निकला, तो चौराहे पर देखा एक शख्स अपने रिक्शे में खुले आसमान के नीचे चादर लपेटे सुध बुध खोये सोया हुआ था। सचमुच इन्हें कम्बल की जरुरत है, परंतु वह उन भिक्षुकों को मिलेगा, जो उन्हें बेच दिया करते हैं। उन भद्रजनों के बंगलों की रखवाली करने वाला बूढ़ा चौकीदार ठंड की मार नहीं सह सका, वह घर लौट गया और आज देखा एक युवा चौकीदार जमीन पर कोई फटी दरी बिछाये पड़ा है, उसके शरीर पर एक पुराना कंबल मात्र था। वे भद्रलोग जो इस कालोनी में रहते हैं, वे भी तो देखते होंगे न यह दृश्य , लेकिन दौलत की उनकी तृष्णा ने उनकी सम्वेदनाओं के भूख को मार दिया। वे नेत्रहीन हो गये हैं। डंकीनगंज स्टेट बैंक के बगल में एक जालीनुमा कक्ष में कुछ भलेमानुस अपने पुराने कपड़े छोड़ जाते हैं। अकसर सुबह उन कपड़ों को टटोलते मैंने कितने ही जरूरतमंदों को देखा हूँ। यह इनके शरीर पर वस्त्र की सामान्य सी भूख है, तृष्णा नहीं है।
     एक दृश्य और देखा चौराहे पर आज सुबह, ठंड से कांप रहे जीप के चालक- खलासी ने शरीर को गरमाहट देने के लिये जब अखबार के पन्नों को आग के हवाले किया और उस  आग की लपटों को कुछ दूर खड़ी एक महिला भी बिल्कुल ललचायी नजरों से देख रही थी। देखने में तो सभ्य लग रही थी, परंतु निष्ठुर निर्धनता ने उसके वदन को इस ठंड में ढकने के लिये एक पतला चादर भर दिया था। ठंड के समक्ष बेबस महिला का पांव धीरे - धीरे उस आग्नि की ओर खींचा आया, जिसे घेरे ये पुरुष बैठे हुये थें। महिला भी यह बात अच्छी तरह से जानती थी कि कितनी ही निगाहें उसके शरीर को घूर रही हैं। लेकिन , वह  जलती आग उसकी भूख बन गयी, ठंड ने उसे विवश कर दिया।
     किसी मयखाने में तो अपना जाना नहीं हो पाता , लेकिन सुबह - सुबह ही देशी मदिरालय के बंद दरवाजे को खटखटाते मैंने नशेड़ियों को देखा हूँ। यही मदिरा उनकी प्रथम भूख है। तवायफों के इलाके से भी गुजरात हूँ। अब इन कोठों पर से घुंघरुओं की आवाज पहले की तरह नहीं आती , न ही बारजे पर वे बेजान चेहरे समूह में नजर आते हैं, जो पेट के भूख के लिये हम जैसों को भी अपना ग्राहक समझ बैठती थीं और उनके हाथ खाली रह जाते थें। अब तो तन के भूख को शांत करने के लिये मोबाइल पर बस उंगली भर रखना है। सभ्य समाज की पढ़ी लिखी नकाबपोश लड़कियाँ भी आपके चौखट पर बेनकाब होने आ जाती हैं, यह कैसी भूख है इनकी..? सब -कुछ होते हुये भी तन का सौदा कुछ हजार रुपयों के लिये। यह तो तृष्णा है धन प्राप्ति के लिये।  हाँ , पेट का भूख मिटाने के लिये अति पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी श्रमिक महिलाएँ , तन का सौदा कर लेती हैं। यह उनकी विवशता है।
 धर्म, जाति, दौलत, पद- प्रतिष्ठा जैसे भूख की चाह तृष्णा में कुछ यूँ बदल जाती है कि मानवता की भूख चित्कार कर उठती है उसी मासूम बच्चे की तरह, ऐसे में कौन माँ इसे अपने आंचल में सम्हालेगी।  मुझे तो दिन भर में कुल सात रोटियों की भूख रहती है । शरीर ने साथ दिया तो सुबह बन जाती हैं , तीनों वक्त इतने से ही काम चल जाता है और अतृप्त मन की भूख जो है वह किसी झुनझुने से बहलने वाला नहीं है, चाहे जितना भी ज्ञान उपदेश कोई दे ले ।अतः अभी कितने ही शाम यूँ गुजारने है , इस भूख से मुक्त होने के लिये -

अब तो आजा के अब रात भी सो गई
ज़िन्दगी ग़म के सेहराव में खो गई
ढूँढती हैं नज़र तू कहाँ हैं मगर
देखते देखते आया आँखों में ग़म
शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीं हैं हम
आ भी जा आ भी जा आज मेरे सनम
शाम-ए-ग़म की क़सम
दिल परेशान हैं रात वीरान हैं
देख जा किस तरह आज तनहा हैं हम..

शशि


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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Saturday 1 December 2018

दिल से कदमों की आवाज़ आती रही

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हो, गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ
दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ
ज़िंदगी ज़िंदगी को बुलाती रही
आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही
आहटों से अंधेरे चमकते रहे
रात आती रही रात जाती रही...

