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Friday 5 October 2018

इस्तीफा जो नज़ीर न बना ..


( बातें,  कुछ अपनी- कुछ जग की )
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   सोच रहा हूँ कि जिस नज़ीर की बात उस समय शीर्ष पर स्थित राजनेता कर रहे थें। उनके उस चिन्तन का क्या हश्र हुआ ,इस आधुनिक भारत में ..?  क्या आज शीर्ष पर बैठें राजनेता, अधिकारी से लेकर परिवार का मुखिया तक किसी भी मामले में नैतिक आधार पर अपनी जिम्मेदारी तय करने को तैयार है ...?
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    आज तबीयत काफी भारी है । यूँ समझ लें  कि बड़ी कठिनाई से अपने अखबार से जुड़े कार्य कर पाया हूँ। फिर भी शाम ढलते ही व्याकुल मन विश्राम की जगह चिन्तन में खो गया है, अपने- पराये को लेकर...
  है न यह एक गीत -

आते जाते खूब्सूरत आवारा सड़कों पे
 कभी कभी इत्तेफ़ाक़ से
कितने अंजान लोग मिल जाते हैं
 उन में से कुछ लोग भूल जाते हैं
कुछ याद रह जाते हैं...

      यह जीवन मेरे लिये यादों का घरौंदा है।  गृहस्थ जीवन के सुख-दुख और किसी अपने के होने की अनुभूति हमारे जैसे यतीम भला क्या जाने.. हम किसी को अधिकार के साथ  पुकार भला कैसे सकते हैं..
  हाँ , इस तन्हा लम्बे सफर में  कुछ अंजान लोग मुझे भी मिले हैं,पर वे अपने तो नहीं होते न ..?
    यतीमों की व्याकुलता का मोल गैरों की भावनात्मक सहानुभूति के चंद शब्द से भला कितना हो सकता है । उसे तो किसी ठोस आश्रय की तलाश रहती है।  हाँ , कभी -कभी भ्रम में ऐसे निराश्रित लोग सराय को अपना आशियाना समझ लेते हैं। फिर जब कभी उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि आप हमारे हैं कौन ..?  बस यहीं उनके जीवन में वह दर्दनाक मोड़ आ जाता है कि उस दुर्घटना के बाद वह अपाहिज से हो जाते हैं । टूट जाते हैं ,बिखर जाते हैं ,फिर भी जब उससे कहा जाय कि सामान्य जीवन जीते क्यों नहीं आप ..
     भले ही स्नेह में ही किसी ने कहा हो,  पता नहीं क्यों भावुक मन यह कैसा सवाल कर उठता है कि देखों न स्वयं तो मक्खन टोस्ट खाये वे और हमसे कहते हैं कि सूखी रोटी पर रहो , यह नज़ीर तो नहीं है न  ? ऐसे प्रिय वचन भी तब कष्टकारी क्यों हो जाते हैं  .. ?? बड़ी विचित्र स्थिति होती है, ऐसे सम्वेदनशील एकाकी इंसान की ।
    मेरा मानना है कि अपने- पराये में दिग्भ्रमित ऐसे पथिक को चाहिए कि राह में मिलते अंजान लोगों का हँस कर अभिवादन करते हुये आगे बढ़ता ही जाए। अन्य कोई विकल्प नहीं शेष है उसके पास, अन्यथा बेवजह ठोकर खाते रहेगा, बार- बार उसे लगेगा कि वह बेगाना है । फिर क्या होगा ...  दो बातें  ...
  पहला ऐसा इंसान हँसता खिलखिलाता रहता है, परंतु एक जोकर ( विदूषक) की तरह । दूसरा ऐसे में उसका वैराग्य भाव जागृत हो उसे  राह दिखला सकता है। हाँ , सार्थक पक्ष यह रहता है कि उसकी सृजनात्मक क्षमता में अप्रत्याशित वृद्धि होती है, ऐसी अनुभूति है मेरी ... यदि आपकों कुछ भी कहना है, लिखना है, तो पहले स्वयं नज़ीर बनना होगा , अपने लिये मार्ग तलाशना होगा, तब जाकर आपकी वाणी  एवं लेखनी में उर्जा प्रजवलित होगी। धैर्य रख के यह चिन्तन करना होगा कि निर्रथक हँसी-ठहाके में दिन गुजारने वाले अपनी क्या कोई नज़ीर छोड़  सकते हैं।  जबकि एकांत में चिन्तन करने वाले अकसर समाज के लिये चिराग बन जाते हैं। जो हर परिस्थितियों में रह कर विरक्त है, वही नर है। जिस तरह से मेरे इर्द गिर्द चाहे जितने भी पकवान हों, पर मेरी दृष्टि सिर्फ चार सूखी रोटियों पर ही होती है..
    कुछ का मानना है कि ब्लॉग पर ऐसा कुछ न लिखा करो कि तुम बावले कहलाओ, परंतु मेरा अपना मत है कि खुलकर लिखें, खुल कर रोये और अपना भेद छिपाने वाले ऐसे लोगों की सोच पर हँसे...
  अपना मन हल्का करने के लिये ही न हम धर्मस्थलों पर जाते हैं। एकांत में ईश्वर के समक्ष अपनी गुनाहों को कबूल करते हैं। लेकिन फिर भी चेहरे पर नकाब लगा समाज में महान बनने का दिखावा करते हैं.. याद रखें यह कोई नज़ीर नहीं है । यह छल हमें मुक्त न होने देगा इस जीवन से ...


