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Wednesday 28 October 2020

कोरा संवाद

 जीवन के रंग

राजतंत्र हो या लोकतंत्र सत्ता के मद में बहुधा जनप्रतिनिधि स्वयं को शासक और जनता को दास समझ लेते हैं। आज़ाद भारत में आज भी वही हो रहा है जो गुलामी के दौर में अंग्रेज़ अथवा इनसे पहले राजा और जमींदार अपनी प्रजा संग किया करते थे। इनकी इच्छा की अहवेलना की नहीं कि रक्षक से भक्षक बनते इन्हें तनिक देर नहीं लगता । शहर के नामी बनिया दुखहरन साव का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। जिले के एक जनसेवक की भृकुटि टेढ़ी क्या हुई कि उनकी ख्याति मिट्टी में जा मिली। दुकान पर सरकारी ताला लटक गया। पलक झपकते ही वे साव से चोर समझे जाने लगें।बिना आगे-पीछे देखे-समझे जनता को भेड़चाल चलने की आदत जो है।

   जिस व्यक्ति की सराहना 'यथा नाम तथा गुण' कह कर की जाती हो,जो दीनजनों के संकट में तन-मन-धन से संग रहा हो,उसी परोपकारी व्यक्ति की चरित्र पंजिका पर स्वार्थवश यदि किसी सफ़ेदपोश के इशारे पर लाल स्याही लग भी गयी,तो क्षेत्र के विशिष्टजनों का कर्तव्य बनता था कि वे उसका नैतिक समर्थन करतें,जनसेवक पर दबाव बनाते। परंतु यहाँ सहानुभूति के नाम सभी की जुबां पर एक ही शब्द था-"बेचारा साव ,बड़ा नेक था,बुरा फँस गया!"

   कहाँ तो प्रतिष्ठा और समृद्धि उनकी चेरी थी,बच्चे भी आज्ञाकारी और अपने व्यवसाय में निपुण,स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझते थे वे। और अब उम्र के चौथेपन में इस अपयश को सहना उनको कठिन जान पड़ रहा था, परंतु करते भी क्या? उनकी मनोस्थिति को समझने की फुर्सत मानवता का ढोल बजाने वाले किसी संगठन को था कहाँ ? ये सभी तो बस मंच से संवाद करते हैं। वैसे भी समाज मे वैश्य- व्यापारियों की उपयोगिता चंदा देने तक ही सीमित समझी जाती है। फिर उन जैसे बिगड़े बनिया को कौन पूछता ? हितैषी ढूँढ़े नहीं मिलते। सभी जानते थे कि दबंग जनसेवक की इच्छा की अहवेलना,जल में रह मगर से बैर मोल लेना है। इस युग में चतुर-सुजान शायद इसे ही लोकचातुरी(दुनियादारी) कहते हैं। भले ही किसी नेक इंसान के साथ अन्याय होते देख आँखें मूँद लेनी पड़े।

    सो,उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। व्यवसाय और सम्मान दोनों एकसाथ खोना,यह उनके जीवन की सबसे बड़ी क्षति थी।उन्हें गहरा सदमा लगा था। सप्ताह भर से वे गुमशुम अपनी बैठक में पड़े हुये थे। मानो कोई परकटा परिंदा आसमान से धरती पर गिरा तड़प रहा हो। वे स्वयं से कहते-" ओह! कैसा निष्ठुर समाज है ? जरा-सी विपत्ति आयी नहीं कि सबके भाव ही परिवर्तित हो गये !" न तो प्रातः हवाखोरी को जाते,न ही सामाजिक गतिविधि में शामिल होते। यह चिन्ता उन्हें खायी जाती कि ज़िदगी भर उन्होंने सबके लिए कुछ न कुछ किया और अब उन्हें पराधीन होना पड़ेगा,चाहे आश्रयदाता अपनी ही संतान क्यों न हो।

   उनकी यह स्थिति देख पुत्रों की चिन्ता बढ़ी। ख़बर मिलते ही बेटियाँ भी ससुराल से भागी आयीं। उनके सभी पुत्र धन-दौलत से सम्पन्न थे। किसी का अपना व्यवसाय था,तो कोई सरकारी नौकरी में ऊँचे ओहदे पर था।सभी के अपने बंगले,कार और नौकर-चाकर थे। खुद दर्जा पाँच तक पढ़े दुखहरन साव ने उन्हें शिक्षित, सांस्कारिक और स्वालंबी बनाने में अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी।वे पिता की ऐसी स्थिति भला कैसे सहन कर सकते थे ?सो,उस दिन बैठक में दुखहरन साव का पूरा परिवार उन्हें मनाने जा पहुँचा। घर के स्त्री-पुरुष ही नहीं, नाती-पोते भी मौजूद थे,मानो कोई छोटी-मोटी सभा चल रही हो।

   बड़े पुत्र ने बात शुरू की- "इस लोकतंत्र में यह कैसी तानाशाही ! हम अपने पसंद के प्रत्याशी का चुनाव प्रचार भी न करें? हमारे ऐसा करने के कारण बाबू जी की सरकारी सस्ते सामानों की दुकान मंत्री की निगाहों में चढ़ गयी, जिसकी बेजा सज़ा उन्हें मिली है। सत्ता परिवर्तन होते ही, हमें न्याय मिलेगा।"

  "बिल्कुल भैया..। बाबूजी ! यह ठीक है कि इस दुष्ट जनसेवक ने निजी खुन्नस में आपके सम्मान पर चोट किया है। जिससे हम सभी का सिर झुका हुआ है। आज वह सत्ता में है, मंत्री है, इसलिए हमारी बात प्रशासन नहीं सुनेगा। इस सरकार में निष्पक्ष जाँच की उम्मीद भी हमें नहीं है। जब यह तय है कि अगले वर्ष सरकार बदलेगी, तब-तक हम सभी को धैर्य रखना चाहिए।" बड़े भाई की बातों का समर्थन करते हुये मझले ने कहा।

   अब छोटे की बारी थी,जो एक महाविद्यालय में प्रवक्ता था। जिस प्रकार वह कॉलेज में छात्रों को लेक्चर दिया करता, उसी दार्शनिक अंदाज में उसने अपनी बात रखते हुये कहा-" भैया, बाबूजी की कृपा से हमारे पास दौलत और शोहरत दोनों हैं, फिर भी हमने उन्हें कुछ नहीं दिया,आज इसपर निर्णय करना होगा।"

   भाइयों की बात सुनकर बहनें क्यों पीछे रहतीं। कमी उनके पास भी किसी चीज की न थी। सो, उन्होंने लाख-पचास हजार रुपये पिता के बैंक खाते में डालने की सबसे पहले हामी भर दी। अब बारी तीनों पुत्रों की थी,जिन्होंने हर महीने एक निश्चित धनराशि अपने पिता को देने के साथ ही सर्वसम्मति से अपना निर्णय सुनाते हुये कहा -"बाबूजी ! आपने हमें इस योग्य बनाया है कि हममें से आपका कोई भी पुत्र पूरे परिवार का भरण-पोषण करने में समर्थ है, इसलिए अब आप कोई काम नहीं करेंगे।"

   घंटे भर तक चली इस पारिवारिक बैठक में हर किसी ने अपनी राय रखी। सभी ने अपने पिता के प्रति आदर और ज़िम्मेदारी का प्रदर्शन किया, फिर भी दुखहरन साव पहले की तरह ही मौन आरामकुर्सी पर सिर झुकाये बैठे रहे। यह देख उनकी बड़ी पुत्री से रहा न गया। सो, उसने सभा विसर्जन से पहले भरपूर दबाव बनाते हुये अधिकार भरे शब्दों में कहा-"बाबूजी, सुन लें आप भी ! हम पंचों के फैसले को टाल नहीं सकतें।अम्मा संग आपकी सेवा कर हमें भी कुछ पुण्यलाभ कमा लेने दें।"

