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Monday 19 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
आत्मकथा

19/3/18

सोच रहा हूं कि अपने बारे में लेखन कार्य का विचार मन में पहले क्यों नही आया। कुछ लिखता तो चिन्तन शक्ति बढ़ती। पूर्व में जाने अनजाने में की गई गलतियों से सबक लेता।। पर मैं सिर्फ मरा-कटा, हत्या, दुराचार और राजनीति पर बड़ी बड़ी खबरें लिखता रह गया। हां जन समस्याओं को भी बखूबी उठाया हूं। जिस दौरान मित्र कम शत्रु अधिक बना लिया । तभी तो कुछ मित्रों ने ही लंगड़ी मारने के लिये मुकदमे में फंसा दिया है मुझे । क्यों कि सच सुनना किसे पसंद है। और आज की पत्रकारिता चाटूकारिता भरा व्यापार बन कर रह गई है। इस भंवरजाल से सहज ही निकला नहीं जा सकता है।  परंतु मैं तो अपने बारे में सच सच लिख ही सकता था। समाज को आईना दिखलाता रहा , पर अपने अन्तर्मन में नहीं झांका।  और अब जब आत्मकथा लिख रहा हूं, तो की गयी गलतियां एक एक कर मन मस्तिष्क को बोझिल बनाते जा रही हैं। हालांकि लेखनी के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति से मन का बोझ हल्का भी हो रहा है। आत्मबल बढ़ रहा है और वैराग्य भाव की ओर आकर्षण भी। चलों इतना तो अच्छा हुआ ही,  एकाकी जीवन से बाहर निकल मोबाइल के स्क्रीन पर मैं अपने लिये कुछ तो टाइप कर रहा हूं। संग्रह कर रहा हूं। शेयर कर रहा हूं और पोस्ट भी। ओ कहा गया है न कि इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल... । तो साहब मैं बोल तो नहीं लेखन संग्रह कर रहा हूं।

       अब जो सबक मैं अपने अनुभवों के आधार पर आपसे सांझा करने जा रहा हूं। वह है लक्ष्य के मध्य कोई मोह नहीं होना चाहिए। मोह चाहे वस्तु का हो, व्यक्ति का हो अथवा अपनी पहचान का ही क्यों न हो। सोचे जरा आवश्यकता अनुसार सवारी हम नहीं बदलेंगे तो फिर गणतव्य तक कैसे पहुंचेंगे। मैंने भी यही गलती की । वह यह रही कि एक ही समाचार पत्र का आश्रय लिया रहा। उसे ही अपना रंगमंच समझ बैठा। नहीं, तो उस दौर में मेरे परिश्रम से हर प्रमुख समाचार पत्र के स्थानीय जिला प्रतिनिधि प्रभावित थें। जब यहां वर्ष 1994 में आया तो समय कोई मोबाइल फोन नहीं था, न  ही फैक्स मशीन । बाद में  दैनिक जागरण  प्रतिनिधि के पास फैक्स मशीन आ गयी। बाकी अन्य लोग तारघर अथवा एक धनाढ्य राजनेता/ कालीन निर्यातक के यहां से फैक्स भेजते थें। लैंडलाइन से बिल काफी उठता था। उस दौर में भी मैं समाचार संकलन के क्षेत्र में किसी से पीछे नहीं था। अन्य पत्रकार कहते भी थें कि  साइकिल से तुम कहां कहां कैसे चले जाते हो। समाचार संकलन, उसे  ईमानदारी से निष्पक्ष भाव से लिखना, अखबार लाना और फिर उसका वितरण तभी से आज तक मैं करते ही आ रहा हूं। न अपने न ही अपनों के बारे में हाल खबर रखने का फुर्सत तब मुझे मिला और न ही अब। खैर मेरे इसी श्रम को देख दैनिक जागरण का स्थानीय कार्यालय जब अस्तित्व म़ें आया, तब भी मुझे अवसर दिया गया था, बार बार कहा जा रहा था कि शशि वहां नहीं तुम्हारा भविष्य यहां बड़े समाचार पत्रों में है और फिर  उसके बाद जब अमर उजाला तथा हिंदुस्तान की पहचान बढ़ी , तो बाद में उनके दफ्तर में भी मेरी पूछ थी ही। मैंने कुछ लोगों की नियुक्ति की सिफारिश तक की। वे मुझे चाहते थें और मैं गांडीव नहीं छोड़ना चाहता था। क्यों वह मेरी पहचान ,मेरी कर्मभूमि , मेरा रंगमंच सभी कुछ तब तक बन गया था। उस समय के अपने कार्यालय के सभी वरिष्ठ कनिष्ठ सदस्यों से मेरा लगाव बन गया था। सच पूछे तो वे ही मेरे अभिभावक बन गये थें। सरदार जी, डाक्टर साहब, अत्रि जी इन तीनों वरिष्ठ जनों को मैं अंकल ही कहता था। वहीँ मधुकर जी एवं सत्येंद्र जी मेरे हर समाचार को सुधार कर यह बतलाते रहते थें कि किन शब्दों का प्रयोग कहां पर सटीक रहेगा । तब संस्थापक सम्पादक जी आदरणीय डा०भगवान दास अरोड़ा जी, संपादक राजीव अरोड़ा जी और शशिधर सर का भी आशीर्वाद मिला। तो यहां मीरजापुर में भी गांडीव में खरी- खरी बातें लिखने से मेरी बड़ी पहचान हो गई थी।(शशि)
क्रमशः

