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Friday 7 September 2018

मेरे खुदा कहाँ है तू , कोई आसरा तो दे


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साहब ! यह जोकर का तमाशा नहीं , नियति का खेल है। हममें से अनेक को मृत्यु पूर्व इसी स्थिति से गुजरना है । जब चेतना विलुप्त हो जाएगी , अपनी ही पीएचडी की डिग्री पहचान न आएँगी और उस अंतिम दस्तक पर दरवाजा खोलने की तमन्ना अधूरी रह जाएगी।
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खिलौना जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो
मुझे इस हाल में किसके सहारे छोड़ जाते हो ...

    ठीक से याद नहीं की बचपन में कोलकाता में यह खिलौना फिल्म परिजनों संग किस छविगृह में देखा था, पर सवाल  मन में था कि यह पागल क्या होता है और यह इस तरह की हरकतें क्यों करता है ? कोलकाता हो या बनारस हम बच्चों को अनावश्यक घर के बाहर नहीं निकलने दिया जाता था, इसलिये भी मैं सड़कों पर विचरण करने वाले इन विक्षिप्त जनों से कम ही परिचित था। लेकिन, यहाँ मीरजापुर में जब सुबह पौने पांच बजे आशियाने से निकलता हूँ, तो प्रातः दर्शन जिन लोगों का होता है, उनमें चार से पांच ऐसे विक्षिप्त भी होते हैं। एक महिला तो मुझे पखवारे भर से होटल का मुख्य द्वार खोलते ही इन दिनों दिखाई पड़ जाती है , कभी सामने चाय की दुकान के समीप, तो कभी मुकेरी बाजार तिराहे पर ।  मैं अखबार लगाने के बाद जैसे ही मोबाइल जेब से बाहर निकालता हूँ, क्यों कि ईयरफोन लगा कर अपने मनपसंद गीतों को सुनने की जो आदत सी है , तो वह भी कभी- कभी मुझे ध्यान से देखती है । इधर पिछले दो - तीन दिनों से वह दिखाई नहीं पड़ रही है। पता किया तो मेरे मित्र घनश्याम दास जी ने बताया कि कभी उसका भी घर- संसार था। इसी मुहल्ले में तो दुल्हन बन कर आई थी वह । किसी कारण जहां वह मानसिक रुप से कुछ कमजोर हो गयी, वहीं उसके पतिदेव को अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु पर चपरासी की सरकारी नौकरी मिल गई। वो गाना है न कि साला मैं तो साहब बन गया..। सो, चपरासी बाबू ने अपनी जीवन संगिनी का उपचार कराने की जगह उसे  पागल घोषित कर घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया। अभी युवा  ही है यह महिला, किसी न किसी दुकान के चबूतरे पर रात गुजारती है। मुझे इस बात का भय रहता है कि औराई में जो घटना एक अन्य महिला के साथ हुआ थी, उसकी पुनर्रावृत्ति न हो जाए, कहीं भी ऐसी किसी  मंदबुद्धि स्त्री के साथ । एक दिन पता चला था कि गर्भवती हो गई थी , वह औरत। फिर वहाँ दिखी भी नहीं। ऐसे पुरुष इस तरह से भेड़िए क्यों हो जाते हैं कि मैले -कुचैले वस्त्र में लिपटी एक विक्षिप्त स्त्री भी उनके लिये हवस  मिटाने का खिलौना बन जाती है। जेंटलमैनों आप भी जरा विचार करें कि हम किस दुनिया में जी रहे हैं।
    . याद हो आया है मुझे वर्षों पहले का एक दृश्य और भी, जब एक महिला किस तरह से एक घर की खिड़की के बाहर से टकटकी लगाये अपने जिगर के टुकड़ों को देखा करती थी। घर में उसका प्रवेश वर्जित था। विक्षिप्त होना उसका अपराध था। लेकिन , एक माँ का ममत्व उसमें था, इसलिये सामने चबूतरे पर बैठ अपने छोटे बच्चों को टुकुर- टुकुर ताकने के सिवाय , वह अभागी और कर भी क्या सकती थी। गौरवर्ण था उसका, नाक नक्शा भी तो ठीक ही तो था। बस सिर पर बालों का घोसला कुछ अजीब सा था। बिल्कुल श़ांत स्वभाव की थी वह। फिर भी बच्चे कभी उसके पास नहीं आते थें। आखिर वे धनिक व सभ्य परिवार के जो ठहरें। मां है, तो क्या हुआ , थी तो पगली ही न !  कभी यह नहीं देखा मैंने कि उसे इस घर से खाने के लिये कुछ मिला हो। फिर भी वह आती थी ...

   वैसे, आगे इमामबाड़े पर एक जनाब ऐसे भी मिलते हैं। जो टोपी लगाये  और कुर्ता -पैजामा पहने रहते हैं। अधेड़ावस्था है उनकी,उछल कूद कर नृत्य करते दिखते हैं। परिवार के सदस्य लगता है ,उनका काफी ख्याल रखते हैं। ये पूर्णतः विक्षिप्त नहीं हैं , परंतु वहाँ मौजूद कुछ लोग एक विदूषक की तरह   इनका उपयोग अपने मनोरंजन के लिये करते हैं।  छी ! कितना घटिया सोच है, हम इंसानों की भी । जो मानसिक रुप से कमजोर व्यक्ति को यूँ उकसा कर नचवा रहे हैं ।
 काश ! ये परिहास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से कह पाते कि

मैं तो हूँ एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा
जिसे अपनी खबर ना हो किसी को क्या समझाएगा...

