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Sunday 22 July 2018

प्यारे दुनिया ये सर्कस है

यहां जुगाड़ तंत्र से काम नहीं चलने वाला, कोड़ा जो किस्मत है


   

        "दुनिया ये सर्कस है। बार-बार रोना और गाना यहाँ पड़ता है। हीरो से जोकर बन जाना पड़ता है। "

  सचमुच कितनी बड़ी बात कह गये नीरज जी। सो, मैं उनकी इसी गीत में अपने अस्तित्व को तलाश रहा हूं -

 "  ऐ भाई ज़रा देखकर चलो,आगे ही नहीं पीछे भी।
   दाएं ही नहीं बाएं भी,ऊपर ही नहीं नीचे भी।
 तू जहां आया है वो तेरा घर नहीं, गांव नहीं, गली नहीं,  कूचा नहीं, रास्ता नहीं, बस्ती नहीं, दुनिया है और प्यारे
दुनिया ये सर्कस है। "

  इसी एक गीत को फिर से कई बार ऊपर से, नीचे से और बीच से भी पढ़ा । ऐसा नहीं है कि पहली बार इस गीत से परिचित हो रहा हूं। इस " मेरा नाम जोकर " फिल्म में ही तो मैं अपना प्रतिविम्ब देखता हूं। परंतु अब इसकी फ़िलॉसफ़ी को और करीब से समझ रहा हूं।
     गीत सम्राट गोपाल दास नीरज जी को गत वृहस्पतिवार की रात  मैंने भी तनिक मुस्कुराते ( ऐसे महान लोगों के महाप्रयाण पर अश्रुपूरित नेत्रों से लिखना मुझे अच्छा नहीं लगता) हुये मौन श्रद्धांजलि दी। मोबाइल पर कुछ टाइप कर रहा था , तभी उनके निधन की खबर सोशल मीडिया में चलने लगी। साथ ही उनकी ये चन्द पक्तियां भी जुबां  पर आ गयीं । कितनी संजीदगी से उन्होंने एक- एक शब्द कागज पर उतारे हैं। मानों मानव जीवन का पूरा दर्शन शास्त्र ही लिख डाला हो और आखिरी में जो लिखा है, वह तो मेरे लिये बड़े काम की चीज है। जिस अकेलेपन की बात मैं अकसर ब्लॉग पर किया करता हूं। उस अंधकार से स्वयं को बाहर लाने के लिये यह टिमटिमाता दीपक है। अतः बार- बार इन्हें पढ़ने और मन ही मन गुनगुनाने का मन कर रहा है। आदि शंकराचार्य ने भी कुछ ऐसा ही तो कहा था कि

     न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
     पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
     न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
     चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ।।

 और यहां भी नीरज जी दुनिया रूपी सर्कस का सत्य समझा गये है -

    " हाँ बाबू, यह सरकस है शो तीन घंटे का पहला घंटा बचपन है, दूसरा जवानी है तीसरा बुढ़ापा है और उसके बाद - माँ नहीं, बाप नहीं बेटा नहीं, बेटी नहीं, तू नहीं, मैं नहीं, कुछ भी नहीं रहता है । रहता है जो कुछ वो - ख़ाली-ख़ाली कुर्सियाँ हैं ख़ाली-ख़ाली ताम्बू है, ख़ाली-ख़ाली घेरा है बिना चिड़िया का बसेरा है, न तेरा है, न मेरा है। "

 अब यदि अपने मूल विषय पर आऊं , यानी कि अपने जीवन संघर्ष के विलाप को कुछ कम करके के इस सर्कस वाले सत्य पर चिन्तन करूं। हां, एक बात और मन को तरावट दे रही है, वह है कि मृत्यु के पश्चात किसी शख्स को न तो उसकी अमीरी - गरीबी से लोग याद रखते हैं और न ही उसके उसके उसके घर -परिवार से। स्वास्थ्य, रंग-रूप और रुतबे का भी तो मृत्यु के पश्चात को महत्व नहीं है। आज नीरज जी को हम इनमें से किसी एक के लिये भी याद कर रहे है क्या, नहीं न । उन्हें तो हम उनके गीतों से पहचानते हैं। उनकी पंक्तियों में छुपे संदेश से पहचानते हैं। यदि ऐसा न होता तो मृत्यु के बाद इंसान की पहचान भी अमीरों के ही हिस्से में चली जाती ? लेकिन साहब! यहां जुगाड़ तंत्र से काम नहीं चलने वाला है। यहां तो स्वयं का संघर्ष होना चाहिए, क्यों कि यहां कोड़ा जो किस्मत है। तभी अपनी भी पहचान बनेगी। सो, स्वयं को यह बात बतानी होगी , सौ बार मन को समझाना होगा कि

"  गिरने से डरता है क्यों, मरने से डरता है क्यों, ठोकर तू जब न खाएगा, पास किसी ग़म को न जब तक बुलाएगा, ज़िंदगी है चीज़ क्या नहीं जान पायेगा ,रोता हुआ आया है चला जाएगा। "
  कितना सहज भाव से बिल्कुल सरल शब्दों में नीरज जी ने जिस तरह से मानव जीवन दर्शन का सार तत्व इस गीत में प्रस्तुत किया है, जिसे बार- बार पढ़कर इस पथिक का व्याकुल मन भी आह्लादित हो उठा है। निराशाओं का बादल छटा है और आशाओं का सबेरा दिखाई पड़ रहा है। आखिर इंसान जीवन संघर्ष को लेकर इतना व्यथित क्यों होता है। इतनी विकलता क्यों है उसमें । यह तो हमारा प्रशिक्षण है। बिना ठोकर खाये , बिना ईमानदारी दिखलाये आज मेरी जो पहचान है, वह प्रेस लिखे चार पहिये गाड़ी की सवारी से होती क्या ? यही संघर्ष ही तो रचना बन हमारी- आपकी जीवन यात्रा को एक नया आयाम देता है, पहचान देता है और फिर विश्राम के बाद गुमनाम होने के भय से मुक्ति भी । नीरज जी जैसे रचनाकारों को मृत्यु क्या अपनी सीमा से बांध पायी ? वे तो सदैव धड़कते रहेंगे अपनी गीतों में। हां , हर इंसान उतना सामर्थ्यवान नहीं है कि वह भी बड़ा रचनाकार बनेंं, पर एक जो संदेश हम छोड़ कर इस समाज में जा सकते हैं कि जो भी रंगमंच हमें मिला है, पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से हमने उस पर अपनी भूमिका निभाई है। यदि मैं जनपद स्तरीय पत्रकार हूं, तो जनता की बातों को मैंने उठाई है, तो फिर गुमनामी का क्या भय है। हर किसी को यही करना है, यदि दुनिया में कायम रहना है। मुझे पता है कि ब्लॉग के कुछ पन्नों पर मेरे हृदय की धड़कनों का एहसास स्नेही जनों को होगा। जब मैं ना रहूंगा और मेरे मित्र उन पन्नों को सहेजेंगे, उसे आकर मिलेगा और मेरा स्वप्न साकार होगा। मैं रहूं न रहूं ,इससे क्या फर्क पड़ता है। परंतु मेरी कोई रचना यदि आपके काम आयी, तो इससे मुझपर निश्चित ही फर्क पड़ना है। नीरज जी को हम यूं ही नहीं याद कर रहे हैं। इसके पीछे उनकी वर्षों की साधना है। सो, भले ही ताली ना बजाओ मित्रों हमारे जैसों के संघर्ष पर , याद रखों लेकिन आपकों भी इसी राह से गुजरना है, यदि कुछ करके मरना है।