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Thursday 27 December 2018

मेले में रह जाए जो अकेला..

मेले में रह जाए जो अकेला..

(बातें कुछ अपनी, कुछ जग की)
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यदि खुशी और दो पल का साथ मयखाने में भी मिले , तो संकोच मत करो वहाँ जाने में । क्या करोगे आदर्श पुरुष बन कर ..?  यह समाज ये राजनेता , ये भद्रलोग तुम्हारे त्याग और बलिदान को अपने हानि लाभ के चश्मे से देखेंगे..
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आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है
आते जाते रस्तें में यादें छोड़ जाता है
 झोंका हवा का, पानी का रेला
मेले में रह जाए जो अकेला
फिर वो अकेला ही रह जाता है ...

        देखते ही देखते वर्ष 2018 ने अलविदा कहने के लिये अपना हाथ उठा लिया है। अब वह इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा ,फिर कभी न आने के लिये। जिसका कोई अपना है , जिसके लिये उसने जीने की कोशिश की , उसे कुछ हासिल हुआ ,अन्यथा मेले में अकेला है। जाना तय है, सब-कुछ नश्वर है , समय कम है और आकांक्षाएँ अनंत है । अपनी तो एक छोटी सी चाहत थी , जो समय की किताब में किसी बेगाने,  अंजाने और बंजारे की तरह दफन होने को है इस वर्ष ,इसी दुनिया के मेले में । जैसे अच्छे दिन आने की ललक लिये आम जनता और मजीठिया आयोग की सिफारिश लागू होने की हम श्रमजीवी पत्रकारों की उम्मीद टूट गयी इस वर्ष भी ।
         बात अपने देश की राजनीति से शुरु करुँ , तो इस वर्ष ने "विधाता" कहलाने वाले लोगों को आईना दिखलाया है और सियासी जुमले के बादशाह के समक्ष वाकपटुता की राजनीति में अनाड़ी  " पप्पू "को खिलाड़ी बनने का एक अवसर भी दिया है। "नोटा" की पहली बार निर्णायक भूमिका दिखी अपने पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में। अपने यूपी में बुआ- भांजा मिल कर सियासी खिचड़ी पकाने की तैयारी में जुटे हैं। बिहार में भी विधान सभा चुनाव में सत्ता पक्ष को तलवार की धार से गुजरना होगा , यानी कि वर्ष 2019 के चार - पांच माह तो सियासी बिसात पर शह- मात के खेल में ही गुजर जाएँगे। किसी को राजनैतिक वनवास मिलेगा , तो किसी को राजपाठ । आम आदमी के लिए बस इस नगमे जैसा ही हो गया है आम चुनाव-

 देखें हमें नसीब से अब, अपने क्या मिले
अब तक तो जो भी दोस्त मिले, बेवफ़ा मिले
हमने उदासियों में गुज़ारी है ज़िन्दगी
लगता है डर फ़रेब-ए-वफ़ा से कभी कभी
ऐसा न हो कि ज़ख़्म कोई फिर नया मिले ...

    उदासी में जिंदगी गुजारने में वह दर्द नहीं होता , जितना उम्मीद टूटने पर ..।
   नववर्ष के स्वागत की अभिलाषा वर्षों पहले कोलकाता से बनारस वापसी के पूर्व बचपन में ही टूट गयी ,  क्रिसमस डे की अगली सुबह माँ का साथ छूट गया और फिर न ही ऐसा कोई अपना मिला कि नूतन वर्ष के उस पुष्प का एहसास मुझे होता। जीवन यादों की जंजीरों में कैद रहा , वायदों के टूटने से छला गया , अपना उजड़ा आशियाना भी इसी वर्ष कुछ दर्द और सबक दे गया । फिर भी वर्ष 2018 मेरे लिये कई मायनों में खास रहा। पीड़ा से भरा यह हृदय मेरा दुनिया की इस भीड़ में किसी अपने को तलाशते हुये , मानो मोमबत्ती की तरह स्वयं ही जल -जल कर , आँसुओं की तरह  ढुलक- ढुलक कर अंतिम भभक के साथ शांत होने को है । ऐसा लगा कि नियति के समक्ष सिर झुकाने की जगह उसने स्वयं के अस्तित्व को मिटाने की ठान ली हो।
    जिसके पास सबकुछ था बचपन में ,उसे इस वर्ष मुसाफिरखाना ने  यह पैगाम दिया-

जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
 आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
 कौन जानता किधर सवेरा...

    ब्लॉग पर आकर , " व्याकुल पथिक"  बना मैं  बेझिझक अपनी अनुभूतियों ,चिंतन और विचारों को व्यक्त करने लगा। मुझे अपने ऊपर सकारात्मकता का सिंबल लगवाना पसंद नहीं है। मैं जैसा हूँ , वैसा ही ब्लॉग पर भी जीता हूँ। यह वर्ष मेरे जीवन का वह पाठशाला रहा है, जहाँ  बाहर एवं भीतर के बंद कमरे में पढ़ने और पढ़ाने वाला मैं ही रहा । मेरी तन्हाई मुझे जख्म देती रही ,तो यह भी बताती रही कि दुनिया एक सर्कस है, तमाशा है और तू उसका "जोकर" है।  तेरा मेला, तेरा सपना, तेरा अपना सब पीछे छूट चुका है। जहाँ अब तू खड़ा है , उसी जगह , उसी रंगमंच पर  तुझे आखिरी शो अपने जीवन का करना है। अतः मन को कठोर कर ले ,क्यों कि दर्शक दीर्घा में तब वे तमाशबीन भी होंगे, जिन्हें तूने अपना समझा था, फिर भी तू आनजाने, बेगाने और बंजारे की तरह अपने रंगमंच पर आखिरी सांस लेगा..!
   यह 26 दिसंबर मुझे फिर से यही याद करा गया । माँ की विदाई  के साथ ही उनका वह हीरे का नथ ,जिसे उनकी सासु माँ ने दी थी, साथ ही माँ की उस अभिलाषा पर भी आँखें नम हो गयी, जो मुझसे थी उन्हें। उस नथ उनका वंश बढ़ाने की जगह पता नहीं किसी मीना बाजार में गुम हो गया..?
फिर भी-

ये जीवन है इस जीवन का
यही है,यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
यही है, यही है यही है छाँव धूप...