  इस प्रार्थना के साथ ..

तुम्हीं हो माता, पिता तुम्ही हो,
तुम्ही हो बंधु सखा तुम्ही हो
तुम्ही हो साथी तुम्ही सहारे,
कोई न अपना सिवा तुम्हारे ..

 आत्मबल को विकसित करते हुये ,  हम यतीमों को अपना सामाजिक दायित्व निभाते रहना चाहिए।
  वैसे तो, ब्लॉग को मैं परनिन्दा से दूर ही रखना चाहता हूँ । फिर भी एक पत्रकार हूँ , तो मुझे ऐसे महान राष्ट्र नायक एवं सादगी पसंद महापुरुषों को श्रद्धा सुमन अपनी लेखनी के माध्यम से अर्पित करनी ही चाहिये, ऐसी प्रबल इच्छा हुई  2 अक्टूबर को मन में ..
   
      राष्ट्र के सादगी पसंद दो कर्मयोगियों की जयंती चहुंओर मनायी गयी । राष्टपिता महात्मा गांधी जिन्होंने गुलामी की जंजीरों से देश को मुक्त कराया और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, जिन्होंने जय जवान जय किसान का उद्घोष किया। भारत को खाद्यान्न के मामले में स्वालंबी बनाया।
    बापू पर तो हर कोई लिख रहा है, मैं तो शास्त्री जी के उस त्यागपत्र पर चिंतन कर रहा हूँ, जो उन्होंने नेहरू जी की सरकार में रेलमंत्री रहते अपने पद से तब दिया था, जब रेल दुर्घटना हुई थी। वर्ष 1956 में महबूबनगर रेल हादसे में 112 लोगों की मौत हुई थी। इस पर शास्त्री जी ने इस्तीफा दे दिया। इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकार नहीं किया। तीन महीने बाद ही अरियालूर रेल दुर्घटना में 114 लोग मारे गए। उन्होंने फिर इस्तीफा दे दिया। तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उस त्यागपत्र को स्वीकारते हुए संसद में कहा कि वे यह इस्तीफा इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि यह एक नज़ीर बने, इसलिए नहीं कि हादसे के लिए किसी भी रूप में शास्त्री जिम्मेदार हैं।
    अब सोच रहा हूँ कि जिस नज़ीर की बात उस समय शीर्ष पर स्थित राजनेता कर रहे थें। उनके उस चिन्ता एवं चिन्तन का क्या हश्र हुआ ,इस आधुनिक भारत में ..? शीर्ष पर बैठें राजनेता, अधिकारी से लेकर परिवार का मुखिया तक किसी भी मामले में नैतिक आधार पर अपनी जिम्मेदारी तय करने को तैयार है ? जनप्रतिनिधि, अधिकारी, पत्रकार, वह हर प्रबुद्ध वर्ग , जो इस समाज से जुड़ा है.. यह नैतिक त्यागपत्र सबके लिये है। आपकों बताऊँ , मैं जिस मीरजापुर जनपद से हूँ , यहाँ एक सियासी जुमला मशहूर है , " नयी सड़क गड्ढ़े वाली  "।
