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Saturday 21 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 
22/4/18

        कल दोपहर काफी दिनों बाद घर का बना भोजन करने को मिला, नहीं तो अपना मुसाफिरखाना ही जिंदाबाद है ...   
 कामरेड मो0 सलीम भाई की इच्छा थी कि कुछ वक्त साथ गुजर लिया जाए। अन्यथा सुबह होते ही मेरा जो होमवर्क शुरू हो जाता है, वह रात्रि 12 बजे तक समाप्त नहीं हो पाता ।यह मेरे लिये कुछ-कुछ ठीक ही है, व्यस्त रहना मैं स्वयं भी तो चाहता हूं। उधर, सलीम भाई भी अपनी पार्टी के बड़े नेता होने के कारण अकसर गैर प्रांत दौरे पर रहते हैं। दरअसल, हम दोनों में जो एक समानता है, वह यह कि हमने अपनी पहचान नहीं बदली है । मेरी समझ से राजनीति के क्षेत्र में सलीम भाई के पास अपना मौलिक चिन्तन है। वे अच्छे वक्ता  हैं और अपनी पार्टी भाकपा माले के स्टार प्रचारक भी। हालांकि मीरजापुर में उनके राजनैतिक कद के लिहाज से उनका रंगमंच काफी छोटा है...
       पर अपनी झोपड़ी भी गैरों के महल से बेहतर है साहब। अन्यथा मैं भी ढ़ाई  दशक तक एक छोटे से अखबार से यूं ना बंधा रहता। यहां  कलम की आजादी ही मेरी पहचान रही।समाचार संग जब तक उस पर अपना विचार न लिखूं , फिर कैसी पत्रकारिता । हंसी आती है इन तमाम खबरची लोगों को स्वयं को पत्रकार कहता देख कर...
               वैसे इस बार कुछ खास वजह भी थी, सलीम भाई द्वारा मुझे बुलाने का, क्योंकि वे जिन लोगों से स्नेह करते हैं, उनमें एक मैं भी हूं !  हालांकि मैं एक राजनेता नहीं हूं, न ही आज के जमाने का एक पेशेवर मीडिया कर्मी ही हूं। सियासत का " सेकुलर " शब्द मुझे पसंद नहीं है और  "साम्प्रदायिक " मैं हो ही नहीं सकता। भले ही दंगा ग्रस्त इलाके में पला बढ़ा हूं। बचपन में दंगा होने की स्थिति में कितनी ही रात साम्प्रदायिक धार्मिक नारे कानों में गूंजते रहें। अभिभावक भय से कांपते बंद दरवाजे के पीछे रात आंखों में ही गुजारते दिखें। कुछ दिनों तक हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उन इलाके में चला जाऊं , जहां उपद्रव हुये थें। कर्फ्यू की स्थिति में यह जिम्मेदारी मुझे ही अमूमन सौंपी जाती थी कि जैसे ही अवसर मिले, सब्जी मंडी जाकर सामान लेता आऊं। हम लड़कों तब पुलिस वाले अंकल कर्फ्यू के बावजूद भी छूट दे ही दिया करते थें। पर मछोदरी कोयलमंडी की तरफ जाने की अनुमति घर से नहीं मिली थी। वाराणसी में ही नहीं, मैंने तो कालिंगपोंग जैसे पहाड़ी इलाके में भी गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर हिंसा का खौफनाक चेहरा देखा है। कोलकाता ननिहाल में था, तो लाल परचम  और बैनर लिये श्रमिक संगठन नारेबाजी करते हुये आये दिन बड़ाबजार की सड़कों से गुजरते थें। चौथी मंजिल से यह दृश्य अपनी नानी मां के साथ बारजे से देखा करता था। मुजफ्फरपुर में था, तो वहां भी बिहारी दादागिरी थी ही। सम्भवतः इसी लिये मुझे सेकुलर और साम्प्रदायिक राजनीति के ये दोनों ही शब्द नापसंद हैं। खैर, मेरी इस सोच की परख तो यहां मीरजापुर के कर्मक्षेत्र पर होनी थी। सो, यह आप जाने कि मैं पास हुआ कि फेल। हां,  मेरे हिसाब से तो मैंने अपना होमवर्क ठीक ही किया हूं। अन्यथा हर राजनैतिक दल में मेरे मित्र जन हैं, वे जरूर टोकते कि शशि भाई आप में भी उसी गंदगी की बू आ रही हैं। एक बात फिर से बता दूं कि यहां की मीडिया से मैं बहुत उम्मीद नहीं करता कि वह मुझे पसंद ही करे, हां नये लड़कों को मेरी आत्मकथा जम रही है !
  हमारे मित्रों का मानना है कि आत्मकथा में सकारात्मक पन  होना चाहिए। ताकि हमारे संघर्ष से युवा पत्रकार प्रेरणा ले सकें। माना कि उनकी यह सोच भी सही है। पर साथियों अखबारी दुनिया में अब पत्रकारिता बची कितनी है। शुद्ध रुप से व्यापार है यह। वे जो खबरची सीना फुलाए यह कहते हैं कि वे पत्रकार हैं, फलां संगठन के पदाधिकारी रहें या हैं। मैं दांवे के साथ कहता हूं कि अधिकांश ऐसे तथाकथित पत्रकारों के चेहरे से नकाब हटा सकता हूं, आगे तो आये जनाब । फिर दिल पर हाथ रख कर बताये कि विज्ञापन का पैसा जेब में रखकर उसकी जगह समाचार छाप लेना, गोपनीय तरह से निविदाओं के प्रकाशन में सहयोगी बन उस दिन का अखबार का बंडल गायब कर देना , क्या यही पत्रकारिता है। पत्रकारिता जीवन का लम्बा समय पुलिस आफिस में  अफसरों को किसी दरोगा सिपाही को मनचाहा स्थान पर तैनाती दिलवाने के लिये कागज का चुटका थमाने में गुजार देने वालों को यदि आप पत्रकार संगठनों का अगुआ कह दंडवत करते हैं, तो तौबा-तौबा इस पत्रकार जगत से मैं तो हॉकर ही सही। यह बड़ा ही कष्टकारी विषय है कि एक दो खबर लिख लोग पत्रकार बन बैठते हैं। कहां लिखें हैं , वह भी क्षेत्र की जनता नहीं देख पाती है। मित्रों , इससे बेहतर माध्यम अब सोशल मीडिया है। आप पढ़े लिखे नौजवान हो , कम से कम अभिव्यक्ति की जो आजादी सोशल मीडिया के माध्यम से मिली है, उसे तो बर्बाद ना करों। झूठी, भ्रामक, जातीय और मजहबी बातें इस सोशल मीडिया पर मत पोस्ट करों साथियों । बस इतनी सी अपील है आज मेरी।(शशि)

क्रमशः