          कैसी विडंबना है मानव जीवन का यहाँ कर्म नहीं नियति तय करती है कि किसके नसीब में शहनाई है या  फिर तन्हाई ,  खुशी है या गम , स्नेह है अथवा वेदना .. । हाँ, शहनाई की आवाज  सबको भाती है , पर तन्हाई की सिसक से लोग न जाने क्यूँ सहम जाते हैं। किसी प्रिय की चाहत जब तड़प बन जाती है, किसी का छल जब कोमल हृदय को आहत करता है, किसी की जुदाई जब व्याकुल कर देती है ,तब सुनाई देती है यह तन्हाई भरी सिसकियाँँ । कभी धीरे-धीरे तकिये में मुहँ छिपा कर, तो कभी सुध- बुध खोकर लोग सिसकते हैं। बदले में मिलती है सहानुभूति के दो बोल, पर यहाँ भी उपहास करने वालों की फौज होती है। सो,इस आवाज को अपने तन्हाई भरे कमरे से बाहर न जाने दो , बजने दो वहाँ शहनाई । पड़ोस के कक्ष से किसी युगल के प्रेमालिंगन की आवाज सुन यदि तुम अपनी तृष्णा को और गति दोगे , तो उपहास के पात्र बनोगे मित्र और जो लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं,उनके ठहाकों की आवाज तुम्हारे जख्मी हृदय का चीरहरण करने में तनिक भी संकोच नहीं करेगी। इस दुनिया के दस्तूर को समझो बंधु मेरे..।
   हो सके तो जिस मार्ग पर संतों की पदचाप सुनाई पड़े ,उसका अवलंबन लो, फिर भी उस  "अनहद" को यदि तुम न सुन सको, तो भी अपने रूदन को समाज केलिए समर्पित करो। इस निष्ठुर जगत में यदि नियति प्रतिकूल है, तो फिर कभी नहीं तुम्हारे मुख से खिलखिलाहट भरी वो आवाज सुनाई पड़़ेंगी । याद रखों, विदूषक-सा बनावटी ठहाका लगाना भी अपने मन को छलना है । सद्कर्म सम्मान देता है , परंतु प्रेम पर भाग्य का अधिकार है। फिर पलट- पलट कर किससे यह गुहार लगाते हो-

 मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
 न जिसकी शकल है कोई, न जिसका नाम है
 कोई इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इन्तज़ार है
 ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है
  हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है ...

    इस अंतर्नाद से आगे भी सफर है ,  तुम्हें बुद्ध होना है , शुद्ध होना है मेरे दोस्त..। मन चंचल हो , प्रफुल्लित हो अथवा व्याकुल , नियति के सच की अनुभूति से ही वह शुद्ध और शांत होता है। अंधकार से प्रकाश की इस यात्रा में अनेक ठहराव आते हैं, पर पथिक वही है जो मंजिल तक पहुँच पाता है। जहाँ उसकी खामोशी भी एक आवाज है।
     बात आवाज़ की कर रहा हूं, तो दोनों पैरों से अपाहिज हो चुके बाबा के दर्द भरे वे आखिर शब्द , जिसे मैंने वाराणसी में सुना था, उन्होंने कहा था कि देखा हो गया ,अब चलता हूँ.. । इसके पश्चात कोलकाता में किसी गैर के घर उनकी मृत्यु हो गयी। नियति की इतनी बड़ी निष्ठुरता मैंने अपने साथ भी न देखी है। बचपन में मेरे नटखटपन पर माँ की हिदायत भरी वह आवाज आज भी मुझे बेचैन करती है, जब आक्रोश में उन्होंने कहा था एक दिन कि उनके नह़ीं रहने पर फिर कोई नहीं रखेगा मेरा ख्याल , माँ को भी न पता हो कि उनकी वाणी न जाने कैसे उनके प्रिय मुनिया के लिये जीवन भर का श्राप बन गयी। सचमुच उनकी मृत्यु के बाद कोई मेरा अपना न हुआ। मैं स्वयं अचम्भित हूँ  कि जो इंसान मुझे सबसे अधिक प्रेम करता था ,उसकी वाणी से  मेरा अहित कैसे हो सकता है, कभी नहीं..। वह आवाज जो मैंने मृत्युशैया पर उनके कान में कही थी कि माँ मैं फस्ट आया हूँ , लिलुआ वाली बड़ी माँ ने ऐसा करने को कहा था तब,वह भी याद है। माँ चाहती थी कि पापा उन्हें यह ताना न दे कि ननिहाल के लाड प्यार में यह लड़का बर्बाद हो , अतः मुझसे यह उम्मीद करती थीं  कि मैं अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहूँ,जैसे वाराणसी में रहता था ।कोलकाता की पढ़ाई अपेक्षाकृत कठिन थी,फिर भी सफलता मिली, पर मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ रहा, माँ से मुझे पुरस्कार तो नहीं मिला , हाँ एक ऐसी तन्हाई मिली, जिसकी कल्पना मेरे बालमन ने तब न की थी।
   सोचे जरा वह वाणी जो कभी किसी के जीवन में स्नेह वर्षा करती हो, यदि अचानक अजनबी सा यह कहे कि उसके रंगमंच का वह एक कठपुतली मात्र है, तब..? शब्दों की ऐसी मार किसी भी सम्वेदनशील हृदय को छलनी कर देती है, अंतहीन पीड़ा देती है, विक्षिप्त सा कर देती है उस प्राणी को।
    दादी का साथ छोड़ अंतिम बार मुजफ्फरपुर जाते समय     आँखों से बहते उन आँँसुओं की आवाज तब कहाँ पहचान पाया था मैं। हम- दोनों आखिरी के कुछ वर्षों में एक दूसरे के पूरक थें। परंतु निकम्मा कहलाने के दर्द से मुक्ति पाने की चाह में दूसरी बार घर छोड़ के जाते समय मैंने उनका साथ सदैव के लिये खो दिया। संघर्ष के दिनों में ठंड की वह रात जब मैंने अखबारों को रजाई- गद्दा बनाया था, मेरे वदन पर से बार- बार सरकते उन कागज के पन्नों की आवाज मुझे रात भर जगाती रही। ठंड भरे मौसम में औराई चौराहे पर अखबार के बंडल के लिये घंटों खड़ा रहता था, बारिश में भींग जब जाता था ,तो शरीर के उस कपकपाहट की आवाज भी मैंने महसूस की है। इसी वर्ष बरसात में जब उस दिन भोर में मैं रायल मेडिकल में अखबार डालते के लिये उस ट्रांसफार्मर के समीप से गुजरा था,जिसमें उतरे करेंट की शिकार एक गाय हो गयी , मृत्यु के पूर्व उसकी पहली और आखिरी पुकार मेरे हृदय को बुरी तरह आहत कर गया था। ऐसा लगा मुझे तब कि मेरी मृत्यु को गौमाता ने मुझसे कहीं  छीना तो नहीं था।
      हम इंसान की गलतियों की सजा इन निरीह प्राणियों को बरसात के मौसम में अकसर इसी प्रकार मिलती रहती है। अभी पिछले ही दिनों एक मॉल के बाहर लगे ढ़ाई दशक पुराने कदंब वृक्ष को अवैध तरीके से मृत्युदंड दिये जाते समय कुल्हाड़ी से छलनी हो गिरने से पूर्व उसके तने और शाखाओं की गुहार क्या आपने भी सुनी थी ?
     उस सुबह फटी- फटी आँखों से कायरों सा खड़ा देखा था मैंने इस बेकसूर वृक्ष के तने पर कुल्हाड़ी चलते हुये और समीप खड़ी एक भद्र महिला मुस्कुरा रही थी। समझ गया था मैं कि जब नारी के हृदय की सम्वेदनाएँ मर चुकी, तो मानवता का पतन तय है। इस आहट को मैंने सुन ली है ,आप भी प्रयत्न करें और आज सुबह ही इस ठंड में ठिठुरते मासूम पशुओं को  इंसान की जिह्वा के स्वाद के लिये के लिये कटते देखा है ।  मृत्युदंड से पूर्व इन निरीह प्राणियों की भयभीत आँखों की आवाज कभी आपने भी पढ़ी है
    जब कभी मैं सड़क किनारे मृत्युदंड दिये जाने से पूर्व नाजुक -सी जलपरियों को थोड़े से जल में घंटों फड़फड़ाते-छटपटाते देखता हूँ,इस पीड़ा से मुक्ति के लिय उन मछलियों की खामोश आवाज़ को भला उसके खरीददार क्या जाने, वे तो उसका स्वाद जानते हैं। मुजफ्फरपुर में जब अपने मौसा जी के मोटर साइकिल पार्ट्स और मरम्मत की दुकान पर बैठा ग्राहकों को इंतजार करता था शाम होते ही जब पक्षियों के वापस घोंसले में जाने की आवाज़ सुनाई पड़ती थी। सड़क उस पार एक बहेलिया जाल में फंसा ढेर सारे छोटे पक्षियों को ले आया करता था। इन सभी की हत्या वह बेहद निर्मम तरीके से करता था,गर्दन काटने की जगह पहले इनके पांव काटता और पंख नोंचता था वह। उन मासूम परिंदों की करुण पुकार याद कर आज भी दिल दहल उठता है।अब तो इंसान भी एक दूसरे को इसी तरीके से काट रहा है। आतंकवाद- नक्सलवाद नाम चाहे कुछ हो,  मिशन इसका यही है।
     दंगा भड़काने के लिये चले पत्थरों की आवाज़ तो हम सुनते हैं। इंसानियत की आवाज़ लगाने वालों को कब पहचानेंगे। हम पत्रकार अपनी लेखनी की आवाज़ को कब पहचानेंगे, जब बदनाम लोगों को सियासत का मसीहा बताते हमें तनिक भी लज्जा नहीं आती हो । यह भोली जनता चुनावी बयार में राजनेताओं के झूठे जुमले की आवाज़ को कब पहचानेगी।अभी पिछले ही दिनों गांधी को महत्मा कहने का यहाँ एक बड़े धर्माचार्य ने विरोध किया,  माना जो कहा उचित है , पर मजहबी उसूलों पर चल कर मोहब्बत का पैगाम आप भी कहाँ दे पाये हो।अतः विचारों के ऐसी ही उलझनों में इस नादान दिल को अनेको बार यूँ समझाता हूँ -

