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Saturday 18 April 2020

सोशल डिस्टेंस में मजबूरियाँ


              
           
   लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर पसरे सन्नाटे के मध्य सफ़ेद चाक से बने सुरक्षा घेरे में दूर तक केवल पादुकाएँ ही दिख रही थीं। पेट की आग,तपती सड़क और बिलबिलाते ग़रीब लोगों के लिए उनकी पादुकाओं ने जहाँ एक तरफ़ सोशल डिस्टेंस की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल रखी थीं ,तो दूसरी तरफ़ वह-- "हुजूर ! मैं हाज़िर हूँ की पुकार लगा कर अपने स्वामी की उपस्थिति भी बैंक में दर्ज करवा रही थीं।"
     कोरोना संकट के कारण तालाबंदी को देखते हुये श्रमिक वर्ग के आर्थिक सहयोग के लिए  सरकार ने उनके जनधन खाते में जो छोटी सी रक़म भेजी है , उस धन की निकासी के लिए पिछले कई दिनों से पुरुष विशेषकर महिलाओं की लंबी कतारें बैकों के बाहर लगी हुई हैं। ये महिलाएँ सोशल डिस्टेंस के लिए चाक से बने सफ़ेद घेरे में खड़ी-खड़ी इस चिलचिलाती धूप को जब सहन नहीं कर पातीं ,तो वे वहाँ अपनी चप्पल अथवा ईंट रख , स्वयं तनिक छाँव में हो लेती थीं। उनका नंबर आने में घंटों लग रहा था। ऐसे में बैंक के इर्द-गिर्द जहाँ भी धूप से बचाव दिखता वे जा बैठती थीं। 

    भगवान भास्कर के ताप से स्वयं की रक्षा के इस कशमकश में वे स्वयं सोशल डिस्टेंस का पालन करने में असमर्थ थीं। छाँव युक्त थोड़े से स्थान पर दर्जनों लोग बैठे अथवा खड़े थे। ऐसा नहीं है कि इन अनपढ़ महिलाओं को कोरोना का भय नहीं था, किन्तु इसके अतिरिक्त इनके समक्ष और कोई विकल्प नहीं था।वहाँ ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मियों की माने तो इन महिलाओं से सामाजिक दूरी की बात मनवाना अत्यंत कठिन कार्य हो गया है । पुलिस इन लोगों में कई बार दूरी स्थापित करती , समझाती और डराती-धमकाती भी थी, किन्तु कुछ देर पश्चात जब सूर्य की तीक्ष्ण किरणें इन्हें पीड़ा देने लगतीं , तो वे पुनः एकत्र होकर उसी छायादार स्थल पर पहुँच जातीं । इतनी संख्या में आगन्तुक खाताधारकों को संभालना बैंक कर्मियों के लिए भी अत्यंत कठिन कार्य था। 
   इस अव्यवस्था को देख उधर से गुजर रहे सुदर्शन के पाँव ठिठक जाते हैं। वैश्विक महामारी में नगर की सड़कों पर नारीशक्ति का यह विचित्र संघर्ष देख कर उसका मन तड़प उठा और मस्तिष्क सवाल करता है-- काश !  ऐसी कोई टोकन व्यवस्था ही इन ग़रीबों के लिए यहाँ होती कि जिसका भी नम्बर आता लाउडस्पीकर के माध्यम से उसे सूचित कर दिया जाता। ऐसे में  छायेदार स्थान पर दूर-दूर खड़े भी रहते और सोशल डिस्टेंस की सरकार की हर मंशा भी पूरी हो जाती। वैसे तो मोबाइल कैश वैन से घरों तक पैसा पहुँचाया जा सकता था। तब समझ में आता कि सोशल डिस्टेंस के प्रति हमारे रहनुमा संवेदनशील हैं।
    नेता, अफ़सर और बुद्धिजीवी सभी लॉकडाउन को लेकर ज्ञान बाँट रहे हैं। जो महाकवि डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता वाच रहे हैं -
शत्रु ये अदृश्य है
विनाश इसका लक्ष्य है
कर न भूल, तू जरा भी ना फिसल
मत निकल, मत निकल, मत निकल..।

  वे बैंकों की इस व्यवस्था पर मौन क्यों हैं? इन हजारों खाताधारकों द्वारा किये जा रहे सोशल डिस्टेंस के उल्लंघन का दोषी कौन है ?
    सुदर्शन इसी चिंतन में डूबा हुआ था कि तभी हल्के के दरोगा जी की आवाज़ इसे सुनाई पड़ती है--  "  अरे पत्रकार जी ! कहाँ खोये हुये हैं। देखें तो धूप कितनी चटख़ है और आपने टोपी तक नहीं लगा रखी है। "
      दरोगा जी पहचान वाले थे, सो आगे बढ़ कर बड़े आत्मीयता से हाथ मिलाते हुये कहते हैं कि देखें स्वास्थ्य तो वैसे भी आपका ठीक नहीं रहता, दुपहरिया में जरा सावधानी से निकलें तो अच्छा है।  बात काटते हुये सुदर्शन उनसे भी यही प्रश्न करता है कि इन दुर्बल काया वाली महिलाओं को देख रहे हैं न आप,किस तरह चंद रुपयों के लिए वे अपनी जान दाँव पर लगाए हुये हैं। क्या धूप और कोरोना का भय इन्हें नहीं है ? अभी  घोंटूराम के सरकारी गल्ले की दुकान से होकर लौट रहा हूँ। वहाँ भी कोलाहल मचा हुआ था।पाँच किलो मुफ़्त चावल जो मिल रहा था। सो, राशनकार्ड धारकों की भीड़ गली के दूसरे छोर तक जा पहुँची थी। इस लॉकडाउन में आमदनी का ज़रिया बंद होने गृहस्थी का ख़र्च तो नहीं रुकता न ? अतः मुफ़्त सरकारी चावल भला कौन नहीं लेना चाहेगा ? किन्तु यह क्या अँगूठा लगाने के बाद ई- पॉस मशीन के स्क्रीन पर एरर बताने लगा। यह देख कोटेदार झुँझला कर कह रहा था--"बाबा ! सर्वर फ़ेल हो गया,मैं क्या करूँ ?" इसे लेकर वहाँ कोटेदार और कार्डधारकों में ख़ूब नोंकझोंक हो रही थी। वहाँ भी सोशल डिस्टेंस के लिए जो सफ़ेद सुरक्षा घेरा बना था,जो इस अव्यस्था के पाँव तले कुचला गया। एक बात और यह कि इस समय राशनकार्ड अथवा बायोमेट्रिक पहचान की अनिवार्यता यदि मेहनतकश पूरा न कर सके अथवा उनके अँगूठे का मिलान नहीं हो पाया तो क्या उन्हें मुफ़्त राशन से वंचित कर दिया जाय ?

        तभी एक और सूचना आती है कि अमुक मोहल्ले में ट्यूबवेल खराब होने से पेयजल की आपूर्ति ठप्प है। जैसे ही वहाँ जलकल विभाग से टैंकर पहुँची, महिलाएँ खाली बाल्टी लिये दौड़ पड़ीं। कहाँ गया सोशल डिस्टेंस ? 

      सीमावर्ती क्षेत्र से ख़बर मिली है कि तिरपाल से ढके एक डीसीएम ट्रक से लगभग 50 सवारियों को जगह- जगह उतारा गया है। लॉकडाउन में फँसे लोगों ने ट्रक वालों के इस जुगाड़तंत्र का सहारा गंतव्य तक पहुँचने के लिया है, क्योंकि लॉकडाउन के प्रथम चरण में जब उन्हें घर भेजने की कोई व्यवस्था नहीं हुई तो वे अत्यधिक किराया देकर ,यह जोख़िम भरा सफ़र तय कर रहे हैं। सोशल डिस्टेंस और लॉकडाउन का उल्लंघन वे किस विवशता में रहे हैं ?  

      किन्तु सुदर्शन की ये साधारण सी बातें वहीं समीप खड़े उक्त बैंक के एक बड़े खाताधारक सेठ तोंदूमल को बिल्कुल समझ में नहीं आ रही थीं। वह बैंक के इर्दगिर्द जुटी महिलाओं की भीड़ देख भुनभुनाते हुये कहे जा रहा था-- " छी-छी ! कैसे गँवार लोग हैं ?  सरकार ने कितना समझाया है। लेकिन ये हैं कि सोशल डिस्टेंस में पलीता लगाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इन ससुरों को तो लॉकअप में डाल देना चाहिए। " 

     और तभी सामने स्थित तोंदूमल के आलीशान बंगले से आधा दर्जन महिला-पुरुष एक छोटे बालक को कंधे पर डाले बदहवास सड़क के उस ओर भागे जा रहे थे, जिधर अस्थिरोग विशेषज्ञ का नर्सिंगहोम है। 
  अरे! क्या हुआ मेरे गोलू को ? ऐसा चीत्कार करते हुये तोंदूमल भी उनके साथ हो लेता है।लॉकडाउन में इन लोगों को एकजुट देख ड्यूटी पर मौजूद पुलिस कर्मी टोकता है - "क्यों भीड़ लगाए हो, दूर- दूर हो जाओ ? "

   इतना सुनते ही तोंदूमल आगबबूला हो उठता है। वह चींख कर कहता है -- " दीवान जी, कैसे नासमझ हो, मेरा इकलौता पौत्र सीढ़ी से गिर पड़ा है। उसके सिर से रक्तस्राव हो रहा है और तुम्हें सोशल डिस्टेंस की पड़ी है ? "

    सुदर्शन , सोशल डिस्टेंस के प्रति सेठ के विचार में आये इस परिवर्तन पर मन ही मन मुस्कुराते हुये कहता है, ‘जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’ । 
           
              - व्याकुल पथिक