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Friday 4 January 2019

आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है

आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है
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आशियाना कभी किसी का नहीं होता है।  जिन्होंने महल बनवाये आज उसमें उनकी पहचान धुंधली पड़ चुकी है। फिर भी आशियाना है, तो जीवन है। ब्रह्माण्ड है , पृथ्वी है, तभी प्राणियों की उत्पत्ति है। हर प्राणी को ठिकाना चाहिए ।
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गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी
करोगे याद तो, हर बात याद आयेगी
गुज़रते वक़्त की, हर मौज ठहर जायेगी ...

       इन पंक्तियों में छिपे दर्द ने मुझे अपने आशियाने की याद दिला दी है। इस तन्हाई में सोचता हूँ कि क्या उन्हें भी मेरा इंतजार होगा ? मैं तो अपने किसी भी आशियाने को भूला नहीं हूँ। कोलकाता में बड़ा बाजार , वाराणसी में कतुआपुरा , मुजफ्फरपुर से लेकर कालिम्पोंग तक , अपना वह आश्रम और यहाँ मीरजापुर में जहाँ-जहाँ रहा मैं। एक-एक करके मेरे ये घरौंदे बिखरते चले गये। मेरे तन मन पर एक और नया जख्म वे छोड़ते गये। जिन्हें भी अपना समझा, उन्होंने निराश्रित किया।
      मैंने कितनी खूबसूरती से इन्हें सजाया था, जो भी देखता , बिना तारीफ किये नहीं रह पाता था। वह सब अब भी स्मृति में हैं ,उनके लिये मैं अवश्य स्मृति शेष हूँ।हाँ,सिल्लीगुड़ी (प० बंगाल) में माँ-बाबा के जिस घर में मेरा प्रथम आगमन हुआ , उसे नहीं देखा हूँ । बस उसके किस्से सुना हूँ। वहाँ उस गुप्ता नर्सिंग होम को जहाँ मेरा जन्म हुआ था दार्जिलिंग से लौटते समय युवावस्था में अवश्य देखा हूँ ।
     वैसे तो घर छोड़ने के बाद विवशता में किसी दुकान की पटरी और रेलवे प्लेटफार्म भी मेरा आशियाना सा ही रहा । अब बड़े भैया चंद्रांशु गोयल जी के सुविधाओं से युक्त होटल में बीते एक वर्ष से हूँ।  कुछ शेष न रहा , तो सोचता हूँ कि एक दिन जब मैं अनंत में समा जाऊंगा तब यह ब्रह्माण्ड अपना ही होगा और  यहाँ जो ठिकाने हैं , वे सब नश्वर हैं । ऐसे में बचपन में फकीर बाबा की वाणी की चेतावनी मेरे उदास मन की चिंता को चिंतन में बदल देती है -

 माटी चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा ।
 ना घर तेरा, ना घर मेरा , चिड़िया रैन बसेरा ।।

    और अब भी दाऊजी घाट जाने वाले मार्ग पर स्थित इन महाशय ,जो सभ्रांत परिवार के हैं, का यह विश्राम स्थल , जो ऊपर चित्र में है , पथिक को पुनः दृढ़ता से इसी राह पर चलने का संदेश देता है कि कुछ भी यहाँ अपना कहाँ। संसार तो एक सेतु है,बस इस पर से हमें गुजरते जाना है। जो इस आशियाने में ठहरने के इच्छुक है , उन्हें यह भी ज्ञात होना चाहिए कि जीवन घड़ी भर का है। आश्रम में मुझे यही तो सिखाया जा रहा था-

उड़ जायेगा हंस अकेला
जग दर्शन का मेला ...