 ऐसी राहों में, कितने काँटे हैं,
 आरज़ूओं ने, आरज़ूओं ने,
 हर किसी दिल को, दर्द बाँटे हैं,
 कितने घायल हैं, कितने बिस्मिल हैं,
  इस खुदाई में, एक तू क्या है
  ऐ दिल-ए-नादान, ऐ दिल-ए-नादान..

शशि/ मो० 9415251928/7007144343/ 9196140020


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Thursday 29 November 2018

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ..



    हिप्पी कट बाल के कारण तब वह हैप्पी मिट्ठू कहलाता था, अब समय के दर्पण में स्वयं को भी न पहचान पाता है। पता नहीं इस नियति को और क्या मंजूर हो , कल इन्हीं में से एक चेहरा अपना भी न हो।
******************************

ऐ 'आद' और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
 उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने
जुस्तजू जिसकी थी उस को तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ..

      कुछ ऐसे ही गीत जिनमें मेरा अपना भी दर्द बोल रहा है , उसकी दुनिया से निकल जब भोर के अंधकार में ठंड भरे चौराहे पर सिकुड़ते वदन को थोड़ा झटकता हूँ, तो अतृप्त मन की गति पर जीवन का यह संघर्ष फिर से भारी पड़ने लगता है। साइकिल की रफ्तार से इस शरीर को गर्माहट मिलती है । अवसाद के बादल छटने लगते हैं कि अकेले मैं ही नहीं कोई तन्हा हूँ , हमारे जैसे कितने ही एकाकी लोग हैं इस धरती पर ..।  शारीर में सामर्थ्य है दो जून की रोटी बना ली , नहीं तो रात गुजारने को ठंडा पानी है ही ..। हम जैसों को बातों से फुसलाने वाले अनेक हैं , पर इस दिल का दर्द कौन बांट पाता है । माँ और पत्नी के अतिरिक्त ऐसा कौन तीसरा रिश्ता है , जिसे भोजन पर हम जैसे मर्दों की प्रतीक्षा हो ..?
     मार्ग में प्रातः भ्रमण पर निकले प्रौढ़ दम्पति एक दूसरे का हाथ थामे यदा कदा दिख जाते हैं। मानों हर पल उनके लिये नवीन हो,इस गीत की तरह-

रोज हमें मिलके भी, मिलने की आस रहें
रोज मिटे प्यास कोई और कोई प्यास रहें
 दिल दीवाना पुकारा..
प्यार का दर्द है, मीठा मीठा, प्यारा प्यारा
ये हसीं दर्द ही, दो दिलों का है सहारा ..
   
