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Saturday 13 June 2020

जीवन-संघर्ष

    जीवन-संघर्ष
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   शनैः शनैः  समुद्र के तूफ़ानों से टकरा कर जीवनरूपी यह नाव भी थक कर एक दिन डूब जाएगी, किन्तु इसमें एक " अभियान " होगा। इसीलिए हमें यह समझना होगा कि समुद्र तट जो नावें खड़ी हैं, चक्रवात आने पर जब यह सागर उन्हें भी निगल लेगा, तब क्या इनकी "टाइटैनिक" जैसी पहचान संभव है ? 
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    इन दिनों 68 वर्ष के फ़र्नीचर वाले भैया पहले से कहीं अधिक श्रम करने के बावजूद स्फूर्ति से लबरेज़ हैं। सुबह चार बजे से ही उनका कार्य शुरू हो जाता है। साफ़ सफाई, गमले में पानी देना, कपड़े की धुलाई, अपनी बीमार धर्मपत्नी को स्नान कराना , चाय-जलपान आदि सेवा-सुश्रुषा भी उन्हें ही करनी पड़ती है। सुबह इसी के मध्य वे अक्सर ही समीप स्थित एक वाटिका में चले जाया करते हैं, क्योंकि वे एक योग प्रशिक्षक हैं और वहाँ योगसाधक उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसके पश्चात प्रातः नौ बजे से रात्रि आठ बजे तक घर में ही स्थित अपने प्रतिष्ठान पर तगड़ी ड्यूटी भी उनकी होती है। इसी प्रकार पिछले कुछ दिनों से प्रतिष्ठान और घर का कार्य वे अकेले ही संभालते आ रहे हैं, क्यों कि अस्वस्थ होने के कारण उनका इकलौता पुत्र अपने उपचार के लिए सपत्नीक बाहर गया हुआ है। उसे ठीक होकर वापस लौटने में दो-ढ़ाई महीने लग सकते हैं। 
     लोकबंदी में डगमगाती अर्थव्यवस्था के मध्य पत्नी के पश्चात पुत्र की बीमारी को उन्होंने हतोत्साहित होने की जगह एक चुनौती के रुप में  लिया है। और इस संकट का मुकाबला करने के लिए स्वयं को मानसिक और शारीरिक रुप से तैयार कर लिया है। भैया कहते हैं कि उन्हें जैसे ही यह सामाचार मिला कि उनके पुत्र को दो महीने तक उपचार की दृष्टि से बाहर ही रहना है, उन्होंने अपनी सारी पीड़ा को झटक दिया है। अब उन्हें आभास नहीं होता है कि उनके घुटने में कभी दर्द भी हुआ करता था।  घर के साथ दुकान का कार्य और ख़र्च दोनों ही उनका बढ़ गया है, किन्तु जीवन संग्राम में यही स्थिरता एक सच्चे योग पुरुष की पहचान है,जिसके लिए जीवन के तिक्त और मधुर क्षण एक समान होते हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का अगर दृढ़ संकल्प के साथ सामना किया जाए,तो वे हमारे लिए अभिशाप नहीं वरदान बन सकती हैं। विपत्तियों में हमें पराक्रम दिखलाने का अवसर मिलता है। जिससे हमारे जीवन में निखार आता है। ये चुनौतियाँ मनुष्य को उसकी सोयी हुई शक्तियों से परिचित कराती हैं।
   