   पाँचों संतानें अभी पिता के उत्तर की प्रतीक्षा कर ही रही थीं कि बड़ों के संवाद पर जैसे ही विराम लगा कि दर्शन दीर्घा में मौजूद दर्जन भर नाती-पोते ने साव जी को घेर लिया।कोई उनके गोद में जा बैठा, तो किसी ने कंधे पर आसन जमा लिया। जो नहीं बैठ सका वह हाथ पकड़ कर खींचने लगा। बेचारे बच्चे, डाँट सुनने के भय से मुख पर ताला लटकाए अबतक घंटे भर यूँ ही मौन धारण किये जो थे ।इस बोगस पिक्चर यानि  कि बड़ों के लेक्चर से वे ऊबने लगे थे। उन मासूमों को क्या पता कि समस्या कितनी गंभीर है। रिंकू ने कहा -"नाना जी ,चलिए न बाज़ार।" बाहर जाने की खुशी में पिंकी ने भी भाई के समर्थन में जोर लगाया-"हाँ, दादा दी,देखें न भाई कितने दिनों पर आया है। हमें घुमाने ले चले न।" भाई-बहनों की बातें सुन कर बच्चों की पलटन में सबसे छोटा रहा सोनू ने चहकते हुये कहा कि आप तो अच्छे दादू हो,बज्जी चलो न और फिर उनके कान में कुछ फुसफुसाता है,शायद कोई फ़रमाइश की थी उसने । सोनू की माँ की शादी कोलकाता में हुई है,जहाँ नाना को दादू कहा जाता है। उसकी तोतली आवाज दुखहरन साव को अत्यंत प्रिय है। यूँ कहे वह उनकी आँखों का तारा है।

   सो, इन मासूमों की खिलखिलाहट भरे बालहठ के समक्ष दुखहरन साव का दुःख कहाँ टिकता ! वे तो यह भी भूल गये कि पिछले एक सप्ताह से इस बैठक में पड़े हुये हैं, यहाँ तक कि दर्शन-पूजन के लिए भी मंदिर न गये। बच्चों के इसी शोरगुल में वे अचानक अपनी आरामकुर्सी छोड़ कर उठ खड़े हुये और अपना कुर्ता-धोती ठीक करने लगे कि तभी गोलू दौड़कर उनका चप्पल ले आया, नीतू ने छड़ी संभाल ली।पिता के मुरझाए मुख पर प्रसन्नता का भाव देख उनके पुत्र और पुत्रियों ने सुख की साँसें भरीं । खुशी से सभी आपस में कहते हैं कि जो कार्य वे घंटे भर प्रवचन देकर भी नहीं कर सके, इन नादान बच्चों ने कर दिखाया।

  इसप्रकार बच्चों की फ़ौज संग मनोविनोद करते दुखहरन साव बाज़ार को कूच कर जाते हैं। दो-ढ़ाई घंटे पश्चात जब वे वापस लौट हैं, तो सभी बच्चों के हाथों कोई न कोई सामान होता है। दीनू ने बैटरी से चलने वाला रेलगाड़ी ले रखा था तो गोलू हवाईजहाज उड़ा कर अपनी माँ को दिखा रहा था। रिंकू ने बैट-बॉल खरीदा था और पिंकी की आँखें मटकाती गुड़िया तो देखते ही बन रही थी। नीतू दीदी की गुड़िया के लिये गृहस्थी का सामान ले आयी थी और चिंकी ने गुड्डा खरीदा। बच्चों ने तय किया था कि इसी गर्मी की छुट्टी में जब वे सब फिर मिलेंगे,तब इसी बैठक में इन दोनों की शादी होगी। किन्तु सबसे आगे उनका लाडला नाती सोनू चल रहा था,जिसने बंदूक ले रखी थी। घर में घुसते ही उसने कहा-"देखों माँ !क्या लाया हूँ ?दादू को किसी ने तंग किया न तो हम गोली माल देंगे।" उसकी बातें सुन बैठक में फिर से ठहाके लगने लगते हैं।

   सभी बच्चे जहाँ अपनी माताओं को अपने खिलौने दिखला रहे थे और साथ ही बाज़ार में उन्होंने क्या-क्या खाया इसकी जानकारी भी दे रहे थे,वहीं सावजी आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे मंद-मंद मुस्कुराते रहे।तनिक विश्राम कर उन्होंने अपनी पाँचों संतानों से कहा- " तुम्हें अब भी कुछ समझ में आया की नहीं ?" आश्चर्यचकित होकर उन सभी ने एक साथ कहा-"क्या बाबूजी! हमने तो कुछ भी नहीं समझा?"जिसपर दुखहरन साव ने उन्हें दुनियादारी का पाठ पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने कहा कि बातें तो तुम सभी ने बड़ी-बड़ी की,किन्तु जब ये सभी बच्चे बाज़ार जाने को कह रहे थे, तब तुम सभी मौके पर ही थे न ? कुल दर्जन भर बच्चे और तेरा यह पिता इन दिनों बम बोल गया है,यानि बिल्कुल बेरोज़गार है,फिर भी तुममें से किसी ने यह सोचा कि बाबूजी का जेब खाली है? यदि बाज़ार में उन्हें कुछ न दिलाता-खिलाता,तो ये बच्चे इसीप्रकार हँसते-खिलखिलाते दिखते ? तुम्हारे इन आश्वासनों को फिर क्या समझूँ, सिर्फ़ कोरा संवाद ?

   पिता का वचन तीर-सा लगा उन पाँचों के मर्मस्थल पर,वे पानी-पानी हो गये और आपस में ही नज़रें चुराने लगे। क्योंकि जिस पिता को खुश रखने,उन्हें पुनः श्रम कर नये व्यवसाय करने से रोकने के लिए वे सभी मना रहे थे, प्रतिमाह एक निश्चित धनराशि देने का वायदा कर रहे थे।वे उन्हीं की एक छोटी-सी ज़रूरत को भी नहीं समझ सकें कि बाबू जी एक-दो नहीं पूरे दर्जन भर बच्चों के साथ बाज़ार को निकल रहे हैं,तो उनके जेब का क्या हाल है ? उनमें से किसी ने भी एक रुपया उसमें नहीं डाला था। अब वे सभी निरुत्तर थे।

   बच्चों की यह स्थिति देख दुखहरन साव ने स्नेहपूर्वक पुनः उनसे कहा कि इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। इसे व्यवहारिक ज्ञान समझो। भविष्य में तुम्हारे भी काम आएगा। उन्होंने अपनी बात यह कह कर समाप्त की- "जेब में पैसा है,तो आत्मसम्मान की भावना स्वतः आ जाती है,अन्यथा व्यक्ति सकुचाता-झेंपता रहता है।यदि हम आत्मनिर्भर हैं,तभी आत्मसम्मान की इस भावना से परिपूर्ण होंगे और हमें यश प्राप्त होगा।" साथ ही फिर से व्यवसाय करने का अपना संदेश भी उन्होंने पुत्रों को सुना दिया। यह घोषणा करते हुये उनका मुखमण्डल फिर से दमकने लगा था,किन्तु बैठक में सन्नाटा था। पलटकर पुनः प्रश्न करने का साहस उनकी संतानों में नहीं था, क्योंकि उनके इस संवाद का पोल खुल चुका था।

     सत्य यही है कि दूसरों के दबाव में, जब कभी हम अपने विवेक के अनुसार निर्णय नहीं लेते, तो वह अभिशाप बन जाता है। और यही यातना मानव जीवन की सबसे बड़ी क्षति है।सो, दुखहरन साव की अनुभवी आँखों को इसे समझते तनिक भी देर न लगा कि उनके बच्चों की बातों में कितना वजन है।

  -व्याकुल पथिक 

Wednesday 21 October 2020

मौन का दण्ड

जीवन के रंग
- व्याकुल पथिक

 सेठ धर्मदास के दफ़्तर में ख़ासी हलचल थी। सभी कर्मचारी हाथ बढ़ा कर काम करते दिखे। यूँ कहें कि वे अपने कौशल का भरपूर परिचय देना चाहते थे,जबकि कम्पनी के बड़े कर्मचारी पुष्पगुच्छ लिये स्वागत में खड़े थे। मानो सभी की उम्मीदों को पंख लग गये हों। दिल्ली से व्यवसायिक शिक्षा की डिग्री लेकर लौटे सेठ के इकलौते पुत्र करमचंद की ताजपोशी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष पद पर जो होनी थी। इस उपलक्ष्य में एक छोटी-सी गोष्ठी और सहभोज भी आयोजित था।