     परंतु नियति द्वारा रचित इस रंगमंच पर हमारे जैसे कठपुतली भी तो हैं न और वे भी हैं , कभी जिनका बड़ा रुतबा था , आज सड़कों पर भिक्षुक से पड़े हैं।  इनमें भी जो स्वाभिमानी है , उन्हें  हाथ पसारना तब तक स्वीकार नहीं है, जब तक कि खाट पर अपाहिजों सा न पड़े हो। ऐसी कोई उचित व्यवस्था और स्थान( वृद्धाश्रम) हमारे यहाँ नहींं है , जो शारिरिक रुप से असमर्थ ऐसे लोगों के जीवन में आनंद घोल सके। कहने को सभी अपने है,पर मिलता परायापन ही है। दोनों पांव से अपाहिज बाबा के आखिरी दिन कैसे और कहाँ गुजरे होंगे। उस स्थिति को याद कर मन बार - बार भर जाता है।
   मुसाफिरखाने की तन्हाई मुझे वह सबक सिखला रही है , जिससे मैं जिन्दगी को और करीब से समझ पा रहा हूँ।
      पिछले ही दिनों सुबह  की बात है,साइकिल से रोजाना की तरह  ही अखबार लिये नगर का परिक्रमा कर रहा था कि निगाहें एक वृद्ध रिक्शा चालक और उस पर सवार वृद्ध व्यक्ति पर चली गयी,जो अपने गुजरे हुये दिनों पर बोझिल मन से सम्वाद कर रहे थें।
    रिक्शेवाला कह रहा था कि  बाबू जी , अब नहीं चला सकता,  कोई और कम श्रम वाला काम धंधा हो तो बताएँ न..। सचमुच उसके पांव रिक्शे के पैंडल पर कांप रहे थें , फिर भी पेट की आग सब कराती है । उधर, रिक्शे पर सवार बाबू जी भी व्याकुल पथिक से ही दिखें। अतः वे उस रिक्शेवाले को अपने पुराने समृद्ध कारोबार की दास्तान सुना रहे थें ,यूँ भी कह लें कि अपनी स्मृतियों की दुनिया में जा गुजरे हुये दिनों की खुशबू का एहसास खुद भी कर रहे थें । मेरी भी अभिरुचि इन दोनों वृद्ध जनों की रोचक परंतु मार्मिक वार्ता पर थी,
  क्यों कि मैंने कोलकाता में  वैभवपूर्ण जीवन भी देखा है , तो वाराणसी और मीरजापुर में किसी दुकान की पटरी या फिर रेलवे स्टेशन पर भी रातें गुजारी हैं, हृदय पर पत्थर रख कर। आज भी एक मुसाफिरखाना में बिल्कुल तन्हा ही पड़ा हूँ । जीवन के इस पड़ाव पर आकर दुनियादारी का  सच क्या है यह मैं बखूबी पढ़ लिया है, वह यह है कि झूठे का बोलबाला और सच्चे का मुँह काला ।  मिलावट और बनावट करने वाले मालामाल है, यदि पकड़े भी गये कभी ,तो अपना  जुगाड़ है। वफाओं की सदाएँ कौन सुनता है, बेचारा यह दिल भी कितना नादान है।
     इस वृद्ध रिक्शेवाले को इस ठंड में चादर लपेटे सुबह रिक्शा खिंचते देख , समझ में नहीं आ रहा है मुझे कि उन ढेरों सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को हम पत्रकार प्रतिदिन छापते हैं , अच्छे दिन आने वाले हैं का ढोल भी तो बीते लोकसभा चुनाव पूर्व से ही बज रहा है। वह कालाधन जिसे विदशों से वापस लाने की बात हो रही थी,वह फिर किस तिजोरी में जा फंसा। नियति ने जिन्हें इस राह पर ला खड़ा कर किया है कि हाथ पसारो या फिर भूखे मरो.. ।
     सोचे उस स्वाभिमानी इंसान पर क्या गुजरात होगा। छोटे शहरों में ऐसे लोगों के दर्द का एहसास बड़े लोगों को कहा होता है। अजीब सी हवा इंसानियत को लग गयी है। पहले लोग सराय,मंदिर, कुआँ, तालाब बनवाते थें और अब उनका वंशज कहलाने वाले भद्रजन अपने महान पूर्वजों के जन कल्याणकारी कार्यों से प्रेरित हो कुछ सेवा- सहयोग करना तो दूर स्वयं को ट्रस्टी बता उस दान की सम्पत्ति पर अधिकार जमाने के तिकड़म में लगे हैं। खैर, पिछले ही दोनों सलिल भैया ने तीन ऐसे ही पात्रों के संदर्भ में  मार्मिक शब्द चित्र प्रस्तुत किया था , जो पेशेवर भिक्षुक न होकर भी नियति के समक्ष घुटने टेक हाथ पसारने को विवश हैं।  विक्षिप्त से हो गये हैं , निष्ठुर दुनिया के रंग-रुप को देख कर । वक्त की मार का दर्द कितना भयावह होता है। इसका जीता-जागता उदाहरण नगर की सड़कों पर दिखाई पड़ता है ।
     नगर के मध्य त्रिमोहनी मुहल्ले में आनन्द यादव नामक 35 वर्ष का युवक समय के दुष्प्रभाव की चपेट में आ गया है । गऊघाट के अच्छे खासे परिवार के आनन्द के साथ क्या हुआ कि इन दिनों वह त्रिमोहनी पर दिन-रात दिखता है कुछ न कुछ बोलते हुए । लोग इसका जो भी अर्थ लगाते हों लेकिन आनन्द जो काम कर जा रहा है, वह अच्छे खासे पढ़े-लिखे और दिमागदार लोग नहीं कर पाते हैं ।  कुछ ही माह पहले त्रिमोहनी में गणेश-भैरो जी मन्दिर के पास बीचोबीच अंडग्राउंड पाइप लाइन फट गया । अंदर अंदर पानी बहने से बड़ा सा गड्ढा लो गया । लोग बाग एक दूसरे का मुंह ताकते रहे और आनन्द मिट्टी-गोबर से उसे पाट दिया । इसी के साथ त्रिमोहनी पर गाय के गोबर उठाने, हटाने, गन्दगी साफ करने का जैसे धुन ही सवार हो गया है उस पर । आनन्द को कभी किसी के आगे हाथ पसारे नहीं देखा जाता । अलबत्ता कुछ लोग जब खाद्य वस्तु अपनी गुणवत्ता खोने लगती हैं, उसमें बदबू आने लगती है, तब ऐसे लोगों को आनन्द के भूखे होने की याद आती है । इसी तरह से छेदी और मिट्ठू की भी दर्द भरी कहानी है।  लगभग 55-60 साल के पूर्णतया अशक्त छेदी पर अंतर्मन से सच्चे किसी समाजसेवी की नजर पड़ जाए तो उसका कुछ भला हो सकता है । देखने में लगता है कि छेदी पूर्णत: अनपढ़ हैं । लेकिन बात कुरेदने पर भाषा-बोली से ज्ञान का पुट झलकता है । छेदी से पूछा कि घर पर कौन है और किसने यह हालत बनाई तो रोने के बजाय छेदी मुस्कुराते हुए बोले-

