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Thursday 31 May 2018

पत्रकारिता दिवसःयह मेरा घर वह तेरा घर

इस बार यहां पत्रकारिता दिवस काफी कड़ुवाहट भरे दौर से गुजरा। अभी भी सोशल मीडिया पर धुंवाधार वाक्य युद्ध जारी है। विचित्र विडंबना है हम पत्रकारों की भी की राजनैतिक दलों की तरह अपनी अपनी पार्टी बना झगड़ते रहते हैं। वैसे तो जहां भी एक से अधिक प्रबुद्ध लोग होते हैं, आपसी एकता की गुंजाइश कम ही होती है, क्यों कि निःस्वार्थ भाव में कमी आ जाती है और अपने  हित में स्वार्थ भाव प्रबल होता जाता है। धर्म, जाति, परिवार , संगठन, समाज, मठ मंदिर सभी जगह विवाद के केंद्र में यह प्रबुद्ध प्राणी ही रहता है। जहां तक मेरा सवाल है , तो मुझे ऐसा कोई बड़ा पत्रकार संगठन स्वीकार नहीं, जहां मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचे।।पत्रकारिता में यहां आज जो भी पहचान है,वह मेरे परिश्रम  का परिणाम है।  न कोई मेरा गॉड फादर था और ना ही ऐसा कोई पत्रकार मंच , जो मुझे आगे बढ़ने में सहयोग किया हो अथवा में संकट में काम आया हो। पर पाठकों और गैर पत्रकार मित्रों ने का भरपूर सहयोग एवं स्नेह मिला। खैर , वर्ष में एक बार 30 मई को यहां पत्रकार संगठनों में वर्चस्व की लड़ाई को लेकर ऐसा होना कोई बुरा भी नहीं है। जो युवा पत्रकार है, उन्हें यदि वरिष्ठ पत्रकार उनका हक अधिकार नहीं देंगे तो, तो वे अपने पराक्रम का प्रदर्शन निश्चित ही करेंगे। यही प्रकृति का नियम है। कभी बंदरों की लड़ाई आपने देखी है... इस जंग में जो युवा बंदर होता है, वह अंततः विजयी होता है और सारी बंदरियों की टोली उसके पास चली आती है। यहां पत्रकार संगठनों में भी इसी प्रकार की लड़ाई चलती रहती है। अब देखें न वर्षों बीत गये हैं, लेकिन पत्रकार भवन को लेकर आपसी सहमति तक नहीं बन पा रही है। पैसा आकर पड़ा है। जनप्रतिनिधि सहयोग को तैयार है। फिर भी पत्रकार भवन बनने से पहले ही उस पर वर्चस्व को लेकर जगहंसाई हो रही है, इस जनपद के पत्रकारों की। पुलिस और प्रशासन भी  तो यही चाहता है कि पत्रकार कभी एक न हो ! खैर यह मेरी व्यक्तिगत समस्या नहीं है, क्यों कि किसी अधिकारी और नेता को सलाम करने की फुर्सत नहीं है मेरे पास। जो अपनी पहचान इन्हें बताने  को लेकर व्याकुल रहूं। पहले एक दौर था कि हमलोग अधिकारियों से मिलने बिन बुलाये मेहमान की तरह नहीं पहुंच जाते थें, हमारी लेखनी बिन मुलाकात के ही हमारी पहचान आला अफसरों को बता देती थी। अधिकारी समाचार पढ़ कर समझ जाते थें कि किस पत्र प्रतिनिधि में कितना दम है। पर आज का दौर जो है , उसमें पत्रकार अफसरों से यह कहा करता है कि ये साहब ! कुछ छुटने न पाये , तनिक ध्यान रखिएगा।  विज्ञापन एवं खबरों के बोझ के कारण पत्रकारों का सिर अधिकारियों और राजनेताओं के दरबार पहले की तरह अब कहां तना रहता है। अब जब दिन भर संस्थान के लिये पत्रकार हाथ फैला रहा है, तो अपना भी तो घर परिवार है उसका। बिन लक्ष्मी के भला गृहलक्ष्मी कैसे सम्मान देगीं अपने पतिदेव पत्रकार महोदय का, जरा विचार करें !
   बता दूं कि  पत्रकार सम्मान कार्यक्रम में सबसे पहले मुझे बुलाने पर कुछ पत्रकारों को बुरा लगा, इतना तो समझ में आया। लेकिन हमारे घनिष्ठ मित्र कामरेड  मो0 सलीम भाई का कुछ और ही सवाल मुझसे था!
              उन्हें ऐसा लगा कि शशि भाई ने यह सम्मान कैसे स्वीकार कर लिया, जहां दागदार सफेदपोश भी हो। दरअसल,  एक आदर्श पत्रकार के रुप में मित्रों के बीच में मैं जो अपनी पहचान रखता हूं। सो, मुझे उन्हें सफाई देनी पड़ी।
 मैंने बताया कि भले ही ऐसे सफेदपोश मौजूद रहे हो , परंतु सम्मान चिन्ह तो जिलाधिकारी से ही लिया  न भाई । और यह सब मान सम्मान मेरे लिये अब इस उम्र में बेमानी है। हां, मेरी तमन्ना एक यह है कि किसी विशेष मंच से  श्रेष्ठ समाचार पत्र विक्रेता का  सम्मान मुझे एक बार मिले! मेरा सबसे अधिक परिश्रम भरा हॉकर वाला पहचान इस पत्रकारिता के भुलभुलैया में खो गया है।
 वैसे, मैं तो पत्रकारिता दिवस को पत्रकारों का मछली बाजार नहीं कहना चाहता।पर इस एक दिन की भाषणबाजी में भी यह मुद्दा प्रमुख नहीं होता कि सुबह आंख खुलने से लेकर देर रात बिस्तरे पर जाने तक काम करने वाले पत्रकारों को कुछ तो उचित वेतन मिलनी चाहिए, ताकि बीबी ताना न मारे घर पर...
(शशि)

Wednesday 30 May 2018

पत्रकारिता दिवस में भावनाओं से भरा वह पल



      यदि हमने निष्ठा, समर्थन और ईमानदारी से अपना काम किया है, तो लक्ष्मी की प्राप्ति हो न हो, पर इतना तो तय है कि समाज में सम्मान और पहचान मिलेगा। इसके लिये हमें  उतावलापन दिखलाने से बचना चाहिए, आज पत्रकारिता दिवस ने मुझे इस बात का पुनः एहसास कराया। जैसा कि मैंने कल ही बताया था कि वर्षों बाद मैं पत्रकारिता दिवस के मौके पर मौजूद रहूंगा। सो, अन्य सारे इधर-उधर के कार्यक्रम छोड़ जिला पंचायत सभाकक्ष में जा पहुंचा। हां, थोड़े देर के लिये इसी बीच पुलिस लाइन मनोरंजन कक्ष में एएसपी नक्सल के प्रेसवार्ता में जाना पड़ा था। दो मामलों का खुलासा पुलिस को जो करना था। अतः अखबार का काम सबसे पहले जरूरी है। बहरहाल, विंध्याचल प्रेस क्लब के इस कार्यक्रम में जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, पूर्व विधान परिषद सदस्य आदि तमाम भद्रजन मौजूद रहें। भाषणों का दौर शुरू हुआ, पर यहां दो वक्ताओं ने मेरे दिल को छू लिया।  समाजवादी पार्टी के पूर्व नगर अध्यक्ष लक्ष्मण ऊमर ने बड़ी ही दमदारी से कहा कि यहां एक ऐसे भी पत्रकार शशि जी हैं, जो पूरे स्वाभाविक के साथ पत्रकारिता ही नहीं समाचार पत्र वितरण भी करते हैं। वे मिसाल हैं कि हर कोई पत्रकार दलाल नहीं ...  तो अगले वक्ता रहें  रोहित शुक्ला ' लल्लू'  जो समाजवादी पार्टी के टिकट से बीता विधानसभा चुनाव लड़  चुके हैं, ने मेरी पत्रकारिता पर कहा कि देर शाम उन सबकों व्हाट्सअप पर यह इंतजार रहता है कि गांडीव में उन्होंने आज क्या लिखा है, विशेष कर राजनीति से जुड़े समाचार । मेरा नाम इन दोनों वक्ताओं से सुनकर  मंचासीन अधिकारियों की भी उत्सुकता निश्चित ही मुझे लेकर कुछ बढ़ी होगी। मैं वैसे तो अनावश्यक अफसरों के कार्यालय में आता-जाता नहीं। सो, वे चेहरे से मुझे यदि पहचानते भी हो, तो नाम से नहीं।  फिर जब पत्रकारों को सम्मान देने की बारी आई , तब भी क्लब के सचिव कृष्णा पांडेय ने सबसे पहले मेरा और साथ में बड़े भैया प्रभात मिश्रा का नाम  तमाम पत्रकारों के मौजूद रहते हुये लिया । जिलाधिकारी से इस पत्रकार संगठन का प्रथम सम्मान चिन्ह लेते हुये मुझे इतना तो महसूस हुआ ही कि पच्चीस वर्षों की मेरी तपस्या व्यर्थ नहीं गई है, क्यों कि वहां मौजूद तमाम लोग मुझे बधाई हो कहते दिखें।
         यहां बात सम्मान का नहीं है, वाराणसी में इसके लिये बड़े मंचों मंचों पर कई पत्रकार संगठन मुझे आमंत्रित करते रहे हैं। परंतु मैं साफ तौर पर उनसे कह देता हूं, मुझे कहां वक्त है ! हां, तमाम वरिष्ठ पत्रकारों की मौजूदगी के बावजूद भी सचिव कृष्णा जी ने मुझे जिस तरह से वरियता दी, उससे मैं भावुक हो उठा था।  उनके क्लब के अध्यक्ष अशोक सिंह सहित सारे सदस्य मेरे प्रति वहां आदर भाव दिखा रहा था। उससे कहीं अधिक जो लोग बैठें थें, जिनके दरवाजे- दरवाजे देर रात मैं अखबार पहुंचाता रहा हूं। वे तालियां बजा हर्ष ध्वनि करते दिखें। मित्रों ये बातें मैं अपनी तारीफ के लिये नहीं कह रहा हूं। इस ब्लॉग के माध्यम से आपकों यह बताना चाहता हूं कि देखिए किस तरह से ईमानदारी और कठोर श्रम के साथ किये गये कर्म की कहीं न कहीं तो पूजा होती ही है। बिना उच्च शिक्षा , न  पत्रकारिता की कोई डिग्री और सड़कों पर साइकिल से 11 बजे रात तक अखबार बांटने वाले मुझ जैसे इंसान के प्रति लोगों में कितना  सम्मान और स्नेह है। अब देखें न ब्लॉग लेखन में रेणू जी ने मेरा कितना सहयोग किया। मैं तो उन्हें जानता तक नहीं, न वे भी मुझे जानती हैं। फिर भी  व्यस्तता के बावजूद उन्होंने मेरा मार्ग दर्शन किया। यह जो प्रोत्साहन है न , वह एक टानिक ही तो है। जो स्थाई सम्मान  है, वह पैसे से कभी नहीं मिलेगा बंधुओं। यदि ऐसा होता तो इन तमाम भद्रजनों के मध्य मैं एक अजनबी होता न  !

(शशि)

Tuesday 29 May 2018

छुप जाता है सच, झूठ इतना शोर करता है...

      हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर

     30 मई यानि की हिन्दी पत्रकारिता दिवस  पर विचार गोष्ठियों का आयोजन एक बार फिर होगा। आज भी कार्यक्रम हुये हैं। भव्य समारोह में मंच पर मौजूद महाशय हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाएंगे। लाख रुपये तक वेतन पाने वाले प्रोफेसर, अफसर से लेकर राजनेता तक आएंगे। कभी-कभी किसी प्रेस में ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग भी आ जाते हैं। जिन्हें ठहराने के लिये वातानुकूलित होटल की व्यवस्था की जाती है। वहीं मंच के सामने हम जैसे श्रमिक पत्रकार पेट को हाथ से दबाये बैठे रहते हैं,कुछ का ध्यान भाषण पर कम डिनर पर अधिक होता है। हम सभी को पता है कि इन ज्ञानी ध्यानी भद्रजनों की भाषण कला से पत्रकारों का भला नहीं होना है और साहब मैं तो कहूंगा कि ये पहले दर्पण में स्वयं को तो टटोल लें जरा, फिर हमें बताएं नैतिक ज्ञान। मामूली पगार पाने वाले हम पत्रकार सुबह से रात तक आन ड्यूटी रहते हैं और ये साहब तरमाल गटकते हैं। मैं कभी ऐसे मंच और कार्यक्रम को साझा नहीं करना चाहता ! यदि इस घुटन भरे माहौल में जुबां खुल गयी, तो कितनों का चेहरा बेनकाब हो जाएगा। सो काहे कबाब में हड्डी बनूं इनके। लेकिन एक संगठन के कार्यक्रम में कल जाना ही है। उसके सचिव कृष्ण पांडेय का विशेष आग्रह जो है।   और ये पत्रकारिता दिवस की जो चकाचौंध है न बंधुओं , उसका खर्च भी तो यहां आये मेहमान ही उठाते हैं । अपने तो सभी ठन ठन गोपाल हैं। मजीठिया आयोग की सिफारिशों की खुशबू की महक ना जाने कहां खो गयी है, अब तो पच्चीस वर्षों से पत्रकारिता का बस्ता ढोते ढोते जवानी भी ढल गयी है। बुढ़ौती कैसे कटेगी सोचो जरा यारों ! अपनी तो जैसे तैसे बीत ही जाएगी।  40 रुपये दिहाड़ी मजदूरी पर वर्ष 1994 में पत्रकारिता शुरू की थी। जेब खाली था, तो गृहस्थ जीवन की चाहत धरी रह गयी। दो वर्ष पूर्व तक साढ़े चार हजार रुपया पगार प्रतिमाह मिलता था। काम न पूछे साहब कितना करता था। शरीर की चमड़ी धूप में काली पड़ गयी है मित्रों और दायीं आंख की रोशनी भी तो जाने को है। वे लग्जरी वाहन से भाषण दे निकल जाएंगे और यहां वहीं पुरानी साइकिल जिंदाबाद है। माना कि कलम अपना बेचा नहीं, पर समाज ने क्या कभी यह पूछा कि शशि भाई चूल्हा आपका जला की नहीं ! ऊपर से हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों आइने में देखों किसका मुखड़ा काला है। माना की पत्रकारिता अब बदली है। ठेकेदार, कोटेदार, दुकानदार तक  वेे सभी पत्रकार हैंं, जिनका कुछ जुगाड़ है। हम गरीब तो सम्मान में अफसरों से एक प्याली चाय की उम्मीद भर रखते हैं और वे अमीर इन्हीं साहब के बच्चों को चाकलेट और मिठाई पहुंचाते हैं ! तो बोलो अफसरों के लिए कौन असली पत्रकार है।  खैर यह भी अच्छा ही है, पैसे को लेकर पत्रकारों का विलाप कम तो हुआ ! एक और पत्रकारों का तबका है, धंधा कुछ नहीं फिर भी काम उनका माशा अल्लाह है। जुगाड़ तंत्र का जमाना है ये बाबू ,काहे नीर बहाना है। अबकि तो गजब हो गया साथियों, नशाखोरी पर कलम चलाने वाले साथी मदिरालय के स्वामी जो बन गये। फिर भी हम एक ही जैसे कलमकार हैं। एक गीत अश्वनी भाई ने अभी भेजा है ..

