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Saturday 17 March 2018

व्याकुल पथिक


व्याकुल पथिक

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
17/3/18

जब से सोशल मीडिया का उदय हुआ है, ज्ञान , विज्ञान , वैराग्य सभी कुछ गुड मार्निंग और गुड नाइट की तरह शेयर हो रहा हैं । लोग दूसरों के विचारों को पोस्ट कर ज्ञानी ध्यानी बन जा रहे हैं। परंतु ऐसे पोस्ट पर कितनों का ध्यान जाता है। हां,व्हाट्सएप स्क्रीन का चिन्ह नीला जरुर हो जाता है।  वहीं आप अपना लिखा कुछ पोस्ट कर के देखें कभी। दोनों में फर्क समझ में आ जाएगा। इसी लिये पत्रकारिता के क्षेत्र में जब मैं इसका ककहरा भी नहीं जानता था, तो भी नकल मार कर कोई खबर लिखना मुझे मंजूर नहीं था। उस दौर में  प्रेसनोट वाली पत्रकारिता बहुत कम होती थी। सच कहूं, तो उस समय की पत्रकारिता सच्चाई के इर्द गिर्द होती थी। समाचार और विचार दोंनों अलग अलग रखे जाते थें। लेकिन, मुझे यह पसंद नहीं था। सो, मैंने जब भी लिखा,जो भी लिखा, वह  समाचार और विचारों का घालमेल था। इसी तरह की लेखनी से ही मेरी स्वयं की पहचान बनी है। अन्यथा उस दौर में जो पत्रकार थें ,उनकी लेखनी से आलाअधिकारी भी घबड़ाते थें। एक नादान बालक सा मेरी क्या औकात। फिर भी वरिष्ठ पत्रकारों के सानिध्य में बहुत कुछ सीखा। इसी से अखबार की दुनिया में करीब ढाई दशकों के संघर्ष में मुझे जो पहचान ,सम्मान और अपनापन यहां मिला। वाराणसी में मास्टर साहब का पुत्र कहला कर शायद ही पाता। विंध्य  क्षेत्र है यह ,बाहरी लोग यहां तप करने ही तो आते हैं। सो, यदि यह सोच कर आंखें नम करूँ कि एक ही रंगमंच पर इतने लम्बे समय तक सबकों छोड़,  हर सम्बंधों से दूर अभिनय करता रहा। तो मन की इस व्याकुलता को शांत करने के लिये इसे तपोस्थली समझ नमन कर लेता हूं। मेरी इस पीड़ा का अनुमान आप युवा काल में मेरे मुस्कुराते चेहरे को देख शायद ही लगा पाए हो। एक कुशल विदूषक( जोकर ) का पहला पाठ यही तो होता है न ! जिसमें मेरा अभिनय अच्छा रहा। वैसे, जब मैं मीरजापुर आया था, तो यह बिल्कुल भी नहीं समझ पाया था कि नियति मुझे कहां खींच लाई है। मैं खुश इस लिये था कि चलों  मुझे किसी की अधिनता नहीं स्वीकार करनी पड़ी। मीरजापुर में अखबरा बिका न बिका , लाभ हानि की कोई चिन्ता उतनी नहीं थी। फिर भी पैदल ही जब शास्त्रीपुल से लेकर अखबार बांटते हुये रात्रि स्टेशन रोड बनारस बस स्टैंड पर पहुंचता था, तो धड़कनें बढ़ी रहती थीं  कि आखिरी बस न छूट जाए। यहां से पीलीकोठी , वाराणसी उतरता था। बस तूफान हो या मेल साढ़े 11 तो बज ही जाते थें। घर की राह में एक जगह ढाबे पर भोजन कर जब 12 बजे दरवाजे पर दस्तक देता , तो परिवार के सदस्यों का नींद टूट जाता था। उनका भाव समझ गया मैं। वैसे भी मेरा अखबार बांटना भला पसंद घर पर कौन करता। उनके सम्मान पर कलंक जो मैं बन गया था। सो, देर रात दरवाजा खोलने में घरवालों को परेशानी होने लगी। और उनके इस कष्ट को देख घर के प्रति मेरा वैराग्य भाव और प्रबल हो उठा । मैं भी घर न जाना पड़े, मीरजापुर पहुंच कर इस विकल्प की तलाश में जूट गया।(शशि)