पुरुष बली नहीं होत है,
     समय होत बलवान
भिल्लन लूटी गोपिका!
       वही अर्जुन वही बान..

इससे आगे छेदी को किसी से कोई शिकायत नहीं । छेदी का कहना है कि किसी ने जो दिया वह खा लिया । शरीर जवाब दे गया है । पक्काघाट पर लगभग 60 वर्ष के मिट्ठू भी कथरी-चटाई लेकर दाऊजीघाट के सामने एक मन्दिर के आगे खुले आसमान में जाड़ा-गर्मी-बरसात गुजारते हैं । अति शिक्षित- सभ्रांत परिवार का यह वही मिट्ठू है, जो युवा काल में अपने स्टाइलिश केश सज्जा के लिये मशहूर था। उसके प्रति भी दीवानगी तब कम न थी। हिप्पी कट बाल के कारण तब वह हैप्पी मिट्ठू कहलाता था, अब समय के दर्पण में स्वयं को भी न पहचान पाता है। पता नहीं इस नियति को और क्या मंजूर हो , कल इन्हीं में से एक चेहरा अपना भी न हो ।

इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ
ग़ैर तो ग़ैर हैं अपनों का सहारा न हुआ
लोग रो रो के भी इस दुनिया में जी लेते हैं
एक हम हैं कि हँसे भी तो गुज़ारा न हुआ ...

 इस दर्द से दुनियादारी सीख रहा हूँ , पर नहीं पता जीवन की बाजी जीत या हार रहा हूँ।



Sunday 25 November 2018

रूमानी महफ़िल में नफरतों के ये सौदागर !

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अपने दर्द के साथ ही उन पत्थरों की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। जो  सुन्दर मूर्ति,  भवन और इबादतगाह बनने की जगह पत्थरदिल इंसानों के हाथ के खिलौने बन गये।  पत्थरबाजी से हुई हिंसा के कारक बन गये।
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रूमानी महफ़िल की क्या बात करूँ
नफरत के सौदागर संगीन लिये खड़े हैं
जो अपने घरों को देवालय बना न सकें
वे जुबां पर खुदा का पैगाम लिये खड़े हैं
 बोलों हम क्यों  राम-रहीम के इस वतन में
 फिर सियासत का यह जाम लिये खड़े हैं
 इस जग में पल भर तो मुस्कुरा लेने दो
 ये मरघट भी कफन तैयार लिये खड़े हैं ..
 