साहब ! यह जोकर का तमाशा नहीं , यह नियति का खेल है। हममें से अनेक को मृत्यु पूर्व इसी स्थिति से गुजरना पड़ेगा। जब चेतना विलुप्त हो जाएगी , अपनी ही पीएचडी की डिग्री पहचान न पाएंगे और उस अंतिम दस्तक पर दरवाजा खोलने की तमन्ना अधूरी रह जाएगी। अतः हम इतना तो कर ही सकते हैं कि कोई इनका उपहास न उड़ाए। यदि शरारती लड़के कहींं इन्हें घेर कर परेशान कर रहे हैं, तो उन्हें नैतिक ज्ञान दें।

    अब अपनी कहूँ तो एक पागल मुझे कलिम्पोंग में मिल गया था। छोटे नाना जी की बड़ी सी मिठाई की दुकान , वहाँ थी। सो, घर छोड़ा तो वहीं शरणार्थी बन गया था। स्नेह सभी करते थें, लेकिन मेरी निगरानी से दुकान में चोरी और मनमानी दोनों ही बंद हो गयी थी।  सो, कुछ नेपाली युवकों ने एक विक्षिप्त व्यक्ति को ढ़ाल बना, मुझे निशाना बनाया। मैं जब कैश काउंटर पर बैठा था उसने एक शीशे का गिलास खींच मारा। मेरे होंठ के ऊपर का हिस्सा बिल्कुल अलग ही हो गाया था। कई टांके लगे थें तब ,फिर डाक्टर साहब ने आश्वासन दिया कि मूंछें थोड़ी बड़ी रख लेना भाई।

     सवाल यह है कि विक्षिप्त जनोंं के लिये हमारी सरकार, हमारा समाज क्या कर रहा है। नियति ने तो इनसे इनकी पहचान छीन ली है। लेकिन, हैं तो वे एक इंसान ही न ? क्या वे इसी तरह से सड़कों पर विचरण करते रहें। रात्रि में इन्हें ठीक से नींद भी कहाँ आती है। भोर होने से पहले ही वे सड़कों पर तमाशा बने दिख जाएँगें। सड़कों पर किसी अज्ञात वाहन के पहिये के नीचे आ अपनी इस घिनौनी जिंदगी से मुक्ति पा लेंगे। अकसर ऐसा ही होता जब कोई अज्ञात व्यक्ति सड़कों पर मरा पड़ा मिलता है और हम पत्रकार पुलिस से कुछ विवरण मांगते हैं, तो रटा रटाया जवाब मिलता है कि भाई वह विक्षिप्त था, शव को पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया गया है। ऐसे अभागों का अंतिम संस्कार भी कम ही हो पाता है, इन्हें तो दबे पांव गंगा मैया के हवाले किया जाता है।
  फिर जरा यह भी विडंबना देखें न कि छुट्टा पशुओं के लिये हमारी सरकार अब पशुशाला बनवाने की बात करती है, पर इन विक्षिप्त इंसानों के लिये खुला आसमान है। कहीं भी पटरियों पर रात गुजार लेते हैं, अच्छा है इन्हें इसकी समझ नहीं है। अन्यथा अपनी उस काली रात को मैं भूल नहीं पाया हूँ। आशियाने के होकर भी न होने की वेदना , समझ सकते हैं न आप !  पर इस बावले मन को क्या कहूँ , गैर और अपनों का फर्क फिर भी समझ ना पाया वो। खैर ...
      पागलखानों का हाल तो हम सभी जानते ही हैं। वहाँ भी जुगाड़ तंत्र होना चाहिए। और एक बात बताऊँ मानसिक रुप से कमजोर ऐसे इंसानों की श्रम शक्ति का कुछ लोग बड़ी चतुराई से अपने हित में उपयोग भी करते हैं। जैसे की एक गांव है कुछ दूर पर ही, जिसके बारे में शोहरत यह है कि यहाँ मानसिक रोगी स्वस्थ हो जाते हैं। सो, दर्जन भर से अधिक मंदबुद्धि वाले लोग यहाँ मुफ्त में चाकरी करते मिलेंगे आपको। जिनसे  यहाँ के ग्रामीण एवं किसान मनचाहा काम लेते हैं, वह भी सिर्फ दो जून की रोटी देकर।
   और बात यदि पागलपन की ही करें, तो हम भी क्या कम हैं,कोई दौलत, कोई सोहरत, तो कोई मुहब्बत की चाहत में विक्षिप्त ही तो है। ऐसे में इन निरीह प्राणियों में भी मुझे एक पैगाम नजर आता है -

जमाने के ग़म भूल वह ठहाका लगाता है
न जाने किस खोज में आँखें झपकाता है
बेशक वह चीखता और चिल्लाता है , फिर भी
दरिया-ए- अश्क़ में डूबे देखा क्या किसी ने उसे
दौलतमंदों के कदमों में दुम  तो ना हिलाता है
वह पागल है, तो इंसान किसे कहते है यारो...



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (मेरे खुदा कहाँ है तू ,कोई आसरा तो दे ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
धन्यवाद
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