क्रमशः

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
14/3/18


जिस व्यक्ति ने कभी किसी की आत्म कथा पढ़ी ही न हो, वह भला अपनी कहानी क्या लिख सकता है। विश्वास कीजिए मैं, तो अखबार के पन्ने भी ठीक से नहीं पलट पाता हूं। सुबह साढ़े 5 बजे जो उठा, तो फिर रात्रि में घड़ी की सूई 12 पर जाना तय है। लोग पूछते है कि भाई तुम फिर दिन भर करते ही क्या हो। घर गृहस्थी का भी तो बोझ नहीं उठाते हो, फिर भी व्याकुल हो।जब समाज में रह कर भी आप किसी के दुख सुख में शामिल न होंगे, तो उलहना सुनना पड़ेगा ही । सम्भवतः इसी पीड़ा ने मुझे लेखक बना दिया है। जो दर्द वर्षों से सीने में दबाये रखा । आंखों की नमी छुपाये, मुस्कुराने का अभिनय करता था। मानों, वही शब्द बन गये हो। पता नहीं कब इस जीवन का संध्याकाल आ जाए, याददाश्त साथ छोड़ने लगे और फिर अलविदा कहने वाली वह रात भी आ जाए !
    तो बात रोटी की तलाश में भटकते हुये वाराणसी के सांध्य दैनिक गांडीव के दफ्तर तक दस्तक देने की कर रहा था। कैसी विडंबना थी, जब कोलकाता में था ,तो आगे पीछे नौकर चाकर हुआ करते थें और अब यह हाल...। जबकि बनारस में भी घर पर पापा का एक छोटा सा अपना स्कूल चलता था ही।पर दुनिया के मेले में मैं बिल्कुल अकेला था तब भी और अब भी। हां, बिल्कुल अंजाना नया रंगमंच आवाज लगा रहा था ,तुम सब छोड़ के आ जाओ ...। यहां गांडीव कार्यालय पहुंचने की भी मेरी विचित्र अड़ियल रवैया ही था। परिवार से अलग होने के बाद कहीं नौकरी मुझे रास नहीं आ रही थी। कोई उच्च शिक्षा की डिग्री तो थी नहीं और न ही मुझे अधिनता किसी का स्वीकार था। परिजनों ने निठल्ला समझ नाता पहले ही तोड़ लिया था और मैंने भी ठान लिया था कि इस बार शरण लेने नाते रिश्तेदारी में नहीं जाना है। किसी के समक्ष हाथ फैलाना न तो तब मेरा स्वभाव था न ही अब है । भले ही भोजन के अभाव में कुछ दिन गुजरे हो। खैर माध्यम मिला और तब गांडीव में सरदार जी से मुलाकात हुई।ठीक से याद नहीं है, पर शायद वर्ष 1994 की बात है , तब चालीस रुपये रोज पर (नौकरी नहीं) मेरे समक्ष लक्ष्य रखा गया कि प्रतिदिन शाम को गांडीव ले कर वाराणसी से बस से मीरजापुर जाऊं और जो भी अखबार रात्रि में वहां वितरित कर सकूं, उसे कर वापसी बस पकड़ लौट आऊं। समाचार संकलन के लिये भी कह दिया गया। अब भला मैं क्या जानूं कि खबर कैसे मिलती है। तो बताया गया कि किसी प्रमुख चाय की दुकान पर वहां जाकर बैठा करों कुछ देर। लेकिन मेरा समस्या यह रही कि साढ़े चार बजे शाम अखबार गांडीव कार्यालय से लेकर पीलीकोठी बाद के दिनों म़े कैंट डिपो जाना । वहां से औराई और फिर जीप से मीरजापुर आना । महीनों इस अनजान शहर में मैं पैदल ही अखबार बांटता रहा। रात्रि नौ बजे स्टेशन रोड से बस पकड़ पीलीकोठी उतरता। स्वभाविक है कि घर पहुंचते पहुंचते रात्रि में घड़ी की सूई आपस में जुड़ जाती थीं। मेरी पहचान भी बदल गई। कहां बनारस में मैं मास्टर साहब का लड़का है, यह कहा जाता था और यहां ? अन्य हॉकरों से बिल्कुल अलग महंगे शूट पैंट और जूते में सड़कों पर गांडीव गांडीव की आवाज लगाते देख लोग चकित से हो जाते थें। बड़े बुजुर्ग स्नेह वश बुलाकर घर ठिकाना पूछने लगते थें। उन्हें लगता हो कि लड़का तो अच्छे घर का दिख रहा है, कहीं भाग के तो नहीं आया। (शशि)