     मैं इसी संदर्भ में उन्हीं के प्रतिष्ठान पर बैठा चिंतन कर रहा था कि तभी एक अंग्रेज़ी फ़िल्म का स्मरण हो आया। कोलकाता में छोटे नाना जी के घर मैंने इस फ़िल्म को देखी थी। जिसकी कहानी यह है कि एक फ़ौजी राह भटक कर जंगल में चला गया , जहाँ उसका सामना ऐसे विचित्र भयावह जीव से हुआ , जिस पर उसकी राइफ़ल की गोलियाँ निष्प्रभावी थी । यह देख वह सैनिक छद्म युद्ध कर रहा था। उस विचित्र जीव का कई दिनों तक इसी पर  प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साहसपूर्वक सामना करते हुये वह बूरी तरह से घायल होकर थक गया था। उसे ऐसा लगने लगा था कि उसकी मानवीय शक्ति इस हिंसक प्राणी का मुकाबला नहीं कर पाएगी, फ़िर भी उसने अपनी मृत्यु के समक्ष शुतुरमुर्ग सा नेत्र बंद कर समर्पण नहीं किया। अंततः जब वह युद्ध करने में पूरी तरह से असमर्थ हो जाता है, तो उस विचित्र प्राणी को ललकारा है, मानों अपनी मौत की आँखों में आँखें डाल कह रहा हो - 
 "आ, अब तू मेरा भक्षण कर ले।" 
 और जैसे ही वह प्राणी सैनिक पर हमला करने को होता है। हेलीकॉप्टर की आवाज़ सुनाई पड़ती है, जिसमें बैठे उसके मित्र ने लेज़र गन से उस हिंसक जीव पर प्रहार कर के उसका काम तमाम कर दिया था। सैनिक जीवित बच जाता है। किन्तु दो घंटे की फ़िल्म के प्रारम्भ में सैनिक ने यदि बिना संघर्ष किये ही उसे अपनी मौत समझ घुटने टेक देता तो क्या होता  ? पहला उसकी मृत्यु , क्यों कि उसे खोज रहा उसका मित्र उसतक नहीं पहुँच पाता और दूसरा यह कि एक सैनिक के दुर्दम जिजीविषा भरी यह रोमांचकारी संघर्ष कथा इस चलचित्र पर नहीं होती।

    यदि मैं अपनी बात कहूँ तो , इस लोकबंदी में पिछले दो माह तक मैं सुबह साइकिल से अख़बार वितरण के लिए नहीं निकला। किसी तरह का शारीरिक श्रम भी नहीं किया। परंतु मेरे स्वास्थ्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया।   वर्ष 1998 में जब से मैं मलेरिया से पीड़ित हुआ हूँ और इसी प्रकार के शारीरिक कष्ट में ही दो दशक तक प्रतिदिन सुबह से दोपहर तक समाचार संकलन और लेखन , पुनः मौसम कैसा भी हो उसी साइकिल से शास्त्रीपुल पर जाना, वहाँ से बस में खड़े होकर औराई जाना, जहाँ अखबार की प्रतीक्षा में आधे-एक घंटे तक सड़क पर प्रदूषित वातावरण में अंधकार में खड़े रहना,पुनः मीरजापुर वापसी, रात्रि दस बजे तक समाचार पत्र का वितरण, अपने लिए भोजन और काढ़ा बनाना, इतने सारे कार्य किया करता था। इसी शारीरिक श्रम के कारण मैं अपनी मानसिक पीड़ा को भूल गया। शुभचिंतकों ने कहा कि तुम अधिक श्रम करते हो, इसलिये स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है,परंतु इस लॉकडाउन में जब मैंने पूर्ण विश्राम किया,तब भी स्वस्थ नहीं हो सका।  
   अतः एक जून से मैं पुनः सुबह चार बजे उठ कर प्रातः भ्रमण को निकल पड़ता हूँ। मार्ग में मांसपेशियों के दर्द से संघर्ष करते हुये अपने चिंतन को गति देता हूँ । मेरा यह असाध्य रोग  उसी हिंसक जीव की तरह मेरे शरीर और मनोबल पर प्रहार करता रहता है। इस युद्ध में कभी-कभी मैं उसे परास्त कर देता हूँ, फ़िर भी वह मुझ पर निरंतर भारी पड़ते जा रहा है। ख़ैर,परिणाम अभी  शेष है।  
    हाँ, इस संघर्ष में जीवन के इस सत्य को समझ गया हूँ कि नाव समुद्र के किनारे खड़ी रहे अथवा उसमें उतरे, उसे डूबना तो है ही, इसीलिए परिस्थितियाँ अनुकूल न भी हो, तब भी क्यों न हम पूरी शक्ति के साथ संघर्ष करें।जीवन-संग्राम से पलायन की जगह अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ते जाए। शनैः शनैः  समुद्र के तूफ़ानों से टकरा कर जीवनरूपी यह नाव भी थक कर एक दिन डूब जाएगी, किन्तु इसमें एक " अभियान " होगा। इसीलिए हमें यह समझना होगा कि समुद्र तट जो नावें खड़ी हैं, चक्रवात आने पर जब यह सागर उन्हें भी निगल लेगा, तब क्या इनकी "टाइटैनिक" जैसी पहचान संभव है ? आज इसी संघर्ष के कारण ही मुझे भी इस शहर में एक पहचान और सम्मान मिला है। 

    -व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला से)