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Wednesday 21 October 2020

मौन का दण्ड

जीवन के रंग
- व्याकुल पथिक

 सेठ धर्मदास के दफ़्तर में ख़ासी हलचल थी। सभी कर्मचारी हाथ बढ़ा कर काम करते दिखे। यूँ कहें कि वे अपने कौशल का भरपूर परिचय देना चाहते थे,जबकि कम्पनी के बड़े कर्मचारी पुष्पगुच्छ लिये स्वागत में खड़े थे। मानो सभी की उम्मीदों को पंख लग गये हों। दिल्ली से व्यवसायिक शिक्षा की डिग्री लेकर लौटे सेठ के इकलौते पुत्र करमचंद की ताजपोशी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष पद पर जो होनी थी। इस उपलक्ष्य में एक छोटी-सी गोष्ठी और सहभोज भी आयोजित था।

  कम्पनी के निष्ठावान कर्मचारियों का परिचय स्वयं धर्मदास ने अपने बेटे से करवाया। मैनेजर फ़तेह बहादुर ,मुंशी बनवारी लाल, खजांची  बनारसी दास जैसे कर्मचारी जो धर्मदास के हमउम्र और उनके पिता स्व0 भगतदास के समय से कम्पनी में कार्यरत थे,के प्रति विशेष आदरभाव का प्रदर्शन किया गया। उन्होंने अपने पुत्र को बताया कि ये सभी संस्थान के ऐसे वफ़ादार हैं,जो घड़ी देख कर नौकरी नहीं करतें ,वरन् हाथ में लिया कार्य समाप्त करके ही दम लेते हैं। इनकी सूझ-बूझ ने कम्पनी को कितनी ही बार संकट से उबारा है। कभी श्रमिकों में असंतोष की चिंगारी भड़की भी तो इनके मृदुल स्वभाव ने जलवर्षा की, इसलिए दफ़्तर में हमारा संबंध भले ही अनुशासन के दायरे में हो,किन्तु उसके बाहर वे नौकर-मालिक के संबंध में विश्वास नहीं रखते। उन्होंने आगे कहा- "दुःख-सुख में हम सभी एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं,अब यह ज़िम्मेदारी तुम पर छोड़ता हूँ।"

  सेठ की यह छोटी-सी कम्पनी उनके स्वर्गीय पिता के त्याग-तप से अस्तित्व में आयी थी। जिसकी ख्याति धर्मदास के कार्यकाल में और भी बढ़ गयी। संस्थान के स्वामी और कर्मचारी एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते, इसलिए कम पूँजी के बावजूद निर्धारित समय में गुणवत्ता के साथ सामान तैयार करने में कर्मचारी दिन-रात एक कर देते।  'आपका विश्वास ही हमारा पुरस्कार ' कम्पनी द्वारा ग्राहकों से किये इस वायदे में सच्चाई थी। उन्हें पूरा भरोसा था कि उनका लायक पुत्र इसे और ऊँचाई पर ले जाएगा।सो,आज वे बहुत खुश थे। कर्मचारियों में भी उत्साह दिखा।

 दफ़्तर के सबसे सुंदर कक्ष में मेज, कुर्सी और कूलर की अच्छी व्यवस्था कर करमचंद के लिए एक अलग से केबिन बनाया गया था, किन्तु अगले दिन कार्यालय आते ही पुराने माडल के अपने केबिन को देख वह आपा खो बैठा। "क्या यही कबूतर-बाड़ा मेरे लिए है, इतना भी नहीं जानते कि नोयडा- दिल्ली की कम्पनियों में मालिक का केबिन कैसा होता है ? आप इतने ग़ैर ज़िम्मेदार कैसे हो सकते हैं..?" वह बरसता ही गया  मैनेजर पर। उसकी शालीनता का मुखौटा हट चुका था। फ़तेह बहादुर को सार्वजनिक रूप से इसतरह से फटकार कभी धर्मदास ने तो क्या, उनके स्वर्गीय पिता ने भी नहीं लगायी थी, जिसकी चर्चा पूरी कम्पनी में होने लगी।एक धर्मदास के कानों में ही रूई पड़ी हुई थी !