क्रमशः

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
(आत्मकथा)

तो मै कह रहा था कि एक  बुजुर्ग ग्रामीण मेरे घर तब आया था,जब मैं हाईस्कूल में था। रात्रि 11 बजे मुझे बॉयोलॉजी से जुड़ा चित्र बनाते देख, उन्होंने मेरी हस्तरेखा देखी, फिर तपाक से कह दिया कि विद्या रेखा तो तेरे पास है ही नहीं ! दरअसल , जब मैं रात साढ़े दस बजे के बाद पढ़ता था,तो अभिभावक टोक देते थें कि लाइट बंद कर दो। पर भला मैं कहां मानता था। हो सकता है , जो सज्जन आये थें, इसी कारण उत्सुकता वश उन्होंने मेरे हाथ की रेखाओं पर नजर डाली हो। वैसे, मैं इन भाग्य रेखाओं में विश्वास तो तब भी नहीं करता था और अब भी ना ही कहूंगा। भले ही उक्त सच्चन का कथन सत्य हुआ । हाईस्कूल में काफी अच्छा रिजल्ट होने के बावजूद भी पढ़ाई छोड़ मुझे मौसी के घर जाना पड़ा। इसी में एक वर्ष बर्बाद हो गया। और तब जाकर पुनः बनारस आ कर इंटर किया। परिवार का साथ नहीं मिलने से पुनः आगे की शिक्षा छोड़ देनी पड़ी। सो, आज भी सोच में पड़ जाता हूं कि एक अनाड़ी सा दिखने वाला ग्रामीण कितनी आसानी से मेरी बर्बादी की भविष्यवाणी कर गया।

( शशि)13/ 3/18

क्रमशः

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
( आत्मकथा)
मेरे पत्रकारिता के क्षेत्र में आने की दास्तान भी कम रोचक नहीं है।नियति मुझे कहां से कहां ले आई। जन्म सिल्लीगुड़ी में हुआ। और इसके बाद कोलकाता, वाराणसी, मुजफ्फरपुर, कलिंगपोंग से होते हुये यहां तपोस्थली विंध्यक्षेत्र में चला आया  अपना कर्म करने। सच कहूं तो मैं भी यहां तप ही रहा हूं, यह जरुरी नहीं है कि हर साधक की तपस्या सफल हो। फिर भी  दुनिया के मेले में यहां अकेले ही रंगमंच पर अपनी भूमिका को बखूबी निभाने की कोशिश कर रहा हूं। कुछ लोगों ने राह में अल्प समय के लिये अपनापन दिखलाया, परंतु वह मेरा भ्रम रहा। ठोकर लगा तो फिर से सारा मेला पीछे छूट गया। परंतु मैं "रास्ते का पत्थर किस्मत ने मुझे बना दिया"  ऐसे दर्द भरे नगमे तो कतई नहीं गुनगुना चाहता हूं। क्योंकि यदि इन सांसारिक मोह पाससे मुक्ति पाना है, तो विरक्त भाव से  "चिदानंद रूपः शिवोहम" जरा इस मन को कहने दो। इसका अपना ही आनंद है। नश्वर संसार का यही सत्य है। जब कभी भी मन शांत रहता है, तो इसका एहसास कितना सुखद होता है, मैं बतला  नहीं सकता । काश! इसी स्थिति में हमेशा रह पाता। जब घर गृहस्थी नहीं है, तो तमाम प्रयोजन से क्या मतलब। यह विषय लम्बा है। अपनी बात किशोरावस्था से शुरू करुं , तो हाई स्कूल की परीक्षा का जब परिणाम आया, गणित में 98 फीसदी अंक की प्राप्ति पर मैं कुछ अधिक ही हर्षित था। हमारे अध्यापक और अभिभावक भी। पापा को मुझसे ढेरों उम्मीद थी। वो क्या बोल है पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा , ऐसी उम्मीद अभिभावकों को मुझसे थी। सभी कहते थें कि लड़का आगे जाएगा। परंतु आज भी याद है कि एक ग्रामीण व्यक्ति मेरे घर आया, जब मैं हाईस्कूल की परीक्षा की तैयारी कर रहा था। बायोलॉजी से जुड़ा कोई चित्र बनाने का अभ्यास प्रैक्टिकल हेतु देर रात तक कर रहा था। क्यों मेरे टीचर को मुझ पर इतना विश्वास था कि वह प्रैक्टिकल के दौरान आये एक्जामिनर से यहां तक कह बैठें कि इस लड़के से कोई भी सम्बंधित चित्र बनाने को कह दें, वह निराश नहीं करेंगा और न ही चित्र बनाने के लिये किसी पुस्तक  का पन्ना ही पलटेगा। परंतु होनी को कुछ और मंजूर था। कहां तो आसमां छूने की ख्वाहिश थी । एक गीत "आशा मेरी आशा ....आसमां को छूने की आशा" आज भी मुझे बहुत कर्णप्रिय लगता है। परंतु परिवार में कटुता कुछ ऐसी बढ़ी की बनारस से कोलकाता अपने ननिहाल चला गया। वहां से मौसी के यहां मुजफ्फरपुर । एक वर्ष इसी तरह बेजा चला गया। फिर बनारस आया और इंटर किया। संबंधों में दरार के कारण दादी ने घर से दूर नानी के छोटे भाई के यहां कलिंगपोंग भेज दिया। वहां उनकी तब सबसे नामी मिठाई की दुकान थी। कोई एक डेढ़ वर्ष  रहा वहां। पहाड़ों पर युवावस्था में थिरकता रहा। कभी कभी सिलिगुड़ी भी चला जाता था। पैसे का लोभ तब भी मुझे नहीं था।  उसी
 बीच पापा मम्मी  फिर वहां आये और मैं वापस बनारस चला आया । वहां घर पर कुछ दिनों बाद फिर से वही तनातनी शुरू।तो एक आश्रम में कुछ दिन समय गुजारने के बाद मुजफ्फरपुर होते हुये पुनः कलिंगपोंग और फिर से बनारस आ गया। परिवार में धन का अभाव तो नहीं था। एक छोटा सा विद्यालय भी घर में चलता था। परंतु अपना हाथ खाली था। रोटी के जुगाड़ में कुछ दिनों इधर उधर भटका। लेकिन जीवन में बड़ा मोड़ सान्ध्य दैनिक समाचार पत्र गांडीव के कार्यालय पर पहुंच कर आया। कहां तो कलम पकड़ने नहीं आता था और कहां  पत्राचार / हॉकर बना कर इस अनजाने शहर में भेज दिया गया। वहां प्रेस में मेरे पिता तुल्य सरदार मंजीत सिंह ने मेरा मार्गदर्शन किया। गांडीव की एजेंसी दिलवाई और  मुझे यह रंगमंच मिल गया।
क्रमशः

विंध्याचल

विंध्यवासिनी देवी