  हम जैसों का जीवन चाहे जैसा हो , सांसों की माला पूरा   करके ही जाना है। कायरों की तरह पलायन भी कर जाते हैं अनेक , परंतु खुदकुशी  से बेहतर है कि इस दुनिया को देखिये , दुनियादारी से मुक्त होने के लिये, इस उम्मीद से भी की कोई तो अपना होगा ,भले ही यह नगमा ही आपकी किस्मत हो-

आसमान जितने सितारे हैं तेरी महफ़िल में
 अपनी तक़दीर का ही कोई सितारा न हुआ
इस भरी दुनिया में, कोई भी हमारा न हुआ
गैर तो गैर हैं, अपनों का सहारा न हुआ ..

   इस वर्ष ने मुझे अनेक प्रलोभनों से मुक्त किया। धन, स्वादिष्ट भोजन और अपना आशियाना तीनों की चाहत से मुक्त हो चुका हूँ ,फिर भी दिल के किसी कोने में थोड़ी सी उम्मीद बची थी कि कोई मुझे समझता है, इस 26 दिसंबर की शाम वह शमा भी बुझ गयी, माँ की चिता की अग्नि की तरह, जिसकी राख आज भी दर्द देती है साथ ही यह संदेश भी  कि यह दुनिया दो दिन  मेला , पंक्षी तो चला अकेला ।
     नववर्ष में प्रयास रहेगा कि उस उत्तरदायित्व को ठीक से निभाता रहूँ , जो समाज के प्रति है। हाँ, पत्रकारिता अब बोझ लग रही है, इस वर्ष मैंने कुछ भी खास नहीं लिखा। जब तक लिखा था , जम कर लिखा था और डट कर लिखा था। परंतु न तो समाज उस अर्थयुग में उसका मूल्यांकन करता है और न ही  हम जैसों को इसका पारिश्रमिक मिलता है कि सम्मानजनक जीवन हो हम श्रमजीवी पत्रकारों का।

    चलते चलते एक आखिरी बात एक गीत की इन पंक्तियों के साथ कहूँगा-

हमको जो ताने देते हैं, हम खोए हैं इन रंगरलियों में -
 हमने उनको भी छुप छुपके, आते देखा इन गलियों में
 ये सच है झूठी बात नहीं, तुम बोलो ये सच है ना
कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना
छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना ...

   अतः यदि खुशी और दो पल का साथ मयखाने में भी मिले , तो संकोच मत करो वहाँ जाने में । क्या करोगे आदर्श पुरुष बन कर ..?  यह समाज ये राजनेता , ये भद्रलोग तुम्हारे त्याग और बलिदान को अपने हानि लाभ के चश्मे से देखेंगे। वे तो अब हनुमान जी की जाति - धर्म तय करने लगे हैं। यह जीवन प्रेम करने के लिये है। राम ने शबरी का झूठा बेर खाया , सिद्धार्थ ने बुद्ध बनने के लिये नर्तकी का खीर खाया , कृष्ण ने विदुर पत्नी का साग खाया ।
 और " प्यासा " फिल्म के नायक  ने जब पग - पग अपनों से ठोकर खाया , तब उसे  वह मिला जिसे समाज ने ठुकराया था ,जो समाज की नजर में पतित थी । लेकिन उसी ने इस ठोकर खाये शायर को अपना दामन दिया , प्यार दिया । जाति, धर्म और कर्म से परे है यह प्रेम की नगरी। इस विशाल दुनिया रुपी इस खारे समुद्र से यदि बूंद भर प्रेम का जिसे मिल गया, वह धनवान है, बाकी सब कंगाल। यह मत सोचो इस अमृत का पान किसने और किन परिस्थितियों में कराया, बस उसके स्वाद की अनुभूति करो । अनेक ऐसे अतृप्त मन हैं , जिन्होंने जीवन की हर शाम खारे समुद्र के किनारे गुजारा, सिर्फ इसलिये इस खारे समुद्र में वे उतरत रहे कि एक बूंद "मीठा जल" प्राप्त हो जाए। मन की प्यास बुझ जाए। फिर भी मोती नहीं मिली ,खाली सीपी मिली ।  उसके हर प्रयत्न का उपहास हुआ । उसकी इस "प्यास" को "तृष्णा" बता दिया गया। वह टूट गया और डूब गया , शेष बचती है तो उसकी दास्तान.. !

क्या साथ लाए, क्या तोड़ आए
रस्तें में हम क्या क्या छोड़ आए
मंज़िल पे जा के याद आता है
जब डोलती है जीवन की नैय्या
कोई तो बन जाता है खेवैय्या
 कोई किनारे पे ही डूब जाता है...

   इस वर्ष को अलविदा करते हुये , अपनी जीवन नैय्या के विषय में अब भी उस मासूम बच्चे सा सोच रहा हूँ , माँ के बाद जिसका कोई खेवैय्या नहीं है। वह छाया नहीं है, वह ममता नहीं,वह प्रेम नहीं है , जो सामर्थ्य प्रदान करे इस पथिक को, मंजिल दिखा सके , फिर भी नववर्ष का सामना करना है ,कर्मपथ पर डटे रहना है।