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Sunday 12 July 2020

कोरोना की दहशत

यह लेख कोरोना संक्रमित व्यक्ति की मनोस्थिति पर आधारित है ।

( आइसोलेशन सेंटर में उपचार के पश्चात कोरना संक्रमण से मुक्त पत्रकार श्री राजन गुप्ता का संदेश )
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   दूरदर्शन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार  श्री समीर वर्मा ने इस ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया था।

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    छुआ-छूत (अस्पृश्यता) कभी धर्म के पर्दे में मानव की भ्रष्ट सामंती व्यवस्था का प्रतीक हुआ करती थी, किन्तु देखें न कि प्रकृति का खेल भी कितना विचित्र है ,जिसने इस कोरोना संक्रमण- काल में समाज के प्रभावशाली वर्ग को भी "अछूत" की श्रेणी में ला खड़ा किया है। किसी भी प्रशासनिक अथवा पुलिस अधिकारी, राजनेता और चिकित्सक के कोरोना (कोविड-19) पॉजिटिव पाये जाते ही बिना उसके ओहदे का ध्यान रखे शोर मचने लगता है - " अब तुम्हारी गली नहीं आना..।"

    संक्रमित लोगों से ही नहीं भयवश इनके स्वस्थ परिजनों से भी सामाजिक दूरी और बढ़ती जा रही है। कोरोना संक्रमित एक महिला चिकित्सक ने अपना दर्द कुछ इस तरह से बयां किया है-"क्या हमारे बच्चों को दूध के लिए भी तरसना पड़ेगा। हमने ऐसा क्या पाप किया है ?"

...कालोनी के लोगों को जैसे ही जानकारी हुई कि वे कोरोना संक्रमित हैं ,तो वे सभी उनके परिजनों की परछाई से भी दूर भागने लगे और दुकानदारों ने भी इस परिवार से किनारा कर लिया। उन्हें स्वयं की सुरक्षा से कहीं अधिक यह भय है कि पीड़ित परिवार के सदस्यों को देख
उनके प्रतिष्ठान से अन्य ग्राहकों के संबंध न बिगड़ जाए।
  
     और यदि किसी प्रतिष्ठान के स्वामी पर ही कोरोना का खूनी पंजा चल गया , तो समझें कि उसका सारा व्यवसाय कुछ दिनों के लिए चौपट। एक रेस्टोरेंट संचालक भी कोरोना के आघात से उभर नहीं पा रहा है ,क्योंकि उसके कर्मचारी संक्रमित जो हो गये थे। सो, इससे उसके होटल की तो पूरे शहर में "कोरोना वाला" के रूप में पहचान हो गयी है, किन्तु ग्राहकों के न आने से वह स्वयं जेब से ठन-ठन गोपाल है।   

        एक अस्पताल के मुखिया के संक्रमित होते ही सहयोगी चिकित्सकों के खिले हुये चेहरे कुछ इस प्रकार से स्याह पड़ गये , मानों सामने साक्षात यमराज खड़ा हो। पीड़ित वरिष्ठ चिकित्सक पर अपना गुस्सा उतारते हुये एक युवा डॉक्टर ने अपने मित्रों से कुछ यूँ कहा- " ये बुड्ढे स्वयं तो सजग नहीं रहेंगे और मीटिंग में बुलाकर हमारी जान भी आफ़त में डाल रहे हैं ।"

   एक और युवा प्रतिष्ठित व्यवसायी की पहचान सोशल वर्कर के रूप में रही, किन्तु इस दुष्ट कोरोना ने उसे अपने गिरफ़्त में क्या लिया कि पड़ोसियों ने ग्वाले को सख्त हिदायत देते हुये कहा- " सुनो भाई ! यदि उस घर की ओर दूध लेकर गये तो समझ लेना कि कई ग्राहकों से हाथ धो बैठोगे ।"

   बेचारा ग्वाला धर्मसंकट में पड़ गया था। संक्रमित व्यवसायी के बच्चों को वह वर्षों से गाय का दूध देता आ रहा था। ऐसे में मानवता क्या कहती है ? कैसे उन बच्चों को वह दूध से वंचित रखे और यदि ऐसा करता है तो फ़िर मुहल्ले के अन्य लोग उससे दूध नहीं लेंगे।

    एक चिकित्सक के घर काम करने वाली एक युवती का एक नज़दीकी संबंधी संक्रमित हो गया है। उसके रिश्तेदार के आइशोलेशन सेंटर भेजे जाने की जानकारी जैसे ही उक्त डॉक्टर को हुई उसने उसे यह फ़रमान सुना दिया - " माया ! यदि तुम अपने उस रिश्तेदार के घर गयी,तो फिर कल से काम पर मत आना। मेरी इस चेतावनी को गंभीरता से लो। आगे तुम्हारी मर्जी ।"

    लोकबंदी के पश्चात वैसे ही काम के लाले पड़े हुये हैं, ऐसे में एक तरफ़ चिकित्सक की हिदायत और दूसरी तरफ़ उसके संबंधी का वह परिवार जिसने सदैव आवश्यक पड़ने पर तन- मन-धन से उसका सहयोग किया है। अब क्या करे वह ?
 कहाँ तो उसने सोच रखा था कि काम समाप्त होते ही चल कर कोरोना पीड़ित संबंधी की पत्नी और उसके बच्चों की सुधि लेगी..और अब यदि वह ऐसा नहीं करती है तो वे क्या सोचेंगे ?  इस हितैषी परिवार से भी भविष्य में उसका पहले की तरह मधुर संबंध नहीं रह जाएगा। कहाँ से आ टपका यह कोरोना , इधर नौकरी जाने का भय और उधर शुभचिंतकों से संबंध बिगड़ने का डर। 
 उपकार करने वालों का संकटकाल में साथ न देना कृतघ्नता भी तो है। आखिर क्या करे वह ? माया को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कोरोना उसके रिश्ते को तोल रहा था।

