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Sunday 20 January 2019

जो दुनिया जीवन से खेले..!

जो दुनिया जीवन से खेले..!
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   इस दुनिया के मेले में क्यों मन रमा रहा है , किसी से "स्नेह की भीख " मांगने से अच्छा है कि तू फंटूश फिल्म के इस गीत को गुनगुनाये जा
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दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना
जहाँ नहीं चैना वहाँ नहीं रहना
दर्द हमारा कोई न जाने
अपनी गरज के सब हैं दीवाने
किसके आगे रोना रोएं
देस पराया लोग बेगाने..

      विवाह- बारात का मौसम है। चहुंओर गाजे बाजे का शोर है। भव्य मंडप जिसके समीप ही डीजे पर स्त्री , पुरूष और बच्चे सभी थिरक रहे हैं। अगली सुबह शहनाई की गूंज के संग विदाई का रश्म पूरा होते ही , यह समारोह स्थल तन्हाई में बदल जाता है। यहाँ सजे हुये फूल बिखर जाते हैं, पांव तले कुचले जाते हैं और विवाह मंडप से बाहर कूड़ेदान में पहुँच जाते हैं।
   कैसी विचित्र सृष्टि की संरचना हैं , आज हँसी है, तो कल रोना है। जीवन के प्रारम्भ होते ही मृत्यु की आहट हर पल तेज होती जाती है, तो फिर क्या शहनाई और क्या तन्हाई ?
शहनाई का संग तो पल दो पल का है,लेकिन तन्हाई महबूबा है। वह गीत है न -

ज़िन्दगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी
मौत मेहबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी..

 सो,मैं इसी तन्हाई के लबादे को कसता जा रहा हूँ। उसी महबूबा से मिलन की चाह लिये ।
   अभी पिछले ही दिनों एक कसाई की दुकान के समीप से गुजर रहा था,जहाँ पर मैंने एक तंदुरुस्त बकरे को देखा । बड़ा  इतरा रहा था अपने भाग्य पर, क्यों कि कसाई बड़े जतन से उसकी देखभाल जो करता था ,किन्तु वहीं मैंने जीवन का यह सच भी देखा कि जो हाथ कभी स्नेह से उसका पीठ सहला रहा था, उसकी क्षुधा शांत कर रहा था,वहीं हाथ उसका कत्ल कर रहा था , तब बकरे के जीवन के प्रति उसे तनिक भी मोह न हुआ। मतलब की यह दुनिया है।
   हाँ, मैंने उसके गर्दन पर छूरा चलते समय समीप खड़ी बकरियों जिन पर यह मूर्ख बकरा अपना अधिकार समझता था, उनकी आँखों का भय देखा है । वे नहीं समझ सकेंगे इसे ,जो उनका गोश्त टटोल रहे होंगे । विडंबना यहाँ भी यह है कि इन बकरियों को बकरे की मौत से कहीं अधिक अपने जीवन का भय है ..

माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥

   छात्र जीवन में इस दोहे की उपयोगिता हम विद्यार्थियों के लिये मात्र हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से रही, परंतु अब इसके  चिन्तन पक्ष को समझ सकता हूँ ।
        यह निष्ठुर प्रकृति हमारे साथ यही तो करती है।  कबीर दास की यह सबक याद है न..

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे।
 एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूगी तोहे।।

