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Friday 1 February 2019

यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना

यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना
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 मेरा चिन्तन तो यही है कि अपनी स्मृतियों से इतना भी दूर न चले जाएँ हम कि अपनों को ही न पहचान पाए
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बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
ख़्वाबों में ही हो चाहे मुलाक़ात तो होगी
ये प्यार ये डूबी हुई रँगीन फ़िज़ाएं
ये चहरे ये नज़ारे ये जवाँ रुत ये हवाएं
हम जाएं कहीं इनकी महक साथ तो होगी ..

    मानव जीवन में मन और मस्तिष्क का विचित्र द्वंद्व दिखता है।  स्मृति जो मस्तिष्क की प्रमुख बौद्धिक क्षमताओं में से एक है, मन उसे कुरेदते रहता है। यादों के घरौंदे को जब भी मन टटोलने लगता है ,अतीत की हर बात ताजी हो जाती है। जो हमें सुख- दुख की अनुभूति करवाती है। हम कहीं भी रहें , यादें हमारी साया बन साथ होती हैं । जीवन में जब कोई संग रहता है । पास या दूर रहता है ।  विश्वास रहता है कि वह अपना है। मन प्रसन्न रहता है । ऐसे क्षणों में ये यादें मुस्कुराती हैं । इस उम्मीद संग यूँ  हसीन ख़्वाब बन जाती हैं -

यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना
लम्बा है सफ़र इस में कहीं रात तो होगी...

     परंतु हर कोई इतना खुशकिस्मत नहीं है , क्यों कि यादें  सवाल भी तो करती हैं और सताती भी हैं-

जाने कहाँ गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में
नज़रों को हम बिछाएंगे
चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुमको उम्र भर
 तुमको ना भूल पाएंगे
मेरे कदम जहाँ पड़े, सजदे किये थे यार ने
मुझको रुला रुला दिया, जाती हुई बहार ने ...

     ऐसी यादों में रूदन होता है, बेइंतहा दर्द होता, अंधकार होता है , ऐसे में इंसान इस खूबसूरत दुनिया के रंगमंच पर स्वयं को फिल्म "जोकर" के उस मासूम राजू के समकक्ष पाता है , जिसके साथ सभी ने अपनी सुविधा के हिसाब से मनोरंजन किया, फिर भी नादान उसी को सच्चा स्नेह समझ बैठा। वह सबका रहा , परंतु उसका कोई नहीं हुआ। तब जब पर्दा गिरता है, भ्रम टूटता है, दिल तड़पता है, वे यादें नगमे बन जाती हैं, हृदय को चुभन देती हैं और जीवन को अंधकार। मनुष्य भूल जाता है , दिन और रात का फर्क-

अपनी नज़र में आज कल, दिन भी अंधेरी रात है
साया ही अपने साथ था, साया ही अपने साथ है
इस दिल के आशियान में बस उनके ख़याल रह गये
 तोड़ के दिल वो चल दिये, हम फिर अकेले रह गये..

    ऐसी ही वेदना जब नियति से निरंतर प्रश्न किये ही जा रही थी , कोमल हृदय बुरी तरह आहत था, माँ के आंचल की स्नेहिल छांव की याद सता रही थी और कोई अवलंबन नहीं था , स्नेह का कोई मोल नहीं था , वह उपहास कर रहा था , दिल से लेकर ईमान तक की सौदेबाजी में  दम घुटा जा रहा था और जीवन व्यर्थ लग रहा था ,  आहत हृदय सावधान कर रहा था-

ऐसे वीराने में इक दिन, घुट के मर जाएंगे हम
जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम
 ये तेरा दीवानापन है ...

     तब इन यादों ने ही ब्लॉग पर पथिक को सृजन शक्ति दी है और वह अपने दर्द को शब्द देने का प्रयत्न करने लगा । ढ़ाई दशक की अपनी पत्रकारिता के बाद पिछले वर्ष जब वह आखिरी आशियाना भी उजड़ गया और फिर चंद्रांशु भैया ने अपने होटल में उसे शरण दी । उस वक्त मन की व्याकुलता चरम पर थी । हृदय बार बार स्मृतियों के घरौंदे की ओर भाग रहा था, मानो यह यादों की बारात नहीं उसका जनाजा निकला हो । दर्द, वेदना, अवसाद , भावना एवं  सम्वेदनाएँ और स्वार्थ सभी मिलकर कर " पथिक के विवेक " के अंतिम संस्कार के लिये चिता सजाए हुये थें । कोई आश्रय नहीं था, कोई आश्रम नहीं था , जिसका सहयोग ले पथिक अपने व्याकुल मन को सांत्वना दे सके । ऐसे में ब्लॉग को जब उसने पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ी अपनी कड़ुवी यादों से सजाना प्रारम्भ किया , सर्वप्रथम रेणु दी का मार्गदर्शन मिला । उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सकारात्मक लिखों या नकारात्मक , बस वे निरंतर पथिक का उत्साहवर्धन करती रहीं, अपनी स्नेह भरी प्रतिक्रिया के माध्यम से, फिर तो वह बेझिझक लिखता ही चला गया, अपनी स्मृतियों को, अनुभूतियों को अपने चिंतन को शब्द देने लगा।  इन यादों के कारण ही पत्रकारिता जगत से इतर एक नयी पहचान मिली और सम्मान भी। माना कि  ब्लॉग पर वह अन्य रचनाकारों की तरह सकारात्मक लेखन को केंद्र में नहीं रख सका , फिर भी इस नकारात्मकता में कुछ न कुछ सामग्री सभी के लिये है , ऐसा उसका मानना है, क्यों कि कल्पनाओं में जाकर उसने कभी अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त नहीं की है , हर एक दर्द से रूबरू हुआ । जब स्नेह के चंद शब्दों की चाह में छला गया। तो लगा अपनी यादों की पोटली टटोलने-

