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Tuesday 1 May 2018

मजदूर हो पर मजबूर ना बनों...

व्याकुल पथिक
 

   मजदूर हो पर मजबूर ना बनों...

     आज अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है। हक अधिकार की जंग में श्रमिकों के विजय का दिन। मजदूरों की रहनुमाई करने वाले राजनैतिक और गैर राजनैतिक संगठन दोनों ही एक मई  के दिन तरह तरह के कार्यकर्मों के माध्यम इनके हित की बातें उठातें हैं।  मैं भी तो एक श्रमिक पत्रकार ही हूं और अपनी इस पहचान पर मुझे गर्व है। यहां न कोई बेईमानी है, न ही घोटालेबाजी। मजदूर हूं जरूर, पर मजबूर नहीं बनना चाहता हूं । हमारी  आवाज भले ही कोई ना उठाएं, पर हम यूं  क्यों हार जाएं । एक श्रमिक पत्रकार के रुप में सुबह से देर दोपहर सवा तींन बजे तक समाचार संकलन और फिर उसे मोबाइल फोन पर टाइप करना होता है। पोस्टमार्टम, कचहरी, पुलिस आफिस, सदर अस्पताल कहां कहां नहीं दौड़ना होता है। और फिर शाम ढलते ही अखबार लाने और देर रात 11 बजे तक उसके वितरण का कार्य भी करता हें। आप समझ सकते हैं कि आठ घंटे कि जगह 18 घंटे की डबल ड्यूटी करता हूं।  फिर भी पारिश्रमिक कितना पाता हूं ? जब युवा था तो इसी मीरजापुर में ही स्वजातीय जनों ने विवाह की बात उठाई थी। पर जेब में कहां इतना पैसा था।  40 रुपये ही रोज की मजदूरी पाता था।सो, क्या हुआ कि दिल की अरमा आंसुओं में बह गई ...

         एक हमसफर न सही फिर भी आज मुझे चाहने वाले अनेक हैं। इस मजदूर ने अपने रंगमंच पर अपनी पहचान तो बनाई है।
             श्रमिक दिवस क्यों मनाया जाता है, इस पर भी भाषणबाजी आज  खूब होती है। परंतु सवाल बड़ा यह है कि तमाम ऐसे संगठनों ने दशकों के लम्बे संघर्ष के बाद हम कामगार लोगों के लिये क्या किया है, अपने देश में !  हम जैसे तमाम क्षेत्रों के श्रमिकों की निगाहें कब से उस रहनुमा को ढूंढने में लगी है, जो  इस मजदूर वर्ग को मान सम्मान और स्वाभिमान  के साथ रोटी का अधिकार दिलाएगा। दो जून की रोटी, स्वास्थ्य और बच्चों की शिक्षा यह तो मौलिक अधिकार है न भाई। रोटी, कपड़ा और मकान यह पुरानी मांग है हरेक इंसान की। हम जिस देश में रहते है, उसके झंडे के समक्ष सिर झुकाते हैं, उसके आन-बान-शान की रक्षा का संकल्प लेते हैं।  तो बदले में यह भी तो चाहते हैं कि हमारी सरकार कम से कम हमारे लिये रोजगार और  न्यूनतम वेतन की व्यवस्था करवा ही दे कि काम से लौटने के बाद घर का चूल्हा जलता हुआ दिखें। पत्नी का चेहर मुरझाया हुआ न हो और बच्चे अपने स्कूल का होमवर्क कर रहे हों। एक मजदूर कभी राजा बनने के लिये तो इंकलाब जिंदाबाद नहीं बोलता है। वह बस काम का अधिकार और उसका मूल्य चाहता है। क्या सरकार इतना भी नहीं देना चाहती है, तो फिर वोट क्यों मांगती है। क्यों कि कोई भी राजनैतिक दल हो वह मजदूर तबके के वोटों से ही सत्ता में आती है। दरअसल  यह " मजदूर "  शब्द जिसका संबोधन हेय दृष्टि से  जेंटलमैन करते हैं, उसका दायरा मेरे नजरिये से बहुत बड़ा है।  सिर्फ बेलदारी करने वाले ही मजदूर नहीं होते हैं। मैं अखबार बांट रहा हूं, रात्रि 11 बजे तक शहर की सड़कों और गलियों में  घूम घूम कर तो श्रमिक नहीं तो और क्या हूं। प्राइवेट प्रतिष्ठान में सुबह नौ बजे से रात दस बजे तक सिर्फ पांच हजार रुपये प्रतिमाह वेतन पर अपनी और अपने परिवार की सारी इच्छाओं को दबा कर ड्यूटी करने वाला शख्स, जो अपने मालिक की हर आज्ञा का पालन करता है। उसकी दुकान से लेकर घर गृहस्थी का सारा सामान लाता है, पानी पिलाता है, उसकी गाड़ी साफ करता है, मेम साहब की खिदमत करता है। उनके बच्चों की फरमाइश पूरी करता है। क्या ऐसा नौकर मजदूर नहीं है। आबादी का तीन चौथाई हिस्सा ऐसे ही लोगों का है। जिन्हें हम मजदूरों की श्रेणी में रख सकते हैं।  परंतु इन्हें न्यूनतम वेतन मिले, जिससे इनके परिवार का खर्च चल जाए । किसी भी सरकार ने इसपर कभी कोई सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इस महंगाई में जिसका अपना कोई आशियाना नहीं है, उसे.गृहस्थी की गाड़ी खिंचने के लिये कम से कम 15 हजार रुपये प्रतिमाह चाहिए ही।  सो, यह सरकार की जिम्मेदारी है कि बेरोजगारों से किस तरह से  काम ले और उसे वेतन दें। अब तो उच्च शिक्षा की डिग्री  रखने वाले श्रमिक युवकों की तादाद भी बढ़ने लगी है। ऐसे युवक जिन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिली है , वे रोजी रोटी की तलाश में हर तरह की मजबूरी करने को तैयार हैं, लेकिन उचित मेहनताना तो उसे मिले। यदि सरकार सबका साथ , सबका विकास चाहती है, तो उसे एक और नारा देना होगा , वह है सबको काम, सबकों रोजगार....।

(शशि) 1/5/18