     वह हमें मिटा देगी, अपने में समा लेगी तय है । आश्चर्य तो यह है कि फिर भी हम उसी स्नेह के पीछे दौड़ते हैं, जो निश्चित ही हमें कष्ट देगा,आज नहीं तो कल।
    माँ थी, तो मैं भी उसी बकरे की तरह तंदुरुस्त था। स्नेह और बढ़िया भोजन दोनों ही मिलता था। माँ के असमय जाने पर उस कसाई ने अपना यह धर्म भुला दिया , मेरे प्रति कि  कत्ल से पहले वह मेरी आवश्यकताओं का ध्यान रखता।
  वैसे तो ऐसा न कर वह स्वयं ही घाटे में है, क्यों कि दुर्बल बकरे में मांस कम होगा तो कीमत भी कम मिलेगी उसे। अतः मुझे तो  हँसी आती है, उसकी इस मूर्खता पर कि वह क्यों घाटे का सौदा किये है। थोड़ी खुशी मुझे भी बख्शी होती , तो उसे कोई मालदार सौदागर मिलता, तब मेरी इन सूखी हड्डियों में कुछ गोश्त जो होता।
    और रही बात उस छूरे के भय की, जिसे वह मुझे  व्यर्थ ही दिखला रहा है । मैं तो स्वयं ही सांसों की इस डोर से आजाद होने के लिये व्याकुल पथिक बना मुक्ति पथ की ओर बढ़े जा रहा हूँ। ऐसा कोई स्नेह का बंधन नहीं रहा , जो हाथ पकड़ मेरी राह रोकता हो । माँ से बिछुड़ने के बाद आशियाना और मुसाफिरखाने सभी मेरे लिये एक जैसे रहें।

     मौत के चौखट पर इन आँसुओं का कोई मोल नहीं होता है। उसमें "मानवता" कहाँ होती है अन्यथा जीवन की आयु सीमा तय होती। मृत्युदंड से पूर्व अंतिम इच्छा पूछ ले , इतनी तो इंसानियत उसमें होनी चाहिए न ..?  हमारे इस प्रश्न पर वह यह कह उपहास उड़ाती है कि तुम मनुष्य क्या ऐसा नहीं करते हो , कभी किसी को राह चलते अपने वाहन के पहिये तले रौंद दिया , तो कभी किसी को निजी खुन्नस में ठोंक दिया। कितने ही युद्ध तुमने अकारण निजी महत्वाकांक्षाओं के लिये लड़े हैंं।
       मेहंदी हाथ की छूटी भी नहीं कि विधवा विलाप सुन मुझ जैसे पत्रकारों का हृदय भी कभी- कभी दहल उठता है, अंत्यपरीक्षण स्थल पर इस करुण क्रंदन को ही नहीं उस माँ के रोते हृदय से भी हमारा सामना होता है , जिसकी गोद में उसका लाल सोया होता है, ममता की डोर तोड़, माटी का पुतला बना पड़ा होता है।
        इस कत्लखाने में बकरे की चीख पर रहम किसे आता है ? ग्राहक को मांस चाहिए और विक्रता को धन, फिर बकरे के दर्द का क्या ?  अरे , नादान क्यों छटपटाहट है तूँ इतना । छूरा किसी के गर्दन पर चले या किसी के मासूम हृदय को आहत करे , रक्त तो दोनों का ही सूर्ख है।  कौन समझाय इस मन को  कि मत हाथ पसारा करो-

लाख यहाँ झोली फैला ले
कुछ नहीं देंगे इस जग वाले
पत्थर के दिल मोम न होंगे
चाहे जितना नीर बहाले..

   यही इस जगत का सत्य है। अध्यात्म, चिन्तन और विज्ञान को चाहे जितनी भी ऊँचाई तक हम ले जाएँ । अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी ही क्यों न बन जाएँ , फिर भी याद रखना है कि मृत्यु हमसे स्नेह नहीं करेगी।
   इस दुनिया के मेले में क्यों मन रमा रहा है , किसी से "स्नेह की भीख " मांगने से अच्छा है कि तू फंटूश फिल्म के इस गीत को गुनगुनाये जा -

अपने लिये कब हैं ये मेले
हम हैं हर इक मेले में अकेले
क्या पाएगा उसमें रहकर
जो दुनिया जीवन से खेले..!

      तब भी सत्य तो यही है न कि हमें ये सारी अनुभूतियाँ इसी जगत और इसी मानव तन से  प्राप्त हुई हैं । यदि मृत्यु सत्य है, तो उसका आश्रय स्थल यह जगत कैसे असत्य हो सकता है, अन्यथा ये दोनों ही नश्वर हैं ?