क्या खोया, क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में,
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें..

   शिकायत तो  पथिक को भी किसी से नहीं है, बस समय के साथ सभी आगे बढ़ गये और उसकी मंजिल दूर होती गयी।
यादों की जंजीरों को तोड़ने का प्रथम प्रयास अल्पकालीन आश्रम जीवन में उसने किया था। सफलता की ओर अग्रसर था कि अपनों की स्मृतियों के मोह ने उसे मुक्ति पथ से वंचित कर दिया। अन्यथा ध्यान की उस अवस्था में उसे यह कहाँ  याद था कि उसके भी अपने हैं और कुछ सपने हैं। कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी,बस एक कार्य था भृकुटि के मध्य ध्यान केंद्रित करना। उस सुखद क्षण को जब भी याद करता है वह , हृदय आनंद से भर उठता है। वह उलाहना देता है कि पथिक अपनी मंजिल से क्यों भटक गया , स्नेह के जंजीरों में बंध कर छला जाता रहा। काश ! वह आश्रम, वह कुआँ  वह साधना स्थल और वह खड़ाऊँ फिर से प्राप्त कर लेता, लेकिन मन में वह पावनता कहाँ से लाएगा तू पथिक ? यह सोच मन उदास हो जाता है।
   बात यादों की हो रही है, तो महाभारत के आदिपर्व में दुष्यंत और शकुंतला का दृष्टांत है। महाराज दुष्यंत जब शकुंतला से गंदर्भ विवाह करते हैं ,तो वापस राजमहल वापस जाते समय अपनी एक अंगूठी उसे देते हैं । वे कहते हैं कि इस निशानी को दिखलाते ही उन्हें विवाह का स्मरण हो जाएगा । परंतु शकुंतला से वह अंगूठी खो जाती है और राज दरबार में दुष्यंत अपनी पत्नी को पहचान नहीं सकें।
    मेरा चिन्तन तो यही है कि अपनी स्मृतियों से इतना भी दूर न चले जाएँ हम कि अपनों को ही न पहचान पाए।  वर्ष 1994 से पत्रकारिता यहाँ कर रहा हूँ। अर्थयुग के प्रभाव में युवावस्था में जब कभी जुगाड़ तंत्र का अंग बनने के लिये मन मचलता था, तो ये यादें ही थी ,जो यह कह राह रोक देती थीं कि अपने अभिभावकों से जो संस्कार मिला , उसे तुम कैसे भुला सकते हो ?
  हम अपने राष्ट्र वैभवशाली गौरव गाथा , महान क्रांतिकारियों के बलिदान और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के त्याग को भुला रहे हैं, उन्हें भी भूल रहे हैं, जिन्हें हर वर्ष राष्ट्रीय पर्वों पर यह कह नमन किया जाता है-

कुछ याद उन्हें भी कर लो
 जो लौट के घर न आये
ऐ मेरे वतन के लोगों
ज़रा आँख में भर लो पानी..

  परिणाम यह है कि हमारे लोकतंत्र पर दिनों दिन भ्रष्टतंत्र की पकड़ मजबूत होती जा रही है , तो आये उन यादों को फिर से जीवित करें हम , जो भारत माता के इन अमर बलिदानी सपूतों से और उनके संकल्प से जुड़ी हैं। उनके सपनों को साकार करें। भ्रष्टतंत्र और जुगाड़ तंत्र से यदि हमें बाहर निकलना है ,तो बापू और शास्त्री जी जैसे महान आत्माओं की सादगी याद रखनी होगी। जिसके आलोक में हम योग्य जनप्रतिनिधियों का चयन करें। जिन्होंने करोड़ों लुटा कर चुनाव लड़ा , सिंहासन पाने के बाद वे जनता को फिर क्यों याद रखेंगे ?