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Saturday 29 December 2018

छू कर मेरे मन को ...

छू कर मेरे मन को ...
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छू कर, मेरे मन को, किया तूने, क्या इशारा
बदला ये मौसम, लगे प्यारा जग सारा...

     ऐसी  "छुअन"  की चाहत भला किसे नहीं होती ।
 मन का मन से स्पर्श , शब्दों का हृदय से स्पर्श और ऋतुओं का प्राणियों से ही नहीं वरन् वनस्पतियों से भी स्पर्श सुख-दुख की अनुभूति करा जाता है। इस हेमंत और शिशिर ऋतु में बर्फिली हवाओं की छुअन जब चुभन देती है , तो अग्नि का ताप दूर से ही सुखद स्पर्श देता है। कुछ सम्बंध मनुष्य के जीवन में ऐसे भी होते हैं कि दूर हो कर भी उसका छुअन मधुर लगता है और कभी-कभी तन से तन का मिलन होकर भी कुछ नहीं मिलता है ।  परस्पर समर्पण भाव का स्त्री- पुरूष के जीवन में अपना ही कुछ आनंद है।

गीत की इन पंक्तियों की तरह ही-

न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन
निखर निखर गई सँवर सँवर गई
बनाके आईना तुझे ऐ जानेमन...

      युवा ही नहीं प्रौढ़ और वृद्ध  दम्पति को जब कभी सुबह हाथों में हाथ डाले प्रातः भ्रमण पर देखता हूँ, उस स्पर्श की भावनात्मक उर्जा की अनुभूति कैसी होती होगी सोचता हूँ। इसे तो जिनका कोई जीवन साथी हो, हमदर्द हो ,वो ही बयां कर सकता है , यदि मैं अपने मन को इस प्रेम सागर की गहराई में उतारने की मासूम सी कोशिश करूँ भी , तो "चुभन "के सिवा कुछ न मिलेगा।
     हाँ , इस छुअन को पत्नी और प्रेयसी की जगह माँ के स्पर्श  में निश्चित महसूस किया हूँ । बचपन कब का बीत गया फिर भी स्मृतियों में जब भी माँ चली आती है,दर्द कैसा भी हो पल भर के लिये ही सही ओठों पर एक मुस्कान तो आ ही जाती है,उनके स्नेह भरे स्पर्श को याद कर । यही मेरे जीवन भर की पूंजी है ।
   बात यहीं से शुरु करता हूँ , इस छुअन के अद्भुत प्रभाव का , जब कभी कोई सच्चा गुरू यदि कर्मपथ का अनुसरण करने वाले शिष्य की ज्ञानेन्द्रियों को अपनी उर्जा देने के लिये स्पर्श करता है , तो किस तरह से उसके मन - मस्तिष्क में एक विस्फोट सा होता है। रामकृष्ण परमहंस ने ईश्वर की खोज में निकले स्वामी विवेकानंद की जिज्ञासाओं को स्पर्श के माध्यम से ही शांत किया न..। गुरु की उर्जा का छुअन योग्य शिष्य को विवेकानंद बना देती है।
     मुझे भी एक अवसर मिला था। वाराणसी में कम्पनी गार्डेन में निठल्ले भटकने के दौरान गुरु स्वयं ही अपने आश्रम पर ले गये । लगभग छह माह रहा भी वहाँ। परंतु नियति में मेरे "पथ प्रदर्शक" नहीं " पथिक " बनना लिखा था।  वहाँ से मुजफ्फरपुर और फिर कालिम्पोंग चला गया। तन- मन से पूरी तरह स्वस्थ था आश्रम में , किसी तरह की मलीनता नहीं थी। गुरु की कृपा जब मिलने को हुई,तो परिजनों की याद आ गयी। अब एक अतृप्त मन लिये इस रंगमंच पर विदूषकों सा थिरक रहा हूँ।
  बालक जब रूदन करता है , तो माँ उसे अपनी वाणी से शांत करवाने का प्रयत्न करती है। लेकिन , बच्चा तब और तेज रोने लगता है, वह शांत तभी होता है जब माँ उसे गोद में उठा लेती है। माँ का प्यार भरा यह स्पर्श उसके कष्ट का हरण करता है। आपने ने भी देखा होगा कि माँ जब अपने शिशु का तेल मालिश करती है , तो तनिक रोने के बाद वह किस तरह से खिलखिलाकर हँसने लगता है। ऐसा इसलिये कि माँ के स्पर्श से उसके  ममत्व भरे उर्जा की अनुभूति उस अबोध बच्चे को होती है। छुअन क्या है,यह वह स्नेह है जिसकी भाषा पशु-पक्षी ही नहीं पेड़- पौधे तक समझते हैं।

   एक और दृष्टिकोण से इस छुअन को देखें , जब  इंद्र के कुकृत्य की शिकार अहिल्या पथरा गयी थी। तब मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पांव के स्पर्श ने पुनः उसे पाषाण से नारी बना दिया। वह ऋषि पत्नी थी । राम के समक्ष धर्म संकट था , परनारी को हाथ से स्पर्श कर नहीं सकते थें और पांव से भी स्त्री की मर्यादा का उलंघन था। परंतु उन्होंने एक नारी के अस्तित्व की रक्षा के लिये ऐसा किया। उनके छुअन का मतलब था कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र होने के नाते राजवंश ने अहिल्या की पावनता को स्वीकार किया , फिर प्रजा क्यों नहीं मानेगी। वन गमन के दौरान राम ने यही तो किया। भद्रजन जिन्हें अछूत मानते थें, जैसे केवट, शबरी और वानर जाति के लोग , उन सभी को अपने स्पर्श से बराबरी का सम्मान दिया।
   घायल पक्षीराज जटायु को गोद में उठा कर जब राम उसके बदन को सहलाते हैं , उसे पिता तुल्य बताते हैं। हम श्रोताओं को उस स्पर्श की अनुभूति कराते हुये मैंने देखा काशी में कि कुछ कथावाचकों के नेत्रों में जल भर आता था। वह छुअन प्रेमांशु बन गया। हर पीड़ा से मुक्त हो गया जटायु। यह सर्वोच्च पुरस्कार था उसका , रावण जैसे बलशाली से नारी की अस्मिता के लिये संघर्ष कर स्वयं का बलिदान कर देने का। ऐसा स्पर्श सम्पूर्ण रामायण में किसी अन्य को प्राप्त नहीं है।
    एक प्रसंग बलदेव दास बिड़ला जी का आता है। जब उन्होंने अपनी माँ का चरण स्पर्श कर अपना स्वयं का व्यवसाय करने की अनुमति मांगी थी। उनके पास कुछ रुपये थें। बताते हैं कि  माँ ने उन्हें आशीर्वाद में कहा था कि तुम्हें करोड़ों का घाटा लग जाय । बिड़ला जी माँ की वाणी को श्राप समझ कर रोने लगे, तो माता ने स्पष्ट किया कि पगले जब अरबों की सम्पत्ति तेरे पास होगी तब न करोड़ों की क्षति होगी। आज कितने ही करोड़ का सिद्धपीठ यहाँ विंध्याचल में बिड़ला जी का है ।ऐसे ही पड़ा रहता है।
    कभी कभी छुअन की चाह में जो चुभन मिलती है न, वह भी गजब की सकारात्मक उर्जा बन जाती है। बालक ध्रुव का स्मरण करें। पिता के गोद का स्पर्श ही तो चाहता था न वह, परंतु  सौतेली माँ की वाणी ने उस मासूम के हृदय को ऐसी चुभन दी कि उसने नारायणी सत्ता को हिला दिया।  अतः छुअन हो या फिर चुभन " उर्जा "दोनों में ही है । यह चुभन  ही है कि मैं ब्लॉग पर अपनी बातों को इस तरह से रख पाता हूँ।

   अपनी बात मैं इस पसंदीदा गीत से समाप्त करता हूँ,  जो कभी मुझे उस काल्पनिक दुनिया का स्पर्श कराता था , जिसकी चुभन अब दर्द दे जाती है -

आ जा पिया तोहे प्यार दूँ
गोरी बइयां तोपे वार दूँ
किस लिये तू, इतना उदास
सूखे सूखे होंठ, अँखियों मे प्यास
 किस लिये किस लिये हो
 रहने दे रे, जो वो जुल्मी है पथ तेरे गाओं के
पलकों से चुन डालूंगी मैं काँटे तेरी राहों के
 हो, सुख मेरा लेले, मैं दुख तेरे लेलूँ
तु भी जिये, मैं भी जियूँ हो...
(चित्रः गुगल से साभार)