ये लो में हारी पिया, हुई तेरी जीत रे, काहे का झगड़ा बालम नई नई प्रीत रे।

 तो मित्रों आओ हिन्दी पत्रकारिता दिवस का हैप्पी बर्थडे मनाएं। ताली पीटे और अपने घर जाएं। (शशि)

Monday 28 May 2018

बस्ती बस्ती परबत परबत गाता जाए बंजारा

   

     एक ईमानदार व्यक्ति को उसके हिस्से का अमृत जीवनकाल में कहां प्राप्त होता है, हलाहल पीना ही उसकी नियति है। यह जो भौतिक एश्वर्य है न बंधुओं, वह हम जैसों के लिये कहां है। इनके करीब जाने के लिये छल और स्वांग रचना होगा । साथ ही सफेद नकाब में अपने वास्तविक चेहरे को छुपाने की कला भी आनी चाहिए। इतनी बाजीगरी के साथ झूठ सच  बोल जो नेताओं सा दांत निपोरता रहे, समझ ले कि इस अर्थयुग का अमृत कलश उसे मिलना ही है और हम जैसों के हिस्से में सहानुभूति है इस समाज की । फिर भी हम मस्त फकीर हैंं । मैं भले ही लेखक ,साहित्यकार और कवि नहीं हूं , एक पथिक तो हूं न ! जो कुछ अपनी इस यात्रा में देखा -पाया , उसे हुबहू आपसे रूबरू करवाता रहा । मैं पढ़ता नहीं हूं , सिर्फ देखता हूं और लिखता हूं। मैं तो स्वयं में ही एक किताब हूं। उस आम आदमी की पुस्तक हूं, जिसके बीच सुबह से रात गुजरती है। उसकी बुझी बुझी सी टिमटिमाती आंखें , उदास चेहरे और पीट से चिपके पेट ही मेरी लेखनी है। मेरे अखबार के पाठक की मुझसे बड़ी उम्मीद रहती है। यह जानते हुये भी कि जिस समाचार पत्र से मैं जुड़ा हूं, उसका चादर तंग है। मेरा बहुमूल्य समय क्राइम की खबर लपकने में ही गुजर जाता है। हत्या , दुराचार , चोरी , टप्पेबाजी की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। आज के लड़के बिना मेहनत किये ही स्मार्ट बाइक और महंगे रेस्टोरेंट में गर्लफ्रैंड के साथ मौज मस्ती चाहते हैं। जिस मीरजापुर से मैं जुड़ा हूं, वहां किशोरियों और बच्चों संग दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। यह कैसी हैवानियत है, मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ रहे हैं , ये भेड़िये ! रही बात किशोरियों और युवतियों की तो कड़ुवा सच यही है कि अधिकांश मामलों में मधुर संबंध का राज जब परिजनों के समक्ष खुल जाता है, तो बेचारा आशिक दुराचारी ठहरा दिया जाता है। पैसा के लोभ में भी ऐसे आरोप लग जा रहे हैं। यह जानते हुये कि फलां ने दुष्कर्म नहीं किया है। यह मुकदमा झूठा है। अखबार वाले बढ़ा-चढ़ा कर खबर छापते हैं। कुछ पत्रकार तो  आरोपी के पिता तक का नाम खबर में डाल देते हैं। ताकि उसके पूरे परिवार को ही शर्मिंदा होना पड़े। पर मेरी अलग सोच है यदि मेरे अंदर की आवाज यह कह रही होती है कि लड़का निर्दोष है, तो समचार भले ही पेपर में देना मेरी मजबूरी हो, परंतु युवक का नाम - पता तो मैं नहीं ही देता हूं।  यह ठीक है कि मजनूओं की तादाद बढ़ती ही जा रही है। वे कन्या विद्यालयों के मार्ग में बाइक स्टंट करते मिलेंगे। पर कभी अभिभावकों ने किशोरावस्था पार कर रहींं अपनी पुत्रियों से यह पूछा है कि सुबह तो धूप भी नहीं है, फिर चेहरे पर नकाब बांध और कान में मोबाइल लगाये, वे घर से स्कूल जाने की राह में किससे वार्तालाप कर रही थीं। पिता- भाई तक नहीं पहचान पता रास्ते में इन्हें। मैं पत्रकार हूं, इसलिए जानता हूं कि वे बाइक सवार के पीछे बैठ कहां जाती हैं । हमारे पवित्र विंध्याचल धाम के कतिपय होटल इसी के लिये बदनाम हैं। वापसी पर इन युगल के हाथों में देवी मां का प्रसाद नारियल चुंदरी होता है। मन व्याकुल हो उठता है, अपनी नयी पीढ़ी का यह नया संस्कार देख कर । अखबार के कालम में अभिभावकों को सावधान ! होशियार !! करता रहता हूं। वे जगते तब हैं जब थाने पर जाकर सिर झुकाये गुहार लगानी पड़ती है कि दरोगा जी मेरी बिटिया को फलां... अब चले पुलिस सब काम छोड़ उन्हें ढ़ूंढने , इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस से इनके मोबाइल फोन से  लोकेशन का पता लगा प्रेमी युगल को पकड़ कर लाया जाता है।  लड़का को जेल मिलता है और लड़की के ऊपर से  मोहब्बत का नशा उतर जाता है। आशनाई को लेकर ही आज सुबह ही एक अविवाहित युवक की निर्मम हत्या कर फेंका शव मिला है। मन ऐसी घटनाओं से व्यथित हो उठता है, पर दबाव यह रहता है कि किसी एंगल से खबर कमजोर ना पड़ने पाए। अजीब हालात है इस जिले का , यहां जितने भी कत्ल हो रहे हैं, उसमें से दो तिहाई इसी प्रेम रोग का परिणाम है। अवैध संबंध में बलि सदैव पुरुष की ही चढ़ती है ! कौन इन्हें राह दिखाएं ? यह प्रेम कितना सच्चा होता है ! कभी इस दर्द को मैंने भी जाना- समझा है। सारे मेले पीछे छूट गये तो गुनगुनाए जा रहा हूं...

        बस्ती बस्ती परबत परबत गाता जाए बंजारा
         लेकर दिल का एकतारा

     जानता हूं आज ब्लॉग पर, जो लिखा, यह बकवास आपकों पसंद नहीं आया होगा, पर जो लिखा हूं  उससे युवा पीढ़ी को हमें बाहर निकालना ही होगा..
   (शशि)

Sunday 27 May 2018

"सतनाम" और "राम" में भेद से बढ़ा मेरे अंतर्मन का द्वंद



      हममें से अधिकांश यह मानते हैं कि सबका मालिक एक है, तो आपस में धर्म और जाति के नाम पर यह द्वंद क्यों है। चाहे मंदिर हो या मस्जिद सिर झुकाते हुये ना सही, तो कम से कम एक मानव धर्म जो हम सभी के लिये है, " सबका सम्मान और एक समान अधिकार " उसका तो अनुसरण हमें करना ही चाहिए। अब देखें न नानी मां की मृत्यु के बाद से मंदिरों में जाकर ईश्वर के प्रतिबिंब के समक्ष शीश झुकाने की मेरी बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती है, फिर भी तिरस्कार किसी का नहीं करता। आज भी याद है कि कोलकाता में मां के  अस्वस्थ होने पर मेरा एक होमवर्क यह भी था कि कोई दो दर्जन तस्वीर और मूर्तियों की सफाई और श्रृंगार करूं।
       उन पर लाल- सफेद चंदन लेप लगाना, जिस देवी- देवता को जो भी अलग- अलग  प्रकार के पुष्प चढ़ते हो,जैसा देवी पुष्प (गुलहड़), गुलाब ,गेंदा और तुलसी पत्र, दुर्वा, चंदन से राम नाम लिखा सफेद चक्र रहित विल्वपत्र और फिर बंगाल के पुष्प से श्रृंगार यह सारी तैयारियां उस 12 वर्ष की अवस्था में ही मैं करता था। लेकिन, अब इन ढ़ाई- तीन दशकों में मैं किसी भी मंदिर में माला- फूल और प्रसाद लेकर या बिना कुछ लिये ही बहुत कम ही गया हूं। परंतु इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं इन उपासना स्थलों के प्रति अनादर का भाव रखता हूं। मंदिरों में बजने वाले घंटा- घड़ियाल की आवाज मुझे बहुत कर्णप्रिय है। मैं तो उन सभी धार्मिक उर्जा केंद्रों का एक जैसा सम्मान करता हूं, जहां से मनुष्य को बिना जाति -मजहब का भेदभाव किये मानव बनने का संदेश मिलता हो..
                  आश्रम भी यही सोच लेकर गया था। परंतु वैचारिक संकीर्णता कहां नहीं है। सतनाम यानी एक अकाल पुरुष , इतना तो बिल्कुल उचित ही बताया गया था यहां, (आज भी व्याकुलता बढ़ने पर सतनाम का ही जाप मैं करता हूं) परंतु साथ में यह जोड़ा गया कि मन ही राम (वह राम जिसे परम्ब्रह्म कहते हैं सनातन धर्म में)  है। यह मन यानि की राम ही इस संसार की लीला करते हैं। लेकिन, वे अकाल पुरुष नहीं हैं। सो, उनकी(राम)  इस लीला से मुक्त होने के लिये हमें सतनाम का निरंतर जाप कर उस अकाल पुरुष को प्राप्त करना है। दूसरी बात गायत्री को अबला बताया गया था, जो स्वयं अपना ही कल्याण न कर सके, उसके मंत्र जाप से क्या लाभ !  कुछ ऐसा ही कहा गया। यही भेदभाव वाला धर्म ज्ञान मुझे यहां आश्रम पर समझ में नहीं आ रहा था, वरना करुणा, परोपकार, सहृदयता, वैराग्य सभी कुछ तो था  आश्रम पर ...
      हां, अब मेरी समझ में कुछ कुछ बातें आ रही हैं। असल में जो श्रेष्ठ जाति के लोग थें ,उन्होंने हिन्दू धर्म पर अपना वर्चस्व कायम रखा था और इसी की उपज है निम्न जाति के महापुरुषों और संतों का यह अलग अलग पंथ .. जिसमें एक समानता की बात तो होती है। परंतु जिसकी उपासना करनी होती है, उसे लेकर श्रेष्ठता का वही झमेला कायम है...
   और यही वैचारिक मतभेद मुझे आश्रम के आनंदानुभूति से दूर किये जा रहा था। मैं बार बार यही सवाल पूछता था कि सतनाम बड़े और राम छोटे क्यों ...
   आज भी मैं सबका बराबर सम्मान करता हूं , फिर भी ना जाने क्यों मेरा शीश किसी देवालय में झुकता नहीं .. हां, किसी का मन रखने के लिये यदि देवालय में सिर झुका कर प्रसाद ग्रहण करना पड़े, तो इसमें भी तनिक संकोच नहीं करता। कारण किसी की भी आस्था को ठेस पहुंचाना बिल्कुल नहीं चाहता मैं । धर्म तो मेरा एक ही है ..."इंसानियत"। इसलिए तो न्यूज से जुड़े मेरे जितने भी व्हाट्सएप ग्रुप हैं, उनमें स्पष्ट निर्देश है कि जाति- धर्म विवाद से जुड़ी कोई सामग्री न भेजी जाए ।
      वैसे , आश्रम छोड़ने का " सतनाम " और  " राम " को लेकर मेरे अंतर्मन का अंतर्द्वंद ही एकमात्र कारण नहीं था। सम्भवतः आश्रम  के समीप स्थित अखाड़े के कुछ पहलवान भी मुझे निठल्ला ही समझने लगे थें। कुछ तो व्यंग्य भी  करते थें कि देखों इस चेले को मुफ्त का भोजन कर बिल्कुल पहलवान होता जा रहा है। सो,  एक सम्मानजनक जीवन की चाहत फिर से जग गयी।सो,  मन पुनः व्याकुल हो उठा और आश्रम के आनंद से वंचित भी।

(शशि)

Saturday 26 May 2018

आनंद की खोज में मिला आश्रम का वह सुख !



