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Tuesday 29 May 2018

छुप जाता है सच, झूठ इतना शोर करता है...

      हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर

     30 मई यानि की हिन्दी पत्रकारिता दिवस  पर विचार गोष्ठियों का आयोजन एक बार फिर होगा। आज भी कार्यक्रम हुये हैं। भव्य समारोह में मंच पर मौजूद महाशय हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाएंगे। लाख रुपये तक वेतन पाने वाले प्रोफेसर, अफसर से लेकर राजनेता तक आएंगे। कभी-कभी किसी प्रेस में ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग भी आ जाते हैं। जिन्हें ठहराने के लिये वातानुकूलित होटल की व्यवस्था की जाती है। वहीं मंच के सामने हम जैसे श्रमिक पत्रकार पेट को हाथ से दबाये बैठे रहते हैं,कुछ का ध्यान भाषण पर कम डिनर पर अधिक होता है। हम सभी को पता है कि इन ज्ञानी ध्यानी भद्रजनों की भाषण कला से पत्रकारों का भला नहीं होना है और साहब मैं तो कहूंगा कि ये पहले दर्पण में स्वयं को तो टटोल लें जरा, फिर हमें बताएं नैतिक ज्ञान। मामूली पगार पाने वाले हम पत्रकार सुबह से रात तक आन ड्यूटी रहते हैं और ये साहब तरमाल गटकते हैं। मैं कभी ऐसे मंच और कार्यक्रम को साझा नहीं करना चाहता ! यदि इस घुटन भरे माहौल में जुबां खुल गयी, तो कितनों का चेहरा बेनकाब हो जाएगा। सो काहे कबाब में हड्डी बनूं इनके। लेकिन एक संगठन के कार्यक्रम में कल जाना ही है। उसके सचिव कृष्ण पांडेय का विशेष आग्रह जो है।   और ये पत्रकारिता दिवस की जो चकाचौंध है न बंधुओं , उसका खर्च भी तो यहां आये मेहमान ही उठाते हैं । अपने तो सभी ठन ठन गोपाल हैं। मजीठिया आयोग की सिफारिशों की खुशबू की महक ना जाने कहां खो गयी है, अब तो पच्चीस वर्षों से पत्रकारिता का बस्ता ढोते ढोते जवानी भी ढल गयी है। बुढ़ौती कैसे कटेगी सोचो जरा यारों ! अपनी तो जैसे तैसे बीत ही जाएगी।  40 रुपये दिहाड़ी मजदूरी पर वर्ष 1994 में पत्रकारिता शुरू की थी। जेब खाली था, तो गृहस्थ जीवन की चाहत धरी रह गयी। दो वर्ष पूर्व तक साढ़े चार हजार रुपया पगार प्रतिमाह मिलता था। काम न पूछे साहब कितना करता था। शरीर की चमड़ी धूप में काली पड़ गयी है मित्रों और दायीं आंख की रोशनी भी तो जाने को है। वे लग्जरी वाहन से भाषण दे निकल जाएंगे और यहां वहीं पुरानी साइकिल जिंदाबाद है। माना कि कलम अपना बेचा नहीं, पर समाज ने क्या कभी यह पूछा कि शशि भाई चूल्हा आपका जला की नहीं ! ऊपर से हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों आइने में देखों किसका मुखड़ा काला है। माना की पत्रकारिता अब बदली है। ठेकेदार, कोटेदार, दुकानदार तक  वेे सभी पत्रकार हैंं, जिनका कुछ जुगाड़ है। हम गरीब तो सम्मान में अफसरों से एक प्याली चाय की उम्मीद भर रखते हैं और वे अमीर इन्हीं साहब के बच्चों को चाकलेट और मिठाई पहुंचाते हैं ! तो बोलो अफसरों के लिए कौन असली पत्रकार है।  खैर यह भी अच्छा ही है, पैसे को लेकर पत्रकारों का विलाप कम तो हुआ ! एक और पत्रकारों का तबका है, धंधा कुछ नहीं फिर भी काम उनका माशा अल्लाह है। जुगाड़ तंत्र का जमाना है ये बाबू ,काहे नीर बहाना है। अबकि तो गजब हो गया साथियों, नशाखोरी पर कलम चलाने वाले साथी मदिरालय के स्वामी जो बन गये। फिर भी हम एक ही जैसे कलमकार हैं। एक गीत अश्वनी भाई ने अभी भेजा है ..

ये लो में हारी पिया, हुई तेरी जीत रे, काहे का झगड़ा बालम नई नई प्रीत रे।

 तो मित्रों आओ हिन्दी पत्रकारिता दिवस का हैप्पी बर्थडे मनाएं। ताली पीटे और अपने घर जाएं। (शशि)