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Friday 8 June 2018

वफादारों की टोली से कुछ हमें भी कहना है...



     इन दिनों सुबह अखबार बांटना  सच बताऊं तो एक बहाना है। न पैसे की जरुरत है मुझे, ना ही काम की, अब तो बिल्कुल मस्त फकीर हूं साहेब के दरबार में ! सुबह पौने पांच बजे निकलता हूं, तो ताजी हवा भी मिल जाती है और कुछ स्नेहीजनों संग राम- राम भी। कल की बात लें  वफादारों की पूरी फौज ही मिल गयी थी। बुंदलखंडी के अपने मंगलदास चाचा हैं न , जब उनकों अखबार दिया तो देखा उनके चेहर पर कुछ उदासी थी। पता चला जनसंघ के गढ़ में चौपाल लगा , पर नहीं बुलावा आया था। जिन्दगी बीत गयी बस्ता ढोते, पार्टी के लिये जेल जाने की बात याद हो आई थी। वफादारी का क्या यही मोल कि एक आवाज तक किसी ने नहीं लगायी थी । निष्ठावान भगवा ध्वज रक्षक होने का दर्द पिछली सरकार में उन्होंने खूब सहा है। वेदना उन्हें कहीं अधिक इस बात की थी कि जो गैर थें , वे खास हो गये और अपने पराये। आगे रतनगंज में सुबह की चाय पीने को राजकुमार जायसवाल ने आवाज लगायी, दुआ सलाम के दौरान चेहरा उनका भी मुर्झाया मिला। पूछा तो पता चला कि आंका के प्रति वफादारी का रोग अब सत्ता परिवर्तन के बाद उनके पेट पर लात मार रहा है। खुशमिजाज राजकुमार भैया को राजनीति की यह पहेली सताये जा रही थी। वापस मुसाफिरखाने को लौटा , तो घनश्यामदास मोदनवाल मिल गये। मेरे सबसे अजीज मित्रों में से हैं। चाय तो मैं उनकी दुकान पर ही मेरी सुबह शाम की होती है । समझ ले कि छोटे से कुल्हड़ में लबालब " चाह" जो भरी होती है। सो, बिना यहां सलामी लिये मन नहीं मानता है। अपने समाज के कर्तव्यनिष्ठ अक्खड़ कार्यकर्ता हैं। पता चला की वफादारी के सवाल पर अपने घनश्याम भैया भी अनमने से हैं। न सेवा के पुरस्कार की चाहत  है , न ही मंच पर नेतागिरी करना उन्हें भाता है, फिर भी भैया जी क्यों उदास है। बात यहां भी समाज के रहनुमाओं से वही है कि...

          गै़रों पे करम, अपनों पे सितम,
         ऐ जान ए व़फा ये जुल्म न कर
          रहने दे अभी थोड़ा सा भरम...

    पुलिस विभाग में भी मेरे कुछ जाबांज साथी हैं, जो अपनी वर्दी के प्रति निष्ठा रखते हैं , फिर भी विभागीय ट्रांसफर पोस्टिंग चाहे जितनी हो, वे बेचारे नेपथ्य में हैंं। कारण या तो सत्ता की जाति के नहीं हैं वो या फिर जुगाड़ तंत्र से अनजान है। सबकी वफादारी की राम कहानी फटाफट सुना दी , अब अपनी पत्रकार बिरादरी का हाल भी सुनाता हूं जनाब! तो समझ लें आप यह कि हम वे बेजुबां प्राणी है कि सुबह से रात तक खबरों की गठरी ढोते हैं और जैसे ही जवानी ढली नहीं कि फुटपाथ पर होते हैं।  एक नामी अखबार के फोटोग्राफर स्वर्गीय अशोक भारती की याद हो आई है। एक जमाना था कि कलमकारों को जाने ना जाने अफसर और नेता , पर भारती भैया से सलामी  सभी लेता था।  सिर पर हैट, कंधे से पैंट में फंसा बेल्ट , जेब में टाफी ऐसी कहां इस जिले में पहचान हुई फिर किसी प्रेस छायाकार की। पर हाय ! वफादारी का क्या परिणाम मिला। जेब खाली और वनवास मिला। समय से पहले ही वृद्ध हो गये हम सबके भारती अंकल। बाहरी दुनिया से दूर घर के एकांतवास में स्मृतियों के दिवास्वप्न में खोये एक दिन अल्लाह को प्यारे हो गये हमारेअंकल !

 सो, वफादारों की टोली से बस यही कहना  है कि निष्ठा एक खिलौना है और यह भी ...

मन रे ! तू काहे ना धीर धरे
वो निर्मोही मोह ना जाने जिनका मोह करे

(शशि)