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Saturday 23 June 2018

बीमार तन- मन को जब गुरु ने दिया आत्मानुभूति का मंत्र



   
       चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम
 
          जीवन में कष्ट हमें नई शिक्षा, नई चुनौती और नई मंजिल देता है। सो, अवसाद में आत्महत्या कर जीवन के वरदान को इतनी आसानी से हमें नष्ट नहीं करना चाहिए। जिसे हम अपना समझते हो, उसके बिछुड़ने अथवा उसके द्वारा तिरस्कृत होने पर भी नहीं। इन विपरित परिस्थितियों का सामना करना ही हमारा पुरुषार्थ है। हां, यदि ऐसी स्थिति में कोई सच्चा पथ प्रदर्शक मिल जाए, तो पथिक की राह आसान हो जाती है, अन्यथा तो अपना दीपक हमें अतंतः स्वयं ही बनना है।  मैं बात अपनी उन दिनों की कर रहा हूं , जब वर्ष 1999 में असाध्य मलेरिया ज्वर ने जबरन मुझसे मित्रता कर ली थी और दवा लेने के कुछ माह बाद फिर से वदन में भारी पीड़ा होने लगती थी, जब भी दर्पण में देखता था तो मेरे सुंदर स्वस्थ्य शरीर की जगह एक श्याम वर्ण का थका हारा , दुर्बलकाय , कांति हीन युवक उसमें दिखता था। कतिपय लोग तरह तरह की चर्चाएं मेरी बीमारी को लेकर करने लगे थें। सिर में और कमर के ऊपर असहनीय दर्द से मैं बिल्कुल बेचैन था । फिर भी रंगमंच पर सुबह से रात तक चार शो उसी तरह से करना पड़ता था। उस समय तो मैं इस स्थिति में भी नहीं था कि बिना श्रम किये दवा, आवास और भोजन की व्यवस्था कर सकूं। इस स्थिति में घर भी वापस नहीं लौटना चाहता था। वहां मेरा था भी कौन ? सारे संबंध समाप्त होने पर ही तो अनजान डगर पर निकला था। स्वाभिमानी था और हूं, इसीलिये किसी के समक्ष हाथ फैलाने का सवाल ही नहीं। नहीं तो मेरे जैसे कुछ पहचान वाले पत्रकार के लिये जुगाड़ से धन की व्यवस्था करना इतना कठिन कार्य भी नहीं था तब।ऐसे में एक ही मार्ग शेष बचा दिख रहा था, वह इस जीवन का अंत ,  ऐसी परिस्थिति दो बार ही उत्पन्न हुई हैं,  मेरे जीवनकाल में । वैसे, तो आज भी हल्का बुखार मुझे बना रहता है, स्वस्थ तन भी पुनः नहीं प्राप्त कर सका , लेकिन  शरीर, स्वास्थ्य, धन,भोजन अथवा अपने किसे मित के प्रति मोह नहीं है, इन दिनों मुझे , क्यों नहीं है इस पर  चर्चा बाद में करुंगा। अभी तो उस भयानक शारिरिक पीड़ा का उल्लेख्य कर रहा हूं। तब हमारे सब से घनिष्ठ मित्र रहें डा० योगश सर्राफा भी हार गये थें।एलोपैथी, होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयों के साथ योग का सहारा भी लिया। योग एवं आसन तो मैं काफी पहले से ही करता था। परंतु सभी से मोहभंग हो गया था , इस कष्ट में। उस स्थिति में मेरे सबसे करीब जो रहें , वे हमारे गुरु जी पं० रामचंद्र तिवारी। लोभ मुक्त पत्रकारिता मैंने उन्हीं से सीखी है और भी बहुत कुछ उनसे जानना था, परंतु असमय ही कैंसर से उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें हम बाबू जी ही कहते थें। जब उन्होंने देखा कि मैं ठीक नहीं हो रहा हूं, असहनीय कष्ट में हूं , आत्मबल क्षीण होता जा रहा है और सम्भव है कि इस अवसाद में कोई अप्रिय कदम उठा सकता हूं। तो उन्होंने मुझे इससे मुक्त करने के लिये जबर्दस्त उर्जा से भरा 6 श्लोक  दिया। मुझे संस्कृत तो आती नहीं है। अतः एक कागज पर उन श्लोकों के साथ उसका अर्थ भी लिख कर दिया। फिर एक कैसेट भी दिया , जिसमें  आदि शंकराचार्य  द्वारा लिखित इन श्लोक चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम का शास्त्रीय संगीत में गायन था। जिसे आत्मषट्कम /निर्वाणषटकम्  के रुप में जाना जाता है।

मनोबुध्यहंकार चित्तानि नाहं ,
न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राण नेत्रे ,
न च व्योमभूूमिर्न तेजो न वायु :
चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम...

इन छंदों को पढ़ना, समझना सचमुच आत्मानुभूति के लिये मेरी समझ से आवश्यक है। परंतु बाद के कुछ वर्षों में न जाने क्यों मैं इससे दूर हो गया था, अन्यथा जीवन में पुनः कष्ट आता ही क्यों ? फिलहाल, अब मैं स्वयं को उर्जा , आत्मविश्वास एवं चेतना से लबरेज करने के लिये इन श्लोकों को जरूर सुबह साइकिल से अपने नियमित कर्मपथ पर भ्रमण करते हुये सुनता हूं और स्वयं में परिवर्तन भी महसूस कर रहा हूं। इन श्लोकों ने जीवन रक्षा में मेरी तब भी सहायता की थी एवं पुनः मैं एक बड़े परिवर्तन की राह पर हूं। अवसाद से मुक्ति के लिये मेरी समझ से तो इससे उत्तम श्लोक और कोई नहीं है। काश! मैंने गणित के सवालों में समय व्यर्थ करने की जगह संस्कृत का अध्ययन किया होता, तो आज इन श्लोकों के गायन से कितना आनंदित होता, फिर भी मोबाइल और ईयरफोन मेरी इस आवश्यकता की कुछ तो पूर्ति कर ही देते हैं। आज मैं समझ चुका हूं कि महल और मिट्टी दोनों का अस्तित्व एक ही है, तब नियति पर विलाप क्यों करूँ। और यह भी जान ही लिया हूं कि अधूरेपन का सदुपयोग करना ही जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी है।
(शशि)
चित्र साभारः गुगल