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Sunday 17 June 2018

उम्र भर दोस्त लेकिन साथ चलते हैं...




   अश्वनी भाई ने आज बारिश के इस सुहावने मौसम में किशोर दा का एक खूबसूरत  गीत भेजा है । बोल हैं  -

  दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं।
दौलत और जवानी, इक दिन खो जाती है
सच कहता हूं सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है
उम्र भर दोस्त लेकिन साथ चलते हैं

   सो,पहले मैं सोचता था कि यह बुखार भी न जाने क्या बला है। सूखी हड्डियों को कब से चूसे जा रहा हैं। धीरे - धीरे दो दशक होने को है, इससे जान पहचना हुये और अब हम दोनों की लगता है कि उम्र भर की यारी हो गयी है। मेरे स्वस्थ शरीर पर इसका  श्याम रंग कब का चढ़ चुका है और वजन वर्ष 1999 में जो दस किलो घटा ,तो वहीं पर स्थिर है। दुनिया की किसी औषधि का प्रभाव अब हमारी दोस्ती पर पड़ने वाला नहीं है। आज सायं यहां खुबसूरत मुसाफिरखाने में बिल्कुल एकांत में बारिश का लुफ्त उठा रहा हूं। सुबह जब दो घंटे साइकिल से अखबार संग लिये नगर भ्रमण कर लौटा था, तो ज्वर का प्रभाव पुनः बढ़ गया था। आखिर , मेरा हमदर्द जो ठहरा वह। सो, पर्व हो या अवकाश का दिन, प्रेम प्रदर्शन का यह उसका अपना तरीका है। अन्यथा अब तक जो भी मिलें, वे राह बदल लिये। दोपहर बाद अभी को दवा लेकर  उठा हूं। आज रविवार है, इस दिन मैं अपने बार में कुछ लिखा करता हूं। अतीत की यादें ही शेष बची हैं, पत्रकारिता में मन जो नहीं लगता है। फिर भी किसी तरह से अखबार में अपना मीरजापुर कालम भरे रहता हूं। मित्रों को मेरी खबरें पसंद है, तो यह उनका बड़प्पन है। एक बात साफ कर दूं कि यहां जो भी मेरा पेपर लेते हैं, वे मेरे पाठक नहीं हैं। वे सभी स्नेह रखते हैं मुझसे और यह नहीं चाहते कि मैं मीरजापुर छोड़ कर चला जाऊं, इसलिये ही अखबार लेते हैं। हमारे मित्र घनश्याम भैया का यह विशेष अनुरोध रहा कि मैं अपने बारे में कुछ लिखूं, ताकि जब ना रहूं, तो वह समाज के लिये वह मेरी एक पहचान हो। सच कहूं, तो मैंने अपने इस लम्बे संघर्ष से ऐसा कोई अमृत कलश नहीं पाया है कि उसे मिसाल के रुप में प्रस्तुत कर सकूं, फिर भी कल ईद पर जब भाकपा माले के बड़े नेता यूं कहें कि उसके " थिंक टैंक " टीम के सदस्य   कामरेड सलीम भाई के घर गया, तो उन्होंने दिल्ली से आयीं आम आदमी पार्टी की एक वरिष्ठ नेत्री से मेरी पहचना यह कह कर कराई कि ये शशि जी हैं, बेहद ईमानदार पत्रकार, जो ढ़ाई दशक से साइकिल से चल कर समाचार संकल्प, लेखन,अखबार लाने से लेकर वितरण सभी करते हैं। कभी प्रशासन के दबाव में झुके नहीं भले ही मुकदमा झेल रहे हैं। तो समझ ले मित्रों कि किसी महाविद्यालय की डिग्री न रखने वाले व्यक्ति के लिये इतना पहचान बनाना भी कम नहीं है। आज मेरी बात मैं और मेरे साथी इस बुखार की है। जीवन में किसी न किसी का साथ होना चाहिए, सो वह अपना फर्ज निभा रहा हैं। यह वर्ष 1999 की बात रही, जब जब पहली बार मुझे इस तरह से सर्दी जुकाम ने जकड़ा था। मेरे प्रति स्नेह रखने वाले मित्र डा० योगेश सर्राफा ने जब देखा कि होम्योपैथी की उनकी हर दवा नाकाम हो रही हैं, तो पीछे मोहल्ले के एक चिकित्सक के पास ले गये थें। रक्त परीक्षण में ना जाने क्या चूक हुई कि लम्बे समय तक टायफाइड की अंग्रेजी दवा चलती रही और मेरी स्थिति दिन प्रतिदिन गंभीर होती ही गयी। जिस पर एक और डाक्टर ने अपने अनुभव के आधार पर कहां कि तुम्हें मलेरिया है। दवा दी तो मैं ठीक हो गया। कुछ माह बाद फिर से वही ज्वर पीड़ा। तब से दिल्ली  से लेकर वाराणसी तक की दवा कर चुका हूं। मलेरिया विभाग की टीम लखनऊ से आयी थी। तमाम कोशिश उसका भी व्यर्थ रहा। बीएचयू के एक बड़े डाक्टर ने नींद की दवा लिख दी थी। आयुर्वेदिक दवाओं पर भी लाख रुपये के आस पास तो जरूर खर्च किया हूं, तमाम महंगे भस्म दिये गये थें। हां, अब एक काढ़ा लेता हूं और वर्षों से मलेरिया की फिर कोई अंग्रेजी दवा नहीं ली है। कितने ही वर्षों से यह काढ़ा ही मेरा उपचार है । बुखार अधिक होने पर अंग्रेजी दवा ले लेता हूं । ठंडे जल में स्नान करने में मैं असमर्थ हूं। फिर भी कुदरत का यह करिश्मा देखें कि मैं सुबह से रात तक अपने दिनचर्या में व्यस्त रहता हूं। मेरे मुखमंडल पर आपकों कभी भी बीमारी की पीड़ा नहीं दिखेगी। और दिखेंगी भी कैसे , इस एकाकी जीवन में किसी ने कहा तो सही कि ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे...(शशि)
चित्र गुगल से साभार