आत्मकथा 18 मार्च


जीवन की पाठशाला
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18/3/18

      चलों एक कार्य तो इस वर्ष मेरे हित में बहुत अच्छा यह हुआ कि विचलित मन की स्थिति को वैराग्य भाव की ओर बढ़ाने के लिये एक बड़े मोह का बंधन टूटता दिखा। चाहे घर-परिवार अपना हो अथवा मित्र- बंधु और शुभचिंतकों का, उनसे जुड़े होने का भी मोह तो होता ही है, जिससे मैं अब पूर्ण मुक्त हो गया हूँँ। जहाँँ अपना आशियाना था, जहाँँ भोजन करता था और जहाँँ परिवार के सदस्य की तरह होने के कारण एक फैमिली मेंबर की तरह ही तो था, वह स्थान अब अपना नहीं रहा। जब कभी किसी कारण भोजन नहीं किया, समय से घर (यही कहेंगे न)  पर नहीं पहुँँचा, तो स्वाभाविक है कि कहाँँ हैं, इतना तो पूछा ही जाता था। परंतु जहाँँ था, उनके पुत्र की शादी होने को हुई और फिर तब मुझे नये शरणस्थली की चिंता होने लगी। इस समस्या को चंद्रांशु भैया ने दूर कर दिया है। मैं उनके होटल में आ गया। गृहस्थी के ढेरों सामान जिसे वर्षों पूर्व कभी यह सोच कर खरीदा था कि  कभी अपना भी एक छोटा-सा आशियाना होगा ही, अब जब वह दिन आया ही नहीं, तो फिर इनका क्या प्रयोजन था। सो, अधिकाशं सामान हटा दिया और जो शेष बचा है, उससे भी मुक्त होना चाहता हूँँ। जितनी आवश्यकता सीमित होगी, मन का भटकाव उतना ही कम होगा । प्रथम आसान सीढ़ी इसके लिये मेरे विचार से भोजन है। तो मैंने  इस पर भी अंकुश लगा ही लिया हूँँ , यानी कि निश्चय कर  लिया कि दिन में दूध - दलिया और रोटी - सब्जी ही लूँँगा, रात्रि में इसकी जगह कोई हल्का आहार ले लूँँगा । सारे स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को मैंने लगभग त्याग ही दिया । लेकिन, तब जब मैं मीरजापुर आया तो अनेकों सपने जवां थें...
हाँँ, तो अपनी आत्मकथा में कल बात मीरजापुर में शरणस्थली की तलाश की कर रहा था।
   किन्तु आज की तरह तब  यह नहीं गुनगुनाता था कि मुसाफ़िर हूँँ यारों न घर है न ठिकाना, मुझे बस चलते जाना है...
   जबकि उस समय अपरचित शहर और अपरिचित लोग थें। किससे कहता कि  रात्रि गुजारने के लिये स्थान चाहिए। लॉज-धर्मशाला में पहले कभी ठहरा नहीं था। नियति का जरा खेल देखें की जिस युवक के अनेक धन सम्पन्न रिश्तेदार कई प्रांतों में हो। जिसका प्रथम पाठशाला कोलकाता के सबसे महंगे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में से एक रहा हो। वह व्यक्ति  मीरजापुर की सड़कों पर पैदल ही " गांडीव- गांडीव " की पुकार लगा रहा था। उसके पास रात्रि में सिर छुपाने के लिये  इस शहर में कोई स्थान नहीं था। यदि बस कभी 12 बजे रात बनारस पहुँँची, तो रात बिन भोजन ही गुजारना पड़ता वहाँँ अपने ही घर पर।
   ऐसे में आशा की किरण बनी यहाँँ मीरजापुर में स्टेशन रोड वाली दादी जी( अब स्वर्गीय)।
 -शशि गुप्ता

क्रमशः