  कम्पनी गार्डेन संग मित्रता से मुझे एक और सुख की जो प्राप्ति आगे चल कर हुई, वह रहा आश्रम जीवन का  अनुभव.. जहां आनंद ही आनंद रहा, क्लेश का कोई स्थान नहीं था वहां। चमकता हुआ मुखमण्डल, स्वस्थ शरीर, नियमित दिनचर्या, मन को एकाग्र करने के साधन और सादगी भरा भोजन सभी तो थें वहां। परंतु यह मेरा दुर्भाग्य था कि वर्ष भर ही रह पाया इस तपोस्थल पर ... धर्म हो या कर्म ,इन सभी को समझने का मेरा अपना दृष्टिकोण सदैव मेरी उलझनें बढ़ता रहा है। सो, इस आनंद से मैं वंचित हो, पुनः मुजफ्फरपुर मौसी जी के यहां चला गया, मन को शांति देने वाले उस आश्रम से , मेरी यूं बिदाई नहीं चाहते थें बाबा जी, पर इसे मन की माया बता मौन हो गयें..दादी और अपने बंधु कम्पनी गार्डन तक को छोड़ मैं चला गया... समझ में नहीं आता कि इतना निष्ठुर कैसे हो गया था ! दादी की आंखें किस तरह से भर आई थीं। फिर भी मैं यह न समझ सका कि यह हमारी आखिरी मुलाकात होगी। अच्छा ही है कि आज मैं यतीम हूं ..यह मेरा दंड भी है और प्रायश्चित भी, क्यों कि इन ढ़ाई दशकों से प्रतिदिन कम से कम रात्रि में तो निश्चित ही, इस पीड़ा की अनुभूति एक भावुक इंसान होने के कारण करता आ रहा हूं .. फिर भी यदि वैराग्य भाव की प्राप्ति ना हुई, तो सदैव ही करता रहूंगा... दुनिया से जाने वाले लौट कर तो आएंगे नहीं ना ! सोचता हूं कि आश्रम में रहता तो इस अपराध बोध से मुक्त तो रहता। जब आश्रम में गया था,  बिल्कुल कोरा कागज ही था, पर अब ऐसा नहीं है... कोई होता जिसको अपना कह लेने की चाहत ने वर्षों मुझे पीड़ा दी है। जब यह समझा की प्रेम की बगिया में फूल खिलने को है, वह कांटों भरा हार फंदा बन चुभने लगा... खैर बिगड़ते स्वास्थ और ढलते यौवन ने इस जख्म पर मरहम का काम किया !
    अभी तो चला अपने आश्रम की ओर , जिसे मैं कोई 27 वर्ष पीछे छोड़ आया हूं। मुझ बेरोजगार निठल्ले युवक को कम्पनी गार्डन में बड़ों के सानिध्य और सत्संग का जो लाभ मिला, उसका स्पष्ट प्रभाव मेरे विचारों पर पड़ा था। सम्भवतः इसी से साधू- संत, महात्मा, चिंतक, अध्यापक और भी विद्वतजन मुझमें रुचि लेते दिखें, वहां कम्पनी गार्डन में। पर मैं बिखरे हुये पारिवारिक सम्बंधों से व्याकुल था। आनंद की खोज में संतों का प्रवचन सुनने दूर दूर तक जाता था...
  एक बार  श्यामवर्ण के तेजयुक्त ब्राह्मण देवता मुझे इसी कम्पनी गार्डन से अपने साधना स्थल तक ले गये थें। जहां कई वेदपाठी दिखे थें। युवावस्था में पैसे के अभाव में मेरी थोड़ी बढ़ी हुई दाढ़ी देख उन्होंने कहा था कि वैराग्य भाव के लिये यह दाढ़ी कोई बुरी नहीं है। इसी के कुछ महीनों बाद मुझे याद है कि श्वेत वस्त्र धारण किये नाटे और गठीले शरीर वाले एक बाबा से प्रातः भ्रमण के दौरान मेरी यहीं कम्पनी गार्डन में मुलाकात हुई थी। उनका हर कोई सतनाम बाबा जी कह, अभिवादन किया करता था। उन भद्र जनों से तुलना करूं तो ऐसा कुछ भी तो नहीं था मेरे पास फिर भी सतनाम बाबा ने मुझे अपने साथ नंगे पाव बगीचे की हरी घास पर टहलने की मौन स्वीकृति दे दी थी। पास ही लोहटिया स्थिति अखाड़े पर बने अपने छोटे से अस्थायी आश्रम पर वे मुझे ले भी गयें। एक बेरोजगार युवक की पहली आवश्यकता तो क्षुधा की अग्नि की शांति ही थी न , सो मुझे वहां इसके लिये संघर्ष नहीं करना था।  शुद्ध देशी घी , दही और मलाई की व्यवस्था थी। सब्जियों में जो तीन मसालें पड़ते थें, धनिया, हल्दी और जीरा इनके साथ ही सेंधानमक को कुटने की जिम्मेदारी अब मेरी थी।  घर से सुबह पौने चार बजे ही आश्रम के लिये निकल पड़ता था। आश्रम और अखाड़े में  झाड़ू लगाने से पूर्व  कुछ कसरत भी पहलवानों की तरह करने लगा था। एक  कार्य और मुझे भोर होते ही करना पड़ता था, वह था.वहां अखाड़े के समीप बनी टंकी को कुएं पर रखे बड़े बाल्टे से लबालब भरना। तागतवर लोग ही उस बाल्टे से इतना अधिक पानी निकाल सकते थें और मैं आठ-दस बाल्टा पानी यूं ही निकला लिया करता था। कसरत करने से सीना इतना चौड़ा हो गया था कि मानों कमीज फाड़ कर बाहर आ जाये। परंतु आश्रम में मैं इसलीये तो नहीं आया था कि पहलवान या फिर भोजनभट्ट बन जाऊं...

क्रमशः (शशि)

Friday 25 May 2018

कोई निशानी छोड़ , फिर दुनिया से डोल



     ब्लॉग लेखन के दौरान जिस तरह से जाने -अनजाने मित्र बंधु और शुभचिंतक मेरा उत्साहवर्धन कर रहे हैं, मैं कभी कभी तो भावविह्वल हो उठता हूं। ढ़ाई दशक पत्रकारिता में गुजारा हूं, परंतु ऐसी अनुभूति कभी नहीं हुई। हां, अखबार से एक पहचान मिली और  अन्य सारे संबंध समयाभाव में टूट गये।इसी पीड़ा को मैंने पहली बार तब सार्वजनिक रुप से व्यक्त किया था, जब इस वर्ष जनवरी में एक वैवाहिक कार्यक्रम में नहीं जा सका था।  जिनके यहां करीब दो वर्षों तक रहा, उन्हीं के इकलौते पुत्र की शादी थी...आपकों बता दूं कि उनकी मौन उलाहना ने मुझे इस तरह व्याकुल कर दिया था कि इस ब्लॉग के जन्म के बाद कुछ अपने तो हंसी ठिठोली में यह भी कह दिया करते है कि  कैसे हो व्याकुल पथिक जी ... एक हताश, निराश और नादान लेखक के तौर पर मैंने तब ब्लॉग लेखन शुरु किया था। इस अवसाद से बाहर निकल अपनी लेखन यात्रा में तनिक आगे बढ़ा तो विचार आया कि पत्रकारिता पर कुछ लिखना चाहिए, कोई तो संदेश दूं युवा पत्रकारों को , फिर मैंने ऐसा ही किया। पर एक बड़ा सवाल मेरे सामने यक्ष प्रश्न बना खड़ा है, वह है हम पत्रकारों पर नैतिकता की भारी गठरी यह समाज लादने को आतुर रहता है, परंतु हमारे पेट की आग कैसे बुझे, गृहस्थी की गाड़ी कैसे पटरी पर बनी रहे। इसे भी कभी सोचा क्या आप सभी ने ...
   हां , अमृत कलश से पहले निकलने वाले हलाहल को किसी न किसी को इस समाज में जनकल्याण के लिये पीना ही पड़ता है। जो , निस्वार्थ भाव से जो ऐसा करता है, वह सुर और असुर  से ऊपर उठ महादेव बन जाता है...
   बता दें कि 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस की तैयारी यहां पत्रकार संगठनों द्वारा चल रही है। एक पत्रकार संगठन जिसमें प्रमुख इलेक्ट्रॉनिक चैनल और प्रिंट मीडिया  के रिपोर्टर शामिल हैं , ने  मुझे और मेरे मित्र प्रभात भैया से अनुरोध किया कि आप दोनों इस पत्रकार संगठन के संरक्षक बन जाए। वैसे, तो मैं पत्रकारों के संगठनों से दूर रहता हूं। परंतु मनीष और सुरेश भाई के स्नेह भरे अनुरोध को ठुकरा न पाया। हमारे संगठन के संरक्षक मंडल में प्रभात मिश्र राष्ट्रीय सहारा ,शशि गुप्ता गांडीव के अतिरिक्त मनीष सिंह सहारा समय -अध्यक्ष ,प्रशांत यादव अमर उजाला -सचिव,  संजय दूबे जन संदेश-वरिष्ठ उपाध्यक्ष, मेराज खान इंडिया टीवी- कनिष्ठ उपाध्यक्ष, देव गुप्ता हिंदुस्तान- कोषाध्यक्ष व मीडिया प्रभारी चुने गये। बैठक में इंद्रेश पांडेय NDTV ,सुरेश सिंह आज तक,शिव तिवारी लाइव इंडिया,राजन गुप्ता लाइव न्यूज़,जेपी पटेल समाचार प्लस,सुमित गर्ग  न्यूज -18 बृजलाल मौर्य हिंदी खबर,आफताब आलम, इमरान सदस्य हैं। प्रभात जी को छोड़ सभी मुझसे काफी छोटे हैं।
...इस उम्र में हमारा भी कर्तव्य है स्वयं आगे बढ़ने की जगह जो हमसे छोटे मित्र बंधु हैं  , उन्हें आगे बढ़ाये। उनके लिये उचित स्थान और वातावरण तैयार करें। मुझे किसी कार्यक्रम में कोई जबरन आगे का सीट कब्जा करते नहीं  देखेंगे फिर भी जिन्हें पहचानना होता है वे फर्क समझ जाते हैं। अब इस पत्रकार संगठन की ही बात ही लें न सामूहिक फोटोग्राफ लेते समय अध्यक्ष मनीष भाई और संरक्षक प्रभात जी ने पुकारा कि शशि भैया फोट अपने ग्रुप की हो जाए। आप फोटोग्राफ में देख सकते हैं कि मैं उनके साथ था, पर आगे की पंक्ति में जाने के लिये या फिर फोटो में चेहरा दिखलाने को लेकर मुझमें कोई उतावलापन नहीं दिख रहा यहां भी। यही आपकी वरिष्ठता है... युवा पीढ़ी के लिये हम प्रौढ़ लोगों को स्थान छोड़ना ही होगा, अपने अधिकारों में कटौती भी करनी होगी, हमे दर्पण बनना होगा और इनका मार्गदर्शन करना होगा। यह हमारी समाज के प्रति जिम्मेदारी है। इस सूत्र में हर संबंधों की सफलता का राज है। चाहे वह परिवार की हो या फिर समाज ... मेरा मानना है कि एक खूबसूरत मोड़ पर और कोई निशानी छोड़, हमें अपनी जीवन यात्रा पूरी करनी चाहिए। इस ब्लॉग के माध्यम से ऐसा ही एक प्रयास कर रहा हूं। बड़ा प्यारा है यह गीत ..

 दूजे के होंठों को देकर अपने गीत कोई निशानी छोड़ , फिर दुनिया से डोल...
(शशि)

Thursday 24 May 2018

मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानों तो बहता पानी

      जब गंगा ने मुझे दिया जीवनदान

       मानो तो मैं गंगा मां हूं ना मानों तो बहता पानी
      जो स्वर्ग ने दी धरती को मैं हूं प्यार की वही निशानी..

       बचपन में जब से होश सम्हाला, तभी से यह भक्ति गीत सुनता आ रहा हूं। गंगा के दर्द , पीड़ा, वेदना, उपेक्षा और हम मनुष्यों द्वारा उसके प्रति कृतघ्नता का मुझे हर बार एहसास करता है यह गीत ! आज गंगा दशहरा है। सो, बचपन ना सही , परंतु युवा काल की अनेक यादें गंगा मैया से जुड़ी हुई है मेरी ..जब बालक था, तो सिर के घने केश आगे व पीछे से खड़े हो जाते थें। अभिभावकों ने बताया कि तीन भंवर हैंं तुम्हारे सिर पर। अतः आग, पानी और ऊंचाई से गिरने का खतरा बता कर मुझे इनसे दूर रखा जाता था। लड़के के लिये तड़प रहीं मेरी नानी मां अपने आखिरी मृत पुत्र के रुप में मुझे देखती थीं। तो यहां बनारस घर पर भी करीब ढ़ाई वर्षों तक जब तक छोटे भाई का जन्म नहीं हुआ, मैं ही सबका राजदुलारा था । याद है मुझे कि बचपन में दार्जिलिंग जाते समय पहाड़ी मार्ग पर किस तरह से अचनाक कार का दरवाजा खुल गया और मेरे शरीर का अधिकांश हिस्सा बाहर की ओर निकल आया था। यूं समझे की  खाई  में गिरते गिरते मैं बच गया था। किशोरावस्था तक मैं गंगा से दूर  रहा। परिवार के किसी सदस्य सम्भवतः मौसी - मौसा जी के विवाह के बाद गंगा पूजन के समय, बड़ी सी एक नाव पर सहमा-सहमा बैठा था बचपन में एक बार , इतना ही याद है। जब वाराणसी से कोलकाता आता -जाता था और ट्रेन राजघाट पुल पर से गुजरती थी अथवा किसी भी पुल- पुलिया से, भय से सिहर उठता था। परंतु काशी में रह कर आखिर गंगा से दूर कब तक रहता। जब बेघर सा हो गया था,  पापा के एक मित्र रहें शीतला चाचा जिन्होंने विवाह नहीं किया था, कुछ महीनों तक उन्हीं के विद्यालय में पढ़ाया भी। मुझे याद है कि तब गंगा दशहरा पर पहली बार मैं उनके साथ गंगा स्नान को गया था। उनका हाथ पकड़ मैंने खूब डुबकी लगाई थी। हर हर गंगे का जयघोष हो रहा था काशी के प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर । इसी दिन से ना जाने मेरे मन में कौन सी भावना जगी कि बचपन में गंगा को देख कर भयभीत होने वाला युवक , चुपचाप घर से अकेले ही लोटा लेकर सुबह उसी गंगाघाट पर चला जाया करता था। घाट की सीढ़ियों पर बैठ खूब स्नान करता था। अधूरी शीक्षा और परिवार से दूर होने की जो पीड़ा थी, वह गंगा में समा जाती थी। मन प्रफुल्लित हो जाता था। गंगा से भय धीरे- धीरे कम होने लगा और फिर एक दिन मैं सीढ़ियों पर नीचे और नीचे की ओर बढ़ने लगा। तभी मेरा दायां पांव सीढ़ी से अचानक उठ कर पानी की ओर चला गया। उस समय मेरी मनोस्थिति कैसी थी, वह शब्दों में किस तरह बताऊं। मेरे लिये जीवनदान था गंगा मां का कि तेज लहर के साथ वह पांव वापस सीढ़ी पर आ टिका। फिर भी मैं घबड़ाया नहीं और ना ही किसी को यह बताया ही। दादी को मैं परेशान नहीं करना चाहता था। उन्होंने तो अपना कमंडल तक मुझे दे रखा था। अवस्था मेरी तब करीब 21-22 की होगी, जब इस घटना के बाद मैंने ठान लिया की मुझे भी तैरना सीखना है, पर जेब तो खाली था , न ट्यूब,न टीन या डिब्बा, ऊपर से 58 किलो वजनी शरीर.. पर मेरा जैसा की स्वभाव है कुछ भी ठान लिया, तो पूरा करके ही रहता हूं। सो, सीढ़ी पकड़ के लगा पांव पानी में पटकने। बाद में गायघाट चला आया। यहां कमर तक ही पानी था। डूबने को कोई भय नहीं। दो घंटे सुबह और इतने ही देर तक शाम को इस घाट पर पानी में हाथ पांव मारता रहा। सांसें फूलने लगती थीं और शरीर में पीड़ा भी, परंतु तैराक बनने का मन में जो उत्साह था.. वह अतंतः भारी पड़ा। बरसात से पूर्व ही तैरना आ गया,वह भी बिना किसी के सहयोग से और फिर शरद काल में जब पूरा तैराक बन गया तो क्या होली क्या दीपावली , प्रतिदिन साढ़े चार बजे सुबह पंचगंगा घाट पर जा डटता था। शाम को गाय घाट पुनः चला आता था। बेरोजगार था , तो गंगा स्नान और मृत्युंजय महादेव मंदिर में दर्शन यही दिनचर्या रही मेरी ...अब देखें न इन ढ़ाई दशक में जब से यहां मीरजापुर में हूं एक बार भी गंगा स्नान नहीं किया हूं। हां, शास्त्री पुल पर से गंगा दर्शन तो सप्ताह में 5-6 दिन हो ही जाता है।       अब यदि बात उसके मैल धोने के करुं, तो इस पर कोई तीन दशक से देशी- विदेशी राग सुनता ही आ रहा हूं और इसी बीच गंगा को प्रदूषित करने वाले पापी उद्यमियों की संख्या बढ़ती गयी। उसके सीने पर तप रहें  रेत के बड़े- बड़े टीले आज उसकी पहचान को गंदे नाले में बदलने का षड़यंत्र रच रहे हैं। केंद्र की मोदी सरकार फिर से " नमामि गंगे योजना लेकर आयी है। पता नहीं हम अपनी राष्ट्रीय नदी, उससे भी बढ़ कर मां स्वरूप गंगा के साथ भी उसे स्वच्छ, निर्मल, अविरल करने की यह नौटंकी कब तक करते रहेंगे ! लेकिन हमारी जो भावनाएं हैं न , वह सदैव यही कहती रहेगी कि गंगा तेरा पानी अमृत ।
(शशि)

Wednesday 23 May 2018

आजा तुझको पुकारे मेरे गीत रे ओ मेरे मितवा



       इंसान को उसके बुरे दिन काफी कुछ सीखा जाता है। यदि मैं अपनी बात करूं, तो उस दौर मैंने जो चिन्तन- मंथन किया हूं, वह " अमृत कलश " के रुप में मेरे समक्ष आज प्रस्तुत है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि विगत 25 वर्षों से इस छोटे से शहर की सड़कों पर अखबार बांटने वाले एक दुर्बल काया वाले व्यक्ति को लोग इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं। किसी बड़े अखबार का पत्रकार भी तो नहीं हूं ,जो पैरवी आदि करने में उनके काम आता। फिर भी आम और खास दोनों ही तरह के लोग मेरी इज्ज़त करते हैं और स्नेह भी। पुलिस विभाग के लोग जो सबसे अकड़ कर बात करते हैं, वे  भी कब मुझे शशि भैया कहने लगे ,ठीक से याद नहीं। वैभव सम्पन्न राजनेता, माननीय और व्यापारी वर्ग कुछ इसी तरह का मधुर सम्बंध मुझसे रखते हैं। कुछ तो जबर्दस्ती भी करने लगते हैं कि शशि जी अब बहुत चल लिये साइकिल से बस एक छोटी सी स्कूटी स्वीकार कर लें। बटम ही तो दबाना है, भारी भी वजन में नहीं है यह। बाइक वे इसलिए नहीं कहते हैं कि खराब स्वास्थ्य के कारण ,उसे चलाना मेरे लिये तनिक कठिन होगा। खैर, अभी तक तो यह पुरानी साइकिल ही मेरी पहचान है! सच कहूं तो मैं इसे खोना नहीं चाहता ! 
       आज के ब्लॉग लेखन में मैं अपने बुरे वक्त के इकलौते मित्र "कम्पनी गार्डन"की याद में डूब जाना चाहता हूं। बनारस के मैदागिन क्षेत्र में स्थित यह पार्क मेरे लिये एक निर्जीव बगीचा तब भी नहीं था, जब मैं यहां किसी वृक्ष के नीचे बैठ पढ़ा करता था। ननीहाल में जो अत्यधिक प्यार दुलार मिला था। मां के गुजरने के बाद दुबारा अपने घर वाराणसी लौटने पर इन सभी से वंचित सा हो गया था। कक्षा 11-12 में मेरी मुलाकात इस अजीज दोस्त से तब हुई थी, जब बिल्कुल अकेला पड़ता जा रहा था। कोशिश यह थी कि ऐसा कोई शरणस्थल मिले, जहां घर के बोझिल वातावरण से दूर गणिक के सवालों को सुलझाने में खोया रहूं । ठीक से याद नहीं, शायद दादी ही मुझे यहां लेकर आई थी या मैं स्वयं ही खींचा चला आया । कभी यूकेलिप्टस के पेड़ के नीचे, तो कभी शीतला मंदिर के चबूतरे पर या फिर उस रैन बसेरे में जहां सुबह बुजुर्ग रामायण पाठ करते थें, पढ़ा करता था। टूटते पारिवारिक संबंधों के कारण मैं व्याकुल था। पढ़ने के लिये पुस्तक की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। जवां हो रहा था। सो, घर से मिलने वाली दो जून की सूखी रोटी और थोड़ी सी सब्जी मेरे पेट की आग बुझाने में असमर्थ थी। खैर , वह दादी ही थी, जिन्होंने अपने हिस्से का भोजन मुझे कराया था और यह कम्पनी गार्डन मेरा साथी ठंडा पानी पिलाया करता था। कोई डेढ़ वर्ष का साथ रहा, इसका और मेरा।  फिर  परीक्षा दे कलिंपोंग चला गया। जब वहां से वापस मम्मी पापा संग घर लौटा, तो सब कुछ ठीक ही था। किन्तु दुर्भाग्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सो, एक बेरोजगार युवक के रुप में फिर से अपने इस दोस्त की छत्रछाया में मैंने वर्षों गुजारे यहां । यूं कहें कि घर से नाता सिर्फ रात्रि शयन तक सीमित रह गया था। तब मैं निठल्ला क्या करता। न तन पर बढ़िया कपड़े थें, न जेब में पैसा ऊपर से सिर पर तमगा यह लगा था कि मास्टर साहब का लड़का हूं ! सुबह घर से जो निकलता तो देर दोपहर ही इस बाग से लौटता था और शाम चार बजने से पहले ही फिर से बंधु मैं आ गया कि पुकार लगाते यहां पहुंच जाता था । उसी अवसाद भरे दौर में इस बाग में बड़े बुजुर्गों का संग मिला। उनका ज्ञान मिला,स्नेह मिला और सतसंग भी।  मेरे मित्र बड़े भाई प्रभात मिश्र, जो भी पत्रकार हैं, कहते हैं कि एक बात बताओं  कि इतनी जानकारी कहां से पाये तुम, ढ़ाई दशक से तो सुबह से रात तक यहां हाय! पेपर , हाय! समाचार , बस यही रट लगाये हुये हो.. यह तो यदि ब्लॉग लेखन नहीं करते, तो हमलोग जानते भी नहीं कि तुम्हें पत्रकारिता के अतिरिक्त भी कुछ आता है। खैर, यह सब उसी कम्पनी गार्डन में मिले बड़ों का ही आशीर्वाद है। उसी दौर में मैं वाराणसी के कितने ही मठ- मंदिरों और मजार पर शांति की खोज में गया, कितने ही संतों का प्रवचन ध्यान लगा कर सुना था। सो, आज भी जब बनारस जाता हूं, किसी से मिलूं या न मिलूं अपने इस साथी का सानिध्य जरुर पाना चाहता हूं, जिसके बड़े हिस्से की हरियाली भवन बना कर छीन ली गयी है।
   और क्या कहूं अपने इस दोस्त से अपनी मोहब्बत के बारे में, यही कि
   हम तुमसे जुदा हो के मर जाएंगे रो रो के..

    सचमुच इस दोस्त की कम्पनी छोड़ने के बाद फिर कभी मुझे वैसी सुकून भरी जिंदगी नहीं मिली, जो लोग अपने लगे भी, तो वे मुझे रास्ते का पत्थर समझ ठोकर मार आगे बढ़ गये और मैं वहीं पड़ा रह गया... काश ! ऐसा हो पाता कि जीवन की वह आखिरी शाम अपने इस बिछुड़े मितवा के आगोश में होता..
(शशि)

Tuesday 22 May 2018

वीणा के तार में समाया है हर रिश्ते का संतुलन !



          उस नादान उम्र में पिता के सामने समर्पण न करने का जो भयावह दंड मिल रहा है, ढलता यौवन यह मुझे महसूस कराने लगा है। वह एहसास करवा रहा है कि यदि थोड़ा सा धैर्य रखते तो शिक्षा पूरी कर किसी दफ्तर के साहब होते तुम भी जनाब ..
               देखें न जब से वाराणसी में फ्लाईओवर हादसा हुआ है और जिस कारण मार्ग बंद होने से देर शाम वहां से मीरजापुर के लिये कोई भी यात्री बस नहीं मिल रही है, तभी से सुबह साढ़े चार बजे पेपर (रात वाला) जीप से आ रहा है। सो,चार बजे ही उठ जाना पड़ता है। फिर साढ़े सात बजे तक लगातार  साइकिल चला कर पूरे नगर में पेपर वितरित करता हूं। थका हुआ शरीर जब विश्राम की चाहत रखता है, तो सामने सबसे बड़ी जिम्मेदारी अखबार के लिये समाचार भेजने की होती है। तमाम ताजी घटनाओं की जानकारी लेना, राजनैतिक विशलेषण, सामाजिक गतिविधियां सभी इन सभी समाचारों को मोबाइल पर टाइप करते करते दोपहर बीत जाता है। इन दिनों रात्रि 12 से सुबह 4 बजे  सिर्फ चार घंटे ही शयन को मिल रहा है। बदन पीड़ा से टूट है,आंखें भरी हुई हैं। ऊपर से ब्लॉग लेखन का नया रोग पाल लिया हूं। इतना अधिक श्रम कर पैसा कितना अर्जित कर रहा हूं, यह जान कर आप मुझे पूरा का पूरा विक्षिप्त समझ लेंगे, क्यों कि 5 रुपये का पेपर मैं  90 रुपये महीने में ही दे देता हूं, खरीद मूल्य पर। चार पन्ने का अखबार और पांच रुपया कीमत भला कौन ग्राहक देगा ! और जिन्हें मैं पेपर देता हूं न साहब वे कोई ग्राहक छोड़े ही हैं कि जिनकी जेब पर मैं डांका डालूं। ये सभी मेरे शुभचिंतक हैं, अग्रज हैं, मित्र बंधु हैं, अभिभावक हैंं और मेरे दर्द को अपना समझने वाले हैं। एक पत्रकार ,एक पत्र विक्रेता  से इतर उनके दिल में मेरे लिये एक कोना है। ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैं पेपर बंद नहीं कर पा रहा हूं। अन्यथा इस स्थिति में हूं कि बिना शारीरिक श्रम किये ही दो जून की रोटी मस्ती से खा सकता हूं !
             उम्र के इस पड़ाव पर ,जब मैं दुनिया की हर तस्वीर देख चुका हूं और एक जागरूक पत्रकार के रुप में समाज में पहचान भी रखता हूं। जो कुछ लिखता हूं, उसका प्रभाव समाज पर पड़ता है, यह जानता भी हूं । तो ब्लॉग लेखन के दौरान यह मेरी जिम्मेदारी है कि गुमराह होते किशोर और युवा वर्ग को भटकाव की स्थिति में ना ला खड़ा करुं.. उनका सही मार्ग दर्शन हम नहीं , तो फिर कौन करेगा ! बंधुओं मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि माता पिता पर कभी भी दोषारोपण न करें। आज मेरी जो पहचान है, वह पिता जी का अनुशासन ही तो है। उनका स्वाभिमान ही हमारे रगों में रचा बसा है। तभी  तो भटकाव भरी राह पर भी यह स्मरण सदैव रहा कि मैं मास्टर साहब का लड़का हूं। उस शख्स का जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में हम सभी को आलू के चोखे में पानी डाल सब्जी की तरह उसे खा लेने की शीक्षा दी थी, फिर भी हाथ किसी रिश्तेदार के सामने पापा को फैलाते कभी नहीं देखा। उस गरीबी में भी हमारे परिवार में सबकुछ ठीक ठाक रहा। हां, दादी अलग रहती थीं। लुक छिप कर हम भाई बहन उनके कमरे की ओर भाग आते थें। पता नहीं क्यों घर में निजी विद्यालय खुलने के बाद इधर हम सभी की आर्थिक स्थिति में सुधार आई और उधर परिवार में बिखराव भी शुरु हो गया। स्नातक की पढ़ाई छोड़ मेरा छोटा भाई घर से दूर दवा कारोबारी के यहां चला गया। छोटी बहन का विवाह मम्मी ने अपनी खास सखी के पुत्र से करवाया था। एक लड़का होने के बाद वह ससुराल से मायके आयी तो फिर कभी जबलपुर नहीं जा सकी। सो, एक नादान किशोर की तरह अपने अभिभावकों को कठघरे में खड़ा करने की जगह मैं नियति के खेल के समक्ष नतमस्तक हूं। जब कभी हृदय की वेदना बढ़ती है, तो बुद्ध से जुड़ी सबक याद आती है।

    "वीणा के तार को इतना मत कसो की सुर बेसुरा हो जाए और इतनी ढील भी मत दो की सुर ही न निकले "

    हर रिश्ते का संतुलन इसी में समाहित है।

(शशि)

Monday 21 May 2018

काश! पुकारा होता मेरे लाल घर आ जा



         ब्लॉग लेखन करते हुये मन को बार बार कुरेदता हूं, अतीत को टटोलता हूं और स्वयं से भी प्रश्न करता हूं कि नियति ने मुझे जैसे भावुक इंसान को एक यतीम सा जीवन क्यों दिया। बचपन में मुझे आटा गूंथते , सब्जी काटते और कपड़ा प्रेस करते देख महिलायें खुश होकर कहा करती थीं  कि तुझसे जिसकी शादी होगी, वह बड़ी खुशनसीब होगी रे ! रोटी, पूड़ी -पराठे तीनों बनाने के लिया आटा कितना नरम अथवा कड़ा गूंथना है, कोलकाता में ही मां से सीखा था।  रोटी- पराठा, चाय-घुघरी सभी कुछ तो मैं बहुत बढ़िया बनाता था। पर इतना खुशकिस्मत नहीं था कि कोई हमसफर मिलता जो यह कहता..

  तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा, तुम ही देवता हो
 कोई मेरी आंखों से देखे तो समझे कि तुम मेरे क्या हो...

        हां, ऐसी ख्वाहिशों ने मेरे दर्द को और बढ़ाया जरुर। जिस पीड़ा से बाहर निकलने में मुझे काफी वक्त लगा था कभी।  फिर भी चेहरे पर वहीं  मुस्कान बनी रही, जिसे हासिल करने के लिये मैं उस महान जोकर की फिल्म देखा करता हूं, अपनी भावुकता, संवेदना और प्रेम को उसी रंगमंच पर समाहित करने के लिये, जिसे मैं अपने शब्दों में कर्तव्य पथ कहता हूं। सोचता हूं कि एक सभ्य , संस्कार युक्त और अनुशासित परिवार में पल-बढ़ रहा था। फिर अचानक वह वज्रपात कैसे, क्यों और किसलिये हो गया। युवावस्था की ओर कदम बढ़ा रहा जो किशोर अपने सुनहरे भविष्य को लेकर उत्साह से लबरेज था। अपने कक्षा में अव्वल रहता था, कोई गलत राह पर भी नहीं था साथ ही सबसे बड़ी बात यह रही कि  मेरे अभिभावक भी हम तीनों ही भाई बहन को अच्छी शिक्षा दिलवाने की हर सम्भव कोशिश कर रहे थें। हम बच्चों को अच्छा भोजन व वस्त्र दिया गया। फिर भी संबंधों में यह कड़ुवाहट आखिर क्यों  !  मैं इसके लिये अपने माता - पिता को बिल्कुल भी कठघरे में खड़ा नहीं करना चाहता हूं। बस हमारे बीच की ट्यूनिंग इसलिये सम्भवतः गड़बड़ा गयी, क्यों कि पापा की हर इच्छा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की तरह होता था, जिसकी कोई अपील नहीं थी। जुबां खोलने का मतलब बगावत करना था। हालांकि वे हम सभी की खुशी के लिये कठिन परिश्रम करते थें। जो विद्यालय हमारे अभिभावक ने खोला, उसके लिये कितना श्रम किया था, कितनी ही महत्वाकांक्षा जुड़ी थी उनकी। यह जो महत्वाकांक्षा है न बंधुओं, बड़ा ही खतरनाक परिणाम देता है।अब देखें न कोलकाता में मैं कक्षा 6 पास कर बनारस गया था और पापा ने सीधे कक्षा आठ की परीक्षा में ला बैठाया। कितना घबड़ा गया था, तब मैं। दिसंबर के आखिरी सप्ताह में मां की मौत  हुई थी और तीन माह बाद परीक्षा देनी थी, वह भी आठवीं की। खैर किसी तरह प्रथम श्रेणी से पास हो गया। मैं एक चित्रकार बनना चाहता था, गणित जैसा उबाऊ विषय बिल्कुल नहीं चाहता था। परंतु पापा ने नौ में विज्ञान ही दिलवा दिया। जो छात्र  कक्षा 7 और 8 की शीक्षा प्राप्त ही न की हो, उसका उपहास नयी कक्षा में सहपाठी निश्चित ही उड़ाएंगे। यह मेरे जैसे स्वाभिमानी किशोर को कतई बर्दाश्त नहीं था। सो, दिन रात मैं पढ़ाई में जुट गया। मेरा परिश्रम देख मेरे कोचिंग टीचर सहपाठियों से अकसर कहा करते थें कि यह लड़का भले ही जीनियस नहीं है, परंतु उसने अपने श्रम और संकल्प से तुम सबको पीछे छोड़ दिया है। मैंने शशिकांत सर को निराश नहीं किया। जब 10 वीं की परीक्षा में मुझे गणित में सौ में 98 नंबर मिला,तो उन्होंने सीना चौड़ा कर कहा था कि यह मेरा नामराशि है। इसके वर्षों बाद जब नीचीबाग, वाराणसी में सड़क पर राह चलते मेरी उनसे मुलाकात हुई , मैंने पांव पूछ कर पूछा था कि सर पहचाना मैं शशि हूं ! जिस पर मुस्कुराते हुये उन्होंने कहा था कि तुम्हें कैसे भूल सकता हूं। तुम्हारी मेहनत नजीर रही । मेरी पढ़ाई इस तरह से अधूरी रह जाने की खबर पर वे बिल्कुल उदास हो गये थें। बस इतना कहा था कि तुम बहुत आगे जाते ! मैंने उन्हें बताया था कि गांडीव समाचार पत्र के लिये मैं मीरजापुर से रिपोर्टिंग करता हूं। परंतु यह नहीं बताया था कि सर मैं प्रतिदिन शाम को पेपर का बंडल लेकर वाराणसी से बस पकड़ ढ़ाई तीन घंटे सफर के बाद मीरजापुर जाता हूं। जहां अनजाने शहर की अनदेखी गलियों में रात्रि साढ़े नौ बजे तक पैदल ही अखबार बांटते हुये भटकता हूं। फिर वहां से स्टेशन रोड बस अड्डे पर जा वापसी के लिये बस का इंतजार करता हूं। और यदि बस ना मिली तो सामने रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म है, रात गुजार लेता हूं। मैं उन्हें यह सब बता और दुखी नहीं करना चाहता था !
      पर सवाल जो मैं सदैव ही स्वयं से पूछता आ रहा हूं कि इसका जवाब क्या हो सकता है। पहला बचपन में कोलकाता में मेरे टिफिन बाक्स में महंगा फल और मिठाइयां साथ ही नन्हें राजकुमार जैसी सुख सुविधा देख पापा की नाराजगी कि     उनके एक लड़के की इतनी सेवा ! दूसरा, जब पुनः कोलकाता से किशोरावस्था में कदम रखने और मां की मौत के बाद  बनारस गया, तो अति अनुशासन में रहने की बाध्यता और तीसरा पिता-पुत्र का स्वाभिमान आपस में टकरा जाना। मुझे आज भी याद है कि एक बार पापा मेरी तब तक पिटाई करते रहें, जब तक छड़ी टूट नहीं गयी, मैं झुकने को तैयार नहीं हुआ। बाद में पिता जी के हाथ में दर्द होने लगा था। हां, परिस्थितियां बदल गयी होतीं, यदि हम बाप बेटे में से एक झुक गये होतें।
    काश ! किसी ने यह पुकारा होता..
 ओ मेरे लाल आ जा, तुझ को गले लगा लूं।

बस चाहता यही हूं कि आपका लाल जब किशोरावस्था की दहलीज पर हो, तो उसके साथी बनें, शासक नहीं !
(शशि)

Sunday 20 May 2018

मेरी मां तुम्हारी कुछ भी नहीं !



          मां तो सबकी मां होती है। हम भारतीय तो अपने राष्ट्र को भी भारत माता कह कर नमन करते हैं। फिर भी हममें से अनेक लोग बातों ही बातों में न जाने क्यों मां-बहन को जोड़ कर अपशब्दों का प्रयोग करते ही आ रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इनके प्रति वाणी का यह अनादर किसी तरह से प्रचलन में आया। परंतु थाने पर दरोगा और राह चलते सिपाही जिम्मेदार पद पर होकर भी ऐसा किया करते हैं। पत्रकार हूं, इसीलिये ऐसा आंखों देखी बता रहा हूं। हां, अब सोशल मीडिया का जमाना है। अतः वीडियो कहीं वायरल न हो जाए, इससे खाकी वाले तनिक सावधान ही रहते हैं। फिर भी मेरा मानना है कि सबसे बढ़िया प्रशिक्षण गाली देने की कला की किसी को मिली है, तो वह हमारे इन पहरुओं को ही शायद!
       पिछले दिनों की बात बताऊं, हमारे अमूमन शांतिप्रिय शहर में कुछ जरा अलग हट कर हो गया है, क्यों कि खाकीवालों के विरुद्ध एक कद्दावर खादीवाले की जुबां पर वही मां की गाली आ गई। फिर क्या था कोतवाली के अंदर से इसका वीडियो वायरल हो गया। उधर,युवा दरोगा ने सत्तारूढ़ दल के एक पूर्व सांसद के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवा दिया। अब यह मामला यहां राजनैतिक सुर्खियों में है। लेकिन यह अधूरा सच है, वर्दीवाले जो आये दिन इसी तरह के अपशब्दों का प्रयोग करते हैं थाने में इसका वीडियो कौन जारी करेगा। ये वर्दीवाले ईमानदारी से बताएं कि वे ड्यूटी के दौरान प्रतिदिन कितनी बार औरों की मां -बहन का नाम ले अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। जो नेता, अधिकारी, रंगबाज यहां विंध्यवासिनी धाम में मां कल्याण करों की पुकार लगाते हुये जाते हैं। उन्हें इतना भी नहीं पता कि जिसे वे अपने दम्भ में अपशब्द कह रहे हैं, वह इन्हीं जगत जननी का स्वरूप हैं। यह कितनी लज्जा का विषय है कि महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों  की जुबां इस तरह से बेकाबू है। क्या इस पर कोई बड़ा कदम हमारे भाग्य विधाताओं को नहीं उठाना चाहिए। उनके पास पावर है, वे चाहे तो संविधान में इसके लिये और कठोर कार्रवाई तय कर सकते हैं। जब कानून के भय से दलित वर्ग के प्रति अपमानजनक  शब्दों के प्रयोग काफी कम हो सकता है, तो फिर मां-बहनों की अस्मत को ठेस पहुंचाने वाली यह गाली भी निश्चित ही रोकी जा सकती है। पूर्व माननीय और दरोगा के विवाद को उजागर कर मैं इस ब्लॉग की गरिमा गिराना नहीं चाहता, परंतु  "मां "  जैसे आत्मीय सम्बोधन को निजी अहम् की तुष्टि का माध्यम न बनाया जाए, इसके लिये हम सभी को मिल कर आवाज उठानी होगी। यह हमारा नैतिक दायित्व भी है ! (शशि)

Saturday 19 May 2018

जमाने की ठोकर ने बनाया दर्पण



     जमाने की ठोकरें खाते हुये मैं एक समतल दर्पण बन गया हूं। ऐसा दर्पण जिससे बहुत पक्षपात की उम्मीद कोई नहीं करता।  अपने हित में जुबां से न तो किसी का झूठा गुणगान करता हूं और ना ही निजी खुन्नस में उसकी बुराई करना चाहता हूं। यदि ऐसा करना चाहूं, तब भी नहीं कर सकता। अंदर से कोई आवाज आती रहती है , किसके लिये कर रहे हो यह सब.. तुम्हारा मेला तो कब का पीछे छूट चूका है बंधु..

     सचमुच मैं बिल्कुल बंजारे की तरह से हूं , जहां शरण मिला वहीं रात कट जाएगी अपनी। इस छोटे से शहर में बड़े लोग भी मुझे अत्यधिक स्नेह और सम्मान देने लगे हैं। मंत्री , सांसद विधायक , उद्यमी से लेकर आम आदमी भी मुझ निठल्ले को पसंद करने लगा है । सोचा था कि घरवालों को कभी बताऊंगा कि मैं निकम्मा नहीं हूं, मैंने अपनी पहचान बना ली है। पर कदम ठिठक गये, जहां पैसा की पहचान हो , वहां जाना उचित नहीं समझा।

         इधर, यह कलम है कि मानती ही नहीं, चल ही जाती है अपने ही शुभचिंतकों के भी विरुद्ध।  कितना भी रोकना चाहता हूं, फिर भी जनता का दर्द , मेरी अपनी पीड़ा न जाने क्यूं बन जाती है। समझता हूं कि जो रहनुमा मेरे निजी दुख-दर्द में खड़े रहते हैं, उन्हें इससे तकलीफ होती होगी। फिर भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने कभी फोन मेरी खबरों पर नाराजगी नहीं जताई।  कितनों ने कान भरा भी है इनका कि क्यों सांप को दूध पिला रहे हैं !  तब भी अमूमन माननीय मेरे ही समर्थन में कह दिया करते हैं कि शशि भाई हैं ! उन्होंने कुछ डिमांड तो नहीं न किया आपसे या हमसे। जो दो मामले मुझपर दर्ज है, उससे तकलीफ जरुर है। पर सोचता हूं कि महात्मा गांधी को भी तो गोली किसी ने मार ही दी न, मैं तो एक मामूली कलमकार हूं..विश्वास कीजिए मैंने कलम से धन की चाह में किसी को ब्लैकमेल नहीं किया। ढाई दशक से यहां पत्रकारिता कर रहा हूं, कोई एक दिल पर हाथ रख कर बता दे कि जो भी खबरें अच्छी या बुरी मैंने लिखी, उसके बदलें अपने लिये कुछ मांगा ? आज भी उसी पुरानी साइकिल से ही चलता हूं। समाजवादी पार्टी के बड़े नेता यदि अन्यथा न लें तो एक बात कहूं ?  यह जो समाजवाद है न वह हमारे ही जैसे पहरुओं के कारण ही , अब तक संजीवनी पाते आ रहा है, नहीं तो लग्जरी वाहनों में सफर करने वालों ने उस विचारधारा को कब का खा पचा लिया होता।
          हां,चाहता तो मैं भी जेंंटल पत्रकार बन सकता था। अनेक अवसर मिले यहां, पर खुद से ही यह पूछ बैठा था कि किसके लिये ये सब  करुं..
     मां , बाबा और दादी के जाने से मेरी दुनिया बदल चुकी थी। दूर मुजफ्फरपुर में मौसी जी स्वयं संघर्ष के दौर से गुजर रही थीं। घर पर दादी का वह सूना कमरा जब तक मैं वहां था पीड़ा देता ही रहा। रोजाना ताऊ जी के घर जाना उचित नहीं लगता। सो, पेट की आग बढ़ने लगी तो काम की तलाश में भटकने लगा। याद है मुझे गांडीव प्रेस से जब मीरजापुर की और चला था ,तो देर शाम अखबार बांटते हुये यहां की सड़कों पर सफेद रंग के महंगे कोट पैंट और जूते में मेरी मनोदशा भी कुछ- कुछ सपने फिल्म के अदाकारा जैसी ही  थी...
       पले थे जो कल रंग में धूल में
      हुये दर-ब-दर कारवां कैसे- कैसे
       जमाने ने मारे जवां कैसे कैसे...

        पर अब इन पच्चीस वर्षों मैं इतना तप गया हूं कि रास्ते का ठोकर बनने की जगह मील का पत्थर बन समाज के लिये कुछ करना चाहता हूं । देखें न मेरा यह " व्याकुल पथिक " वाला ब्लॉग लोग पसंद कर रहे हैं। दिन भर के भाग दौड़ के थकान के बावजूद कुछ समय मैं इसके लिये चुराया करता हूं।
 प्रयास अपना यही है कि इसे और खुबसूरत बनाता जाऊं। इस गुलदस्ते का हर पुष्प जन उपयोगी हो। अभी तो दो माह का अबोध शिशु ही है हमारा ब्लॉग , जो आप सभी का दुलार पाने की चाहत रखता है।
 (शशि)

Friday 18 May 2018

दादी को याद कर अपराध बोध से भर आता है मन

 

       दादी नानी से किस्से कहानी अब कहां बच्चे सुन पाते होगें। स्कूल का होमवर्क ही इतना है कि बचपन कब निकल  जाता है, यह सभ्य समाज के लाडलों को क्या पता !  दादी के करीब होते हुये भी, वे उनके दुलार से वंचित रह जाते हैं।  हां, फिल्मों में जरुर उन्होंने
    " दादी अम्मा- दादी अम्मा मान जाओ "
               यह गाना सुना होगा, सवाल यह है कि अपनी दादी की चंपी कितनों ने की होगी। हां, इस मामले में मैं बहुत खुशनसीब था। बचपन में दादी की खटिया पर ढेरों कहानियां जो सुनी है। दादी ने हम बच्चों को खूब सैर कराया है, पापा- मम्मी से चोरी-चोरी।
   स्मृतियों के झरोखे में जब कभी झांकता हूं, तो घर पर अपने संकट काल में दादी को ही सबसे करीब पाता हूं।वहीं, दुर्भाग्य मेरा देखें कि उनकी मृत्यु पर मैं ही उनके समीप नहीं रहा। बाद में मेरे मित्र ने बताया था कि दादी इस उम्मीद से उसके पास आती रहती थी कि मेरा कोई पैगाम आया हो। बार्डर फिल्म की यह मार्मिक गाना घर कब आओगें  ..जब कभी भी संजीदगी से सुनता हूं, तो लगता है कि कहीं दादी तो नहीं पुकार रही है ! इसीलिए जब भी उनका स्मरण करता हूं , दिल बैठने लगता है। जानता हूं मृत्यु के समय नजरें उनकी मुझे ही ढ़ूढ़ती होगीं ! उनकों कंधा न देने का मुझे अफसरों नहीं है, पीड़ा इस बात की है कि जिन्होंने नानी मां की मृत्यु के बाद वर्षों मेरी सेवा की थी, उन्हीं के कारण तो मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा दे सका था। कभी कम्पनी गार्डन के शीतला मंदिर के अंदर चबुतरे पर बैठ कर, तो कभी उसके रैनबसेरा में जब भी मैं गणित के प्रश्नों को सुलझाने में जुटा रहता था, दादी पीछे बैठ मेरे सिर पर तेल या नीबूं मला करती थीं।
     घरवालों ने उनके अस्वस्थ होने की सूचना तक नहीं दी थी मुझे ! हां , उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद जरुर एक पत्र आया था घर से, पर जब दादी ही चली गयी तो फिर घर किसके लिये जाता। माता- पिता, भाई - बहन ये सारे रिश्ते दादी के सामने ही टूट चुके थें। मुझे निठल्ला बता , दो जून की रोटी भी तो बाद में वहां छीन ली गयी थी। घर में एक छोटा सा कमरा , इस व्यंग्य बाण के साथ दिया गया था मुझे कि दादा का मकान है, इसीलिये हिस्सा में आधा कमरा तेरा और शेष आधा तेरी दादी का ...मैंने तभी ठान लिया था कि न तो इस मकान से और न ही यहां रहने वालों से नाता रखना है। फिर भी दादी मुझे दूर किसी नाते रिश्तेदार के यहां नहीं जाने देना चाहती थी...जब मैं पुनः घर छोड़ कर मुजफ्फरपुर गया और वहां से होते हुये कालिंपोंग फिर वापस वाराणसी लौटा, तो दादी के छोटे से कमरे को खाली देख तड़प उठा था। बहुत कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हूं, अपराध बोध से दब सा जो जाता हूं। बस इतना ही पता चला कि दादी बीमार पड़ गयी, उन्हें अत्यधिक दस्त होने लगा । उनका किसी ने भी प्रयाप्त देखभाल नहीं किया। सो, बड़ी ही खामोशी के साथ कभी भी किसी के सामने नहीं झुकने वाली आत्म स्वाभिमान से भरी मेरी प्यारी दादी खुदा के घर चली गयी.. । कालिंपोंग से लौटने के बाद मैं भारी मन से उनके बिल्कुल छोटे से कमरे को निहारते हुये, अपने खुले कमरे में चला गया था। भोजन मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं था। दो - तीन दिन तो सिर्फ पानी और बिस्किट से ही गुजारा था। हालांकि यह भूख मेरे लिये कोई नयी समस्या नहीं थी। फिर करीबी रिश्ते में ताऊ जी के घर गया... वे उस समय हरिश्चंद्र महाविद्यालय में कानून की शीक्षा दिया करते थें। सभी सम्मान में उन्हें वकील साहब बोलते हैं। मैं भी दादी की तरह ही स्वाभिमानी था, सो यह कहने का सवाल ही नहीं था कि ताई जी भूख लगी है। परंतु उनकी नजरों से मेरी भूख भला छिपने वाली थी। अतः कुछ दिनों तक उन्होंने अपने इकलौते पुत्र (अब स्वर्गीय) को पढ़ाने के बहाने ही मुझे घर पर बुलाया, जब तक मुझे काम नहीं मिल गया था। वहां, एक वक्त का भोजन और जलपान से मेरी क्षुधा शांत हो जाती थी और रात दो- तीन गिलास पानी पी कर काट ही लेता था। यही ट्रेनिंग तो आज भी मुझे काम दे रही है कि रात्रि भोजन की आवश्यकता अब महसूस जो नहीं होती है।
    हां चौथी बार जब घर छोड़ा, तो मीरजापुर से वाराणसी शहर में स्थित अपने मकान में हिस्सा मांगने दुबारा लौट कर नहीं गया, इन ढ़ाई दशक में। कुछ  शुभचिंतकों ने कहा भी था कि महंगी अचल सम्पत्ति है, क्यों छोड़ रहे हो अपने दादा का मकान । मुझे हंसी आती है, इन बातों पर कि कैसी सम्पत्ति और कैसा घर ! जहां थाली में दो रोटी रख कर भी नहीं मिला हो ।  याद वह भी दिन है कि दादी अपने भोजन में से आधा निकाल कर चोरी चोरी मुझे खिलाया करती थी। वृद्धा पेंशन का सारा पैसा मुझे ही दे दिया करती थी । यहां तक कि सारे संकोच त्याग कर कोई भी उन्हें खाने की कोई सामग्री देता, उसे आंचल में छिपा कर धीरे से मेरे कमरे में ले आया करती थीं।  और क्या कहूं दादी को, जब उनके लिये कुछ किया ही नहीं !

शशि 19/5/18

जीना उसका जीना है , जो औरों को जीवन देता है



       जीना उसका जीना है , जो औरों को जीवन देता है
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        हमारे एक मित्र हैं अश्वनी भाई। न्यूज, व्यूज और म्यूजिक का अच्छा कलेक्शन रखते हैं। यू़ं समझे कि आलराउंडर हैं जनाब ! ईश्वर की कृपा उनपर है। सो, सुखी गृहस्थ जीवन का भरपूर आनंद ले रहे हैं। आर्थिक व्यवस्था कुछ उनके पास ऐसी है कि झमाझम लक्ष्मी की बरसात भले ही ना हो रही हो, पर ठन ठन गोपाल भी नहीं हैं बंधु मेरे। सो, दिन चढ़ते- चढ़ते मोबाइल हाथ में लिये और कान में ईयरफोन लगाये मीडिया सेंटर में आ बैठते हैं। यहां काम उनका बस यही है कि आते जाते हुये मैं सब पे नजर  रखता हूं ...

   सो, मेरी मनोस्थिति भी उनसे छिपी नहीं है। अश्वनी भाई जानते हैं कि सुबह के 5 बजे से रात्रि 12 बजे तक मानसिक और शारीरिक कार्य करने वाले मुझ श्रमिक को  देर रात्रि बिस्तरे (शैय्या) पर जाते समय थकान मिटाने की कौन सी दवा चाहिए। लिहाजा, मेरे एकाकी जीवन में रंग बिखेरने के लिये वे इन दिनों पुराने गानों का कोई ना कोई खुबसूरत गुलदस्ता रात्रि में मुझे सेंट करना नहीं भूलते हैं। एक ऐसा ही चुनिंदा सदाबहार नगमा कल उन्होंने मेरे व्हाट्सएप पर डाला था । जिसके बोल रहे ---

मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है
जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है...
 
      अब क्या बताऊं आपको तन चाहे कितनी भी थकान से टूट रहा हो पर मन को भावनाओं, सम्वेदनाओं और कल्पनाओं के पंख लग जाते हैं। वह दिन भर के कैदखाने से मुक्त आजाद पक्षी की तरह फुदकने लगता है। जीवन को सार्थक करने के लिये कितना सरल सूत्र इस गाने में छिपा है। हमसभी ऐसा कर सकते हैं, औरों को जीवन दे सकते हैं। जेब से हमारा कुछ भी बर्बाद नहीं होना है । बस झूठी जुबां चलाने की जगह दिल का खजाना हमें थोड़ा लुटाना है। तभी हमें मन की बात समझ में आएगी !
     अब देखें न हम जिस छोटे से शहर मीरजापुर में रहते हैं, यहीं माता विंध्यवासिनी का धाम भी है। कहां- कहां से नहीं आस्था में बंधे दर्शनार्थी यहां खींचें चले आते हैं। मार्ग में पड़ने वाले शास्त्रीपुल को पार कर ही दर्शनार्थियों और यात्रियों सभी को नगर में प्रवेश करना होता है। हां ,गैर प्रांत जाना हो तो सीधे निकल जाएं। परंतु  स्थिति क्या है यहां की ट्रैफिक व्यवस्था की , यही न की यात्री दो- दो घंटे तक खुले आसमान से बरस रहे अंगारे के मध्य देवीधाम पहु़ंचने से पूर्व जाम में फंस अग्नि परीक्षा देने को विवश हैं। अभी किसी वीआईपी के आगमन की सूचना आ जाए, तो फिर देखिए न साहब कैसे कुछ ही मिनटों में हमारे ये ही बहादुर वर्दीवाले भाई फटाफट सड़क को ट्रैफिक विहीन सा कर देगें। हमारे राजनेता भी स्वागत के लिये इस पुल के समीप आ डट जाएंगे। वहीं ,जब आम जनता की बारी आती है, तो उसे  इसी भीषण जाम में बिलबिलाते रहने के लिये तब तक छोड़ दिया जाता है, जब तक होहल्ला नहीं मचता है। सरकारी खटारी बसों में बैठीं माताओं, बहनों और जाम में गर्मी से बिलखते उनके बच्चों की गुहार सुनने फिर भला कौन माननीय यहां आता है। जनसमस्या स्थल पर जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी देखने के लिये आम आदमी की आंखें तरस जाती हैं। ऐसे में 20 से 30 लाख की मंहगी लग्जरी गाड़ियों में घुमने वाले ऐसे माननीयों को फिर कौन याद करेगा पांच साल बाद! जो हैं तो जनप्रतिनिधि पर क्या जन के लिये कितना  !
       इसीलिये तो मुझ जैसे साधारण पत्रकार को जाम में फंसे लोग संदेश भेजते रहते हैं कि शशि जी व्हाट्सएप ग्रुप में चला दें न ! हम सभी बहुत परेशान हैं। मैं जानता हूं कि मेरा यह कार्य यहां के सत्ताधारी राजनेताओं और अफसरों को सदैव ही अप्रिय लगता रहा है। पर सवाल यह है कि सभी अमृत कलश के दौड़ में जुट जाये, तो जहर कौन पिएगा ! सो, जीवन के संध्याकाल आने से पूर्व कुछ तो अपने पेशे का मान रख लूं, फिर तो अंधेरी रात ही मिलेगी ! हमें भी और आपकों !

शशि 15/5/18

Thursday 17 May 2018

पैसे की पहचान यहां इंसान कीमत कोई नहीं !



           पैसे की पहचान यहां इंसान कीमत कोई नहीं !


        जीवन के इस सफर में तमाम रिश्ते नाते को टटोलते हुये जब कभी अतीत के झरोखे से स्वयं को निहारत हूं, मन पीड़ा से भर उठता है। किन-किन राहों से गुजरते हुये मुझे  मीरजापुर आना पड़ा था ! क्या मैं सचमुच में इतना बुरा और निकम्मा था कि अपनों से दूरी ही मेरी नियति बन गयी। और यहां भी एक पहचान के तमगे के सिवाय और क्या हासिल कर पाया ! परंतु जब स्मृतियों के झरोखे से बाहर आ अपने इर्द गिर्द  देखता हूं, तो मुझसे भी बेबस निगाहें औरों की दिखाई देती हैं । आज तक समझ नहीं पाया हूं कि पैसे और अहम् के आगे सम्वेदनाओं, भावनाओं का क्या कोई मोल नहीं है। युवा क्रांतिकारियों ने देश की इसी आजादी के लिये क्या अपनी जवानी कुर्बान कर दी थी कि आज के जेंटलमैन, नेता और अधिकारियों के हाथों फिर से राष्ट्र गुलाम हो जाए। पिछले ही दिनों बनारस की घटना बेहद दुखद रही । प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के कैंट रेलवे स्टेशन के समीप निर्माणाधीन फ्लाईओवर का स्लैब इस तरह से कैसे ढह गया कि इतनी जानें चली गयीं। कर लें साहब आप भी इस पर थोड़ी राजनीति फिर और दोषियों को सस्पेंड , इससे अधिक और  कुछ नहीं होता है अपने देश में। हां, ऐसे मामलों को लेकर सियासी तमाशा तो जरूर खूब होता है। अफसरों की ऐसी लापरवाही शासन प्रशासन की पहचान सी बन गयी है। पर उन युवाओं को क्या कहें , जो वहां मलबों के ढेर पर खड़े हो सेल्फी ले रहे हैं। यह हमारा और आपका ही दिया संस्कार है, इन बच्चों के पास ! कहां तो बच्चों को उसके अभिभावकों द्वारा  जय कर दो, जय गणेश जी बोलों , प्रणाम करों , चरण स्पर्श करों यह सब सिखाया जाता था और अब कहां एक हाथ हिला कर टाटा बाय-बाय करना ...

       मैं एक पत्रकार हूं, इसलिये समाज के हर तबके के लोगों के बीच उठना बैठना रहा है। अफसर की कुर्सी पर बैठे पढ़े लिखे लोगों की बनावटी मुस्कान मुझे मधुमक्खी के डंक सा दर्द दे जाती है। इसलिये तो मजदूरों का अपना पन कहीं अधिक भाता है। कोलकाता में भी था तो बालीगंज जब कभी जाना होता था तो मुंह बना लेता था। लेकिन लिलुआ जाने को कोई कहता, तो पूछे नहीं कितनी खुशी मिलती थी। मुझे समानता पसंद है, न कि अपने से ऊपर नीचे का भेदभाव। इसलिये तो यहां के पत्रकार संगठनों से मोहभंग हो गया था। सच कहूं तो जातिवाद का एहसास भी यहीं मीरजापुर आकर पत्रकारिता के दौरान हुआ मुझे। अन्यथा कक्षा 6 में जब कोलकाता में पढ़ता था, तो हमारे हिन्दी के अध्यापक ने मेरे एक सहपाठी से जब यह पूछा कि असली शेर है कि नकली, यह सुन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था कि सर जी यह क्या पूछ रहे हैं। यह तो मीरजापुर में पता चला कि क्षत्रिय के अतिरिक्त कुछ और जातियां भी सिंह लिखती हैं। खैर.. मैंने पत्रकारिता करते हुये जीवन के इस सच को करीब से देखा है कि रंगमंच पर आपकी भूमिका चाहे जितना भी उम्दा हो, परंतु कहलाएंगे विदूषक ही। कचहरी और आला अफसरों के दफ्तरों में रोजाना ही हाकिम हुजूर कह गिड़गिड़ाते निरापराध लोगों के चेहरे के दर्द को भी पढ़ता हूं। परंतु मदद मैं उनकी कुछ भी न कर पाता हूं। पहले जब युवा था , तो कम से कम लेखनी ही सही , उनके नाम कर देता था।  पर अब जो कलम मेरे हाथ में देख रहे हैं न मित्रों वह हाथी के सजावटी दांत की तरह है। कारण अखबारों के मालिकान भी कुशल व्यापारी की तरह खबरों का मोलतोल करने लगे हैं और हम रिपोर्टर की मजबूरी है कि उनकी राह पर उनके अखबार में चलें। और क्या कहूं बंधुओं यही कि सुबह से लेकर रात तक  व्हाट्सएप पर दूसरों  से उधार में लिया ज्ञानगंगा बहाते रहें और खुद  तरमाल गटकते रहें ! आखिर कब तक यह सब चलता रहेगा !  और हमारी अंतरात्मा रोती रहेगी कि..

     पैसे की पहचान यहां इंसान की कीमत कोई नहीं , बच के निकल जा इस बस्ती में करता मोहब्बत कोई नहीं..

       पहचान फिल्म का यह दर्द भरा नगमा सच पूछे, तो हम जैसे अनेक इंसानों की ही एक कहानी है।

शशि 18/5/18पर

Wednesday 16 May 2018

और भूत भाग गया


               और भूत भाग गया
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           कोलकाता के बाद जिस शहर की ओर भाग चलने के लिये आज भी मेरा मन मचल उठता है, वह पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जिलिंग जिले का खूबसूरत पहाड़ी इलाका कालिंपोंग है। दो बार मुझे यहां रहने का अवसर मिला था।  न शोर , न प्रदूषण, न ही दार्जिलिंग की तरह बहुत अधिक ठंड ...मित्रमंडली की भी कोई कमी नहीं। वहां शहर के नेपाली लड़के लड़कियां भले ही पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित तब दिखें। अलग प्रान्त की मांग गोरखालैंड आंदोलन का उन पर प्रभाव था। लेकिन,पहाड़ी  क्षेत्र के वासिंदों का भोलापन मुझे खूब लुभाता था। शाम होते निश्चित ही घंटे भर के लिये घुमने निकल जाया करता था। वहीं सुबह जब एक बड़ा सा ऐपल चबाते हुये दुकान पर पहुंचता था, तो पड़ोसी सैलून और पान की दुकान पर खड़े लोग मेरे स्वास्थ्य में परिवर्तन हुआ देख मुस्कुरा भी पड़ते थें।  जैसा कि बता ही चुका हूं कि इंटर की परीक्षा देने से पूर्व ही घर में सबके होते हुये भी एक दादी को छोड़ दें, तो मैं यतीम ही था ! समय कट नहीं रहा था  ऐसी मनोदशा में मेरा एक अनजान पहाड़ी इलाके में बिल्कुल  अकेले जाने का संयोग बन गया। एक छोटी सी अटैची में कुछ कपड़े साथ ले, ट्रेन पर बैठा और देर रात सिलिगुड़ी रेलवे स्टेशन पर जा उतरा। वहीं रेलवे के विश्रामगृह में गैंगटोक जा रहे एक हमउम्र लड़के से मुलाकात हो गयी।  वह मेरी घबड़ाहट समझ गया। सो, बोला भाई मत परेशान हो, सुबह बता दूंगा कि बस कहां से पकड़नी है। दरअसल , उसी स्थान से दार्जिलिंग, गैंगटोक और कलिंपोंग तीनों ही जगह के लिये बस मिलती थी । जब बस तिस्ता नदी पर बने पुल पर पहुंचा, तो नेपाली चालक ने हम यात्रियों से अपनी भाषा में कुछ कहा था। खैर , मैं कालिंपोंग जा पहुंचा  और छोटे नाना जी की मिठाई की दुकान का नाम पूछता वहां भी आ गया। नाना जी काउंटर पर बैठें हुये थें, मुझे देख कर बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने अपने छोटे वाले पुत्र जो अवस्था में मुझसे छोटे थें, के साथ काफी दूर पहाड़ की चढ़ाई पर स्थित अपने घर पर भेज दिया। जहां नानी जी ने भी मेरा स्वागत उसी अपनत्व के साथ किया। परन्तु मेरे जीवन की जो सबसे बड़ी परीक्षा थी, वह तो रात में शुरू हुई, क्यों कि मुझे सोने के लिये बीच वाली मंजिल पर भेज दिया गया। वहां ऐसा नहीं था कि आप सीढ़ी से झट ऊपर नीचे कर लें। बाहरी पहाड़ी रास्ते से ही दूसरी मंजिल तक पहुंचना था। उतने बड़े फ्लैट में भला अकेले मुझे नींद आती भी तो कैसे! ऊपर से तेज हवा के कारण पहाड़ी वृक्षों की आपस में रगड़ से विचित्र तरह की आवाज भी आ रही थी। पहली बार ऐसे क्षेत्र में मुझे अकेले छोड़ दिया गया था और मैं जानता था कि यदि जोर से भी पुकार लगाऊंगा, तो भी सुनने वाला कोई नहीं है। बचपन में भूतप्रेत, चुड़ैल की बातें दादी और मम्मी करती ही थीं  साथ ही ड्रैकुला वाला कामिक्स भी मैंने खूब पढ़ रखा था। सो, बंद खिड़की के उस पार से आ रही आवाज सुन मन बेहद घबड़ा उठा था। उसी मनोस्थिति में कब अटैची से राम चरित मानस की पुस्तक निकाल कर हाथ में ले ली, पता नहीं। हां, हनुमान चालीसा तो वैसे भी मुझे तब याद था ही। सो , पूरी रात पाठ करते ही गुजर गयी। सुबह जब वहां काम करने वाली नेपाली युवती ने दरवाजे पर दस्तक दी, तो जान में जान आयी थी। लेकिन , मेरे लिये अच्छी बात यह रही कि मेरे मन का भूत उसी रात ही भाग गया। फिर तो वहां  जहां भी रहा , अकेले ही बड़े हालनुमा कमरे में रहा। क्योंकि बाद में बस स्टैंड के पास ही नाना जी के पुराने खाली आवास पर आ गया था। बगल में एक पड़ोसी अंकल से मेरी खूब बनती थी। उसी समय जबर्दस्त भूकंप पहाड़ी क्षेत्रों में आया था। भय से अड़ोस पड़ोस के लोग घर छोड़ बाहर मैदान में आ जुटे थें, एक मैं ही अपने कमरे में खर्राटे भरता पड़ा था। मानों हर भय से मुक्त हो चुका था !
     मैं कोलकाता को खोने के बाद कलिंपोंग बिल्कुल नहीं छोड़ना चाहता था। इसीलिये कुछ वर्षों बाद फिर गया वहां, परन्तु एक बंजारे का भला कहां कोई एक ठिकाना  है !