    कितने ही करोड़ की लागत से सड़कें बन रही हैं और छह माह भी नहीं गुजर पाता कि धूल उड़ाती इन नवनिर्मित सड़कों का नामकरण नयी सड़क गड्ढे वाली हो जाता है।  कहाँ तो हमारे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गड्ढ़ा मुक्त सड़क की बात कही थी, किन्तु पिछली अखलेश सरकार से भी बुरा हाल है, इन सभी सड़कों का..
   किसी भी मंत्री, स्थानीय जनप्रतिनिधि  या फिर अधिकारी ने यह प्रयास नहीं किया कि स्थलीय निरीक्षण करे वह। इनमें इतना आत्मबल नहीं है , जो ऐसा करें वे। अतः नैतिक जिम्मेदारी और नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र ऐसे शब्द राजनीति के भेंट चढ़ गये हैं, इस अर्थ युग में। बचा कुछ भी नहीं.. ?
     एक पैमाना होना चाहिए शीर्ष पर बैठे राजनेताओं का ,अधिकारियों का ,समाज और घर के मुखिया का जनप्रतिनिधियों का कि यदि किसी भी कार्य में घोर अनियमितता की शिकायत सामने आयी, तो उन्हें अपने अंतरात्मा की आवाज सुनकर उस घोटाले, भ्रष्टाचार और लापरवाही के लिये स्वयं की भी जिम्मेदारी तय करें, न कि नीचे वाली कुर्सी पर बैठे किसी शख्स की बलि चढ़ाना चाहता है । इन दिनों जिले में क्या हो रहा है, नवनिर्मित सारी  सड़कें टूटती जा रही हैं। नयी सड़क गड्ढ़े वाली का यह शोर अखिलेश की सरकार से भी कहीं ज्यादा योगी आदित्यनाथ के शासन काल में हैं। लेकिन, जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि अथवा अधिकारी ने इसकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली। कार्यदायी संस्था को काली सूची में डालने की कार्रवाई सुनिश्चित नहीं की। अपने दायित्व ( पद/ कुर्सी ) का भी त्याग नहीं किया, तो फिर कैसा नज़ीर। क्यों याद रखे लोग आपकों ..
      एक बात और जब भी इस चकाचौंध भरी दुनिया में मैं व्याकुलता का अनुभव करता हूँ  ,स्वयं को शास्त्री जी के दर्पण के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ, क्यों की यह एक नज़ीर है।
    उनकी सादगी को नमन करता हूँ , एक उर्जा मुझमें समाहित होती दिखती है। वह है सादगी की, ईमानदारी की, कर्मठता की ,नैतिक कर्तव्य की और उस नैतिक त्यागपत्र की भी।
   बापू के प्रिय इस भजन के साथ आज की अपनी बात को विराम देता हूँ...

 वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाणे रे,
पर दु:खे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे ॥

      बापू की लंगोटी और शास्त्री जी की सादगी निश्चित ही मेरे लिये एक नज़ीर है।


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (इस्तीफा जो नज़ीर न बना... ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |