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Thursday 5 April 2018

व्याकुल पथिक 5/4/ 18

आत्मकथा

 मित्रों , यह न समझे कि मैं यह आत्मकथा जो लिख रहा हूं वह सिर्फ व्यथा कथा है अथवा ऐसा कर मैं इस समाज की सहानुभूति प्राप्त करना चाहता हूं, या फिर किसी से कोई मदद सहयोग चाहता हूं। मैंने अपने जीवन शैली को इतना साधारण बना लिया हूं कि आर्थिक सहयोग तो अब किसी से लेने की बिल्कुल ही जरुरत नहीं है मुझे। ढ़ाई दशक से श्रमिकों से भी कहीं अधिक पसीना बहा रहा हूं, तो दो जून की रोटी ईमानदारी से संचित धन से मिलना तय है। फिर क्यों लिख रहा हूं, यही सवाल हो सकता है न आपका। तो सुनें मेरे भाई , मैं यह आत्मकथा अपने उन साथी मित्र पत्रकारों के लिये लिख रहा हूं , जो ईमानदारी की राह पर चल कर एक अच्छा पत्रकार बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। उन्हें बताना चाहता हूं कि जिले में रह कर पेशे के प्रति सिर्फ ईमानदार होने से ही सफलता नहीं मिलती है, इस अर्थ युग में। बड़ा सवाल है कि आपके प्रेस का मालिक क्या चाहता है। जाहिर है कि आपकी ईमानदारी में उस समाज की कोई भूमिका तो शामिल रहेगी नहीं। जिसके लिये आप यह जहर निगल रहे हैं। यदि आप किसी मामले में फंसे, तो यही समाज आपको बेचारा कह किनारे हो लेगा। वह आपके लिये आगे नहीं आएगा, क्योंकि आप कोई स्टार राजनेता  अभिनेता अथवा प्लेयर तो है नहीं। जो की लोग आपके लिये सड़कों पर उतर आयें। फिर आपको जो बड़ी उम्मीद रहती है, इस संकट काल में कि प्रेस के मालिकान अपकी मदद करें। परंतु मेरा विश्वास करें मित्रों कि यदि आप यह सोचते है कि आपका सम्पादक आपकी मदद करेगा, आर्थिक सहयोग करेगा, वह यह समझेगा कि आपको साजिश के तहत विरोधियों ने फंसाया है, क्योंकि आप एक ईमानदार , कर्मठ और स्वाभिमानी सम्वाददाता रहे हैं। आपने किसी प्रलोभन के सामने घुटना अपने लम्बे पत्रकारिता जीवन में नहीं टेका है। आपने धन की चाहत में अखबार नहीं बदला है । आपकी खबरें वर्षों से पाठकों में पसंद की जा रही है। आपने कलम के अतिरिक्त जीवनयापन के लिये और किसी धंधे का सहार  भी नहीं लिया है। और सबसे बड़ी बात की आपने खबर गलत नहीं लिखी है। मीडिया का यह जो व्यवसायीकरण है, इस दौर में आपका सम्पादक कुछ भी दलील आपकी सूनने को तैयार नहीं होगा साथियों। उलटे वहां भी आपकों तिरस्कार मिलेगा, अपमान मिलेगा, चेतावनी मिलेगी कि मामला जल्दी सुलटा लो। क्यों बवाल पालते हो बेजा। परंतु आपकों जिले स्तर की इस पत्रकारिता में आपके प्रेस मालिक की तरफ से मुकदमा लड़ने के लिये धन छोटे अखबारों  से फिर भी नहीं मिलेगा। फिर क्या करोंगे आप , कैसे लड़ोगे केस ? पहले से ही आप व्यथित हैं कि साजिशन फंसाये जो गये हैं। और अब पैसे की तंगी। मैं इसलिये आपकों सचेत कर रहा हूं। फिर फलां अखबार या चैनल के पत्रकार का तमगा आपका कितना सहयोग करेगा। इन ढ़ाई दशक में मेरे ही आंखों के सामने से कितने ही तपे तपाये पत्रकार गुमनाम से हो गये हैं। कुछ कब चले गये इस दुनिया से ,पता भी नहीं चला। तो मित्रों सोच लो फिर से कि ईमानदार पत्रकार बनना चाहते हो  या फिर जुगाड़ू । इन दिनों जिला प्रतिनिधि भी अपने को ब्यूरोचीफ ही कहने लगे हैं। इस शब्द में कहीं अधिक हनक है। पर कोई ब्योरा कर रहा है, तो वह भी जगजाहिर है। छुपा कुछ भी नहीं है मेरे भाई। मैं भी चाहता तो जुगाड़ू पत्रकार बन सकता था। युवाकाल में पुलिस महकमे से जुड़ी मेरी खबरों की हनक वाराणसी आईजी दफ्तर तक होती थी। इसी कारण कितने ही एसपी रात में होमगार्ड थाने पर भेज कर गांडीव मंगाना नहीं भुलते थें। हां मैंने अच्छे अफसरों की मदद भी की है। परंतु काम किसी से कोई नहीं करवाया। यदि उस तपे हुये बाजार में मैं चाहता तो दलाली न सही बीमा का काम तो कम से कम आसानी से कर ही लेता। कई साथी पत्रकार इस धंधे से मालामाल हुये भी हैं। परंतु ऐसे ऑफर मुझे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं थें। मैं सिर्फ पत्रकार ही बने रहना चाहता था, ताकि कोई यह न कहे कि यह तो पत्रकारिता का नकाब पहने बीमा कर्मी है। यह अपने पहचान और पावर का दुरुपयोग कर रहा है। एक आईएएस बहुत उदार थें पत्रकारों के प्रति , सो उन्होंने मेरा परिश्रम देख स्नेह से बड़े भाई की तरह समझाया भी कि कुछ अपने लिये भी सोचा है। तब पत्रकार कम हुआ करते थें। ऐसे आला अधिकारी उनकी हर सम्भव मदद को भी तैयार रहते थें। पर मेरा एक ही जवाब रहता था कि साहब हॉकर और पत्रकार के अतिरिक्त और कोई पहचान नहीं चाहता....
(शशि)
क्रमशः