  कम्पनी के निष्ठावान कर्मचारियों का परिचय स्वयं धर्मदास ने अपने बेटे से करवाया। मैनेजर फ़तेह बहादुर ,मुंशी बनवारी लाल, खजांची  बनारसी दास जैसे कर्मचारी जो धर्मदास के हमउम्र और उनके पिता स्व0 भगतदास के समय से कम्पनी में कार्यरत थे,के प्रति विशेष आदरभाव का प्रदर्शन किया गया। उन्होंने अपने पुत्र को बताया कि ये सभी संस्थान के ऐसे वफ़ादार हैं,जो घड़ी देख कर नौकरी नहीं करतें ,वरन् हाथ में लिया कार्य समाप्त करके ही दम लेते हैं। इनकी सूझ-बूझ ने कम्पनी को कितनी ही बार संकट से उबारा है। कभी श्रमिकों में असंतोष की चिंगारी भड़की भी तो इनके मृदुल स्वभाव ने जलवर्षा की, इसलिए दफ़्तर में हमारा संबंध भले ही अनुशासन के दायरे में हो,किन्तु उसके बाहर वे नौकर-मालिक के संबंध में विश्वास नहीं रखते। उन्होंने आगे कहा- "दुःख-सुख में हम सभी एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं,अब यह ज़िम्मेदारी तुम पर छोड़ता हूँ।"

  सेठ की यह छोटी-सी कम्पनी उनके स्वर्गीय पिता के त्याग-तप से अस्तित्व में आयी थी। जिसकी ख्याति धर्मदास के कार्यकाल में और भी बढ़ गयी। संस्थान के स्वामी और कर्मचारी एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते, इसलिए कम पूँजी के बावजूद निर्धारित समय में गुणवत्ता के साथ सामान तैयार करने में कर्मचारी दिन-रात एक कर देते।  'आपका विश्वास ही हमारा पुरस्कार ' कम्पनी द्वारा ग्राहकों से किये इस वायदे में सच्चाई थी। उन्हें पूरा भरोसा था कि उनका लायक पुत्र इसे और ऊँचाई पर ले जाएगा।सो,आज वे बहुत खुश थे। कर्मचारियों में भी उत्साह दिखा।

 दफ़्तर के सबसे सुंदर कक्ष में मेज, कुर्सी और कूलर की अच्छी व्यवस्था कर करमचंद के लिए एक अलग से केबिन बनाया गया था, किन्तु अगले दिन कार्यालय आते ही पुराने माडल के अपने केबिन को देख वह आपा खो बैठा। "क्या यही कबूतर-बाड़ा मेरे लिए है, इतना भी नहीं जानते कि नोयडा- दिल्ली की कम्पनियों में मालिक का केबिन कैसा होता है ? आप इतने ग़ैर ज़िम्मेदार कैसे हो सकते हैं..?" वह बरसता ही गया  मैनेजर पर। उसकी शालीनता का मुखौटा हट चुका था। फ़तेह बहादुर को सार्वजनिक रूप से इसतरह से फटकार कभी धर्मदास ने तो क्या, उनके स्वर्गीय पिता ने भी नहीं लगायी थी, जिसकी चर्चा पूरी कम्पनी में होने लगी।एक धर्मदास के कानों में ही रूई पड़ी हुई थी !

  और फिर अगले दिन एक बड़े वातानुकूलित कक्ष का निर्माण कार्य शुरू हो गया। महँगे फ़र्नीचर और कालीन भी खरीदे गये। जिन पर कम्पनी के लाखों रुपये ख़र्च हुये। कहाँ तो धर्मदास को सादगी पसंद थी। वे अपनी चादर देख पाँव पसारते थे। वहीं करमचंद के जल-जलपान और लंच का बिल रोजाना हजार -आठ सौ से कम न होता। एक-दो बाहरी मित्र आ गये, तो संस्थान के इन वफ़ादारों का कलेजा दहल उठता था। ऊपर से संस्थान के खाते से मनमाने रुपये निकाले जाने लगे । छोटे मालिक का हाल देख कुछ ही महीनों में फ़तेह बहादुर का हौसला पस्त हो गया। सो, हर शाम जब मालिक और कर्मचारी अपने घरों को लौटते,तो वे अपने सहयोगी बनवारी लाल और बनारसी दास संग इस मंत्रणा में उलझे रहते कि इस विकट परिस्थिति से कम्पनी को कैसे उबरा जाय?

  "भाई, आमदनी अठन्नी, ख़र्चा रुपइया ! फिर कैसे पार लगेगी इस छोटी-सी कम्पनी की नैया ?" संस्थान की डाँवाडोल आर्थिक स्थिति को देख खजांची बनवारी ने सवाल दागा । "परंतु सेठ जी से इस फ़िज़ूलख़र्ची की चर्चा कैसे करें ? ऐसी कोई शिकायत तो करमचंद के शान के खिलाफ होगी ?" मुंशी बनवारी ने भी अपनी चिन्ता प्रकट की।  "तो क्या हम ऐसे ही तमाशबीन बने रहे? इस कम्पनी के लिए हमने वर्षों खून-पसीना बहाया है और अब  ख़ामोश रहे ?" मैनेजर फ़तेह बहादुर ने व्याकुलता से कहा।

   कम्पनी के इन निष्ठावान कर्मचारियों के मध्य लम्बे वार्तालाप के बाद भी यह तय नहीं हो सका कि 'बिल्ली के गले में घँटी' कौन बाँधे ? वे सभी जानते थे कि बाहर से व्यवसायिक शिक्षा का ज्ञान ले कर आये करमचंद पर सेठ को अति विश्वास और अनुराग है। तीन पुत्रियों के जन्म के वर्षों बाद अनेक पूजा-पाठ के फलस्वरूप पुत्र प्राप्ति की सेठ की कामना पूरी हुई थी।वह उनकी आँखों का तारा है।सो, कम्पनी के जो ख़ैरख़्वाह अपने मालिक से निःसंकोच वार्तालाप करते थे,उनकी निष्ठा यहाँ मौन थी ! इनमें से किसी ने भी धर्मदास  को यह सच्चाई बताने का खतरा मोल नहीं लिया कि उनके पुत्र का निजी ख़र्च सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ता और कम्पनी का बजट बिगड़ता जा रहा है। 

   अबकी दीपावली पर करमचंद ने एक और बखेड़ा खड़ा कर दिया।उसे नयी गाड़ी लेनी थी,इसलिए सभी कर्मचारियों का बोनस रोक दिया गया। मैनेजर से कहा गया कि वह  कर्मचारियों को यह विश्वास दिलाए कि कम्पनी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। बेचारे फ़तेह बहादुर ने बुझे मन से असत्य बोल कर यह मोर्चा तो किसी प्रकार सँभाल लिया, किन्तु धनतेरस के दिन जैसे ही बड़े आकार की महंगी गाड़ी से करमचंद ने कम्पनी में प्रवेश किया, स्वामीपुत्र के प्रति यह निष्ठा प्रदर्शन उन्हें ख़ासा महंगा पड़ा, क्योंकि कर्मचारी पहली बार स्वयं को ठगा महसूस कर रहे थे। आवेश में आकर उन्होंने फ़तेह बहादुर को घेर लिया, जो मैनेजर उनके लिए देवता समान था,वह अब संदेह के घेरे में था। कर्मचारी नयी कार की ओर इशारा कर उनसे ऊँची आवाज़ में पूछ रहे थे -" क्या इसी के लिए कम्पनी घाटे में है और उनका बोनस रोक दिया गया ?" हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले इन कर्मचारियों से झूठ बोलने पर वैसे ही फ़तेह ग्लानि से पश्चाताप कर रहे थे,उसपर से साथी-मित्रों का विश्वास भी खो बैठे। क्या जवाब देते उन्हें ? मारे लज्जा से इन कर्मचारियों से निगाहें नहीं मिला पाए, फिर भी वे मौन थे ।यहाँ तक की बनवारी और बनारसी ने भी चुप्पी साधे रखी। यह इन तीनों की स्वामीभक्ति थी अथवा विवशता ,इससे अन्य कर्मचारियों को क्या लेना । सच तो यह है कि दीपावली जैसे पर्व पर उनके बाल-बच्चों की खुशियों पर घात हुआ था। उन्होंने तो इनका नया नाम भी रख दिया - ' छोटे मालिक के तीन बंदर ! '

    इस घुटनभरी अपमानजन स्थिति में मुँह पर ताला मारे फ़तेह अपनी कुर्सी से चिपके रहे।पचपन से ऊपर की अवस्था हो चली थी, कहीं और नौकरी भी तो न मिलती। सेठ धर्मदास के केबिन में पहले की तरह एक साथ लंच भी वे तीनों नहीं कर सकते थे,ताकि अवसर देख सामने खड़े संकट का संकेत उन्हें दे सकें। यहाँ भी करमचंद का पहरा था।सो, मनमसोस के रह जाते थे ये तीनों। वह सदैव अग्निमय नेत्रों से हर किसी को देखा करता था,जैसे किसी शैतान से पाला पड़ गया हो,जो सुअर, कुत्ता,कमीना और नमकहराम जैसे संबोधन से कर्मचारियों का स्वागत करता था। उसके मुख से आदरमय संबोधन सुनने को वरिष्ठजन तक तरसते थे।

     स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि कर्मचारियों को नियमित वेतन की जगह नौकरी से निकाले जाने की धमकी मिलती।जिससे उनके उत्साह  और कम्पनी की उत्पादन क्षमता में निरंतर कमी आती गयी और ग्राहकों में विश्वसनीयता घटने लगी। वहीं धर्मदास थे कि दफ़्तर में बैठना कम अपना परलोक सुधारने में अधिक रूचि लेने लगें। इस आर्थिक संकट में करमचंद ने होली से पूर्व पुनः पाँच लाख रूपये कंपनी के एकाउंट से निकाल लिये। उनके लिए त्योहार था और कर्मचारियों के लिए फ़ाका।अब फ़तेह बहादुर के पास चुप्पी तोड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि होली पर भी बकाया वेतन नहीं मिलने से कर्मचारी हड़ताल की धमकी दे रहे थे और यहाँ छोटे मालिक ने फिर से ख़ज़ाना खाली कर दिया। जिसे हर नेक सलाह उसे नागवार लगती।

  सो, यह बात धर्मदास तक पहुँचायी गयी। न जाने पिता-पुत्र में क्या वार्तालाप हुई कि पर्व के बाद दफ़्तर की सीढ़ियों पर पाँव रखते ही फ़तेह बहादुर के गले में एक फूलमाला तक डाले बिना ही कम्पनी से हमेशा के लिए उनकी विदाई कर दी गयी। उनपर कर्मचारियों को भड़काने का झूठा आरोप लगा। भरी सभा में संस्थान के सबसे निष्ठावान कर्मचारी का चीरहरण हो गया। हाय रे विडंबना ! अपने मैनेजर के साथ अन्याय को देख कर भी कम्पनी के अन्य वफ़ादार दम साधे रहे।मानो सभी को साँप डँस गया हो। बनवारी और बनारसी सभी मौन,जैसे उन्हें कोई पहचान ही न रहा हो,जबकि संस्थान का हर कर्मचारी डूबती नाव पर सवार था। सभी की पीड़ा एक जैसी थी। फिर भी एकजुट हो 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' बोलने की जगह भेड़ों की तरह मौन रह कर गर्दन झुका लिये.. !  जाते वक़्त फतेह ने करुण दृष्टि से धर्मदास की ओर देखा था, किन्तु सेठ की आँखों का पानी मर गया था। जरा-सा भी दर्द नहीं, कोई सहानुभूति नहीं, मानवीय भाव नहीं,कोई कर्तव्य भी नहीं... ! यह देख इस स्वामीभक्त को अपनी दशा का वास्तविक ज्ञान हो गया। हृदय की पीड़ा आँखों में उतर आयी,जिसमें एक आह थी ।

   षड़यंत्र के शिकार फ़तेह बहादुर के निष्कासन के साथ ही करमचंद ने किला फ़तेह कर लिया। अब संस्थान पूरी तरह से उसके हाथों में था। कोई रोक-टोक नहीं।उसकी एक ही महत्वाकांक्षा थी अपना विकास और दूसरों का शोषण। शायद दिल्ली के पूँजीपति मित्रों से यही सीखा हो।वह अपने आमोद-प्रमोद पर पानी की तरह धन लुटाता,लेकिन वेतन माँगने पर कर्मचारियों को भिखारी की तरह दुत्कारा- फटकारा। सेठ धर्मदास के प्रति निष्ठा रखने वाले सारे कर्मचारी निकाले जा चुके थे। जो अन्य शेष बचे थे,वे भी तू चल मैं आता हूँ..की रट लगाये हुये थे। किसे ने भी किसी का साथ नहीं दिया। जैसे संस्थान का हर सदस्य आपस में अपरिचित-सा हो। कैसे अभागे थे सब ..! किसी को किसी के संग हुये अन्याय से कोई वास्ता न हो। सभी अपनी-अपनी नौकरी बचाने की आखिरी कोशिश कर रहे थे।

   इस प्रकार संस्थान के सभी पुराने कर्मचारी एक-एक कर निकाले जा चुके थे। उनकी मेहनत की कमाई करमचंद दबा गया। जिन श्रमिकों ने सेठ की नाक ऊँची रखने के लिए अपनी जान लगा दी थी,उनके घरोंं के चूल्हे ठंडे पड़े थे। बाल-बच्चे भूखे थे।अपने ही बकाया पैसे के लिए वे दीनता का प्रदर्शन कर रहे थे और मित्रों संग उसी वातानुकूलित केबिन में बैठा करमचंद कहकहे लगाता रहा। ऐसा लग रहा था कि इन ग़रीबों की आह की ज्वालामुखी पर यह कम्पनी खड़ी हो। फिर भी नहीं जगे सेठ धर्मदास, क्योंकि करमचंद ने नये मैनेजर घोंटूमल के सहयोग से काफी कम वेतन पर नये अस्थायी कर्मचारियों को रख लिया।जिससे कर्मचारियों के वेतन में काफी बचत हुई। कम्पनी का घाटा कुछ कम हुआ था। पुत्र की इस उपलब्धि पर धर्मदास ने प्रसन्नता व्यक्त की।परंतु कुछ ही महीनों में इसका घातक परिणाम सामने आने लगा। क्योंकि कम्पनी के उत्पाद और गुणवत्ता में कमी आ गयी। ग्राहकों ने धर्मदास से उसके पुत्र के दुर्व्यवहार की शिकायत के साथ ही माल लेना बंद कर दिया था। फिर तो भगदड़-सी मच गयी थी सेठ की कम्पनी में, उसे कोई चोर तो कोई बेईमान कहता। यह देख धर्मदास की वह प्रसन्नता चिन्ता में बदलने लगी।कम्पनी की बदनामी हृदय में शूल-सी चुभती।

    उन्होंने पुत्र पर दबाव बनाया, ताकि निकाले गये निष्ठावान सेवकों को फिर से बुलाया जा सके,लेकिन उनके हाथों से तोता उड़ चुका था। करमचंद को पिता का यह हस्तक्षेप रास नहीं आया। उसने संकोच छोड़ निष्ठुरता से कह ही दिया- " पिता जी ! आप बूढ़े हो चले हैं, आपको आराम की ज़रूरत है। घर पर चुपचाप क्यों नहीं पड़े रहते?" 

   प्राणों से अधिक प्रिय पुत्र के ऐसे कटु वचन सुनकर हाहाकार कर उठा था धर्मदास का हृदय। अपनी कम्पनी का इस प्रकार से पतन देख,वे पश्चाताप  करने लगें -" ओह! मैंने यह क्या किया, जिसे हीरा समझा वह तो काँच का टुकड़ा निकला।" उनके पिता की विरासत उन्हीं की आँखों के सामने उनका पुत्र नष्ट कर रहा था और वे अँगूठाहीन एकलव्य की तरह छटपटाते रहे।किसी से अपना दुःख नहीं कह सकें,क्योंकि क़सूर उनका भी कम न था। इस विषाद,निराशा और व्याकुलता भरे क्षण में उन्हें फ़तेह, बनवारी और बनारसी जैसे कर्मचारियों की वफ़ादारी याद आती। जिन्हें उन्होंने आश्रयहीन कर दिया था।उनके साथ हुये अन्याय पर अपनी ही चुप्पी उन्हें ताड़ना देती -"क्यों सेठ ! निकल गयी न सारी चतुराई,खुश तो होंगे ही ?" उनके नेत्रों में नैराश्य-स्याही चटक होती जा रही थी। अतंतः इस सदमे से नहीं उभर सके वे। उनके 'मौन की सज़ा' मौत जो थी।

   मरघट में रेशमी महल नहीं बनता, सो वह दिन भी आया जब कर्मचारियों की आह रूपी मौन ज्वालामुखी ने मुख खोला और भगतदास की कम्पनी उसमें समा गयी।


 

Wednesday 14 October 2020

परिवर्तन

(जीवन के रंग)

    कहते हैं कि मेहनत और ईमानदारी से किया गया कोई भी काम लज्जाजनक नहीं होता । दुनिया पुरुषार्थी व्यक्ति को झुककर सलाम करती है। किन्तु सच यह भी है कि ऐसा पुस्तकीय ज्ञान  मनुष्य के सामाजिक जीवन में व्यवहार की कसौटी पर सदैव खरा नहीं उतरता। अन्यथा सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ और पूँजीवादी वर्ग की

उपेक्षा का शिकार नहीं होना पड़ता। इनका मान, सम्मान,स्वाभिमान और अधिकार सुरक्षित होता। अपनी कमली बुआ को ही लें। कल तक जिसे वह स्नेह  से बहू कह बुलाया करती थी,उसी के विद्यालय में चाकरी क्या कर ली कि व्यवहार और संबोधन दोनों में परिवर्तन आ गया । अब वह उसे बहू की जगह सहमे-सहमे लहज़े में बड़े अदब से 'मास्टरनी' जी कहा करती है ,जबकि उसे बुआ के स्थान पर बिना किसी शिष्टाचार का प्रदर्शन किये, उपेक्षा से 'दाई' पुकारा जाता है।

   

    बात उन दिनों की है जब स्त्री जाति के प्रति आम धारणा यह हुआ करती थी कि लड़कियों को ससुराल जाकर घर-गृहस्थी देखनी है, तो वे विद्यालय में वक़्त क्यों जाया करें ? पुत्री घर पर रह कर अपनी माँ से पाककला का ज्ञान अर्जित करे, सिलाई-बुनाई सीखे,ताकि ससुराल में मायके वालों की नाक न कटे,परिवार के बड़े-बुजुर्ग यही चाहते थे।मानो गृहकार्य में दक्षता ही नारी की योग्यता का एकमात्र प्रमाणपत्र हो। मायके की चारदीवारी से ससुराल की देहरी,यही उनकी लक्ष्मण रेखा थी।जिसका उलंघन स्त्री मर्यादा के विपरीत था। 


    बनारस जैसे शहर में जन्मी कमली ने सयानी होते ही ये सारे गुण-ढंग सीख लिये थे। श्वेत नर्म रोटी और तरकारी तो ऐसा स्वादिष्ट बनाती कि खाने वालों की लार टपकने लगती।सौंदर्य,लज्जा और विनय की देवी थी वह,किन्तु संपूर्ण स्त्रीयोचित संस्कारों से युक्त हो कर भी उसने कभी विद्यामंदिर में कदम नहीं रखा था।अपनी इस इच्छा को सीने में दबाये वह कम उम्र में ससुराल चली गयी। कमली गृहकार्य में दक्ष होने के साथ ही व्रत-उपासना में भी पीछे न थी। जिस कारण सभी उससे स्नेह करते । हिन्दू पतिव्रता के सारे कर्तव्य और आदर्श उसमें समाये थे। अपने प्राणनाथ मोहन पर तो मानो उसने मोहनी ही कर रखा था, जो सदैव उसका मुख निहारा करता । नाते-रिश्तेदार उसकी सास से कहते-"ईश्वर ! हमें भी तुम्हारी-सी बहू दें।" यूँ  समझें कि घर के सारे सदस्य उसपर जान देतें। अपने सौभाग्य पर इठलाती कमली को इसका तनिक भी आभास नहीं था कि क्षणिक सुख दे कर नियति ,उसका नाता आजीवन दुःख से जोड़ने वाली है।


    और उस रात नाग देवता उसका दुर्भाग्य बन के घर में प्रवेश कर गये। अपनी सुशील पत्नी से अतिशय प्रेम करने वाले मोहन ने उसे भयभीत  देख कौशल दिखलाने का प्रयत्न क्या किया कि घर का कुलदीपक बुझ गया। अचानक हुये इस वज्रपात से कमली का कोमल हृदय झुलस कर राख हो गया। उसका दमकता हुआ मुखड़ा मलिन पड़ गया। सारे साज -श्रृंगार बिखर गये। अब वह एक श्वेत वस्त्र में लिपटा हाड़-मांस का पुतला मात्र थी।रंगीनियों से भरा उसका जीवन पल भर में दर्द का सैलाब बन गया । सपने राख हो गये,रह-रह कर आँखें बरसती रहतीं,फिर भी गुमसुम बनी ससुरालवालों की सेवा-सत्कार में लगी रहती।इस घर की बेटी नहीं बहू जो थी,वह भी विधवा,जिसके लिए यहाँ सांत्वना के दो शब्द भी न थे, परंतु वह सबका मुँह जोहते रहती।


    उसके संयम की परीक्षा शुरू हो गयी।ससुराल में हर कोई मोहन की मृत्यु के लिए उसे जिम्मेदार मानता। उसकी सौभाग्य रेखा वेदना,दुत्कार और तिरस्कार में परिवर्तित हो गयी थी। उस पर जान छिड़कने वाली सास की जिह्वा से निरंतर शब्दबाण छूटते रहते। उसे केश संवारते देख ननद ताना देती-" रांड ! अब न जाने किसे खाएगी ?" सहानुभूति की जगह प्रियजनों के ऐसे कटु संवाद से आहत इस बेचारी का ससुराल में कोई आश्रय न रहा।संतानहीन कमली पर ऐसी विपत्ति और उसका वैध्वय रूप देख उसके माता-पिता का हृदय हाहाकार कर उठा। वे उसे अपने साथ लिवा ले गये। फिर कभी उसने ससुराल में पाँव नहीं रखा।


     उस जमाने में आज की तरह विधवा विवाह आसान नहीं था, ऊपर से यह लाँछन कि ससुराल जाते ही पति को खा गयी। आदरमय सहज संसार से उसका नाता टूट चुका था।सामने कुरूप और नग्न समाज खड़ा था,जो उसके विधवा होने में अपना सौभाग्य खोज रहा था।किन्तु उसने अपने वैध्वय को कभी लाँछित होने नहीं दिया। उसका हृदय उसके श्वेत वस्त्र की तरह पवित्र रहा।  न वह किसी के सामने खुल कर हँसती और न ही बातें किया करती। अपनी सारी इच्छाओं को नियंत्रित कर निर्लिप्त भाव से जीवन जी रही थी। दिन भर साफ-सफाई और चौका-बर्तन में लगी रहती। मनोरंजन क्या होता है वह भूल चुकी थी। उसकी ऐसी गति देख उसके पुनर्विवाह की मंशा संजोये शोकाकुल माता-पिता स्वर्गवासी हो गये।


     मायके में भाभी का शासन हो गया। दो जून की रोटी पर पलने वाली मुफ़्त की नौकरानी का परित्याग भला कौन करता, जिसने अपनी पीड़ा की उपेक्षा कर स्वयं को परिवार के लिए समर्पित कर दिया हो। कमली ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। समय बीतते देर न लगा । सिर के खिचड़ी बाल उसकी प्रौढ़ावस्था को दर्शाने लगे थे। भाभी का साम्राज्य पुत्रवधू के हाथ में  चला गया। परंतु इससे कमली को क्या फ़र्क पड़ता। उक्ति है न- "कोउ नृप होय हमें का हानि। चेरी छांड़ि ना होउ रानी।।" इस परिवार में उसकी हैसियत भी यही थी, किन्तु मंथरा का एक भी गुण उसमें नहीं था। उसके हृदय में प्रेम का अथाह सागर छिपा था,इसी कारण उसकी पहचान मुहल्ले में 'जगत-बुआ' की हो गयी थी। बड़े क्या बच्चे भी उसे बुआ ही पुकारते । बाल- गोपाल तो स्नेह के भूखे होते हैं,शाम जब कमला घर के बाहर चबूतरे पर बैठी होती, वे अपनी बुआ से कहानी सुनने दौड़े आते। उन दिनों आज की तरह पाबंदी नहीं थी कि बच्चे घर के बाहर निकले ही नहीं। दिन भर पुस्तकों में आँखें गड़ाए रहें, मुहल्ले में न कोई देखे न पहचाने, फिर तो बचपन कैसा ? ये बच्चे ही कमली के लिए सब-कुछ थे। प्रेम बाहुल्य देख वे उस पर जान देते और इन्हें देख वह भी अपने हृदय के संताप को शांत कर लेती, क्योंकि उसका मातृत्व इन्हें दुलार देकर तृप्त हो जाता था। परंतु उसकी ज़िदगी का सफ़र इतना आसान कहाँ था ? भाभी की पढ़ी-लिखी पुत्रवधू ने दुर्गाकुण्ड जैसे तथाकथित सभ्य समाज के मध्य रहने का निर्णय ले लिया था। दो कमरों वाले इस नये फ्लैट में कमली के लिए कोई जगह नहीं था। यूँ कहें कि उम्र के इस पड़ाव पर जब व्यक्ति को किसी आसरे की तलाश होती है, बुआ से पीछा छुड़ाने के लिए बड़ी चतुराई से यह साज़िश रची गयी थी।


    अब बुआ के सिर पर कोई छत नहीं था। न कोई अपना था। मायके वालों ने जिस निर्लज्जता  से दूध में पड़ी मक्खी की तरह उसे निकाल फेंका था , उससे उसका हृदय रुदन कर रहा था। पुराने मकान मालिक ने तरस खाकर गलियारे में उसे कुछ दिनों के लिए शरण दे दी थी। जिस स्त्री ने ताउम्र घर-परिवार का मरजाद बनाये रखा। उसे पेट की अग्नि शांत करने के लिए इस अवस्था में कुछ तो करना था। पर एक अनपढ़-गंवार औरत झाड़ू-पोंछा अथवा चौका, बर्तन के सिवा और क्या कर सकती थी?  " हे प्रभु ! मेरी कितनी परीक्षा लोगे! क्या पेट जिलाने के लिए मुझे ये भी करना पड़ेगा ? न-न मुझसे यह सब नहीं होगा।" कुछ ऐसी ही चिन्ता में डूबी कमली ने मन को कठोर कर पहली बार काम की तलाश में घर से बाहर पाँव रखा था। तभी बिट्टू उसे अपनी माँ के घर ले आता है।


    "अरे ! बुआ बहुत दिन बाद आना हुआ ?" सुधा ने उसकी सुधि लेते हुये कहा था। "हाँ बहूँ, स्कूल खोलने के बाद तुम व्यस्त हो गयी थी,सो आने में संकोच होता था। पर तुमलोगों के लिए मैं सदैव दुआ करती रही। बड़ा कष्ट सहा है तुमने भी ।" भावविह्वल होकर कमली ने सुधा को ढ़ेरों आशीष दिये थे।  सुधा ने पति से सलाह कर कमली बुआ को अपने स्कूल में दाई का काम दे दिया था। ममत्व की भूखी बुआ अपनत्व भाव से चाकरी से कहीं अधिक सुधा के स्कूल से लेकर घर तक का काम किया करती थी। कब सुबह से साँझ हो जाता उसे पता भी नहीं चलता।


     किन्तु उस शाम बहू के सामने  हृदय को चीर देने वाले सवालों के कठघरे में वह सहमी हुई खड़ी थी। सुधा का क्रोध देखते ही बनता था। संबधों की मर्यादा टूट चुकी थी। उसने कमली को फटकारते हुये कहा -"कितनी बार बताया कि मुझे मास्टरनी जी बोला करो, किन्तु आज फिर से तुमने बहू कह दिया ? अरे ! काहे की बहू ..कैसी बहू ? मैं तुम्हारी कोई रिश्तेदार हूँ ? तुम्हारे तो सगे-संबंधी अपने नहीं हुये ।अन्य शिक्षिकाओं के सामने जब तुमने बहू कहा तो कितनी लज्जा आयी मुझे ।" इसी आवेश में सुधा ने यहाँ तक कह दिया था कि यदि अपनी कैंची जैसे जुबान को काबू में नहीं रख सकती, तो कल से काम पर मत आना। 


    हाय री हृदय हीनता ! मानो कभी जान- पहचान ही न हो। सुधा के ऐसे कठोर वचन सुनकर वेदना के प्रवाह से बुआ की आँखों के पोर नम हो गये थे।वह किसी की दया पर जीवनयापन नहीं कर रही थी, फिर भी आज उस स्त्री के समक्ष दीन बनी खड़ी थी, जिसे कल तक बड़े स्नेह से बहू कहा करती थी और जो आज उसकी छोटी-सी भूल पर इसप्रकार बरस रही थी। कमली समझ चुकी थी कि धन आने पर मनुष्य के दृष्टिकोण में किस प्रकार परिवर्तन आ जाता है। इतनी आत्महीनता की अनुभूति जीवन में उसे कभी नहीं हुई थी। उसका मुख इस भय से पीला पड़ गया था कि यदि नौकरी चली गयी तो किसके द्वार पर भीख माँगेगी,कैसे कटेगा ये बुढ़ापा ? मास्टरनी जी की क्रोधाग्नि को शाँत करने के लिए वह दीनभाव से क्षमायाचना  करती है,किन्तु विद्यालय से बाहर निकलते ही आँखों में आँसुओं की झड़ी लग गयी थी।


       वह भारी कदमों से वापस मुड़ी ही थी कि फिर से बिट्टू प्रकट हो जाता है। " बुआ , चलो कहानी सुनाओं न ।" "नहीं रे! मुझे अब बुआ न कहा कर । हमारे इस रिश्ते में परिवर्तन आ गया है। मैं तेरे स्कूल की एक मामूली दाई जो ठहरी !" यह कहते हुये कमली का गला भर उठा था। " किसने कहा तुम्हें दाई ? मम्मी ने न ? वह बदल गयी है,लेकिन तुम हम बच्चों की बुआ थी और रहोगी। क्या मुझमें भी कोई परिवर्तन दिखा ?" इतना कहते हुये बिट्टू पीछे से कमली के गले में हाथ डाल उससे लिपट जाता है। मानो बुआ का सारा दर्द वह खुद अपने में समेट लेना चाहता हो। बच्चे का प्यार पा कर चोट खाये बुआ के हृदय में हलचल-सी होती है,जैसे बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठी हो,उसका मलिन मुखमण्डल फिर से दमकने लगा था। वह स्नेह से बिट्टू को अपने अंक में भर लेती है। दोनों के नेत्रों से अश्रुजल बह चले थे। जिसमें निश्छल मुस्कान थी। जिसे कोई परिवर्तन फीका नहीं कर सकता है।


    बिट्टू बड़ा हो गया है, सवाल आज भी उसका वही है-" यदि मानव अपने पदों का मुखौटा लगा कर एक दूसरे के बीच खाइयाँ खोदे ,तो यह कैसी मानवता ? यह सभ्य समाज कब समझेगा कि पद मानव को नहीं,अपितु मानवता पदों को सार्थकता प्रदान करती है ?" हाँ, उसने यह तय कर लिया था कि चाहे कितनी भी ऊँचाई पर वह क्यों न हो, उसके जीवन ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आएगा,जैसा उसकी माँ के हृदय में कमली बुआ के प्रति दिखा।



-व्याकुल पथिक



 

Wednesday 7 October 2020

जीवन के रंग

    'त्याग को मानव का श्रेष्ठ आभूषण बताया गया है। निर्माण के लिए त्याग आवश्यक है।यदि कुछ प्राप्त करना है,तो कुछ छोड़ना भी होगा,तभी हृदय को सच्चा धन हाथ लगेगा...।' चालीस की अवस्था में पत्नी-सुख से वंचित हो गये बाबू भगतदास के समक्ष जब भी पुनर्विवाह का प्रस्ताव आता,वे अपने दोनों बच्चों के 'भविष्य निर्माण' का विचार कर कुछ ऐसे ही पुस्तकीय ज्ञान के सहारे अपने मन के वेग को बलपूर्वक रोक लेते। इसप्रकार उन्होंने अपनी इच्छा,ज़रूरत और खुशियों को असमय ही इस त्याग रूपी हवनकुण्ड में भस्म कर दिया।

     ऊँचे खानदान के भगतदास के पास दौलत ही नहीं शोहरत भी थी। पत्नी गुणवंती जब तक साथ थी, कारोबार में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती रही।कच्ची गृहस्थी में जीवनसंगिनी से यूँ बिछड़ना उन्हें विचलित किये हुये था। माँ-बाबूजी को गुजरे साल भर नहीं हुआ कि यह बड़ा आघात उनके हृदय पर आ लगा। मानो दुर्भाग्य के ऐसे काले बादल उनके सिर पर मंडरा रहे हों, जिनमें स्नेह-वर्षा की एक बूँद भी न हो, जिससे पत्नी वियोग में तप्त हृदय को दो घड़ी शांति मिलती। ऐसा कोई सगा-संबंधी न था,जिससे वार्तालाप कर वे अपना ग़म हल्का कर लेते।सो,बड़े विवेक और धैर्य से उन्होंने स्वयं को बाँध रखा था।


    गुणवंती का साथ क्या छूटा कि सारी खुशियाँ भी जाती रहीं। न पर्व न उत्साह,घर में मरघट-सा सन्नाटा रहता। वो कहते हैं न-"बिन घरनी,घर भूत का डेरा।" कहाँ तो छह जनों का भरापूरा परिवार और कहाँ इतने बड़े बंगले में बाबू साहब अपनी चौदह साल की बेटी दीप्ति और बारह वर्ष के पुत्र चिराग़ संग शेष रह गये।पर बेचारे करते भी क्या? तड़प कर रह जाते थे। बच्चों के लिए सौतेली माँ लाने की गवाही उनका वात्सल्य भाव से भरा हृदय देता नहीं। विमाता की निष्ठुरता के संबंध में अनेक किस्से जो सुन रखे थे। ऊपर से उनके भोले बच्चों में चतुराई जैसा एक भी गुण न था। वे तो कोमल और सुकुमारता की मूर्ति थे।फिर अपने जिगर के टुकड़ों को  किसी अनजान के हाथों सौंपने का खतरा वे कैसे मोल ले सकते थे। सो,इसे विधाता का दण्ड समझ विधुर ही रहने का निश्चय कर लिया था।


    घर की वफ़ादार बूढ़ी आया जिसे उन्होंने कभी नौकरानी नहीं समझा था, के भरोसे दोनों बच्चों को छोड़ वे काम पर जाते भी तो उन्हें विद्यालय से छूटते ही स्वयं लिवा आते। ताकि घर पर माँ की कमी उनको महसूस नहीं हो। वे बच्चों को खुद से पल भर भी अलग नहीं देखना चाहते । जिसका विपरीत प्रभाव उनके व्यापार पर पड़ा। उनकी आय लाखों से हजारों में सिमट गयी, जबकि समय के साथ बच्चे बड़े हुये और उनकी शिक्षा पर ख़र्च बढ़ गया ।परिस्थिति विकट होती गयी,फिर भी बाप-दादा से प्राप्त करोड़ों की अचल सम्पत्ति को वे अपने पूर्वजों की धरोहर समझते, धन के लिए पुश्तैनी विशाल भूखंड के छोटे-से टुकड़े का त्याग भी उन्हें स्वीकार नहीं था । हाँ, इस आर्थिक चुनौती का सामना करने केलिए उन्होंने अपनी सुख-सुविधा की हर वस्तुओं का त्याग कर दिया। दिनोदिन उनके सादगी पसंद व्यक्तित्व की ख्याति भी बढ़ने लगी । मानो त्याग,तप और सत्य की सजीव मूर्ति हों। सुबह नित्य गंगा स्नान-पूजन और रात्रि शयन से पूर्व गीता-रामायण का पाठ, यह दो कार्य उनकी दिनचर्या के अंग बन गए । यह देख मुहल्ले-टोले के लोग आदर से उन्हें भगत जी कहा करते ।


  समय बीतते देर न लगी । बिटिया सयानी हो चली । वह रूप,रंग और गुण से बिल्कुल अपनी माँ गुणवंती पर गयी थी। धार्मिक संस्कार उसे पिता से मिले ही थे ,जिसे न अपनी विद्या का अहंकार था न रूप का दर्प ,ऐसी सर्वगुणी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश कर रहे भगतदास की मंशा शीघ्र पूर्ण हो गयी। मध्यवर्गीय परिवार का एक उद्यमशील युवक राजा जिसे आत्मनिर्भर बनाने में उन्होंने कभी तन-मन-धन से मदद की थी,अब उनका जामाता था। ससुराल में उनकी रानी बेटी राज करेगी, इसमें उन्हें संदेह नहीं था। लेकिन, भगतदास को क्या पता कि वे अपनी गऊ-सी पुत्री को कसाई के हाथ सौंप आये हैं।जमाई राजा को अपनी रानी से नहीं वरन् उनकी दौलत से प्रेम था।


      सच भी है कि बिना आलीशान बंगले और मोटरगाड़ी के काहे का राजा! ईमानदारी और परिश्रम के धन से यह संभव न था। उसने पत्नी से खुलकर अपनी अभिलाषा का ज़िक्र किया ,डराया-धमकाया,फिर भी वह पिता से यह कहने को तैयार नहीं हुई कि वे करोड़ों की अपनी अचल सम्पत्ति का एक हिस्सा उसके नाम कर दें।  बदले में वह यंत्रणा सहती रही। इससे क्रुद्ध हो कर राजा ने हर उस व्यसन को स्वीकार कर लिया, जिसके माध्यम से वो बंगला-गाड़ी , धन-दौलत, नौकर-चाकर सब-कुछ हासिल कर सकता है। वह जानता था कि जुगाड़-तंत्र की इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। यह सब बस दिमाग का खेल है,जो उसके पास था ही। फिर क्या था बड़े लोगों की महफ़िल में रात गुजारनें लगा।उनके लिए शराब,शबाब और कबाब की व्यवस्था करता, बदले में उनसे छोटी-मोटी ठेकेदारी झटक लेता।


   पति के कृत्य को देख दीप्ती के चेहर की चमक बुझने लगी। धर्मनिष्ठ पतिव्रता स्त्री हर कष्ट सहन कर सकती है किन्तु पति का ऐसा आचरण कदापि नहीं ,जो दूसरों के मनोरंजन के लिए स्त्री की आबरू का सौदा करे। सच तो यह था कि यदि बाबू भगत सिंह का भय न होता तो दामाद  जी अपनी सती सावित्री पत्नी को भी इन भद्रजनों के इंज्वॉय क्लब का हिस्सा बना चुके होते ।  सुरा-सुंदरी के खेल ने राजा के हर स्वप्न को साकार कर दिया । पत्नी का मतलब उसके लिए जीवन-साथी नहीं, चरणों की दासी था। दीप्ती की भावनाएँ उसकी धनलोलुपता की भेंट चढ़ गयीं । बेचारी ! एकांत में सिसकती और ससुराल वालों के समक्ष मुस्काती थी,पति के हाथों पिटाई का जो भय था।

 

