Followers

Friday 13 December 2019

दुःख तो अपना साथी है ( जीवन की पाठशाला)


***********************
   मैं स्वयं को यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि जब कोई ऐसा दुःख हमारे चित में समा जाता है,जिसे हटाना असम्भव- सा लगता है। हमें ऐसे महापुरुषों के जीवनचरित्र पर दृष्टि डालनी चाहिए। सच तो यह है कि दुःख जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है। हृदय में जमा यह बूँद-बूँद दर्द ही मानव की मानसमणि है ।
***********************
    वैसे तो इनदिनों मैं सुबह के भोजन में दलिया - दाल से काम चला ले रहा हूँ और रात  दूध संग दलिया अथवा ब्रेड से कट जाती है।
  मेरे भोजन की थाली का स्वाद तो माँ (नानी) की मृत्यु के पश्चात ही छिन गया था और फिर तबसे  बड़े-बुजुर्ग का यह ज्ञानोपदेश ही काम आ रहा है - " दाल-रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ । "
जिसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन में परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हो, परंतु संतोष रूपी धन का त्याग उसे नहीं करना चाहिए। हम अपने संतोष से अमीर और अभिलाषाओं से दरिद्र हैं ।
    फिर भी विगत रविवार को यह इच्छा हो ही गयी कि क्यों न दाल-रोटी संग मौसी जी द्वारा दिया गया नींबू अचार खाया जाए। वैसे, यह मेरी  लालसा ही थी,जो मुझपर भारी पड़ी , क्योंकि  आटा गूंथने के पश्चात जैसेही रोटी बेलना प्रारंभ किया, बाएँ हाथ के अँगूठे वाले हिस्से की झुनझुनी के कारण बेलन को ठीक से संभाल  नहीं पाया। परिणाम यह रहा कि रोटियाँ फूलने की जगह जल गयीं। कभी तो सभी मेरी तारीफ  किया करते थें कि रोटी बनाने की कला में तुम इतने निपुण कैसे हो ,परंतु अब इन जली रोटियों को देख हृदय में खिन्नता हुई कि क्या यह नयी बीमारी मुझे विकलांगता की ओर ले जाएगी ?
  बचपन में कोलकाता में था , तो अस्वस्थ माँ ने मुझे पाकशास्त्र का ककहरा सीखाया था,जब रोटी अथवा परांठे ठीक से नहीं बनते अथवा जल जाया करते थें , माँ मुस्कुराते हुये मेरा उत्साह बढ़ाती थी । तब मैं बारह वर्ष का ही था और आज जीवन में अर्धशतकीय पारी खेलते हुये , उसी स्थान पर पहुँच गया हूँ, जहाँ से सीखना प्रारम्भ किया था । हाँ,अब माँ नहीं हैं, जो मुझे ढांढस दे। दिसंबर माह का वह 26 तारीख और कोलकाता का वह महाश्मशान मैं कैसे भूल सकता हूँ । वर्षों गुजर गये , इसके पश्चात मैं किसी भी प्रियजन की अंतिम संस्कार  यात्रा में सहयोगी नहीं हुआ और यह भी जानता हूँ कि मेरी मृत्यु के पश्चात मेरा भी ऐसा कोई रक्त संबंध नहीं है जो मुझे मुखाग्नि दे , परंतु इसके लिए मेरे पास मित्रों की टोली है।
 खैर, इन जली हुई रोटियों को थाल में डाली और क्षुधा शांत करने में जुट गया।  तभी मुझे टीवी पर आने वाले धार्मिक धारावाहिक महाकाली  में भगवती का यह कथन, "अंत ही आरम्भ है" का स्मरण हो आया। महामाया की इस ओजस्वी वाणी ने मार्गदर्शन किया और मैं महाभारत काल के एक पात्र एकलव्य के जीवनसंघर्ष पर विचार करने लगा। जिसकी धनुर्विद्या कला से अर्जुन ही नहीं उसके गुरु द्रोणाचार्य भी स्तब्ध थें और उसे अँगूठा विहीन कर दिया था, उसी एकलव्य ने अपने दृढनिश्चय से  तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाना सीख लिया। यहीं से धनुर्विद्या के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ।
      मेरे लिये यह उद्धरण इसलिए मायने रखता है कि मैं भी सिर्फ उँगलियों से बेलन संभालना सीख लूँ।  विपरीत परिस्थितियों में ही आत्मबल की परीक्षा होती है। यह आत्मबल ही है जो हमसे कहता है- " उठो, अपने पूरे सामर्थ्य से निरंतर उठो और अपनी मंजिल को हासिल करो।"
 सत्य यही है कि यदि हम अपने आत्मबल को झुकने न दें,तो कोई अपमान हमें गिरा नहीं सकता है और न कोई दंड हमें पीड़ित कर सकता है।
 मैं कुछ ऐसा ही आध्यात्मिक चिंतन कर रहा था कि मेरे मित्र नितिन अवस्थी आ गये । हमदोनों समाचार संकलन के लिए टांडा जलप्रपात की ओर निकले , परंतु मार्ग में बथुआ गांधीघाट स्थित अघोरेश्वर बाबा कीनाराम का आश्रम दिख गया। वहाँ हुई विशेष सजावट और आश्रम में बंगाल ,  चंदौली, वाराणसी,जौनपुर एवं सोनभद्र समेत विभिन्न जनपदों से आये अघोरियों और भक्तों की भीड़ देख हम भी वहाँ पहुँच गये। सामने मुख्यद्वार पर खड़े मेरे एक दिव्यांग मित्र दीपू भाई ने आवाज लगाई - भैया आइए , इस आश्रम को सुव्यवस्थित करने वाले बाबा दीनानाथ राम के परिनिर्वाण दिवस पर आज भंडारे का आयोजन है। सो, हमदोनों ने भी बाबा के समाधि स्थल को नमन कर प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद स्वरूप मिले हलवे एवं घुघरी ने हमारी क्षुधा को तृप्त कर दिया। यहाँ किसी भी प्रकार का आडंबर मैंने नहीं देखा। अघोरियों की टोली ने मुझे फोटोग्राफ लेते देख टोका कि उनका फोटो न लिया जाए, परंतु जब मैंने बताया कि हम पत्रकार है और समाचार संकलन के लिए आए हैं, तो उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा कि ठीक है फोटो ले लो और साथ ही अपने समाचारपत्र के माध्यम से उनका यह संदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक अवश्य पहुँचा दिया जाए कि वे सभी कैलाश मानसरोवर का दर्शन करना चाहते है।
   आश्रम की व्यवस्था संभाले शीतलाराम बाबा और उनके सहयोगी प्रवीणराम बाबा ने बताया कि वर्ष 1994 - 95 में बाबा दीनानाथ राम का पदार्पण यहाँ हुआ था । उन्होंने आश्रम को सुरक्षित रखने के साथ ही सैकड़ों वृक्ष रोपित किये जो आज पूरे आश्रम को हरा-भरा बना अपनी छाया प्रदान करते हुए पर्यावरण को संरक्षित रख रहे हैं । उन्होंने कहा कि गुरुपरंपरा के तहत उनके विचारों को आगे बढ़ाने में संतसमाज लगा हुआ है ।
  इसीबीच एक वाहन आश्रम में प्रवेश करता है साथ ही भक्तगण अनिलराम बाबा का जयघोष करते हुए उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके चरणों में झुकते हैं। बाबा का आश्रम पड़ाव (काशी) में है। अत्यंत मृदुल स्वभाव के बाबा अनिलराम से जब हमने पूछा कि आपकी उपासना पद्धति क्या है ? तो प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा कि गुरु द्वारा बताए गये मंत्र का निरंतर जाप वे सभी करते हैं और साथ ही कुछ सामाजिक कार्य भी, पुनः मैंने प्रश्न किया कि औघड़ों का भोजन सादगीपूर्ण क्यों नहीं होता ?
 उन्होंने कहा कि जो भूखा है, विकल्प के अभाव में उसके समक्ष जो भी खाद्यसामग्री होगी, वह उसे ग्रहण करेगा ही..?
  अघोरियों के भोज्यपदार्थ को लेकर सवाल उठता है ,लेकिन सत्य तो यह है कि वे इस ढकोसले से मुक्त हैं कि अमुक दिन मांसभक्षण करना चाहिए और अमुक दिन इसलिये नहीं, क्योंकि वह किसी देवी- देवता के पूजा- आराधना से जुड़ा है। जैसे नवरात्र, सावन अथवा मंगल - वृहस्पतिवार आदि।
   अनिलराम बाबा के साथ इटली से आए गुरु बाबा भी थें। ये सभी अवधूत भगवान राम के प्रिय शिष्य हैं।
 चित्र बाबा यहाँ की व्यवस्था संभाले हुये थें। भंडारे में दूरदराज से आए भक्तों की सेवा में जटा बाबा, दीपू, राजू, गुलाब, नंदन, रवि, विनोद , शशि सिंह डॉक्टर बिंदु आदि लगे हुये दिखें । बाल भोग के बाद भंडारे में प्रसाद ग्रहण करने के बाद संतों में कंबल वितरित किया गया।
   बताते चलें  कि अनिलराम बाबा ने ही अवधूत भगवान राम को अपना एक गुर्दा दिया था । उन्होने कहा कि गुरु के लिए शीश भी कटाना पड़े तो यह उसका परम सौभाग्य है। यह बात वर्ष 1988 की है ,जब बाबा अवधूत भगवान राम न्यूयॉर्क में भर्ती थें । उनकी बीमारी के दौरान उन्हें चिकित्सकों ने गुर्दा प्रत्यारोपण का सुझाव दिया । अनिलराम बाबा को लाखों भक्तों के मध्य अपनी एक किडनी सहर्ष देने का परम सौभाग्य मिला। उनका गुर्दा निकालकर अवधूत भगवान राम को लगाया गया । जिसके पश्चात अघोरेश्वर कई वर्षों तक अपने शिष्यों पर कृपा बरसाते रहें। बाबा की मृत्यु 29 नवंबर 1992 में मैनहट्टन, न्यूयार्क में हुई। वाराणसी के पड़ाव स्थित आश्रम के समीप उनकी भव्य समाधि है। अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य, संत कानीराम (जन्म  1693) के पश्चात अवधूत  भगवान राम ( जन्म 1937) का ही विशेष उल्लेख है।
   काशी में अघोरेश्वर भगवान राम के अंतिम संस्कार के समय मैं मालवीय पुल (तब राजघाट पुल,) पर खड़ा था और अपार जन समुदाय को देख आश्चर्यचकित भी था। यह वह दौर था, जब घर पर दादी के अतिरिक्त मेरा अपना कोई नहीं था और मैं घर से पैदल ही विभिन्न धर्मस्थलों  और दरगाहों पर जाया करता था। इसी क्रम में अपने घर कतुआपुरा( विशेश्वरगंज ) से पड़ाव स्थित अघोरेश्वर के आश्रम भी धीरे-धीरे घूमते-टहलते पहुँच जाता था। जेब मैं पैसा तो था नहीं,अतः वहाँ जो भी  प्रसाद मिलता , ग्रहण कर लेता था ।
------------------------------------
   संक्षिप्त में कहा जाए तो -" सबकुछ का अवधूनन कर, उपेक्षा कर ऊपर उठ जाना ही अवधूत पद प्राप्त करना है।"
------------------------------------
     यहाँ मेरे चिंतन का विषय यह है कि ऐसे सिद्ध पुरुष भी सृष्टि के नियम को नहीं बदलते हैं। हाँ, वे अपनी आत्मशक्ति से स्वयं को शारीरिक कष्टों से  ऊपर उठा लेते हैं।
   गुर्दा प्रत्यारोपण के पश्चात जब अवधूत भगवान राम पुनः गंभीर रुप से अस्वस्थ होने के कारण उपचार के लिए अमेरिका गये ,तब भी वे पद्मासन में ध्यानमुद्रा में झूमते और कुछ- कुछ बुदबुदाते रहते थें।
   स्वामी विवेकानंद को ही लें । उल्लेख है कि जॉन पी फॉक्स को एक पत्र लिखते वक्त स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "मुझे साहस और उत्साह पसन्द है। मेरे समाज को इसकी बहुत ज़रूरत है। मेरा स्वास्थ्य कमज़ोर हो रहा है और बहुत समय तक मुझे ज़िन्दा बचने की उम्मीद नहीं है।"
   स्वामी विवेकानन्द को पता था कि उनकी  मृत्यु कब होगी। उनकी चेतना समय के साथ बढ़ती जा रही थी। इस बढ़ती चेतना को शरीर का संभाल पाना संभव नहीं था। विवेकानन्द कहते थें कि एक वक्त ऐसा आएगा जब उनकी चेतना अनन्त तक फैल जाएगी। उस वक्त उनका शरीर इसे संभाल नहीं पाएगा और उनकी मृत्यु हो जाएगी। कहा यह भी जाता है कि 39 वर्ष की अवस्था में ही स्वामी जी को 30 बड़ी गम्भीर बीमारियाँ हुईं। इसके बाद भी  स्वामी विवेकानन्द दैनिक कार्य किया करते थे। महानिर्वाण के पूर्व तीन घंटे तक उन्होंने योग किया था।
 स्वामी विवेकानंद जी के गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस तो सिद्ध पुरुष ही थें। वे कैंसर से पीड़ित थें, परंतु माँ काली से स्वयं केलिए कभी कोई कामना नहीं की ।
  जबकि स्वामी रामतीर्थ को उनके छोटे से जीवनकाल में  ही एक महान् समाज सुधारक, एक ओजस्वी वक्ता, एक श्रेष्ठ लेखक, एक तेजोमय संन्यासी और एक उच्च राष्ट्रवादी का दर्जा प्राप्त हुआ। स्वामी जी ने अपने असाधारण कार्यों से पूरे विश्व में अपने नाम का डंका बजाया। मात्र 32 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने प्राण त्यागे थें ।  इस अल्पायु में उनके खाते में जुड़ी अनेक असाधारण उपलब्धियाँ यह साबित करती हैं कि अनुकरणीय जीवन जीने के लिए लम्बी आयु नहीं, ऊँची इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। उनका स्वास्थ्य भी काफी बिगड़ गया था और वर्ष 1906 को दीपावली के दिन  गंगास्नान करते समय उन्होंने जलसमाधि ले ली | इनका जन्म और देह त्याग दोनों ही दीपावली के दिन हुआ था |
    मैंने अपनी माँ को ही देखा था कि वे गंभीर रुप से दमा सहित अन्य बीमारियों से पीड़ित थीं। उनका एक पांव भी जाता रहा। वे खड़ी नहीं हो सकती थीं। फिर भी उनकी इच्छाशक्ति इतनी दृढ़ थी कि वे मचिया पर बैठ कर खिसक-खिसक कर नित्यकर्म करती थीं। वे ठाकुरबाड़ी को पुष्पों से प्रतिदिन सजाती थीं। बेलपत्रों पर चंदन से रामनाम लिखती थीं । असाध्य रोगों ने उन्हें असहनीय कष्ट दिया, परंतु वे न तो कभी क्रोधित हुईं , न ही विचलित।  वे नियमित रुप से सुबह 6बजे ट्रांजिस्टर पर भजन सुनने के पूर्व मुझे जगाकर पढ़ने भेजती थीं।  बाबा को अपने काम से फुर्सत नहीं था और मैं सिर्फ 12 वर्ष का ही था। विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने जीवन के संध्याकाल को जिस प्रकार से ईश्वर को समर्पित किया, वह मेरे लिये प्रेरणास्रोत है कि मैं भी झुनझुनी भरे अपने बायें हाथ से अपने अनिश्चित भविष्य को लेकर विकल होने के स्थान पर नित्यकर्म करने का अभ्यास कर लूँ , ताकि नेत्रों की मंद होती ज्योति मुझे उस दिव्यप्रकाश से वंचित न कर सके,जिसकी अनुभूति मुझे ऐसे अध्यात्मिक विषयों पर चिंतन करते समय होती है। नियति ने मेरे लिये जो भी तय कर रखा है , उसे उपहार समझ स्वीकार कर लूँ।
  अतः मैं स्वयं को यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि जब कोई ऐसा दुःख हमारे हृदय में समा जाता है,जिसे हटाना असम्भव- सा लगता है, तो हमें ऐसे महापुरुषों के जीवनचरित्र पर दृष्टि डालनी चाहिए। जिनके पृष्ठों पर हमारे जैसे अनेक दुःख मिलेंगे, परंतु साथ ही बराबर जीवन में अग्रसर होते जाने का उल्लेख भी मिलेगा।
 " हृदय में जमा बूँद-बूँद दर्द ही मानव की पारसमणि है और यही दुःख जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है। "
  अपनी बात स्वामी रामतीर्थ के इस शक्तिदायी  विचार के साथ समाप्त कर रहा हूँ-
" दुःखी व्यक्ति को चुपचाप अपना दुख भोग लेना चाहिए। बाहर धुआँ उड़ाने से क्या लाभ ? भीतर ही जब धुआँ प्रकाश में न बदल जाए तब तक किसी से कुछ कहना व्यर्थ है । धुएँ के बाद अग्नि अवश्य जल उठेगी- यह प्रकृति का नियम है।"


   --व्याकुल पथिक