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Friday 20 July 2018

चलते चलते मेरी ये बात याद रखना

भीख मांंगों या कलम को असलहा बना डाका डालो


ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
 कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
 है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर
 कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

अब जब इस जिंदगी के सफर की पहेलियों से उभर कर अपनी इस कठिन जीवन यात्रा को विश्राम देने के प्रयास में जुटा हूं, तो स्मृतियों की घेराबंदी कुछ बढ़ती जा रही है। मन में सवाल उठ रहा है कि किन्हें खोया और क्या पा लिया।  साथ ही एक कोशिश अभी और भी शेष है कि कर्म पथ से मुक्ति पथ की ओर बढ़ते हुये, वह है-

रोते रोते ज़माने में आये मगर
हँसते हँसते ज़माने से जायेँगे हम

 चाहत यही हूं कि ऐसा ही कुछ कर सकूं। ईमानदारी का जो लेबल मुझ पर चस्पा है। वह तो निश्चित ही साथ लेकर जाऊंगा। पर अफसोस थोड़ा है कि इस ईमानदारी को यह जुगाड़ तंत्र बेवकूफी समझता है और मुझे अनाड़ी। मेरे एक मित्र,जो निश्चित ही मेरा सम्मान करते हैं, ने कल ही बातों ही बातों में कहा था कि पत्रकारिता में आपने थोड़ी सी चूक कर दी, जो समय के साथ चलना नहीं सीखा। वे काफी सम्पन्न पत्रकार हो गये हैं, मेरी तरह श्रमजीवी पत्रकार बनना उन्हें भी पसंद नहीं हैं।  वे तो हमारे जैसे कितने लोगों का पेट भरने में समर्थ है। हर तरह का जुगाड़ उनके पास है,लेकिन पेशा वही बिचौलिये का ही है। वहीं अपना हाल यह है कि ईमानदार और अनुशासन की घुट्टी बचपन से ही अभिभावकों ने ऐसा पिला रखी है कि सामने से लक्ष्मी न मालूम कितनी ही बार गुजर गई, परंतु धन अर्जन के लिये अनुचित मार्ग का चयन करते न बना। इन ढ़ाई दशकों में मुझे इस बात का बिल्कुल भी अफसोस नहीं है कि मैं भी जुगाड़ कर चार पहिये की सवारी करने वाला पत्रकार क्यों नहीं बना। लाल रंग में मोटे अक्षरों में प्रेस लिखा कार भला किसे पसंद नहीं है। जब मैं यहां आया था , तो एक एम्बेसडर दैनिक जागरण के तब प्रतिनिधि रहें दिनेश चंद्र सर्राफा के पास थी। वे काफी सम्पन्न पहले से ही थें, नेता थें और वकील भी । परंतु अब तो दर्जन भर से अधिक प्रेस लिखे हुये लग्जरी वाहन इस छोटे से शहर में मिल जाएंगे। माना की एक- दो ने जुगाड़ से व्यवस्था की, शेष सभी धन सम्पन्न लोग हैं। यहां तो अपनी साइकिल ही जिन्दाबाद है। तेल का खर्च यदि संस्थान देती तब न बाइक लेने पर विचार करता। यहां तो मोबाइल रिचार्ज करना भी अपने जेब से ही है। दरअसल, जब से इलेक्ट्रॉनिक चैनल का उदय हुआ है। धनवर्षा शुरू हो गयी है। धन सम्पन्न लोग भी जनपद स्तर पर इसमें प्रवेश कर रहे हैं। हां , पहचान उनकी होती है और काम उनका कैमरा मैन करता है, जिसे कुछ हजार रुपया वेतन देकर वे रख लेते हैं । प्रिंट मीडिया के लोगों के पास जनपद स्तर पर इतना पैसा नहीं है, सो बहुत से नये लड़के जुगाड़ और शिकार तलाशने को विवश हैं। वे ठीक से पत्रकारिता के लिये प्रशिक्षित भी तो नहीं हैं। लिहाजा, हमारे जैसे पत्रकार भी इस भीड़ तंत्र में फंसे हुये हैं। पुराने लोग तो हमें पहचानते हैं। पर नयी पीढ़ी के लिये हमारी ईमानदारी से भरी पत्रकारिता की कीमत बंद लिफाफे में चंद रुपये जितनी है। कुछ वर्षों से ऐसे लिफाफे का प्रचलन पत्रकारिता मे भी बढ़ा है। किसी कार्यक्रम में जब ऐसे बंद लिफाफे सामने होते हैं, तो हमारी बिरादरी के बहुत से बेरोजगार लड़कों के चेहरे की चमक देखते ही बनती है। अभी हाल में ही एक पत्रकार वार्ता में गया था। प्रेस नोट और एक सफेद लिफाफा था। मैंने सोचा कि निमंत्रण पत्र होगा। परंतु बाद में जब उसे खोला तो दौ सौ रुपये का नोट था। तो साहब यह है हमारी औकात, पर क्या कीजिएगा । यहां साधारण सरकारी कर्मचारी 30-40 हजार रुपया वेतन पाकर भी मुहर्रमी सूरत बनाये रहता है और हम पत्रकारों जनपद स्तर पर 5 - 7 हजार रुपये में निपटा दिया जाता है।  हां, अब मेरा ब्लॉग पढ़ बहुतों की आंखें खुल गयी हैं।कितने ही स्नेही जन कहते हैं शशि भाई एक बार हमें भी तो पुकार लिया होता। पर क्या करुं साथियों मुझे भीख नहीं , सहानुभूति भी नहीं,अपना अधिकार चाहिए। चौथा स्तंभ कह इतना बड़ा तमगा हम पत्रकारों को दे दिया गया है और जेब खाली। भीख मांंगों या कलम को असलहा बना डाका डालो। प्रेस मालिक क्या यही कराना चाहते हैं हमसे ? फिर हमें बेईमानी का लाइसेंस ही दे दिया जाए और मंच से हमारी नैतिकता का बखान कर हमें शर्मिंदा न किया जाए।
    एक ईनामदार व्यक्ति रोटी, कपड़ा और रहने के लिये स्थान से अधिक कुछ कहां मांगता है। क्या हमारे परिश्रम और ईमानदारी की इतनी कीमत भी यह समाज देना नहीं पसंद करता , फिर हमारी नैतिकता पर सवाल करने का उसे अधिकार किसने दिया। आज जहां भी जाओं यही सुनने को मिलता है कि शशि भैया आपकी बात नहीं कर रहा हूं, परंतु आपकी बिरादरी में बड़ी गंदगी है। तो साहब मेरा भी जवाब सुन लें कि घर फूंक तमाशा कौन देखता है। जितना वेतन ( 3 से साढ़े 4 हजार ) मुझे रोटी, कपड़ा और मकान के लिये मिलता था, क्या वह मेरे श्रम, मेरी ईमानदारी और संस्थान के प्रति मेरी वफादारी का उपहास नहीं है। जरा विचार करें।
     मैं रहूं ना रहूं , परंतु मेरे जैसे और भी पत्रकारों को इस घुटन से बाहर निकलने की जिम्मेदारी किसी को तो निभाना होगा ? मैं तो जीवन की इन विडंबनाओं से करीब -करीब ऊपर उठ गया हूं। भोजन और धन की तरह इस बीमार तन का भी अब तो लोभ नहीं रहा। जब तक डोल रहा है ठीक है। नहीं तो फिर -

चलते चलते, मेरे ये गीत याद रखना
कभी अलविदा ना कहना कभी अलविदा ना कहना
 रोते हँसते, बस यूँही तुम गुनगुनाते रहना
कभी अलविदा ...