      ओह! यह कैसी विडंबना है कि पलक झपकते ही अपने पराये हो जा रहे हैं। आइसोलेशन सेंटर में रोहित स्वयं से प्रश्न कर रहा था। यह कैसी महामारी है कि जो पीड़ित व्यक्ति ही नहीं उसके परिवार को भी सामाजिक बहिष्कार की स्थिति में ला खड़ी कर रही है।  उसने ऐसा क्या कुकर्म कर दिया कि अचानक हरकोई बदला हुआ सा दिखने लगा है? यह तिरस्कार क्यों ? उसे लग रहा था कि उसकी दौड़ती-भागती ज़िदगी में सब-कुछ ठहर-सा गया है। अपनत्व का प्रदर्शन तो दूर सहानुभूति के दो शब्द कहने के लिए भी उसके इर्द-गिर्द यहाँ कोई शुभचिंतक नहीं है। 

    यह देख वेदना से भर उठा रोहित स्वयं से प्रश्न करता है कि प्लेग(हैजा) तो उसने देखा नहीं है, परंतु उसके संदर्भ में सुना अवश्य है। आज़ इस कोरोना में भी उसे उसी महामारी का प्रतिविम्ब नज़र आ रहा है। उसकी पलकों के पोर नम हो चले थे और आँखें बरसने ही वाले थीं कि तभी  आइसोलेशन सेंटर का डॉक्टर वहाँ आ जाता है। वह कहता है- "वेलकम रोहित ! अब तो तुम ठीक हो रहे हो,चिन्ता मत करो।"

 " थैक्यू सर , यहाँ आप सभी ने हितैषियों से बढ़कर मेरा ध्यान रखा, अन्यथा  कल तक साथ उठने-बैठने वाले मित्रों का भी फोन आना बंद हो गया है। "  
-- इतना कहते-कहते निस्सहाय-से अस्पताल के बेड पर पड़े हुये रोहित का गला रुंध जाता है ,फ़िर भी उसे अपने किसी भी शुभचिन्तक पर तनिक भी क्रोध नहीं आया ,क्योंकि वह जानता है कि हर किसी को अपना जीवन प्रिय है। 

 लेकिन , रोहित के पिता का हृदय अत्यधिक आहत है। वे कहते है कि जब उनका पुत्र ज्वर से पीड़ित था और इस शहर के नामी चिकित्सक भी उसका रोग नहीं पकड़ सकें , तो वह वाराणसी बेहतर उपचार के लिए चला गया था। परंतु यहाँ उसके कुछ परिचितों ने ही यह अफ़वाह फैला दी थी कि रोहित रोग छिपा रहा है। उसके परिवार के सदस्यों को भी कोरोना है । इसीलिए उसकी दुकान सील कर दी गयी है ,आदि- आदि..अनेक ऐसे कड़वे संवाद उन्हें सुनने को मिल रहे थे, जिससे उनका आत्मसम्मान आहत हुआ है। 

  और जरा यह भी तो सुनते चले कि उस हौली (देशी शराब की दुकान) के बाहर मित्र मंडली के साथ बिना मास्क लगाये बैठा यह भगेलू क्या कह रहा है ? अरे ! यह तो सामाजिक दूरी का उपहास उड़ा रहा है। वह कह रहा है कि हमारे मलिन बस्तियों में जा कर देखों, हुआ क्या वहाँ किसी को कोरोना ? परंतु बेचारा अपना सेठ तो गया काम से , अब सड़ता रहे 14 दिनों तक किरौना वाली कोठरी में। ससुरा , हमलोगों को देखते ही "सोशल डिस्टेंस-सोशल डिस्टेंस"  कह कर ऐसा भड़कता था, जैसे हमहीं कोरोना हो। अब जाकर उसी आइशोलेशन सेंटर में उपदेश दे।

      ख़ैर,निर्धन हो या धनवान, सुरक्षित हो अथवा असुरक्षित कोई भी इस संक्रमण रोग से अछूता नहीं है। परंतु हमें "सामाजिक दूरी" का ध्यान रखना ही होगा। और हाँ, कोरोना कोई एड्स की बीमारी तो नहीं है जो कि अपराध-बोध की अनुभूति हो, फ़िर भी यह क्यों किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आघात कर रहा है ? इसे प्रकृति का अत्याचार कहे अथवा न्याय ?  रोहित को समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसे "जन-अपराध" के लिए दोषी कौन है ?

   संभवतः मीडिया चैनलों के माध्यम से इसे लेकर जो अत्यधिक भय दिखाया गया, यह उसी का दुष्परिणाम है कि संक्रमित क्षेत्र में माताएँ नवजात शिशु को दूध के अभाव में जल में शक्कर घोल कर पिलाते दिखीं, क्योंकि ग्वाले ने दूध देने से मना कर दिया था। जरा विचार करें कि ऐसी माताओं के हृदय पर क्या गुजरी होगी। ऐसे ही एक पीड़ित परिवार ने जब अपने इस दर्द से वरिष्ठ पत्रकार श्री सलिल पांडेय को अवगत कराया, तो उनके नेत्र भी नम हो गये। उन्होंने मुझसे कहा -"शशि, जातीय और सामाजिक छुआ-छूत ने तो अब-तक मानवता पर अनगिनत आघात किये ही हैंं, किन्तु यह आत्मीय छुआ-छूत हम इंसानों की संवेदनाओं को ही निगलने को आतुर है। "

  प्रबुद्धजनों को इसपर चिंतन अवश्य करना चाहिए।



  ----व्याकुल पथिक