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Sunday 31 March 2019

अप्रैल फूल

अप्रैल फूल
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'अप्रैल फूल बनाया तो उनको गुस्सा आया ...'
    आज भी अप्रैल फूल के दिन यह गीत लोग गुनगुनाते हैं।
पश्चिमी देशों में एक अप्रैल को यह मूर्ख दिवस मनाने का प्रचलन रहा हैं, चूकि हम भारतीय भी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं। अतः उनकी संस्कृति, उनकी भाषा और उनका पहनाव भी हमारा हो गया है। जो दो शब्द अंग्रेजी में बोल लेते हैं, वे जेंटलमैन समझे जाते हैं। अभिभावक हिन्दी भाषा में साहित्य सृजन करते हैं, परंतु उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। यही कठोर सत्य है , हम भारतीयों का ?
   खैर बात मुझे अप्रैल फूल दिवस पर करनी थी और मैं भी न हिन्दी - अंग्रेजी में उलझ गया,  इसीलिये तो मित्रगण कहते हैं कि पत्रकारिता का बस्ता उतार फेंको, तब जीवन में तुम्हारे भी उल्लास आएगा। अन्यथा जेब खाली और बने रहो समाज के रखवाले। वो क्या कहते है न कि चौथा स्तंभ।  मैं भी समझता हूँ उनकी बातों में दम है, सामने पड़ी भोजन की थाली को यदि ठुकरा देंगे, तो फिर पूरे दिन  क्षुधा परेशान करेंगी ही। सो, मेरे जैसों के साथ भला अप्रैल फूल कौन मनाये । जो पहले से ही मूर्ख हैंं ,जीवन के इस सत्य को समझ न सका कि इस अर्थयुग में पैसे की ही प्रधानता है, जो अपने और पराये में फर्क नहीं कर पाया हो, उसके लिये तो जीवन का प्रत्येक दिन मूर्ख दिवस ही तो है ?
   ऐसी ही मनोस्थिति में यदि  कुछ भी मधुर स्मृतियाँ हो , अपने अच्छे दिनों की तो उसका अवलंबन निश्चित ही हमारे अधरों पर एक मुस्कान तो ला ही देगा। अपने इस यात्री गृह में  बैठे- बैठे आज जब मन बोझिल सा हो रहा था , तभी इस अप्रैल फूल दिवस का स्मरण हो आया। देखे न यह मन भी कितना चलायमान है कि वह तत्काल वर्षों पीछे अतीत में ले जाकर पटक देता है। जब पथिक बालक था और कोलकाता में अपने बाबा- माँ के साथ रहता था। बाबा नीचे मिठाई के कारखाने में और हम माँ बेटे ऊपर चौथी मंजिल पर। माँ तो अस्वस्थ होने के कारण अपने बेड पर ही बैठी रहती थीं और उनका मुनिया जो था , वह एक दिन पहले से ही योजनाएँ बनाने लगता था कि अप्रैल फूल दिवस पर विद्यालय , घर और कारखाने में किसे किस तरह से मूर्ख बनाना है। परंतु यह कार्य थोड़ा कठिन था , क्यों कि झूठ बोल कर नहीं वरन् कुछ  ऐसा खिला कर उन्हें मूर्ख बनाना था । है न कठिन कार्य , भला कोई आपका दिया क्यों खाएँगा ? तो माँ का सहारा लेता था कि हाड़ी दादू(नाना) देखे न आपके लिये  आज क्या  लेकर आया हूँ। माँ ने बनवाया है और मुझसे कहाँ है कि आपलोगों के लिये भी है। अब सामने पकवान हो और माँ ने भेजा हो, फिर इंकार कौन करेगा , अतः एक ही झटके में हाड़ी दादू, घोष दादू और बैनर्जी दादू सभी पकौड़ा खा लेते थें । फिर तो उनका क्या हाल होता था यह मत पूछे और मेरी हँसी थमती नहीं थी, क्यों कि उसमें इतनी अधिक हरी मिर्ची पड़ी होती थी कि मेरे इन बंगाली दादू लोगों का पूरा चेहरा लाल हो जाता था। लेकिन, साथ ही मैं उनके लिये बढ़िया वाला पकौड़ा और खीर या कुछ अन्य मिष्ठान भी लेकर जाता था। यह शिष्टाचार भी माँ ने सिखाया था कि किसी के साथ मजाक का यह मतलब नहीं कि उसे मिर्ची वाला पकौड़ा खिला कर छोड़ दो।  तब पांचवीं मंजिल पर एक कारीगर काम करते थें। ये पकौड़े वे ही बना देते थें।
       इसी दिन माँ को देखने लिलुआ से बड़ी माँ आ गयींं, तो उन्हें भी मैं छोड़ता नहीं था।  बड़ी माँ , जो दूर के रिश्ते में थीं , उनका स्मरण होते ही न जाने क्यों आँखें नम हो गयी हैं।  जमींदार परिवार की थीं, परंतु विशाल भूखंड होने के बावजूद भी यदि घर का मुखिया कामधंधे में रूचि न ले तो सब व्यर्थ है। फिर भी अपने परिवार की समस्या को भूला कर वे लोकल ट्रेन पकड़ कर सप्ताह में चार- पाँच दिन राजाकटरा, बड़ा बाजार आती थींं।  शाम को वे आती थींं और रात दस बजे जाया करती थींं। माँ ने अंतिम सांस उन्हीं के समक्ष ली थी और कोई भी महिला नहीं थी , उस रात परिवार की। मेरी मम्मी और मौसी भी नहीं। उन्होंने ही मुझे   सब्जी और पराठे बनाना सिखलाया था, बाद में माँ से पूछ लिया करता था।
    वे मेरे खुशी के दिन थें। एक अप्रैल को मैं उछल कूद कर पांचवीं मंजिल से लेकर नीचे कारखाने और दफ्तर  एक कर दिया करता था । इतनी चतुराई से पकौड़े खिलाता था कि दूसरे को पता ही नहीं चल पाता था। अब तो स्वयं से ही यह सवाल कर बैठता हूँ कि बारह वर्ष का बालक को इतनी बुद्धि कहाँ से आ गयी थी।  माँ के जाने के पश्चात मुझे याद नहीं है कि पुनः कभी यह अप्रैल फूल दिवस  आया मेरे जीवन में। हाँ , जब यहाँ मीरजापुर आया, तो इस दिन मेरे एक मित्र ने झूठी बड़ी घटना बता दी । सांध्यकालीन समाचार पत्र का प्रतिनिधि होने के कारण, यह खबर छूटे नहीं इसके लिये मैं अस्पताल ,पोस्टमार्टम और पुलिस अधीक्षक कार्यालय दौड़ता रहा।  मोबाइल फोन का युग तो था नहीं । जब कहींं से भी उस समाचार की पुष्टि नहीं हुई , तो मन उदास हो गया कि दोपहर के ढ़ाई बजने को है,लगता है कि आज मेरी खबर छूट जाएगी। मेरा लटका हुआ चेहरा देख, तब जा कर मित्र महोदय ने ठहाका लगाया था कि आज कौन सा  दिन है पता है तुम्हें ? मैंने कहा कि यह भी कोई पूछने की बात है। जो बताना है, वह तो बस अधूरा बता मजा ले रहे हो। तुम्हें क्या पड़ी है, समाचार तो मेरा छूटेगा न ? तब जनाब ने मुस्कुराते हुये कहा था कि अप्रैल फूल । बस इसके बाद आज तक किसी ने मुझे इस दिवस पर मूर्ख नहीं बनाया, इस जिंदगी को छोड़...।
 वैसे चुनावी माहौल है और जनता को मूर्ख कौन बनाते हैं,यह पता है न आपको ? तो मतदान के दिन प्रयास करें हम सभी कि यह दिवस आगामी पांच वर्षों के लिये हमारे लिये अप्रैल फूल न हो। योग्य प्रत्याशी को परखे , झूठे आश्वासनों में न बहके। इन सियासी रहनुमाओं ने इस लोकतंत्र के पर्व को झूठ दिवस में बदलने के लिये कुछ इस तरह से अपने वायदों का पिटारा खोल रखा है-

लो सजी बिसात सियासत की
   गरीबी हटाने वालों ने कहा
अब गरीबी मिटाएंगे हम
  अच्छे दिन के ख़्वाब न देख
ये वादा है मेरा ,सुन बे गरीब
  तुझे रोटी कपड़ा मकान तो नहीं
सम्मान और रोजगार भी नहीं
   हम तेरी गरीबी पर तरस खा
   वादों की चाशनी में  तुझे अभी
     और पिघलाएँगें ,फिरभी कभी
 साम्यवाद - समाजवाद नहीं लाएँगे..

            -व्याकुल पथिक
           31 मार्च 2019

Friday 29 March 2019

ये आँसू तुझको बुला रहे हैं

ये आँसू तुझको बुला रहे हैं
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ये रातें ज़ुल्मी सता रही हैं
   ये यादें तेरी  रुला रही हैं

तुम नहीं तो है कौन मेरा
   रुदन नहीं ये बुला रही हैं

 हैं सूनी राहें और ये निग़ाहें
    तुम्हें न पा के तड़पा रही हैं

जो आग तुमने लगा है रखी
 आँसू उसे अब ये  बुझा रहे हैं

इन आँसुओं में प्रीति है देखो
  तुम्हें खुशी दे खुद  रो रहे हैं

खुद रो रहे हैं बुला रहे हैं
   हाल-ए- दिल  ये बता रहे हैं

है उम्मीद मेरी ये आरजू मेरी
  ये हसरतें मेरी  शिकायतें मेरी

ठहर जा पल भर वो जाने वाले
  ये प्यास है मेरी  बुला  रही है

तुम्ही से तो थीं खुशियाँ हैं मेरी
   अर्ज ये सुन लो थमे जो आँसू

न कोई मंज़िल न है ठिकाना
   इन अश्कों को यूँ बहते है जाना

है तोहफ़ा तेरा मेरे दो आँसू
   मन के  मोती  ये  श्रृंगार मेरे

शोलोंं पे मचलती बन के शबनम
     ये आग दिल  की  बुझा रही है

ठहर जा पल भर,वो जाने वाले
   ये आँसू  तुझको  बुला  रहे हैं

   ये   अश्रु  मेरे  ये  नीर मेरे
     नयनों  का जल है  ये पीर मेरे

  गुजर  गये जो  थे वक्त  मेरे
     वे आँसू  बन क्यों बिखर रहे हैं

                  -व्याकुल पथिक











Thursday 28 March 2019

नियति का कटाक्ष


नियति का कटाक्ष
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न अमृत की चाह हो   
 मृत्यु  भी  उपहार  हो
कर्म का उपहास हो
पथिक तुम बढ़ते चलो

कहीं ना  प्रकाश हो
 अधर्म का सम्मान हो
भ्रष्ट  तंत्र साथ हो
 रुको नहीं बढ़े चलो

नियति का कटाक्ष हो
  धर्म  जब  परास्त  हो
समय भी प्रतिकूल हो
 पथिक  तुम बढ़े चलो

हृदय में संताप  हो
  स्नेह की न आस हो
प्रीति पर आघात हो
   धीर  धर  बढ़े  चलो

मित्र न  कोई साथ हो
  पथ  में  अंधकार  हो
संघर्ष सभी व्यर्थ हो
 है  कर्मपथ , बढ़े चलो

बसंत का  उन्माद हो
  फाग   का परिहास  हो
बन पावस बरसो,मगर
 अग्निपथ पर  बढ़े चलो

सकारात्मकता का प्रलाप हो
  सम्वेदना  करे  विलाप क्यों ?
नकारात्मक   संग   लिये
       मुक्तिपथ पर बढ़ते चलो

सूना  यह  संसार  हो
   यादों  की  बरसात  हो
वैराग्य करें विश्वासघात जो
     है धर्मपथ ,  बढ़े   चलो

          - व्याकुल पथिक

मो0 9415251928
      7007144343



 



Wednesday 20 March 2019

अपनी अपनी किस्मत है ये..

अपनी अपनी किस्मत है ये..
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 भले ही वह टूटे हुये साज़ से बसंतोत्सव न मना सका हो और न फागुन के गीत उसकी जुबां पर हो, फिर भी वह दर्द को चंद शब्द दे सकता है।
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अपनी अपनी किस्मत है ये
कोई हँसे, कोई रोये
 रंग से कोई अंग
भिगोये रे कोई
असुवन से नैन भिगोये..

  आयी मस्तों की टोली,खेलेंगे हम होली...। होली का पर्व हो और यह गाना सुनने को न मिले , यह कैसे सम्भव है । चाहे परिस्थिति कैसी भी हो किसी के खुशी और किसे के ग़म में बराबरी का साथ निभाता है यह गीत ।
 किस्मत , नियति, प्रभुकृपा, पूर्व जन्म का संचित कर्म  और  वर्तमान में किया गया धर्म-कर्म इन सब बातों में उलझ कर रह जाता है यह मानव जीवन। कभी किसी का हृदय इस कदर व्यथित हो जाता है कि जीवन के प्रति अनाकर्षक की मनोस्थिति में पर्व- त्योहार की आहट सुनाई ही नहीं पड़ती और यदि पड़ी भी  हृदय की पीड़ा को पुनः बढ़ा जाती है।
   फिर भी सत्य यही है कि जब तक जीवन है, तभी तक ये सारी अनुभूतियाँ हैं , हर्ष है एवं विषाद भी है। अन्यथा जब भी ऐसी खुशी के अवसर पर पथिक को माँ की याद आती है। मुकेश की यह आवाज -

 दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते है कहाँ
 कैसे ढूंढे कोई उनको, नहीं क़दमों के भी निशाँ
 जाने है वो कौन नगरिया, आये जाए ख़त न खबरिया
 आये जब जब उनकी यादें, आये होठों पे फरियादें
 जाके फिर न आने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ...

    फिर से दर्द दे जाती है । विचित्र सफर है जिंदगी का भी, इंसान अपने ख़्वाबों को सच करने के लिये क्या नहीं करता है। हर कोई दिवास्वप्न ही नहीं देखता है, अनेक ऐसे भी हैं कि अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिये कितनी भी कठिन राह क्यों न हो, उस पर चलते हैं, बढ़ते हैं।  सांप- सीढ़ी के खेल की तरह उन्हें कोई गॉड फादर नहीं मिलता कि वह पलक झपकते ही आसमान से बातें करने लगे। वह तो बड़े धीरे-धीरे कदम जमा कर लक्ष्य की ओर बढ़ता है, फिर भी यदि उसका यह समर्पित कर्म नियति  को रास नहीं आयी , तो वह उसके लक्ष्य के मार्ग में सीढ़ी बनने की जगह सर्प बन डस लेती है। ऐसे में कर्म का उपासक टूट जाता है और बिखर जाता है। कोई सांत्वना , प्रार्थना और  ऐसी खुशियों के पर्व उसके लिये बेमानी है।
   यहाँ तक कि योगेश्वर कृष्ण की गीता का यह ज्ञान भी कि कर्म करते रहो , फल की कामना न करो। जब पुनर्जन्म का कोई साक्ष्य न हो, तो वर्तमान में किये गये कर्म के अनुरूप ही मानव को दण्ड और पुरस्कार क्यों नहीं मिलता ? यदि यह न्याय व्यवस्था तय होती, तो सारे क्लेशों का निराकरण स्वतः ही हो जाता। परंतु यह कौन सी किस्मत है कि कर्म उससे समझ नतमस्तक है, सिवाय यह कहने के-

   ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
   कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
  है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर
   कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं ..

     अतिथिगृह(चंद्रांंशु भैया के राही होटल)  में एकाकी पड़ा पथिक रंगोत्सव के इस पर्व पर जीवन के इसी रहस्य , सृष्टि के इसी सृजन और नियति के इसी उपहास पर  परिस्थितिजन्य कारणों से विक्षिप्त सा बना ठहाका लगा रहा था कि क्या खूब धर्म कर्म का भ्रमजाल फैला रखा है उसने , जबकि करती वह अपने मन की ही है। मानो एक  निरंकुश सत्ता , जिसके लिये न्याय- अन्याय की बात बेमानी है।
    दिन चढ़ने लगा है, बाहर होली का हुड़दंग शुरु हो गया है। यदि वह भी कोलकाता में होता , तो चौथी मंजिल से सड़क पर रंगों से भरा बैलून फेंकता और पीतल की वह पिचकारी जिसे तब उसके बाबा ने दिलवाया था, जब वह पाँच वर्ष का था, उसे ले जमकर होली खेलता, फिर सायं नये वस्त्र धारण कर अबीर लेकर निकलता । कांजीबड़ा, दहीबड़ा, सांगरी की राजस्थानी सब्जी और साथ में मेवे व केसर वाली खीर आज उसे मिलती। पर अब न तो माँ है , न ही बचपन, सिर्फ स्मृतियों का  एक झरोखा है और यह अस्वस्थ तन- मन । अभी तो उसे समझ में यह भी न आ रहा है कि आज सुबह क्या जलपान करे वह। दोपहर एक बजे की प्रतीक्षा है, उससे मित्रों ने कह रखा है कि आज दोपहर का भोजन उनके घर से  आ जाएगा। वैसे, नगर विधायक रत्नाकर मिश्र, पूर्व राज्यमंत्री कैलाश चौरसिया और केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल के गुझिया वाले डिब्बे पड़े हुये हैं। हाँ , घनश्याम भैया ने आलू का पापड़ भी दे रखा है। विंध्यवासिनी भैया भोजन भेज ही रहे होंगे।
   उसे याद है कि बनारस की होली में तब गंदगी बहुत थी। रंगों की जगह नाली के कींचड़ से स्नान और कपड़ा फाड़ होली, बड़ा ही विकृत स्वरूप था। गदहा वाला बारात भी तो निकलता था। लेकिन, सायं होते ही बनारसी होली की भव्यता देखते ही बनती थी। नये वस्त्र पहन अधिकांश लोग दशाश्वमेध घाट की ओर जाते थें। चौसट्टी देवी दर्शन को जाने की वहाँ एक परम्परा है। यहीं बंगाली टोले का स्पंज वाला रसगुल्ला खाने को मिलता था। परंतु माँ की याद , उसके स्वाद को कड़ुवा कर देती थी। होली तो मुजफ्फरपुर(बिहार) में भी उसने कभी नहीं खेली है । हाँ , वह मालपुआ , जिसमें उसकी मौसी का स्नेह छिपा था, उसे कैसे भुला सकता है। वे तो जब होली पर मीरजापुर आयी थीं , तब भी उसके लिये इसकी व्यवस्था में पीछे न रहीं। मुजफ्फरपुर की होली में तब संयुक्त परिवार का उल्लास देखते ही बना । भले ही सभी का चूल्हा अलग था, परंतु संबंध आपस में मधुर थें। रंग खेलने.के लिये छोटे- बड़े ढेर सारे बच्चों की टोली तो घर पर ही थी। कलिम्पोंग की होली भी एकाकी ही बीती उसकी, लेकिन फिर भी भावी जीवन को लेकर एक उल्लास , उमंग और मनमीत की आश थी, जो पेट की भूख की आग, कठोर श्रम और समयाभाव  के कारण मीरजापुर की इन अनजान गलियों में कहीं गुम हो गयी। यहाँ वह ढ़ाई दशक से है, फिर भी  खुशियों से नाता कुछ इस तरह से टूट गया है कि किसी भी पर्व पर न जाने क्यों मन उदास हो जाता है और फ़िर तो कुछ यूं ही गुनगुनाते रहता है वह -

चल अकेला चलअकेला चल अकेला
तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला
हजारों मील लम्बे रास्ते तुझको बुलाते
यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते
है कौन सा वो इंसान यहाँ पर जिसने दुःख ना झेला...

  वैसे, गत वर्ष इसी मार्च माह में जब वह ब्लॉग पर आया था, तो व्याकुल पथिक बन कर, विरक्त भाव की चाहत में , परंतु इस लक्ष्य प्राप्ति  को लेकर अब बहुत उतावला नहीं है, क्यों कि वह जीवन का एक रहस्य तो समझ गया है कि पता नहीं यह नियति फिर से सर्प बन कब डस ले , सीढ़ी बन उसने कभी सहयोग तो किया नहीं, फिर भी धन्यवाद उसे , इस एकांत के लिये, जो पथिक को सृजन का अवसर दे रहा है। हाँ, इस आभासीय दुनिया में भी उसके कुछ शुभचिंतक हैं , जिन्होंने होली पर उसे भुलाया नहीं। यह भी पथिक के लिये बड़ी उपलब्धि है। भले ही वह टूटे हुये साज़ से बसंतोत्सव न मना सका हो और न फागुन के गीत उसकी जुबां पर हो, फिर भी वह दर्द को चंद शब्द दे सकता है।

होली के रंग में मिर्ज़ापुर के जैंटलमैन

बुरा न मानो होली है

होली के रंग में मिर्ज़ापुर के जैंटलमैन






रंग बरसेss मैडम  दुआर , बुआ-भतीजा तरसे ...
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मिर्चपुर। ऐसी मारी पिचकारी सबकी डूबी लुटिया..रंग बरसे मैडम दुआर , रंग बरसे...
इहा सेंटर मनिस्टर अनुपिया के भरहुरा वाले पार्टी दफ्तरवा में चुनावी होली शुरु होई गवा बा । माननीय दम्पति क जुगलबंदी देखे बदे जवनकन से लइके बुढ़वन तक अगवाड़ - पिछवाड़ एक किये हयन । लहर नापे वाली मशीन बतावत बा की  "अनुप्रिया विकास ब्रांड"  चाय अऊरो मोदी क गुड़हवा जेलबी इ मीरजापुरियन की जीभ पर लासा की तरह लगल बा।अबही इ पता नही बा की चींटा लगी की मक्खी। तउनो पर मटक चटक के साथ आपन चेहरा देखाई की गुणावली गाने वालन क चउचक भीड़ जुटल बा । अउर एक बात इ बा की इहा क मलिकार आशीष फ़टेल का इंजीनियरिंग पावर देख बड़कन क सोशल इंजीनियरिंग फेल बा। इहे टीम में बुढ़ऊ चचा रमाकांत फटेल , मिनिस्टर क मीडिया  सलाहकार रामकुमार विश्वासकर्मा उऊरो नितिन विश्वासी, स्टोर कीपर संजय फटेल क रंग चोख बा।  मिनिस्टर साहिबा विकास का रंग गुलाल लेकर अपने बड़का भाई सांसद रामशकल अउरो छनवर क दुलरुआ विधायक राहुल परकाश कउल संग होली खेले निकले बाटिन। इहा उत्सव भवन में मोदनवाल बिरादरी क छुटका चउदली घनश्याम हेलुआई शोर मचायल बायन ' होरी खेलब मोदी संग यार ,
बलम तरसे मैडम कs रंग बरसे.. ।
मत खिसियाओ बबुआ हमार,
बुआ- भतीजा दुनो तरसे, वोट बरसे।
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भोंपू हमार बरियार बा..
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मिर्चपुर। भोंपू हमार बरियार बा, नाम मोदी ब्रांड बा। सर्जिकल स्ट्राइक क बहार बा , अऊर मोदी के पार्टी क पो पो  बा। इहे शोरगुल में बुआ- भतीजे, बबुआ क दुलरिया बहिन क मसखरी गुम बा । काहे कि देश भर क पब्लिक " हई वाला ले " कह इन बड़कन नेतवन क एफ-16 की तरह लखेदत मारत बा। भगवा खोंस पलंग तोड़ तांडव जनता करत बा ।  हाल इ बा अपने जिला क कि कउनो भड़ैती विपक्षी दलन क खोंकी बंद नहीं कर पावत बा । अउरो सुना इ मोदी बैंड पार्टी इन बड़कन विपक्षी नेतवन का इ कह के परिहास करत बा कि जाओ- जाओ - जाओ किसी वैद्य की बुलाओ , तू है सत्तालोभी,मोदी- जोगी को बुलाओ...।  इ बैंड पार्टी क दो गो बड़का सरदार रत्नाकर मिसरी अउर रमाशंकर फटेल त हयन साथ में बिजिनेस मैन बंधु विश्वनाथ और बंशीधर अग्रवालिन भी झुमका गिरा रे, मोदी के बाजार में गा ठुमका लगावत हइन। संग में इ नचनिया बैंड पार्टी के थियेटर क मलिकार नीरज अगरवाल अउरो राही होटुल क गोकुल चंद्रांशु गो यल भी दुई  ढोलची भाई ज्ञानचनदर और सतीश अगरवाल  के साथ लइके पिछवाड़े से जोगीरा सा रा रा.. मोदी मारे पिचकारी का  चिल्ल- पों मचावत सबके मोदी रंग से तराबोर करइ में लगा हयेन । भयवा अब देखा रंग चढ़त बा की बुखार।
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सरकार  केहू क होखे , हमके कहाँ बिसराम बा..
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कविपुरम । "भइया ई इलेक्शन बा, जगाऊँ ब और ढकेलब हमार काम बा। अउर इलेक्शन बाद सलेक्शन  केहू क होई , हमके कहां बिसराम बा। काहे से कि हमार नम वईं डा0 विश्राम बा,ई समय प्रतापगढ़ हमार ठेकान बा "
   ....बलिया के कलक्टर से उत्कृष्ट सेवा सम्मान से जगमग अपने साहब का भौकाल सगरो टाइट बा। उ गाना बा न कि मोरे लचके ला कलमिया, त काशी , बलिया हिले ला। अपने इ मीरजापुर में जब बिसराम साहब एसडीएम रहलन , त जेहर-जेहर खोंखलन वहर के बड़कन नेतवन के काली खांसी होगइल। नाहीं पतियात है, तो गवाह में  छोटू फटेल भइया सामने खड़ा हैन। अबकि होली में इहो डाक्टेर साहब का पलंग तोड़ प्रोग्राम बा। उहे अमरदीप भइया क नयका रिट्रीट होटल में उनकर पुरुषार्थ क सम्मान बा, जेकरे बिलुका में धीर प्रताप जायकेवाल, ठाकुर ज्ञान परताप जइसन  कइयो जेंटलमैन लोगन क कारोबार बा , इहे देख गैलेक्सी होटल क रजी मियां खिसियान बायन , काहे से की इ टीम उनकरे होटल का पुरान मेहमान बा। त भइया पलंग तोड़े पुरुषार्थ सम्मान समारोह में जाये से पहिले , पतली गली क रस्ता हेरे के पड़ी। अउरो सुनी रउवा विशिष्ट मेहमान  रसड़ा क दमदार विधायक  उमाशंकर ठाकुर जी क हाल इ  चुनाव में उभयलिंगी बा । काहे से कि उनकर कारखास सोनू ठाकुर के पास जोगी सरकार क एगो गुप्त पैगाम बा। ठकुरसुहाती त बोले के पड़ी, शिक्षकन क सरदार पदमदेव दुवेदी क इहे निक सलाह बा ।
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छोटा बच्चा जान के हमको....
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मिर्चपुर। पालिटिक्स प्लेटलेट्स केकर बढ़ल - घटल बा, इ कुल नापे कs हम लइ कनक नाही काम बा, काहे से की बउआ हमार नाम बा...।
इ इलेक्सन में गुलाब जामुन, मलाई - रबड़ी , राजभोग क बहार बा ,पर हमने क हाल " ठनठन गोपाल बा " ।  तरमाल चापे के ना ही केऊ जुगाड़ बा। वइसे मंत्री त हमहूँ रहली अखिलेश भैया के राज में,कइलाश चउलसिया नाम सरनाम रहल। लेकिन , पांच बरस पहीले मोदी के अखाड़े में ताल का ठोकली की हाल इहे हो गइल बा कि डाइपर बेबी कही- कही के संगी दोस्त हमने के लुलुआत बा।  लेकिन इ मनोज भयवा के का भयल कि अपनही सरकार में लंगोटी ढील बा। जबकि घंटाघर क सरताज हयन । लगत बा उहो केहु के बिल - बिलुक्का में उंगली किये हयन।  रउवा संतोष इहे बात क बा कि हमरे टीम में जवाहर मोरिया, अब्दुल्लाह भाई  , सिद्धनाथ ठाकुर, आशीष गुझिया , मनोज खंड लवाल, संदीप गुप्त जइसन  धुरंधरों छुछुआत हैन । इ किस्मत क खेल बा, वइसे हमनी के अबकि जनता क  दुलरुआ बने के बा। जिन मिले रबड़ी- मलाई, इहे दुधवा पी कर हमनियों मोटात हई। उ गनवा बा न कि छोटा बच्चा जान के न कोई आंख दिखाना रे।  डुबी डुबी डब डब। अकल का कच्चा जानके हमको न समझाना रे...।

Tuesday 19 March 2019

रंगों का साथ न हो ..

 रंगों  का  साथ  न  हो..
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गीतों की बात चली
    गीत हम क्यों गाये
राह में मीत मिले
     वो ना नज़र आये

टूटे साज़ों को लिये
   गीत  हम कैसे गाये ?
छेड़ो न दिल को कोई
   यादों  को नींद  आये

रिश्तों  की बात छिड़ी
   आँखें क्यों  भर आयीं
शहनाई बज न सकी
   लो  तन्हाई संग  लाये

दिल की क्या बात करूँ
    दर्द    जो हम    पाये
आईना टूट गया और
    हम ना  नज़र   आये

इश्क़  की बात न हो
  फ़िर   ये  जुदाई  कैसी
ग़म का साथ लिये हम
  और  मिली ये रुसवाई

हुस्न की बात करूँ क्यों
   जो  जख़्म  उभर  आये
राह में छोड़ चले जो
    वो  ना   फ़िर   आये

रंगों  का  साथ  न  हो
   तो  ये  खुशियाँ   कैसी
होली भी अब लगती
   हमें तो  मुहर्रम   जैसी

किस्मत उनकी भी है
  जिनको न मिली मंज़िल
दरिया में डुबोते वे भी
   जिनसे  उम्मीदें  होतीं

        ---- व्याकुल पथिक

Friday 15 March 2019

ग़म तुझे क्यों यह ख़्याल आया

ग़म तुझे क्यों  यह ख़्याल आया
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ग़म तुझे क्यों  यह ख़्याल आया
 खुशियों से हुई मुलाकात जो याद आया

रंगीन है महफ़िल और ये दुनियाँ भी
    दर्द सीने में  फ़िर  दबाए क्यों रखा है

चलते रहेंं ना मिली मंज़िल फ़िर भी
     देखो हर मोड़ पर ज़ख्म इक नया पाया

खुशियों की बात छिड़ी,सुन ले ये ग़म
      दर्द ये पा के अपनोंं को समझ पाया

जो दिखते हैं  वैसे वो होते तो नहीं
     इंसानों की फितरत ना कभी समझ पाया

ये ज़श्न ये महफ़िल और हैंं खुशियाँ भी
   फ़िर तुझे क्यों बेवफ़ाई का ख़्याल आया

हाल दिल का बता दे हम ग़ैर नहीं
   फ़र्क इतना हम दिखते,तुम छिपते नहीं

जलती शमा को बुझाने की ना सोच
    देख तेरे ख़्वाब में  परवरदिगार आया

वक़्त होगा तेरा अभी और ग़मगीन
  खुशनसीबी का नहीं कोई क़रार आया

बेक़रारी अब कैसी मिले हमदम तुझे
     देख तेरे जनाज़े  का वो साज़ आया

ग़म  तुझे  क्यों  यह ख्याल आया
   ग़ैरों का क्या,अपनोंं का ना जवाब आया

                       - व्याकुल पथिक

Tuesday 12 March 2019

देखो होली आई सनम

देखो होली आई सनम
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जागे हम तेरे लिये
    आँखों में आँँसू लिये
कहाँ छुप बैठे हो तुम
    देखो रात होती सनम

टूटे सपनों से खेले
     झूठे ख़्वाबों को लिये
दिया बन जलते रहे
    रोशनी फ़िर भी नहीं

राह  में  चलते  रहे
    यादों  को तेरे  लिये
प्रेम  जो तुझसे  किये
    बन के  जोगन  फिरें

देखो होली आई सनम
    रंग  ले निकले थे हम
भुला  दूँँ  कैसे वो पल
   श्याम - राधा  थे  हम

आये नहीं  मीत कोई
    गाये नहीं  गीत कोई
साज़   सब  टूट  गये
    दर्द   से  भरे  नयन

ना   तुम   मेरे  कोई
    ना  मैं    तेरा   कोई
दिल ने दिल को छला
    जले फ़िर क्यों ये जिया

हँसके ये ज़हर पिये
    शूल  बन सपने झरे
विरह  में  भटके मगर
    देखो अब तरसे नयन

आओ ना मीत मेरे
     देखो ये  बोले नयन
आई होली आई सनम
    कहाँ छुप बैठे हो तुम

         -व्याकुल पथिक

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 विरह वेदना (लौकिक/अलौकिक)
 यह  कल्पना जगत का विषय नहीं हैं, यह वह दर्द है जब हृदय स्वतः पुकार उठता है,।

Friday 8 March 2019

गरीबी संग उपहास लिये !

गरीबी संग  उपहास लिये !
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दो वक़्त की रोटी ,जो होती
यूँ परदेश गुजारा ना करते।
छोड़ के निकले थें , घर को
अँखियों में उदासी साथ लिये।

बेगानों सा हम ,भटकते रहें
गरीबी संग  उपहास लिये !
कभी माँ के दुलारे हम भी थें
अब ग़ैरोंसे,रहमकी आस लिये।

  अनजान डगर, हम बढ़ते रहे
  कोई संगी साथी ना साथ लिए।
  ईमान की रोटी बस  चाह रही
  बेईमानों से जो मुलाकात हुई।

सौदागर वो कैसे थें, समझो
जो बिकते रहें ,मालामाल हुये।
लुटेरों से सजी है, ये महफ़िल
जो बिक न सके,  बेहाल रहें।

रंग बदलती   दुनिया में
पूछो न हमने, क्या-क्या सहे।
दिल का भी   सौदा होता है
जो कर न सके,वो  यूँ ही  रहें।

हमने सहे  परिहास  मगर
 पर दर्द जिगर का साथ रहा ।
हर चीज की कीमत थी ,लेकिन 
वादों पर ना  विश्वास रहा ।

  वो रंगमहल और ये चौबारे
दिल से भी हम गरीब   न थें।
ना जाने फिर, कैसी गुनाह हुई
बन घुंघरू भी,हम बज न सके।

               -व्याकुल पथिक
  जब भूख सताती है , ऊपर से निठल्ले होने का कलंक , जिससे  मुक्त होने की चाह में ,जब पथिक अपना देश छोड़ परदेश को निकला, तो उसे क्या मिला, इसी दर्द को समर्पित है यह रचना।


Thursday 7 March 2019

जग जननी-जग पालक हूँ , मैं नारी हूँ


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर जिले की पाती
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शराबबंदी, नशाबंदी, पर्यावरण, स्वच्छता अभियान एवं कन्याओं की शिक्षा जैसे मोर्चे पर गांव की महिलाएं पुरुष समाज को आईना दिखला रही हैं।
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     अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को एक बार फिर मनाने जा रहे हैं। जनपद में भी अनेक कार्यक्रम इस अवसर पर होते हैं । मंचों पर राजनैतिक, सामाजिक और संस्कृतिक क्षेत्रों में सक्रिय महिलाओं का सम्मान होता है। कभी कभी मंच को नाटकीय रूप भी दिया जाता है। फोकस में वो महिलाएँ रहती हैं,जिन का जुगाड़ तगड़ा होता है ।जबकि जमीनी स्तर पर सामाजिक कार्यक्रमों को करने वाली महिला कार्यकत्री नेपथ्य में चली जाती हैं। इसी का परिणाम है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर चाहे जितनी भी बड़ी- बड़ी बातें हो,परंतु आधी आबादी फिर भी अंधेरे में है।
   जो उजाले में हैंं ,वे खास लोगों में से हैं। अतः जब तक गांव की महिलाओं को जागरूक नहीं किया जाएगा,बात बनेगी नहीं। हक अधिकार तो उन्हें सरकार ने अनेक दिए हैं। परंतु उनका पावर उनके परिवार के पुरुषों के हवाले हैं।
आलम यह है कि ग्राम प्रधान ,सभासद, जिला पंचायत सदस्य और उससे भी ऊपर की कुर्सियों पर जो महिला जनप्रतिनिधि हैं । उनमें से अनेक की पहचान, उनको मिला हुआ अधिकार और उनके कार्य कितने सार्थक हुए हैं ,इस पर भी एक सवाल इस दिन होना चाहिए। आज भी जहां महिला प्रधान हैंं ,वहाँ उनके पति को प्रधान जी कहा जाता है। जहां वे ब्लॉक प्रमुख हैं, वहां उनके पति को ही बोलचाल की भाषा में यह सम्मान मिलता है। कभी-कभी तो हम पत्रकारों को भी समाचार संकलन में यह पूछना पड़ता है कि वह स्वयं प्रधान है अथवा उनकी पत्नी प्रधान है, यह विचित्र विडंबना आज भी है । जहां तक अपने जनपद का सवाल है तो यहां की सांसद व केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने महिला सम्मान के लिहाज से अपनी पहचान बनायी है और इसमें अतिशयोक्ति नहीं है कि अब तक जनपद में जितने भी सांसद हुए हैं ,सबसे अधिक होमवर्क  अनुप्रिया पटेल का रहा है । वैसे, इसका श्रेय केंद्र में बैठी मोदी सरकार को भी है, क्योंकि यदि सरकारी मंशा ना होती तो फिर आज अनुप्रिया पटेल सहयोगी दल से सांसद होने के बावजूद भी जनपद में इतने बड़े- बड़े कार्य जो विकास,जो  शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन से जुड़े हैं नहीं करवा पातींं । सहयोगी दल से निचले स्तर पर मनमुटाव के बावजूद भी आज अनुप्रिया पटेल की अलग पहचान है और उनकी भाषण शैली भी अन्य महिला जनप्रतिनिधियों के मुकाबले बेहतर है। हाँँ, सहायक की भूमिका में उनके पति अपना दल ( एस ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष व विधान परिषद सदस्य आशीष पटेल का भी योगदान रहता है। वैसे तो राजनीतिक नजरिए से यहां पर जिला पंचायत परिषद अध्यक्ष प्रमिला सिंह भी हैं। लेकिन फ्रंट पर यदि नाम आता है तो उनके पति पूर्व एमएलसी श्याम नारायण उर्फ विनीत सिंह का।  रामलली मिश्र यहां की विधान परिषद सदस्य हैं,उनकी पहचान भी उनके विधायक पति विजय मिश्रा से है।वर्तमान में मझवां विधायक शुचिस्मिता मौर्य का नाम भी इस क्रम में है। हालांकि उनकी पहचान किसी पुरुष सदस्य के कारण नहीं है । वह स्वयं ही अपने क्षेत्र में आती जाती हैं। फिर भी अभी और अधिक सक्रियता की जरूरत है ।वैसे उनकी पहचान  उनके ससुर पूर्व विधायक स्वर्गीय रामचंद्र मौर्य से हैं। जिन्होंने इस मझवां क्षेत्र से प्रतिनिधित्व किया था और अपनी पराजय के बाद , अपनी पुत्रवधू को राजनीति में लाने के लिए प्रयासरत रहें ।उनकी मृत्यु के बाद भाजपा ने उनकी पुत्रवधू शुचिचिस्मिता मौर्य को इस विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया था और मोदी लहर में बीते लोकसभा चुनाव में शुचिस्मिता मौर्य तीन बार से लगातार विधायक होते आ रहे डा० रमेश चंद्र बिंद को पराजित करने में सफल रहीं। मिर्ज़ापुर में सामाजिक क्षेत्रों में भी महिलाओं की बड़ी सहभागिता है। परंतु किसी बड़े सम्मानित क्लब के बैनर तले सामुहिक  विवाह करना, सिलाई मशीन देने जैसे कोई कार्यक्रम करवा देने से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की सार्थकता को कितना बल मिलेगा यह भी बड़ा सवाल है।
   महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए महिला संगठनों ने फ्रंट पर आकर बेटिंग की होती तो आज महिला ग्राम प्रधान ,सभासद और ब्लाक प्रमुख स्वयं अपना होमवर्क पूरा कर रही होतीं।
  बात शिक्षा क्षेत्र शुरू करें तो यहां आधी आबादी की बड़ी पहचान है ।केबीपीजी कॉलेज छात्र संघ की अध्यक्ष एक छात्रा है । फिर भी क्या कोई ऐसा महिला संगठन सुर्खियों में है जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर वहां की महिलाओं को उनके हक अधिकार के विषय में अधिक से अधिक जानकारी दे सके। सरकार ने बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ जैसे अनेक कार्यक्रम आधी आबादी के कल्याण के लिए शुरू कर रखे हैं।
फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार महिला संगठनों के द्वारा नहीं हो पा रहा है।
चिकित्सा क्षेत्र की बात करें तो आज भी कन्या भ्रूण हत्या लुक चुप कर हो ही रही है। इस कार्य में संलिप्त लोगों  में  महिलाएं स्वयं अपनी भूमिका क्या हो , तह तय करें । कभी किसी महिला संगठन क्या ऐसा कोई बड़ा धमाका किया  कि भ्रूण परीक्षण करने वाले पैथोलॉजी केंद्रों को उन्होंने स्वास्थ्य विभाग की मदद से पकड़ा हो।
    इसके बावजूद भी जनपद में आज भी अनेक जागरूक  महिलाएं हैं। परंतु विडंबना यह है कि इन प्रतिभाओं की तलाश नहीं की जाती । अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मंच सजते हैं ,पर उस पर वे महिलाएं ही दिखती हैं जो पहले से नगरी क्षेत्र में विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से , प्रचारतंत्र  के अपनी सक्रियता बनाये रहीं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों से नई महिला प्रतिभाओं को ऐसे मंचों पर विशेष स्थान, विशेष पहचान और विशेष पुरस्कार दिया जाना चाहिए। हम पत्रकारों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि ऐसी महिलाएं जो ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक कार्यक्रमों को बढ़ावा दे रही हैं और आधी आबादी के लिए संघर्षरत हैं, उनकी तलाश हम भी करें और प्रोत्साहन में दो शब्द समाचार पत्रों में लिखें।
वैसे तो यहाँ पुलिस ने एक बड़ी पहल  करते हुए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में महिला ग्रीन ग्रुप का गठन किया है ।जिसका कार्य अनैतिक कार्यों को पर नजर रखना एवं मादक द्रव्य पदार्थों के विरुद्ध जन जागरूकता अभियान है। यह महिलाएं जहां भी अवैध शराब निर्मित होती हैं। वहां वहां स्वयं ही एक्शन मोड में आ जाती हैं। शराबबंदी, नशाबंदी, पर्यावरण, स्वच्छता अभियान एवं कन्याओं की शिक्षा जैसे मोर्चे पर गांव की महिलाएं पुरुष समाज को आईना दिखला रही हैं।
  बीएचयू की एक संस्था द्वारा गांव की इन महिलाओं के रचनात्मक कार्य और उनके शौर्य पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी तैयार किया जा रहा है।


Wednesday 6 March 2019

दर्द नया दे चल दिये !

दर्द नया दे चल दिये !
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जिन्हें   मीत समझा
अजनबी बनाके चल दिये
  दिल के फिर टुकड़े हुये
दर्द नया दे चल दिये !

रंग भरने की न सोच
  जल जाएगी ज़िंदगी
ताउम्र किसीकी याद में
  कटती कहाँ ये ज़िंदगी ?

मयख़ाने तो हैं अनेक
  साक़ी     मिला ना  कोई
जाम जो ऐसा दे पिला
नशा हो न फिर कोई !

ज़ख्मी दिल से ना पूछ
  नादानी तेरी किसने सही
ज़ुबां पे न उफ़ किसीकी
 बेगाना बना के चल दिये

यतीमों को ठिकाना कहाँ
  क़ब्र तक   पनाह देती नहीं
आशियाना एक दिल में था
नापाक़ बता के चल दिए  !!!!!

           -व्याकुल पथिक

Sunday 3 March 2019

कल रहे ना रहे हम..

   
स्वास्थ्य संबंधित परेशानी से कुछ दिनों के लिये मैं ब्लॉग जगत से दूर जा रहा हूँ। रेणु दी के स्नेह के कारण मैं इस योग्य बन सका कि अपनी भावनाओं को शब्द दे सकूँ। उन्होंने मेरी नकरात्मक लेखनी की भी सराहना की। वैसे अन्य वरिष्ठजनों का आशीर्वाद भी मिलता रहा। परंतु तबीयत अचानक अधिक बिगड़ गयी है। अतः कुछ लिखने और पढ़ने में असमर्थ हूँ।
   सभी स्नेहीजनों को पुनः प्रणाम कर रहा हूँ। ब्लॉग पर आना मेरे लिये एक अलग तरह की अनुभूति रही। इतना स्नेह और सम्मान मिलेगा ,इसकी कल्पना नहीं की थी। 

Saturday 2 March 2019

है अभिशाप ये कैसा !

है अभिशाप ये कैसा !
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वो आश्रम की बातें,न सपने थें झूठे;
कहाँ भूल बैठा, रे पथिक तू बेचारा !

निर्मल सा मन था,वो सुंदर सा काया;
मिटा खाक में सब  , हुआ तू पराया।

भटकती जवानी थी, है कैसे गुजारी;
लूटे अरमानों को,न सजाया-संवारा।

 वो ज्ञान की बातें,थी अमृत सी धारा;
 कहाँ भूल बैठा ,  वो वैराग्य तुम्हारा।

थी वृक्षों की छाया, था कुएँ का पानी;
छूटा देशअपना,न मिला कोई ठिकाना।

वो पादुका की खटखट,मौनथी वाणी;
कहाँ भूल बैठा, वो श्वेत वस्त्र तुम्हारा।

था गुरु ने पुकारा , मिला जब सहारा;
है यादें वो पुरानी ,जो संकल्प तुम्हारा।

वो कर्मपथ तुम्हारा,वो धर्मपथ तुम्हारा;
 कहाँ भूल बैठा , वो सत्यपथ तुम्हारा।

वो ग्रंथों की बातें ,थी संतों की वाणी;
कहाँ भूल बैठा , वह मौन की भाषा

वो कांति तुम्हारी , वो शांति तुम्हारी;
कहाँ भूल बैठा , रे पथिक तू बेचारा !

वो चौखट पुकारे,वो आश्रम की रोटी
कहाँ भूल बैठा , वो  गुरूमंत्र तुम्हारा

ठठरी सी  काया , है अकथ कहानी;
जला तू दीपक ,बुझा मन की वाणी।

बटोही तेरा दर्द  , किसी ने न  जाना;
अभिशप्त-सा जीवन,न कोई ठिकाना।

पथ में मिले जो , वो झूठे थें साथी ;       
जला मनकी होली,है मरघट पे जाना।

पाषाण बना क्यों, अहिल्या हो जैसे;
वैदेही सा फिर तू , न धरा में समाना।

तेरे स्नेह का मोल , किसने है जाना ?
क्यों भटक रहा ,रे पथिक तू दीवाना।

चढ़ा प्रत्यंचा तू , है वीरगति पाना ;
शापित था जीवन, कर्ण को है जाना।

अभिशाप ये कैसा,क्यों दंड तूने पाया;
नियति से ना पूछ, छोड़ उसकी छाया।

                 - व्याकुल पथिक

Friday 1 March 2019

ऐ मेरे उदास मन..

 ऐ मेरे उदास मन..
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    अभिशापित व्यक्ति के जीवन में भला खुशियाँ आ भी कहाँ सकती है। उसे तो भयावह शाप, बददुआ और लांछन  को सहते हुये ही अपना जीवन चक्र पूरा करना है।एक तरह उदासी उसके मुखमंडल पर सदैव छायी रहती है।
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ऐ मेरे उदास मन
चल दोनों कहीं दूर चले
मेरे हमदम तेरी मंज़िल
ये नहीं ये नहीं कोई और है..

  अभिशापित व्यक्ति के जीवन में भला खुशियाँ आ भी कहाँ सकती है। उसे तो भयावह शाप, बददुआ और लांछन  को सहते हुये ही अपना जीवन चक्र पूरा करना है।एक तरह उदासी उसके मुखमंडल पर सदैव छायी रहती है। वह कर्मपथ पर चलता अवश्य है , परंतु परिणाम तय रहता है, उसे मंज़िल नहीं मिलती है। वह अपने हृदय को सदैव यहीं समझाता रह जाता है ताउम्र-

इस बगिया का हर फूल देता है चुभन काँटों की
सपने हो जाते हैं धूल क्या बात करे सपनों की
मेरे साथी तेरी दुनियाँ
ये नहीं ये नहीं कोई और है
ऐ मेरे उदास मन ...

     मिथ्या दोषारोपण कभी- कभी मृत्युदंड से भी अधिक पीड़ादायक होता है। धर्मग्रंथों में देखें तो तीन ऐसे प्रमुख पात्र अहिल्या, सीता और कर्ण रहे हैं , जिन्हें इस कष्ट को सहन करना पड़ा। अहिल्या पाषाण बन गयी, जब यौवन ढल गया तो वृद्धावस्था में अयोध्या के राजकुमार राम ने उसका सम्मान वापस किया, फिर उसके जीवन में कैसा आनंद ? सीता पर दो बार लांछन लगा। पहली बार तो उन्होंने अग्निपरीक्षा दी , परंतु दूसरी बार जब एक नारी का सम्मान आहत हुआ तब उन्होंने उस राज्य और राजा दोनों का परित्याग कर दिया। अभिशापित जीवन से मुक्ति पाने के लिये सीता पृथ्वी की गोद में समा गयीं। वहीं अभिशापित जीवन के बावजूद कर्ण ने संघर्ष किया। मृत्यु से पूर्व अपने सामर्थ्य से सम्पूर्ण जगत, यहाँ तक कि सर्वसमर्थ कृष्ण को भी अचम्भित किया। परंतु अभिशापित था वह , अतः विजय के स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुआ। सर्वश्रेष्ठ योद्धा होकर भी वह इस सम्मान से वंचित रह जाता है।

 अभिशप्त -सा जीवन जिस व्यक्ति का हो। जिसके स्नेह का का कोई मोल नहीं हो । जो अहिल्या की तरह पथरा गया हो। सीता की तरह जिसकी पावनता निर्रथक हो । उस कर्ण की तरह जिसके नम नेत्रों से किसी का भी हृदय न पिघले, उसे यह वेदना सदैव सहनी पड़ती -

जाने मुझ से हुई क्या भूल जिसे भूल सका न कोई
पछतावे के आँसू मेरे आँख भले ही रोये
ओ रे पगले तेरा अपना
ये नहीं ये नहीं कोई और है
ऐ मेरे उदास मन ...

   यही अभिशाप है। कृष्ण द्वारा शापित अश्वत्थामा जैसा कोई भी कुकृत्य इन तीनों ही का नहीं था, फिर भी नियति का यह  कैसा अन्याय ?
   समसामयिक विषय पर कहूँ , तो पाकिस्तान हमारे देश के लिये अभिशाप ही है। भारत ने सदैव उसे छोटे भाई सा सम्मान देने का प्रयास किया, फिर भी वह आतंकवाद का पोषक बन स्थाई रूप से पीड़ा देता आ रहा है। यही नहीं वह सम्पूर्ण विश्व और मानवता के लिये खतरा बन गया है। उसे दंडित करने के लिये भी किसी कृष्ण की आवश्यकता है, ताकि अश्वत्थामा सा वह भी मानव समाज के लिये घृणा का पात्र बने और अपने ललाट पर बदनुमा दाग लिये उस कष्ट की अनुभूति करे , जो आतंकवाद के माध्यम से मानवता को देते आ रहा है।

   अभिशप्त जीवन बड़ा ही कष्टकारी होता है। पथिक भी अपने इस एकाकी जीवन में  कोलकाता में माँ ( नानी) और काशी में गुरु द्वारा दुखी मन से कही गयी उस वाणी को कभी नहीं भुला पाता, यद्यपि उन्होंने उसे दंडित करने के लिये उन शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। वे तो उससे स्नेह करते थें,  मार्गदर्शक थें। लेकिन, यतीमों जैसे अपने जीवन से जब भी वह विचलित हो जाता है, उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारती है कि उसने अपने बाल्यावस्था में ऐसी शरारत क्यों की थी कि उसकी माँ को यह कहना पड़ा कि जब वे नहीं रहेंगी ,तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। उन्होंने प्रथम और अंतिम बार ऐसे कठोर शब्द कहें। जाहिर है कि उनकी मृत्यु के बाद से ही वह बालक पथिक बन भटक रहा है, अस्वस्थ तन- मन लिये, अभिशापित सा ? वहीं आश्रम जब वह छोड़ रहा था,तो गुरु ने कहा था कि जा रहा है ,लेकिन याद रख कि माया की यह नगरी तेरे लिये कल्याणकारी न होगी। इसके बाद उसने जब भी स्नेह की दुनिया में प्रवेश करना चाहा, ठोकर लगी और सभी ने दरवाजे बंद कर लिये। पथिक वापस आश्रम में जाना चाहता है ,परंतु तन- मन जर्जर है। गुरु के ज्ञान का प्रकाश विलुप्त हो चुका है। उसका जीवन अभिशापित जैसा ही है, मुक्ति पथ पर बढ़ा जा रहा है,उसकी वेदना उनके लिये उपहास एवं उपेक्षा से अधिक कुछ भी नहीं रही , जिनसे उसे स्नेह रहा है । अतः उसका मन जब भी बेचैन होता है,मान -अभिमान फिल्म का यह गीत , उसके नेत्रों की नमी को पिघलने नहीं देता है-


पत्थर भी कभी इक दिन देखा है पिघल जाते हैं
बन जाते हैं शीतल नीर झरनों में बदल जाते हैं
तेरी पीड़ा से जो पिघले
ये नहीं ये नहीं कोई और है
ऐ मेरे उदास मन ...

    यह वेदना और यह अभिशाप ही यदि नियति है ,तो भी कर्ण की तरह अपने पराक्रम का  प्रदर्शन करते हुये अग्निपथ की ओर बढ़ते जाना है।