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खेलो ना दिल से किसी के
ये खिलौना तो नहीं
ताउम्र तड़पता है जिस्म
जब छलता है कोई
ख़्वाबों को राह दिखला के
मुकर जाते हैं जो लोग
दर्द तन्हाई का दे
फिर ना नज़र आते है क्यों?
जो चमकते थें कभी
इश्क़ में आईना बन के
टूटे कांच से बिखरे हैं
अब इक कराह है लिये
जख़्म ऐसा भी न दो
जिसका मरहम ही न हो
बुझती शमा की
रोशनी की है तुझको कसम
सांसों की धड़कनें बन
ना बढ़ा फिर फ़ासले दिल के
मासुमियत का नक़ाब तेरा
जला देगा किसी का घर
हो ऐब कितने भी तुझमें
पर फ़रेब तो ना कर
इंसानियत को बना मज़हब
धर्म के मर्म को समझ
किताबों में ना ढूंढ इसे
है मोहब्बत ही इक मज़हब
- व्याकुल पथिक