  और फिर अगले दिन एक बड़े वातानुकूलित कक्ष का निर्माण कार्य शुरू हो गया। महँगे फ़र्नीचर और कालीन भी खरीदे गये। जिन पर कम्पनी के लाखों रुपये ख़र्च हुये। कहाँ तो धर्मदास को सादगी पसंद थी। वे अपनी चादर देख पाँव पसारते थे। वहीं करमचंद के जल-जलपान और लंच का बिल रोजाना हजार -आठ सौ से कम न होता। एक-दो बाहरी मित्र आ गये, तो संस्थान के इन वफ़ादारों का कलेजा दहल उठता था। ऊपर से संस्थान के खाते से मनमाने रुपये निकाले जाने लगे । छोटे मालिक का हाल देख कुछ ही महीनों में फ़तेह बहादुर का हौसला पस्त हो गया। सो, हर शाम जब मालिक और कर्मचारी अपने घरों को लौटते,तो वे अपने सहयोगी बनवारी लाल और बनारसी दास संग इस मंत्रणा में उलझे रहते कि इस विकट परिस्थिति से कम्पनी को कैसे उबरा जाय?

  "भाई, आमदनी अठन्नी, ख़र्चा रुपइया ! फिर कैसे पार लगेगी इस छोटी-सी कम्पनी की नैया ?" संस्थान की डाँवाडोल आर्थिक स्थिति को देख खजांची बनवारी ने सवाल दागा । "परंतु सेठ जी से इस फ़िज़ूलख़र्ची की चर्चा कैसे करें ? ऐसी कोई शिकायत तो करमचंद के शान के खिलाफ होगी ?" मुंशी बनवारी ने भी अपनी चिन्ता प्रकट की।  "तो क्या हम ऐसे ही तमाशबीन बने रहे? इस कम्पनी के लिए हमने वर्षों खून-पसीना बहाया है और अब  ख़ामोश रहे ?" मैनेजर फ़तेह बहादुर ने व्याकुलता से कहा।

   कम्पनी के इन निष्ठावान कर्मचारियों के मध्य लम्बे वार्तालाप के बाद भी यह तय नहीं हो सका कि 'बिल्ली के गले में घँटी' कौन बाँधे ? वे सभी जानते थे कि बाहर से व्यवसायिक शिक्षा का ज्ञान ले कर आये करमचंद पर सेठ को अति विश्वास और अनुराग है। तीन पुत्रियों के जन्म के वर्षों बाद अनेक पूजा-पाठ के फलस्वरूप पुत्र प्राप्ति की सेठ की कामना पूरी हुई थी।वह उनकी आँखों का तारा है।सो, कम्पनी के जो ख़ैरख़्वाह अपने मालिक से निःसंकोच वार्तालाप करते थे,उनकी निष्ठा यहाँ मौन थी ! इनमें से किसी ने भी धर्मदास  को यह सच्चाई बताने का खतरा मोल नहीं लिया कि उनके पुत्र का निजी ख़र्च सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ता और कम्पनी का बजट बिगड़ता जा रहा है। 

   अबकी दीपावली पर करमचंद ने एक और बखेड़ा खड़ा कर दिया।उसे नयी गाड़ी लेनी थी,इसलिए सभी कर्मचारियों का बोनस रोक दिया गया। मैनेजर से कहा गया कि वह  कर्मचारियों को यह विश्वास दिलाए कि कम्पनी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। बेचारे फ़तेह बहादुर ने बुझे मन से असत्य बोल कर यह मोर्चा तो किसी प्रकार सँभाल लिया, किन्तु धनतेरस के दिन जैसे ही बड़े आकार की महंगी गाड़ी से करमचंद ने कम्पनी में प्रवेश किया, स्वामीपुत्र के प्रति यह निष्ठा प्रदर्शन उन्हें ख़ासा महंगा पड़ा, क्योंकि कर्मचारी पहली बार स्वयं को ठगा महसूस कर रहे थे। आवेश में आकर उन्होंने फ़तेह बहादुर को घेर लिया, जो मैनेजर उनके लिए देवता समान था,वह अब संदेह के घेरे में था। कर्मचारी नयी कार की ओर इशारा कर उनसे ऊँची आवाज़ में पूछ रहे थे -" क्या इसी के लिए कम्पनी घाटे में है और उनका बोनस रोक दिया गया ?" हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले इन कर्मचारियों से झूठ बोलने पर वैसे ही फ़तेह ग्लानि से पश्चाताप कर रहे थे,उसपर से साथी-मित्रों का विश्वास भी खो बैठे। क्या जवाब देते उन्हें ? मारे लज्जा से इन कर्मचारियों से निगाहें नहीं मिला पाए, फिर भी वे मौन थे ।यहाँ तक की बनवारी और बनारसी ने भी चुप्पी साधे रखी। यह इन तीनों की स्वामीभक्ति थी अथवा विवशता ,इससे अन्य कर्मचारियों को क्या लेना । सच तो यह है कि दीपावली जैसे पर्व पर उनके बाल-बच्चों की खुशियों पर घात हुआ था। उन्होंने तो इनका नया नाम भी रख दिया - ' छोटे मालिक के तीन बंदर ! '

    इस घुटनभरी अपमानजन स्थिति में मुँह पर ताला मारे फ़तेह अपनी कुर्सी से चिपके रहे।पचपन से ऊपर की अवस्था हो चली थी, कहीं और नौकरी भी तो न मिलती। सेठ धर्मदास के केबिन में पहले की तरह एक साथ लंच भी वे तीनों नहीं कर सकते थे,ताकि अवसर देख सामने खड़े संकट का संकेत उन्हें दे सकें। यहाँ भी करमचंद का पहरा था।सो, मनमसोस के रह जाते थे ये तीनों। वह सदैव अग्निमय नेत्रों से हर किसी को देखा करता था,जैसे किसी शैतान से पाला पड़ गया हो,जो सुअर, कुत्ता,कमीना और नमकहराम जैसे संबोधन से कर्मचारियों का स्वागत करता था। उसके मुख से आदरमय संबोधन सुनने को वरिष्ठजन तक तरसते थे।

     स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि कर्मचारियों को नियमित वेतन की जगह नौकरी से निकाले जाने की धमकी मिलती।जिससे उनके उत्साह  और कम्पनी की उत्पादन क्षमता में निरंतर कमी आती गयी और ग्राहकों में विश्वसनीयता घटने लगी। वहीं धर्मदास थे कि दफ़्तर में बैठना कम अपना परलोक सुधारने में अधिक रूचि लेने लगें। इस आर्थिक संकट में करमचंद ने होली से पूर्व पुनः पाँच लाख रूपये कंपनी के एकाउंट से निकाल लिये। उनके लिए त्योहार था और कर्मचारियों के लिए फ़ाका।अब फ़तेह बहादुर के पास चुप्पी तोड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि होली पर भी बकाया वेतन नहीं मिलने से कर्मचारी हड़ताल की धमकी दे रहे थे और यहाँ छोटे मालिक ने फिर से ख़ज़ाना खाली कर दिया। जिसे हर नेक सलाह उसे नागवार लगती।

  सो, यह बात धर्मदास तक पहुँचायी गयी। न जाने पिता-पुत्र में क्या वार्तालाप हुई कि पर्व के बाद दफ़्तर की सीढ़ियों पर पाँव रखते ही फ़तेह बहादुर के गले में एक फूलमाला तक डाले बिना ही कम्पनी से हमेशा के लिए उनकी विदाई कर दी गयी। उनपर कर्मचारियों को भड़काने का झूठा आरोप लगा। भरी सभा में संस्थान के सबसे निष्ठावान कर्मचारी का चीरहरण हो गया। हाय रे विडंबना ! अपने मैनेजर के साथ अन्याय को देख कर भी कम्पनी के अन्य वफ़ादार दम साधे रहे।मानो सभी को साँप डँस गया हो। बनवारी और बनारसी सभी मौन,जैसे उन्हें कोई पहचान ही न रहा हो,जबकि संस्थान का हर कर्मचारी डूबती नाव पर सवार था। सभी की पीड़ा एक जैसी थी। फिर भी एकजुट हो 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' बोलने की जगह भेड़ों की तरह मौन रह कर गर्दन झुका लिये.. !  जाते वक़्त फतेह ने करुण दृष्टि से धर्मदास की ओर देखा था, किन्तु सेठ की आँखों का पानी मर गया था। जरा-सा भी दर्द नहीं, कोई सहानुभूति नहीं, मानवीय भाव नहीं,कोई कर्तव्य भी नहीं... ! यह देख इस स्वामीभक्त को अपनी दशा का वास्तविक ज्ञान हो गया। हृदय की पीड़ा आँखों में उतर आयी,जिसमें एक आह थी ।

   षड़यंत्र के शिकार फ़तेह बहादुर के निष्कासन के साथ ही करमचंद ने किला फ़तेह कर लिया। अब संस्थान पूरी तरह से उसके हाथों में था। कोई रोक-टोक नहीं।उसकी एक ही महत्वाकांक्षा थी अपना विकास और दूसरों का शोषण। शायद दिल्ली के पूँजीपति मित्रों से यही सीखा हो।वह अपने आमोद-प्रमोद पर पानी की तरह धन लुटाता,लेकिन वेतन माँगने पर कर्मचारियों को भिखारी की तरह दुत्कारा- फटकारा। सेठ धर्मदास के प्रति निष्ठा रखने वाले सारे कर्मचारी निकाले जा चुके थे। जो अन्य शेष बचे थे,वे भी तू चल मैं आता हूँ..की रट लगाये हुये थे। किसे ने भी किसी का साथ नहीं दिया। जैसे संस्थान का हर सदस्य आपस में अपरिचित-सा हो। कैसे अभागे थे सब ..! किसी को किसी के संग हुये अन्याय से कोई वास्ता न हो। सभी अपनी-अपनी नौकरी बचाने की आखिरी कोशिश कर रहे थे।

   इस प्रकार संस्थान के सभी पुराने कर्मचारी एक-एक कर निकाले जा चुके थे। उनकी मेहनत की कमाई करमचंद दबा गया। जिन श्रमिकों ने सेठ की नाक ऊँची रखने के लिए अपनी जान लगा दी थी,उनके घरोंं के चूल्हे ठंडे पड़े थे। बाल-बच्चे भूखे थे।अपने ही बकाया पैसे के लिए वे दीनता का प्रदर्शन कर रहे थे और मित्रों संग उसी वातानुकूलित केबिन में बैठा करमचंद कहकहे लगाता रहा। ऐसा लग रहा था कि इन ग़रीबों की आह की ज्वालामुखी पर यह कम्पनी खड़ी हो। फिर भी नहीं जगे सेठ धर्मदास, क्योंकि करमचंद ने नये मैनेजर घोंटूमल के सहयोग से काफी कम वेतन पर नये अस्थायी कर्मचारियों को रख लिया।जिससे कर्मचारियों के वेतन में काफी बचत हुई। कम्पनी का घाटा कुछ कम हुआ था। पुत्र की इस उपलब्धि पर धर्मदास ने प्रसन्नता व्यक्त की।परंतु कुछ ही महीनों में इसका घातक परिणाम सामने आने लगा। क्योंकि कम्पनी के उत्पाद और गुणवत्ता में कमी आ गयी। ग्राहकों ने धर्मदास से उसके पुत्र के दुर्व्यवहार की शिकायत के साथ ही माल लेना बंद कर दिया था। फिर तो भगदड़-सी मच गयी थी सेठ की कम्पनी में, उसे कोई चोर तो कोई बेईमान कहता। यह देख धर्मदास की वह प्रसन्नता चिन्ता में बदलने लगी।कम्पनी की बदनामी हृदय में शूल-सी चुभती।

    उन्होंने पुत्र पर दबाव बनाया, ताकि निकाले गये निष्ठावान सेवकों को फिर से बुलाया जा सके,लेकिन उनके हाथों से तोता उड़ चुका था। करमचंद को पिता का यह हस्तक्षेप रास नहीं आया। उसने संकोच छोड़ निष्ठुरता से कह ही दिया- " पिता जी ! आप बूढ़े हो चले हैं, आपको आराम की ज़रूरत है। घर पर चुपचाप क्यों नहीं पड़े रहते?" 