      मन जब कभी अपने ख्वाबों के महल को लेकर अशांत होता है, अतीत में भटकता, तड़पता है , उस सूने पड़े दरवाजे को याद करता है, जिसके अंदर अपनों का बसेरा था। उस वेदना में डूबने लगता हूँ । कोलकाता में था तो बचपन में मैं कितना सुंदर दो मंजिला घरौंदा बनाता था। वह पीले रंग का सभी सुविधाओं से युक्त घर (माडल) मुझे पुकार रहा है। कबूतरों तक के लिये टोकरी और डिब्बों से उनके लिये छावनी बनाता था, माँ की डांट के बावजूद भी। याद आता है ढ़ाई दशक पूर्व के वे दिन जब इस पत्रकारिता पेशे से रोटी, कपड़ा और मकान की चाह थी । सुबह से रात तक अपने रंगमंच पर डटा रहा वर्ष 2017 तक , पर कुछ नहीं मिला ,सिर्फ थोड़े से सम्मान के अतिरिक्त। न घर न परिवार मिला, न मठ न संत मिला, न अनाथालय और न मुझ जैसा यतीम मिला। त्रिशंकु की तरह मध्य में अटका- भटका सा हूँ। इस विराने में जब  कभी  दिल का जख्म बढ़ जाता है, तो यह घाव नगमा बन जाता है-

एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में
आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है
दिन खाली खाली बर्तन है, और रात है जैसे अंधा कुँवा
इन सूनी अन्धेरी आँखों में, आँसू की जगह आता हैं धुँआ
जीने की वजह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूँढता है ...


      वैसे तो, जब भी मन शांत होता है , उसे समझाने का प्रयास यूँ करता हूँ कि सिद्धार्थ ने पत्थरों का राजभवन छोड़ा, तो बुद्ध बन गये, उन्हें सुगंध से भरा उपवन मिला.. ।  जब निर्वाण को  प्राप्त हुये बुद्ध तो किसी बंद मठ में नहीं, यह धरती और खुला आसमान उनका अंतिम विश्राम स्थल था। फिर से कोई एक और गौतम बुद्ध क्यों नहीं हुआ, इसलिए न कि बौद्धों ने मठों को अपना लिया। बंद कमरे में ज्ञान का प्रकाश कैसे हो अन्यथा राजमहल छोड़ सिद्धार्थ को वन में पीपल के पेड़ का आश्रय क्यों लेना पड़ता।
       काश ! यदि ऐसी सोच हम मनुष्यों की हो जाती, जमीन के इन टूकड़ों के लिये नरसंहार नहीं होता , संघर्ष नहीं होता। जिस धन से हर एक के लिये सुंदर आशियाना बन सकता था, उससे एटम बम तो न बनता। लेकिन, हम इंसान तो जानवरों की तरह एक दूसरे के घरौंदे को उजाड़ने , लूटने और उस पर अधिकार जमाने के प्रयत्न में आज भी हैं, जैसे आदिमानव युग में थें। भले ही विश्व युद्ध नहीं हो रहा हो, फिर भी भाई- पट्टीदार लड़-मर रहे हैं। मैं अपना घर इसीलिये छोड़ा था कि मुझे यह व्यंग्य चुभन दे गया था ,
  "इसके दादा का है, इसीलिये मुफ्त में रोटी चाहिए ।"
घर छोड़ने के बाद से भटकता ही रहा, अब यह होटल मेरा ठिकाना है, मेरी नियति है, मेरे जीवन की पाठशाला है।
      पक्षियों को घोंसला बनाते तो हम सभी ने देखा है। वे कितना कठोर श्रम कर इसे बनाते हैं, अंडे देते हैं और जब उसमें से बच्चे निकलते हैं, तो उसका पालन बड़े प्यार से करते हैं। परंतु आपने क्या कभी यह भी देखा है कि बच्चे जैसे ही उड़ने लगते है, उस घोंसले से उनका नाता टूट जाता है। उनके पालनहार ही उन्हें वहाँ से भगा देते हैं । वे अपने श्रम से अपना नया नीड़ बनाते हैं । इस प्रकृत का सिद्धांत भी गजब का है । जो अपने थें वे पराये हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं। आशियाना कभी किसी का नहीं होता है।  जिन्होंने महल बनवाये आज उसमें उनकी पहचान धुंधली पड़ चुकी है।

    .सच तो यह है कि हम प्राणियों का आशियाना अपना ही यह "शरीर" है । वह स्वस्थ है , तो यह जग अपना है। नववर्ष के पहली ही शाम कमरे पर तबीयत बिगड़ गयी, उठ कर एक गिलास पानी लेना भारी था।
कमरे में मौन पड़ा रहा। कोई आश्रय नहीं था
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मूर्छित सा होता जा रहा था ।  ऐसा लगा तब
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कि मेरी पुकार में शायद वह दर्द नहीं था,जो
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जिस तरह से नववर्ष का मेरा पहला पोस्ट
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कहीं अपना स्थान न बना सका ।
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   इस उत्सव के दिन किसी को पुकारना भी उचित नहीं था । ऐसे "उत्सव और उत्साह" का निवास स्थल हमारा हृदय है। वह छला गया,तो फिर उपवन में भी हम क्यों न हो, जब तक किसी अपने का " स्नेह" अथवा " वैराग्य " भाव दो में से एक  नहीं मिलता , हर वैभव पीड़ा देगा। विवेक जिसका निवास   मस्तिष्क में है, शरीर में रक्तसंचार यदि कम हो जाए , तो  ज्ञानी का भी  मति भ्रम हो जाता है । जिह्वा पर वाणी का निवास है। शब्द से ही समाज में हम सभी की पहचान है। आश्रम में रह कर देखा कि साधक का "मौन" बिना वाणी के मुखरित हो जाती है। इसी शरीर में उस "क्षुधा" का भी निवास है , जो सदैव धधकती रहती है । जिसकी भूख कभी नहीं मिटती है। इस सृष्टि में जितने भी प्राणी  हैं, सभी में यह सम भाव से व्याप्त है।  शरीर रूपी हमारे आशियाने के स्वास्थ्य की यह कुंजी है। क्षुधा की पूर्ति के लिये ही मनुष्य सहित पशु - पक्षी सभी प्राणी जीवनपर्यंत कर्म करते हैं। कर्म से ही परिवार और समाज के लिये आशियाने का निर्माण होता है।
          आशियाना है, तो जीवन है। ब्रह्माण्ड है , पृथ्वी है, तभी प्राणियों की उत्पत्ति है। हर प्राणी को ठिकाना चाहिए । फिर कैसा होना चाहिए,  किसी इंसान का बसेरा। कुछ ऐसा ही , जो कभी मेरा युवा मन गुनगुनाता था, कालिम्पोंग की वादियों में ,जब हर शाम  मैं अपने कमरे के बारजे पर खड़ा बादलों को अपने करीब आते देखता था । तब भी अकेला ही था  लेकिन भावी जीवन के लिये इन आँखों में कोई स्वप्न था -

   प्रेम की गली में एक छोटा सा घर बनाएंगे
कलियाँ ना मिले ना सही काँटों से सजाएंगे
 बगियाँ से सुंदर वो बन होगा
झिलमिल सितारों का आँगन होगा
 रिमझिम बरसता सावन होगा
ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा ..

  बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए स्त्री- पुरुष का यह आशियाना। गृहस्थ जीवन से इतर भी है, यह प्यार का घरौंदा। हममें से अनेकों ने इसे देखा है और महसूस किया है , जब मन मयूर थिरक उठता है-

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा
उस गली से हमें तो गुज़ारना नहीं
जो डगर तेरे द्वारे पे जाती ना हो
उस डगर पे हमें पाँव रखना नहीं..।

  चलते- चलते यह कहना चाहूँगा कि माँ की गोंद से सुखद आशियाना मेरी दृष्टि में और कोई नहीं है। हाँ , वे खुशनसीब  हैं, जिन्हें अपने हमसफर के आंचल का छांव मिला।