   उधर ,मायके में उसके भाई चिराग़ का हाल कम बुरा न था। करोड़ों की सम्पत्ति का वारिस फिर भी ज़ेब खाली ,न मोटरगाड़ी और न ही साथी रईसजादों की तरह मौजमस्ती के साधन। बहनोई की चकाचौंध भरी दुनिया के समक्ष अपने पिता का ईमानदारी भरा व्यवसाय, उसे तुच्छ लगता। इसी भटकाव में वह बहता चला गया और बढ़ती गयी पिता-पुत्र की दूरी। युवा पुत्र संग वैचारिक मतभेद का टकराव रोकने के लिए भगतदास ने उसके कार्यों में हस्तक्षेप बंद कर दिया। बहन ने समझाने का प्रयत्न किया। समाज में पिता के सम्मान का हवाला दिया, परंतु भाई ने परिहास में ही उसपर तंज़ किया- " दीदी,यह ज्ञान जीजा जी को क्यों नहीं देती ? देखों उन्हीं की कमाई की इस महँगी गाड़ी से जब तुम मायके से आती हो,तो पड़ोस की स्त्रियाँ किस प्रकार ईर्ष्या भाव से तुम्हें देखती हैं।"


    चिराग़ ऐसा कुतर्क रचता कि दीप्ती निरुत्तर हो जाती। वैसे भी मायके से विदा होने के बाद बेटी के लिए यह घर अपना कहाँ होता है? भाई संग विवाद के भय से उसने भी पिता-गृह आना कम कर दिया। अब चिराग़ पर नज़र रखने वाला कोई नहीं रहा। परिस्थितियों का लाभ उठा बहनोई यह कह उसे भड़काता - "अरे साले साहब! मैं हूँ न ,चिन्ता किस बात की, हमारे संग रहो और दुनिया का मजा लूटो।" जीजा के चंद सिक्कों की झंकार के समक्ष उसे पिता का आदर्श खोखला लगा। वह फिसलता चला गया। उस नादान को कपटी मित्र और संबधियों की पहचान  जो न थी। जबकि उसकी अचल सम्पत्ति जीजा के धन से कई गुनी थी।


     परिस्थितियों का लाभ उठा राजा ने चिराग़ का विवाह इसी इंज्वॉय क्लब की एक सुंदर युवती माया से करवा दिया। भगत जी जमाता  के षड़यंत्र से अंजान घर में पुत्रवधू के आने की खुशियाँ मना रहे थे।उन्हें नहीं पता कि गृहलक्ष्मी की जगह  विषकन्या ने उनके गृह में प्रवेश किया है। शादी को साल भर भी नहीं हुआ था कि माया की नारी लीला शुरू हो गयी।ससुराल में उसके पाँव टिकते ही नहीं थे । अपने खानदानी उसूलों का जनाज़ा निकलते देख भगतदास ने दो-चार बार बहू को टोका क्या, वह घायल नागिन-सी पलटवार के लिए तड़़प उठी । पति पहले से ही उसके इशारे का गुलाम था। बस बुड्ढे को ठिकाने लगाने के लिए रास्ता ढूंढ रही थी।उसका यह काम जीजा ने आसान कर दिया। उसे तो बस अपने अमोघ अस्त्र 'आँसू' की ओट में शब्दबाण का प्रयोग भर करना था।


     उस रात भोजन कर भगतदास जैसे ही रामायण हाथ में लेकर पाठ पर बैठे थे कि बाज़ू वाले कमरे से बहू के रोने-सिसकने की आवाज़  सुनाई पड़ी,जो पति से कह रही थी-"अजी ! यह कहते लज्जा आती है कि आपके चरित्रवान पिताजी ,जो हम सभी पर अकारण शक करते हैं, उनकी.. मुझ पर नियत ठीक नहीं है। मारे भय के दिन में अकेली घर पर नहीं रह पाती,जिसपर मुझे कुलटा कहा जाता है। सुन लो आपभी,अब और नहीं रहना इस ढोंगी भगत के संग। " उनका पुत्र भी त्रियाचरित्र के प्रभाव में था। बेटे-बहू के मध्य ऐसे संवाद वे अधिक देर तक नहीं सहन कर सकें। इस आकस्मिक वज्रपात से उनका हृदय विदीर्ण हो चुका था। वह रह-रह कर हाहाकार कर रहा था। ऐसी आत्म वेदना उन्हें पत्नी की मृत्यु पर भी नहीं हुई थी।मन की पीड़ा आँखों में नहीं समा रही थी। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी घर की मर्यादा बनाये रखने में बर्बाद कर दी थी। उनके इसी त्याग को शर्म-हया विहीन यह स्त्री निगलने को आतुर है। बेटी समान बहू के लांछन ने उनके शांत चित्त को विचलित कर दिया था।किन्तु जब अपना ही सिक्का खोटा हो,तो सफाई किसे देते ?


    पूरी रात करवटें बदलते रहे भगतदास। उनके उज्ज्वल चरित्र पर जो कलंक अपनों ने लगाया था,उस ग्लानि से उनके मन को तनिक भी विश्राम नहीं मिल रहा था। वे स्वयं से प्रश्न करते कि क्या ऐसे ही कुपुत्र के लिए उन्होंने पुनर्विवाह नहीं किया ? क्या ऐसे ही स्वजनों के भरण-पोषण के लिए वे उद्यम कर रहे हैं ? उन्होंने तो पढ़ा था - "त्याग में हृदय को खींचने की शक्ति होती है। व्यक्ति के दोष भी इसके प्रभाव में आकर अलंकार बन चमक उठते हैं।" फिर यह कलंक उनके किस कर्म का दण्ड है। वे समझ गये कि यदि यहाँ कुछ दिनों और ठहरे तो यह पापिन उन्हें किसी को मुँह दिखलाने लायक नहीं छोड़ेगी। उन्हें अपने जमाता की कुटिलता का ज्ञान होता है, परंतु निःसहाय थे। उन्होंने अत्यंत दीनभाव से अपने ईष्ट को पुकारा था-"हे प्रभु! मेरा त्याग अभिशाप क्यों बन गया ? अब आप ही मेरी रक्षा करें।"


   तभी उनकी ज्ञानेंद्रिय जागृत होती है। उन्हें बोध होता है कि इस लौकिक जगत के सारे संबंध अनिश्चित है, परिवर्तित है। मोह का पर्दा हटता है। उनके शून्य नेत्रों में अपनों के प्रति पहचान के एक भी चिन्ह शेष नहीं रहे ।वे धन ,परिवार और घर सभी त्याग देते हैं। विकल हृदय को वैराग्य का मार्ग मिल गया था।

 

     भगतदास को गये वर्षों बीत गए हैं।किसी सगे-सम्बंधी ने उन्हें फिर कहीं नहीं देखा। यह  अवश्य सुनने को मिला कि अमुक मठ में कभी कोई भगत जी रहते थे।बड़े सच्चे संत थे । मुखमंडल पर अद्भुत तेज था, किन्तु अनुयायियों की संख्या बढ़ने पर ख्याति के भय से अज्ञात स्थान को चले गये। इधर,जीजा ने साले को विभिन्न व्यसनों में उलझा उसकी पैतृक सम्पत्ति की कुछ इस तरह से बोली लगवाई कि सिर छिपाने के लिए सिर्फ़ पिता द्वारा बनवाया गया मकान ही शेष रहा। इंज्वॉय क्लब में ऐसे दरिद्रजनों का प्रवेश वर्जित था। वैभव के नष्ट होते ही दुर्दिन ने भगतदास के पुत्र की आँखें खोल दी, किन्तु परिश्रम उसने कभी किया नहीं था। वह व्याकुल हृदय से बार -बार अपने पिता का स्मरण करता । करोड़ों की अचल सम्पत्ति हाथ से निकल जाने पर अपनी छाती पीटता। पछाड़ खा कर भूमि पर जा गिरता, तो कभी अपनी इस स्थिति के लिए पत्नी को उलाहना देता। पिता के अनुशासन में मिले स्वर्गीय सुख का स्मरण करता।पति की यह दशा देख पितातुल्य ससुर पर आक्षेप लगाने वाली माया पश्चाताप की अग्नि में जली जा रही थी। वह कहती-"काश ! ससुर जी कहीं मिल जाते तो हाथ-पाँव जोड़ मना लाती ।" घर का चिराग़ बुझने को था। संभवतः भगतदास के त्याग का इनके लिए यही दण्ड था।

  और हाँ, राजा साहब का भाग्य चक्र भी परिवर्तित हो गया था। इंज्वॉय क्लब के यौन व्यापार ने उन्हें जेल का रास्ता जो दिखा दिया था।


    ---व्याकुल पथिक