   प्राणों से अधिक प्रिय पुत्र के ऐसे कटु वचन सुनकर हाहाकार कर उठा था धर्मदास का हृदय। अपनी कम्पनी का इस प्रकार से पतन देख,वे पश्चाताप  करने लगें -" ओह! मैंने यह क्या किया, जिसे हीरा समझा वह तो काँच का टुकड़ा निकला।" उनके पिता की विरासत उन्हीं की आँखों के सामने उनका पुत्र नष्ट कर रहा था और वे अँगूठाहीन एकलव्य की तरह छटपटाते रहे।किसी से अपना दुःख नहीं कह सकें,क्योंकि क़सूर उनका भी कम न था। इस विषाद,निराशा और व्याकुलता भरे क्षण में उन्हें फ़तेह, बनवारी और बनारसी जैसे कर्मचारियों की वफ़ादारी याद आती। जिन्हें उन्होंने आश्रयहीन कर दिया था।उनके साथ हुये अन्याय पर अपनी ही चुप्पी उन्हें ताड़ना देती -"क्यों सेठ ! निकल गयी न सारी चतुराई,खुश तो होंगे ही ?" उनके नेत्रों में नैराश्य-स्याही चटक होती जा रही थी। अतंतः इस सदमे से नहीं उभर सके वे। उनके 'मौन की सज़ा' मौत जो थी।

   मरघट में रेशमी महल नहीं बनता, सो वह दिन भी आया जब कर्मचारियों की आह रूपी मौन ज्वालामुखी ने मुख खोला और भगतदास की कम्पनी उसमें समा गयी।


 

17 comments:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 23-10-2020) को "मैं जब दूर चला जाऊँगा" (चर्चा अंक- 3863 ) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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    1. जी मंच पर स्थान देने के लिए आभार मीना दीदी।

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  2. हृदयस्पर्शी।
    एक कहावत है"पूत कपूत तो क्यो धन संचे!

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  3. शशि जी महाग्रंथों से लेकर इतिहास की किताबों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें हम देखते हैं कि पुत्र मोह में आकर कइयों ने अपना सर्वस्त्र लूटा दिया है और जब आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। आपकी कहानी में भी कुछ ऐसा ही है।अपने और पराये का भेद वो भी तब जब पराये अपनों से ज्यादा वफादारी निभाते हैं कई बार मनुष्य के लिए घातक सिद्ध होता है। सेठ धर्मदास का पुत्र मोह ही उसके लिए जीवन की सबसे बड़ी निराशा लेकर आया। सेठ धर्मदास के लिए न तो व्यवसाय ही बचा न अपने वफादार लोगों का साथ बचा जिसे उसने पुत्र मोह में खो दिया था। पुनः एक शिक्षाप्रद रचना के लिए आपको साधुवाद।

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    1. जी प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रवीण जी।
      यह रचना एक सत्यकथा पर आधारित है।

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  4. संशोधनः सत्यकथा ही है।

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  5. किसी भी संस्थान के उत्थान में सभी का योगदान होता है। एक दूरदर्शी और स्नेहिल नेतृत्व संस्थान को बहुत आगे ले कर जाता है। जब दूरदर्शिता की कमी हो जाती है और स्वार्थ सर्वोपरि हो जाता है, तो उस संस्थान का पतन सुनिश्चित हो जाता है। जिस संस्थान को ईमानदार और उत्साही कर्मचारियों ने आगे बढ़ाने का काम किया, उसी संस्थान को उसके नए प्रमुख ने कर्मचारियों के उत्साह पर चोट कर दिया। ऐसे में मान-सम्मान तो चला ही गया और साथ में संस्थान का भी विनाश हो गया। जिसको बना-बनाया सब कुछ मिलता है, वह संस्थान के प्रारंभिक प्रगति में कितना परिश्रम लगा है, को नहीं जान पाता है। रही बात कर्मचारियों की, तो उन्हें पूर्णतया प्रोफ़ेशनल होना चाहिए था। भावुकता में आकर अपने स्वर्णिम भविष्य को नष्ट कर दिया। व्यक्ति को आसन्न परिस्थिति को भापकर कोई एक फ़ैसला करना चाहिए था। जितना भी योगदान कर सकते थे, उन्होंने कर दिया था। उससे प्राप्त अनुभव को कहीं और विस्तारित करना चाहिए था। ख़ैर, एक उम्र के बाद हर किसी के लिए यह संभव हो नहीं पाता। पश्चाताप के अलावा कुछ नहीं बचता। दूसरों को अब बदल नहीं सकते। अब ख़ुद को बदलने की स्थिति भी नहीं रहे। आप कहानियों में अपनी बात को कह लेते हैं। कई लोग ख़ामोश हो गए हैं। किससे कहें और क्या कहें। बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी शशि भाई।

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    1. बहुत सुंदर और सटीक प्रतिक्रिया अनिल भैया ।

      दो बात आपने प्रमुखता से कही है जो बिल्कुल सही है।
      पहला यह कि जिसको सब कुछ बना- बनाया मिल जाता है, वह यह नहीं समझ पाता कि ऐसा करने में किसका कितना श्रम ख़र्च हुआ है.. और दूसरा यह कि कर्मचारियों की सबसे बड़ी कमजोरी उनका संस्थान के प्रति मोह ... जिसका परिणाम उन्होंने भुगता।
      🙏

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  6. शशि भैया, बहुत ही मार्मिक शब्द चित्र रचा आपने. सब कुछ जानते हुए भी अपनों के व्यर्थ मोह को जिसने भी धारण किया है, अपने सर्वस्व विनाश को न्यौता दिया है. जब सुयोग्य परायों के अतुल्य योगदान को किसी अयोग्य अपने विशेषकर संतान के लिए भुला दिया जा सकता है, तो उसका अंजाम सदैव ही बहुत भयावह होता है. इतिहास साक्षी है शीर्ष व्यक्ति का मौन तो सही होता ही नहीं, चाटुकार मातहतों की कुटिल और स्वार्थी चुप्पी भी किसी संस्थान की नींव को खोखला करके उसके अस्तित्व पर ग्रहण लगा देती है. इस मार्मिक और सार्थक सृजन के लिए आपको बधाई एवं साधुवाद .

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    1. इस स्नेहिल प्रतिक्रिया एवं उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार रेणु दीदी🙏

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  7. मार्मिक कथा। ऐसा कई बार देखने में आया है कि पुत्र मोह के चलते कई लोग गलत निर्णय ले लेते हैं और फिर बर्बाद हो जाते हैं।

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  8. पिछले काफी समय से ऑनलाइन पढ़ाई की वजह से आँखों पर बहुत जोर पड़ा और पढ़ना बंद हो गया। आज काफी समय बाद आपकी और अन्य कई रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ी हूँ। लग रहा है कि कई बहुमूल्य कहानियाँ पढ़ने से छूट गई हैं। यह कहानी भी उनमें से ही एक है।

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    1. जी मीना दी, इस आशीर्वचन के लिए हृदय से आभार।

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  9. प्रिय शशि जी,ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद।उम्र के इस पड़ाव में प्यार बटोरना और बाॅटना ही स्वधर्म समझता हूॅ,कहीं अटपटा लगे तो कहियेगा अवश्य ।
    कभी-कभी मौन बड़ा घातक सिद्ध होता है,ऐसा सभी कहते भी हैं और समझते भी और इस प्रतीक्षा में कि शायद अब ठीक हो जाय ,यही प्रतीक्षा विष बनकर प्राणान्त तक पहुॅचा देती है,
    यह पुत्र मोह इतिहास में भी था और आज तो इसका कहना ही क्या! वर्तमान परिपेक्ष में बड़ी सही बात की याद दिलाकर लोगों को सावधान होने और सही समय पर सही निर्णय लेने का मंत्र की सीख देने का जो कार्य किया है वह वंदनीय है, कहा है- "पुण्य को पूजते-पूजते पाप के पाॅव हम धो गये,
    सत्य को ढूॅढ़ते-ढूॅढ़ते
    झूठ के साथ हम हो गये"

    -रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"

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