       कोई रचना नहीं, मेरे विकल हृदय का एक भाव है यह। जिस शख्स के जीवन की किताबों में रूमानी लम्हें एक ख्वाब बन कर रह गया है। परिस्थिति और पेशे ने जिस इंसान को तन्हाइयों भरी रात के अतिरिक्त कुछ न दिया। उसे जीवन जीने की कला सिखाने वाले तो अनेक मिले, परंतु साथ निभाने वाला कोई न मिला। खैर , ऐसे जख्मों ने मुझे कुछ सम्वेदनाएँ अवश्य तोहफे में दिये हैं। सो , अपने दर्द के साथ ही उन पत्थरों की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। जो  सुन्दर मूर्ति,  भवन और इबादतगाह बनने की जगह पत्थरदिल इंसानों के हाथ के खिलौने बन गये।  पत्थरबाजी से हुई हिंसा के कारक बन गये।
    अपने शांतिप्रिय इस शहर में पिछले दिनों ऐसा कुछ घटित हो गया , जिसकी कल्पना किसी को नहीं थी। सहमे -सहमे से लोग, खाकी वालों की तिरछी निगाहें और अफवाहों का गर्म बाजार, बस  हर कोई यही पूछ रहा था कि माहौल ठीक है न ..?  अजीब सा जहर यहाँ के वातावरण में मामूली विवाद को लेकर घोल दिया गया।  हर शख्स यही कहते मिल रहा है कि ऐसा कैसे हो गया अपने शहर में..!
    इस उपद्रव को दंगा तो नहीं ही कहूँगा, लेकिन फिर भी चंद खुराफाती लोगों द्वारा नफरत की एक दीवार खड़ी कर ही दी गयी है। मन भारी मेरा भी रहा  ,यह सब देखकर और झुंझलाहट भी हो रही थी , सेलफोन की घंटी बार- बार जो बज रही थी। पढ़े लिखे लोग भी अनपढ़ों सा पूछ रहे थें कि शशि भैया  तीन लोग मारे गये क्या ? फलां जगह कर्फ्यू लग गया क्या आदि-- आदि ?
     जश्न भरे ईद-ए-मिलाद उन-नबी जुलूस के दौरान अपने शहर जिस तरह से उपद्रव हुआ , जगह - जगह पत्थरबाजी हुई। जिसमें इंसान से कहीं अधिक इंसानियत घायल हुयी है ।  अब हम कैसे यह कहेंगे कि हमारे मीरजापुर/ मिर्जापुर की पहचान यहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब से है। विंध्यवासिनी धाम और कंतित शरीफ मजार से है।
    इस उज्जवल चाँद पर एक कालिमा तो छा ही गयी है। सो,  हर उस सम्वेदनशील इंसान का हृदय आहत है, जो स्वयं को " मानव " कहलाने के लिये तप कर रहा है , अपने कर्मपथ पर..। जो बड़े  फ़क्र के साथ कहता रहा कि उसका शहर कौमी एकता का मिशाल रहा है।
    अब इस जख्म पर मरहम- पट्टी करने का प्रयास हो रहा है। सच फिर भी यही  है कि उपचार चाहे जो भी हो , यह काला दिवस इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गया है। अब हम अपने बच्चों से यह कैसे कहेंगे की इस शहर के भाईचारे को हमने अपनी मोहब्बत से संजोया है, जिसे तुम गंवा न देना।

     वैसे तो पूर्व के वर्षों में भी दो पक्ष  आमने-सामने हुये हैं , लेकिन उसका प्रभाव एक छोटे से इलाके में रहा । किसी के पर्व - त्योहार को बदरंग आपसी विवाद में कभी नहीं होने दिया गया था। लेकिन, बारावफात के पूर्व संध्या पर नगर के सबसे सम्वेदनशील क्षेत्रों में से एक गुड़हट्टी में उत्साहपूर्ण वातावरण में निकले धर्म ध्वजा शोभायात्रा के दौरान ध्वज से बारावफात का सजावटी झालर क्या टूटा ,अपने शहर की यह पहचान भी क्षत-विक्षत आखिर हो ही गयी।
    ऐसे लोग जिन्होंने यहाँ के आपसी सौहार्द को बीते दशकों में जब प्रदेश साम्प्रदायिक दंगे से जल उठा था, तब भी सम्हाले रखा था , आज उनका हृदय आहत है। हालांकि यहाँ के वासिंदों की रगों में अभी वह नफरत का जहर नहीं घुला है। सो, स्थिति दो दिनों के बवाल के बावजूद तेजी से सामान्य हो गयी , फिर भी यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना सवाल छोड़ गयी..

कुदरत ने तो बनाई थी एक ही दुनिया
हमने उसे हिन्दू और मुसलमान बनाया
तू सबके लिये अमन का पैगाम बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा ..

   बनते तो हम सभी हैं ईश्वर-अल्लाह के बंदे, फिर मानव बनने की यह चाहत हममें निरंतर कम क्यों होती जा रही है। हम क्यों बवाली , मवाली और खुदगर्ज होते जा रहे हैं। युवा वर्ग का एक बड़ा तबका हिंसक पशुओं सा बर्ताव क्यों करने लगा है, जबकि ये सब पढ़े लिखे लड़के हैं। इन्हें इंसानियत का पैगाम बांटना चाहिए , पर  ढाई आखर प्रेम की जगह  चार अक्षर का नफरत ये ना मालूम कहाँ -किस पाठशाला से सीख आते हैं। विज्ञान अंतरिक्ष को नाप रहा है और हम है कि दिलों के फासले बढ़ाये जा रहे हैं।
   ढाई दशक से मैं इस शहर में हूँ  और  पत्रकार हूँ , तो स्वाभाविक है कि समाज के हर वर्ग से अपना भी दुआ - सलाम होता ही रहता है। हाशिम चाचा, कामरेड सलीम भाई,  रजी भैया , छोटे खान, अब्दुल्ला भैया , फिरोज भाई , चुन्ना भाई जुबां पर मेरे अनेकों नाम हैं ।  मजहब की कोई दीवार नहीं है यहाँ मेरे लिय..। सलीम भाई और उनकी धर्मपत्नी आमना जी को मुझे भोजन करा कर खुशी मिलती है, तो छोटे खान मेरे दुख- दर्द के साथी हैं।
      मैं खुद को वैसे भी जाति व मजहब की सीमारेखा के बाहर ही रखता हूँ। खुले दिल से इस दुनिया को राम- राम कहता हूँ। बंधुओं मेरा जो यह राम है न वह कोई और नहीं मेरा अपना ही कर्म है। मैं मानता हूँ कि हम सभी नियति के हाथ के कठपुतली हैं, फिर भी प्रधानता कर्म की ही है। अपने शहर के अमन चैन में जो खलल पड़ी ,वह हमारे ही बुरेकर्म का प्रभाव है। गत मंगलवार और बुधवार की हिंसक घटनाओं के बाद  कोतवाली में शांतिदूत बनने की कवायद भी शुरु हुई, पर जो होना था, वह तो हो ही गया न !
    इन घटनाओं के बाद एक खौफ मेरे मन में भी अगले दिन सुबह साढ़े चार बजे होटल से निकलते वक्त था कि सम्वेदनशील क्षेत्रों में जाना कितना उचित रहेगा। परंतु मैं उस चौराहे पर खड़ा हूँ कि वापस मुसाफिरखाने पहुँचूं या फिर अनंत में समा जाऊँ ,क्या फर्क पड़ता है। सो , साइकिल की गति बढ़ा दी। ऐसा सियापा इस शहर में पहले कभी नहीं देखा था। बारावफात को हुई पत्थरबाजी के कारण अगले दिन सुबह सड़कों पर पसरे सन्नाटे को चीरती मेरी साइकिल हर उस क्षेत्र से गुजरी , जो अति सम्वेदनशील इलाके के दायरे में था। इन स्थानों पर पहली बार चाय-पान की दुकानों को बंद पाया। प्रातः भ्रमण करने वाले भी नहीं नजर आये और न ही विक्षिप्तों और कबाड़ बटोरने वालों की टोली ही। मुझे आश्चर्य तो तब हुआ , जब सड़कों पर आपस में झगड़ने वाले आवारा कुत्ते तक मौनव्रत किये नजर आये। हाँ , खाकी वालों के बूटों  की धमक जरुर सुनाई पड़ रही थी।  खैर, अपना दैनिक कार्य पूरा करने के दौरान इस व्याकुल मन को तनिक राहत तब मिली ,जब वैसी हिंसक उड़ती घूरती हुई सुर्ख आँखें कहीं नहीं दिखी इस शहर में , जैसा बचपन में दंगा फसाद के दौरान बनारस में देखा करता था। हमारा घर भी सम्वेदनशील क्षेत्र के करीब ही था। मोहर्रम जुलूस और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन शोभायात्रा के दिन हम सभी के हृदय की धुकधुकी तेज हो जाया करती थी।   फूटहे हनुमान जी मंदिर के समीप रखा ताजिया जैसे ही धार्मिक नारों के साथ उठता था, दोनों उपासना स्थलों के मध्य यदि मोटे बांस- बल्लियों से घेराबन्दी न हो तो विवाद का बढ़ना तय था। बनारसीपन को लहूलुहान होते मैंने अनेकों बार देखा है। पूरी रात उत्तेजक धार्मिक नारों से घबड़ाया मेरा पूरा परिवार कभी छत पर भागता था, तो कभी नीचे दरवाजे की कुंडी टटोलने मम्मी जाया करती थीं। जबकि मेरा घर उस मानव निर्मित सीमारेखा से कुछ दूर था। आप समझ लें जो इस मजहबी बार्डर पर होंगे उनपर क्या गुजराती है। भले ही दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता, फिर भी उपद्रव के दौरान भीड़ दो भागों में बट जाती है। नाम पूछ-पूछ कर कत्ल होता है। हम इंसान नहीं हैवान हो जाते हैं। अबकि अपने मीरजापुर में भी उन्मादी युवकों ने नाम पूछ कर मारपीट की है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।
  अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने साम्प्रदायिक हिंसा रोकने के लिये हर सम्भव प्रयत्न किया। वे स्वयं एक हिंसक पशु मानव की गोली के शिकार हो गये। उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर हमारे रहनुमा उनकी समाधि स्थल पर जाकर  पुष्प अर्पित करते हैं, परंतु उनकी  इस भावना -

अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम
 सबको सन्मति दे भगवान..

का कितना हम सम्मान करते है, क्या कहूँ और बस यही-

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारों..

शशि

Sunday 18 November 2018

ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..

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ये जीवन है इस जीवन का
यही है, यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
 यही है, यही है, यही है छाँव धूप
ये ना सोचो इसमें अपनी हार है कि जीत है
उसे अपना लो जो भी जीवन की रीत है
 ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..

      तन्हाई भरी ये रातें कुछ ऐसे ही गीतों के सहारे यूँ ही कटती जा रही है मेरी ।  हाँ, सुबह जब करीब साढ़े चार बजे  होटल का मुख्य द्वार खोलता हूँ, तो फिर से दुनिया के तमाम रंग-ढंग, शोर-शराबा और निर्धन वर्ग का जीवन -संघर्ष  मुझे स्मृतियों के संसार से बाहर निकाल सच का आइना दिखलाता है।  यूँ कहूँ कि जो कालिमा रात्रि में मेरे मन - मस्तिष्क पर अवसाद सी छायी रहती है, उसको स्वच्छ करने के लिये ही  भोर के अधंकार में उजाले की तलाश किया करता हूँ प्रतिदिन। मित्र मंडली का कहना है कि इस ठंड में यह तुम्हें हो क्या गया है, क्यों अनावश्यक शरीर को कष्ट दे रहे हो। धन की जब तुम्हें आवश्यकता नहीं , कोई पारिवारिक जिम्मेदारी है नहीं , फिर फकीरी में मन लगाओं , छोड़ो यह अखबार और पत्रकारिता ..?
  पर वे मेरी मनोस्थिति नहीं समझते कि जब स्मृतियों के  साथ ही सहानुभूति और सम्मान की गठरी भारी होने लगे , तो   उस दर्द एवं अहंकार से मुक्ति का एक आसान मार्ग है , विपरीत परिस्थितियों में औरों को संघर्ष करते देखना । देखें न इन खुले आसमान के नीचे  रात गुजारने वालों को क्या ठंड नहीं लगती किस तरह से किसी दुकान के चौखट पर सोये पड़े हैं , एक पुराना कंबल या चादर लपेटे हुये । घुटने सीने से आ चिपके हैं, तनिक गर्माहट की आश में..। दुष्यन्त कुमार की कविता की ये पक्तियाँ भी क्या खूब है-

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ...

   कबाड़ बिनने वाले बच्चों ने भी स्वेटर नहीं पहन रखी है। हाँ , मॉर्निंग वॉक करने वाले सम्पन्न लोग जरूर ठंडे में भी गर्मी का एहसास करवाने वाले ट्रैक सूट व जर्सी में दिखने लगे हैं। ऐसे ही हमारे कुछ मित्रों को जो सरकारी सेवा में हैं या फिर बाप- दादा के खजाने के स्वामी हो राजनीति कर रहे हैं, उन्हें अभी गरीब कौन , यह समझ में नहीं आ रहा है। बंधु किसी दुकान पर काम करने वाले पढ़े लिखे उस व्यक्ति या फिर किसी निजी विद्यालय में कार्यरत उच्च शिक्षा प्राप्त उस अध्यापक के दिल को जरा टटोले तो सही आप , 5-6 हजार रुपये के पगार में वह कैसे अपना घर परिवार चला रहा है।         

      खैर  आज ब्लॉग का विषय मेरा यह है कि वे समाज सेवक जो अपने क्लबों में निर्धन -निर्बल वृद्ध स्त्री - पुरूषों को तमाशा बना कंबल वितरित करते हैं , वे यदि सचमुच समाजसेवी हैं , तो देर रात अपनी महंगी कार  में कुछ गर्म वस्त्र ले कर  अपने दरबे से बाहर निकलें और इस ठंड भरी रात में पात्र व्यक्ति की तलाश कर उसके वदन की कपकपी शांत करने का प्रयास करें, क्लबों में कंबल समारोह कब तक मनाते रहेंगे, कब बनेंगे हम इंसान..? हर धर्मशास्त्र चीख -चीख कर हमें सावधान करता है कि हम तो निमित्त मात्र हैं
, फिर क्यों दानदाता बन बैठते हैं, जबकि यही साश्वत सत्य है..

माटी चुन चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा
ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा
उड़ जा हंस अकेला..

   बात यदि सामाजिक कार्यों  और समाज की करूँ, तो मैं वर्ष 1994 में जब दो वक्त की रोटी की तलाश में वाराणसी से इस मीरजापुर जनपद में गांडीव समाचार पत्र लेकर आया था,  तो यहाँ के लोगों के लिये अपने समाज के लिये अजनबी ही था। वर्ष 1995 में जाह्नवी होटल में समाज का जो सामुहिक विवाह परिचय सम्मेलन था , उसमें तब कोई मुझे पहचान तक नहीं रहा था और इस वर्ष 2018 में गत शनिवार अक्षय नवमी के दिन मोदनसेन जयंती पर्व एवं सामुहिक विवाह कार्यक्रम पर इस वैश्य समाज के विशाल मंच पर मुझे स्थान मिला , सम्मान मिला और पहचान भी ।
  हजारों लोगों के मध्य केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल जी ने अपने सम्बोधन के दौरान जब समाज को सांसद निधि से 32 लाख रुपये की धनराशि से निर्मित होने वाले उत्सव भवन देने की बात कही ,तो उन्होंने मेरा नाम लेकर कहा कि शशि भाई कहाँ हैं,अब इसे पूर्ण करने का बाकी का कार्य देखें।
    मित्रों , समाज के सभी पदाधिकारी मुझसे स्नेह रखते हैं। परंतु मैंने स्वयं कभी भी मंच पर आगे आने का प्रयास नहीं किया। ऐसा बड़ा कोई कार्य जो अपने समाज के लिये मैंने नहीं किया है तन, मन और धन से , फिर भी आप सच्चे मन से यदि समाज के साथ हैं , उसके उत्थान के विषय में रुचि लेते हैं, तो याद रखें कि हजारों की भीड़ में छिपे होने के बावजूद भी आप चमकेंगे। फिर जुगाड़ तंत्र का मार्ग क्यों अपनाया जाए। वहाँ स्थायी पहचान नहीं है और यहाँ जब हम अपने दायित्व पर खरे उतरेंगे, तो समाज के हृदय में हमारे लिये सम्मान होता है। सो, अध्यक्ष विष्णुदास मोदनवाल , प्रांतीय उपाध्यक्ष मंगलदास मोदनवाल , उपाध्यक्ष एवं मीडिया प्रभारी घनश्यामदास मोदनवाल ,राष्ट्रीय मंत्री विंध्यवासिनी प्रसाद मोदनवाल, चौधरी कैलाश नाथ, राधेश्याम, ताड़केश्वर नाथ, त्रिजोगी प्रसाद, दिनेश कुमार एवं मनीष कुमार आदि पदाधिकारियों ने इस सफल कार्यक्रम का श्रेय मुझे देने का प्रयास किया, यह उनका बड़प्पन है। जो बात मुझे कहनी है फिर से वह यह है कि नियति चाहे कितना भी छल करे हमसे , परंतु हमारा कर्म हमें पहचान दिलाता है।
     आज दिन में जैसे ही घनश्याम भैया की दुकान पर चाय पीने के लिये खड़ा हुआ, ताड़केश्वर भाई जी सामने से देशी घी की कचौड़ी ले आये और अपना सेलफोन थमा कहा कि भाभी जी बात करना चाहती हैं, कल भी उनके अनुरोध पर मुझे एक कचौड़ी खानी ही पड़ी थी। यदि अन्नपूर्णा साक्षात सामने खड़ी हों, तो उनके दिये प्रसाद का यह कह तिरस्कार करना कि नहीं मैं तो रोटी ही खाता हूँ, मेरी अन्तरात्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया। जिस माँ की मधुर स्मृति आज भी मुझे अपने बालपन की याद दिलाती रहती है, नारी जिसके स्नेह बिन मैं फकीरों सा ही हूँ एवं हर वैभव तुक्ष्य लगता है, उनके द्वारा जो भी खाद्य सामग्री मिले उसे अमृत तुल्य समझ कर ग्रहण करें हम , क्यों कि उसमें भी एक स्नेह छिपा होता है। जिसे मन की आँखों से ही देखा जा सकता है।
    मुझे स्मरण हो आया कि  सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध (ज्ञानप्राप्ति ) बनने से पूर्व अन्नपूर्णा  बन कर आयी एक स्त्री से खीर का पात्र स्वीकार किया था ।
    आज बस इतना ही , फिर मिलते हैं।

शशि/मो० नं०9415251928 , 7007144343, 9196140020
gandivmzp@ gmail.com


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (ये ज़िद छोड़ो,यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है.. ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन