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Thursday 28 June 2018

कबीर की वाणी है हमारा आत्मबल



  महान समाज सुधारक संत कबीर को लेकर मेरा अपना चिंतन है। कबीर की वाणी में मुझे बचपन से ही आकर्षण रहा है । जब छोटा था, तो विषम आर्थिक परिस्थितियों में पापा (पिता जी)  अकसर ही कहा करते थें -

" रुखा सुखा खाई के ठंडा पानी पी।
देख पराई चुपड़ी मत ललचाओ जी।।"

  जिसे सुन हम सभी अपनी सारी तकलीफों और शिकायतों को भुलाकर कर बिन मुस्कुराये रह नहीं पाते थें।

   और अब जब मैं किसी को इसलिए दुखी देखता हूं कि उसे कहीं से न्याय नहीं मिल पा रहा होता है । जिससे अपने इस शोषण से वह व्यथित हो रहा होता है , तो उसे सांत्वना देने के प्रयास कहा करता हूं-

 "दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय।
बिन सांस की चाम से, लोह भसम होई जाय।।"

  यह उस संत की वाणी है,  जिसने 15 वीं शताब्दी में एक जनक्रांति ला दी थी । और आज 21 वीं सदी में भी उतनी ही प्रासंगिक है। मैंने स्वयं अपने आहत मन को अनेकों बार यही कह सांत्वना दिया है। कहना नहीं होगा कि परिणाम भी मेरे अनुकूल रहा। यहां पत्रकारिता में आज मैं इसी लिये ढ़ाई दशकों से डटा हुआ हूं। जो मुझे बाहर करना चाहते थें, वे स्वयं नेपथ्य में हैं। मेरा सदैव से यह चिन्तन रहा है कि गरीब और ईमानदार व्यक्ति को पीड़ा न दिया जाए। इनके विरुद्ध षड़यंत्र न हो और न ही इनके हक अधिकार पर डाका डाला जाए। फिर भी दर्प से भरे सामर्थ्यवान लोग कबीर की चेतावनी की अनदेखी करते रहते हैं। मैं सिर्फ दो बातें उनसे कहना चाहता हूं। गरीब व्यक्ति को भूल कर भी न सताया करों और एक निर्बल व्यक्ति की आह से भी खतरनाक एक ईमानदार  व्यक्ति की बददुआ होती है, क्यों कि वह अपना सर्वस्व दावं पर लगा चुका होता है, इस संकल्प के लिये। वैसे, मैं कोई उपदेशक तो हूं नहीं ,जो ज्ञान बांटता फिरूं , भले ही स्वयं अंधकार में पड़ा रहूं। पहले क्या किया , वह और बात है, पर अब अपनी कथनी करनी में बिल्कुल भी अंतर नहीं रखना चाहता हूं। भले ही पत्रकार हूं, परंतु पला-बढ़ा एक निम्न मध्यवर्ग में ही हूं । जब कोलकाता में बाबा- मां के यहां था तो , वह दूसरी बात थी। वहां , मेरी हर अभिलाषा पलक झपकते ही पूरी हो जाती थी। फिर जब मीरजापुर आया तो संघर्ष की प्रतिमूर्ति बनने को विवश था। किसी तरह से समर्थ जन अमानुष बन निर्बल लोगों का शोषण कर रहे हैं, इसकी प्रथम अनुभूति भी इसी मीरजापुर में मुझे हुई। एक कड़ुवा सत्य तो यह भी है कि मैं स्वयं भी उन मूक बधिर लोगों से ही एक हूं, जिसने अपने हक अधिकार के लिये कभी भी जुबां नहीं खोली। नियति के समक्ष समर्पण के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी तो नहीं होता है मनुष्य के पास। बस ऐसा ही कह देते हैं निर्बल जन ! पर कबीर ने ऐसा किया क्या ? इसलिये मैं इस लंबी बीमारी(ज्वर) में भी अपने कर्म का त्याग नहीं कर पाता हूं। मुझे कोलकाता में अपने बचपन का वह दिन याद हो आता है। जब सुबह लम्बे समय से अस्वस्थ मेरी मां (नानी) ट्रांजिस्टर जैसे ही खोलती थीं । वंदेमातरम के बाद कबीर वाणी ही सुनने को मिलती थी। मैं बाहर सीढ़ी पर बैठा पढ़ रहा होता था पर कान रेडियो की ओर रहता था ।  तब भी कबीर के इस दोहे में

" माटी कहे कुम्हार से , तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी  तोय ।। "

  तब मेरा जितना आकर्षक था , आज कहीं अधिक है। इसी के बल पर तो मैं करीब दो दशक अपने पुराने बुखार को बराबर  चुनौती दिये जा रहा हूं। सुबह 5 से 7 बजे दो घंटे साइकिल प्रतिदिन चलाता हूं और साथ ही चार घंटे तक समाचार भी मोबाइल पर ही रोजाना टाइप करता हूं। फिर भोजन बनाना आदि भी अनेक कार्य तो रहता ही है।
     हां, जब यह देख लिया हूं कि अखबार में स्वतंत्र लेखन नहीं कर सकता हूं। किसी जनप्रतिनिधि के प्रेसवार्ता के प्रकाशन के लिये पहले विज्ञापन चाहिए। तो मैंने इस नये प्लेटफार्म का चयन किया है। लेकिन, अन्याय के समक्ष समर्पण करना मेरी आदत नही हैं। सच कहूं, तो ब्लॉग लेखन से मेरी नई पहचान बनी है।
   यहां मैं कबीर की उस वाणी पर खरा उतरने की मंशा रखता हूं कि

 "कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सब की खैर।
   ना  काहू  से दोस्ती , न  काहू  से  बैर ।।"

निष्पक्ष भाव का होना जीवन में इसलिये आवश्यक है कि हम  स्वयं को भी टटोल सकें। जब यह मित्र और शत्रु का द्वंद हमारे अंदर समाप्त हो जाएगा। तभी हमें इस सत्य का ज्ञान होगा -
  "बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।"
शशि
चित्रः गुगल से साभार