       यह जान कर भी कि एक एक कर सभी अपनों से दूर होता रहा हूं , फिर भी जिस गाने की बोल दूर से ही सुनकर मैं अब भी चहक उठता हूं, वह है-

चलते चलते मेरे गीत याद रखना, कभी अलविदा ना कहना..

शशि 17/5/18

Tuesday 15 May 2018

प्रणाम बंधुओंं



व्याकुल पथिक

       तुम्हारे हैं तुमसे दया मांगते हैं     
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         मन की व्याकुलता को कम करने के लिये कभी-कभी रात्रि में पुरानी फिल्में थोड़ी बहुत देख लिया करता हूं।  1954 की बनी एक फिल्म है बूट पॉलिश, जिसका एक गाना है -
      तुम्हारे हैं तुमसे दया मांगते हैं..तेरे लाडलों की दुआ मांगते है..यतीमों की दुनिया में हरदम अंधेरा..

    सुन कुछ भावुक सा हो उठा । सोचता हूं कि उन मासूम बच्चों को सही राह दिखलाने वाले एक जॉन अंकल मिल गये थें और बाद में एक दुलारी मां भी।  पर जब सगे मां-बाप ही अपने बच्चों को भिखारी बना रहे हों, तब उन्हें कौन राह पर लाएगा। हमेशा उलझन में रहता हूं कि इन बच्चों के साथ हमलोगों का व्यवहार कैसा होना चाहिए। यदि जॉन अंकल बन भी जाऊं तो फिर इनके पेट की आग कैसे बुझेगी, क्यों कि बाप तो इनका शराबी जो ठहरा। अतः, अब तक किसी निष्कर्ष पर इतने वर्षों में नहीं पहुंच सका हूं।

     वैसे, जीवन में एक समय ऐसा भी आया था कि मैं भी सबकुछ रहते हुये यतीम ही हो गया था। दो दिनों से भूखा था, फिर भी किसी के सामने हाथ नहीं फैल रहा था, आखिर मास्टर साहब का बेटा जो था । चुपचाप मैदागिन में स्थित कम्पनी गार्डन की एक कुर्सी पर सिर झुकाये बैठा था , मैंने अपने युवा काल के कई वर्ष यहां इसी बगीचे में घंटों बिताये हैं। मुझे आज भी याद है कि एक बुजुर्ग महाशय ने मेरे समीप आ अत्यंत ही प्यार से कहा कि बेटा यदि खाली हो तो फलां धर्मस्थल (मजार) पर जाकर प्रसाद चढ़ा देते, मैंने कहा था कि ठीक है बाबा चला जा रहा हूं, परंतु आपको वापस प्रसाद लाकर कहां दूंगा, यहीं ले आऊं क्या ? उन्होंने कहां कि नहीं यह लो पैसा, तुम उसे खा लेना। तेरी बिगड़ी बात बन जाएगी ! (बता दें कि तब भी और आज भी मेरा एक ही मजहब था है,  इंसानियत का ! मंदिर में बजने वाले घंटा- घड़ियाल और मस्जिद में नमाज का वह गंभीर ऊंचा स्वर दोनों ही मुझे कर्णप्रिय लगता है ) इस तरह से दो दिनों बाद मुझे प्रसाद के रुप में भोजन मिल गया था। वैसे, कई रिश्तेदार थें बनारस में लेकिन मैंने किसी से भी नहीं कहा कि मुझे भूख लगी है। आज भी काम की अधिकता के कारण रात का भोजन कहां कर पाता हूं। पत्रकार हूं अतः तमाम शुभचिंतक हैं। जो कहते भी रहते हैं कि शशि जी भोजन कर जाया करें, हम सभी को खुशी होगी। परंतु मुस्कुराते हुये टाल दिया करता हूं।  खैर...

     बच्चों को ही लेकर कालिंपोंग वाले स्वर्गीय नाना जी की एक सबक मुझे आज भी याद है। बात उन दिनों की है जब इंटर की परीक्षा देने के बाद मैं पारिवारिक कारणों से बनारस अपना घर छोड़ कालिंपोंग नानी मां के छोटे भाई के यहां चला गया था। तब वहां की सबसे बड़ी मिठाई की दुकान उनकी ही थी। सामने पहाड़ पर लड़कियों का एक स्कूल । जब इंटरवल होता था, तब ये बच्चियां पहाड़ से नीचे उतर कर सिर्फ इसलिये नाना जी की दुकान पर आया करती थीं कि  बेसन का बना नमकीन सेव शायद उसे भूजा ही नेपाली में वे बोलती थीं, यहां उन्हें मिलेगा। अधिकांश  लड़कियों के पास 50 पैसे का एक छोटा सिक्का तब हुआ करता था। फिर भी नाना जी की हिदायत रहती थी कि सेव की जो पुड़िया इन छात्राओं को दी जाए, वह ठीक -ठाक हो। चालीस- पचास लड़कियां तो आती ही थीं हर दिन । सो, वैसे ही एक दिन मैंने नाना जी से पूछ लिया कि यह तो घाटे का सौदा है न ? पुड़िया तो एक रुपये की रहती है, पर मिलता अठन्नी है ! जानते हैं नाना जी ने क्या कहा था ! उन्होंने कहा था कि इन मासूमों के चेहरे पर सेव लेने के बाद आप जो चमक देख रहे हैं न, उसकी कीमत नहीं लगाई जाती है ! 

      एक सम्वेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है कि उन्होंने कितनी बड़ी बात कह दी थी तब। तभी से जब मैं वहां हाट करने जाता था वहां , तो बड़ी दुकानों से सब्जी तो बिल्कुल ही नहीं लेता । टोकरियों में सब्जी लेकर बैठीं नेपाली  बच्चियों, वृद्ध महिलाओं को मेरी नजरें ढ़ूढ़ती रहती थीं। भाई -दाज्यू ले लो न राम्रो( बढ़िया) है, हम हिन्दी भाषियों को देख वे बोला करती थीं।  आपसे भी मैं वही छोटे  नाना जी वाली बात कहना चाहूंगा कि बच्चे और वृद्ध यदि सड़क पर बाजारों में कोई सामग्री बेचते दिखें, तो कोशिश करें कि उन्हें निराश न किया जाए। सौ -पचास रुपये तो आप जैसे जेंटलमैन के बच्चे चाकलेट खाकर बर्बाद कर देते ही होंगे , फिर बेचारे उस बच्चे का दिल क्यों तोड़ रहे हो,  अपने जूते पर उससे पॉलिश लगा लो न साहब ! भीख तो नहीं मांग रहा है न हमारा यह  लाल  ...

शशि 16/5/18

Monday 14 May 2018

प्रणाम बंधुओं

व्याकुल पथिक

       जीना उसका जीना है , जो औरों को जीवन देता है
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        हमारे एक मित्र हैं अश्वनी भाई। न्यूज, व्यूज और म्यूजिक का अच्छा कलेक्शन रखते हैं। यू़ं समझे कि आलराउंडर हैं जनाब ! ईश्वर की कृपा उनपर है। सो, सुखी गृहस्थ जीवन का भरपूर आनंद ले रहे हैं। आर्थिक व्यवस्था कुछ उनके पास ऐसी है कि झमाझम लक्ष्मी की बरसात भले ही ना हो रही हो, पर ठन ठन गोपाल भी नहीं हैं बंधु मेरे। सो, दिन चढ़ते- चढ़ते मोबाइल हाथ में लिये और कान में ईयरफोन लगाये मीडिया सेंटर में आ बैठते हैं। यहां काम उनका बस यही है कि आते जाते हुये मैं सब पे नजर  रखता हूं ...

   सो, मेरी मनोस्थिति भी उनसे छिपी नहीं है। अश्वनी भाई जानते हैं कि सुबह के 5 बजे से रात्रि 12 बजे तक मानसिक और शारीरिक कार्य करने वाले मुझ श्रमिक को  देर रात्रि बिस्तरे (शैय्या) पर जाते समय थकान मिटाने की कौन सी दवा चाहिए। लिहाजा, मेरे एकाकी जीवन में रंग बिखेरने के लिये वे इन दिनों पुराने गानों का कोई ना कोई खुबसूरत गुलदस्ता रात्रि में मुझे सेंट करना नहीं भूलते हैं। एक ऐसा ही चुनिंदा सदाबहार नगमा कल उन्होंने मेरे व्हाट्सएप पर डाला था । जिसके बोल रहे ---

मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है
जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है...
   
      अब क्या बताऊं आपको तन चाहे कितनी भी थकान से टूट रहा हो पर मन को भावनाओं, सम्वेदनाओं और कल्पनाओं के पंख लग जाते हैं। वह दिन भर के कैदखाने से मुक्त आजाद पक्षी की तरह फुदकने लगता है। जीवन को सार्थक करने के लिये कितना सरल सूत्र इस गाने में छिपा है। हमसभी ऐसा कर सकते हैं, औरों को जीवन दे सकते हैं। जेब से हमारा कुछ भी बर्बाद नहीं होना है । बस झूठी जुबां चलाने की जगह दिल का खजाना हमें थोड़ा लुटाना है। तभी हमें मन की बात समझ में आएगी !
     अब देखें न हम जिस छोटे से शहर मीरजापुर में रहते हैं, यहीं माता विंध्यवासिनी का धाम भी है। कहां- कहां से नहीं आस्था में बंधे दर्शनार्थी यहां खींचें चले आते हैं। मार्ग में पड़ने वाले शास्त्रीपुल को पार कर ही दर्शनार्थियों और यात्रियों सभी को नगर में प्रवेश करना होता है। हां ,गैर प्रांत जाना हो तो सीधे निकल जाएं। परंतु  स्थिति क्या है यहां की ट्रैफिक व्यवस्था की , यही न की यात्री दो- दो घंटे तक खुले आसमान से बरस रहे अंगारे के मध्य देवीधाम पहु़ंचने से पूर्व जाम में फंस अग्नि परीक्षा देने को विवश हैं। अभी किसी वीआईपी के आगमन की सूचना आ जाए, तो फिर देखिए न साहब कैसे कुछ ही मिनटों में हमारे ये ही बहादुर वर्दीवाले भाई फटाफट सड़क को ट्रैफिक विहीन सा कर देगें। हमारे राजनेता भी स्वागत के लिये इस पुल के समीप आ डट जाएंगे। वहीं ,जब आम जनता की बारी आती है, तो उसे  इसी भीषण जाम में बिलबिलाते रहने के लिये तब तक छोड़ दिया जाता है, जब तक होहल्ला नहीं मचता है। सरकारी खटारी बसों में बैठीं माताओं, बहनों और जाम में गर्मी से बिलखते उनके बच्चों की गुहार सुनने फिर भला कौन माननीय यहां आता है। जनसमस्या स्थल पर जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी देखने के लिये आम आदमी की आंखें तरस जाती हैं। ऐसे में 20 से 30 लाख की मंहगी लग्जरी गाड़ियों में घुमने वाले ऐसे माननीयों को फिर कौन याद करेगा पांच साल बाद! जो हैं तो जनप्रतिनिधि पर क्या जन के लिये कितना  !
       इसीलिये तो मुझ जैसे साधारण पत्रकार को जाम में फंसे लोग संदेश भेजते रहते हैं कि शशि जी व्हाट्सएप ग्रुप में चला दें न ! हम सभी बहुत परेशान हैं। मैं जानता हूं कि मेरा यह कार्य यहां के सत्ताधारी राजनेताओं और अफसरों को सदैव ही अप्रिय लगता रहा है। पर सवाल यह है कि सभी अमृत कलश के दौड़ में जुट जाये, तो जहर कौन पिएगा ! सो, जीवन के संध्याकाल आने से पूर्व कुछ तो अपने पेशे का मान रख लूं, फिर तो अंधेरी रात ही मिलेगी ! हमें भी और आपकों !

शशि 15/5/18

Sunday 13 May 2018

मिलकर बोझ उठाना....

व्याकुल पथिक

             एक अकेला थक जाएगा मिल कर बोझ उठाना

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         अपने जीवन का अमूल्य ढ़ाई दशक लम्बा समय इस छोटे से शहर में बीताने के बाद इस कूपमंडूक वाली स्थिति से बाहर की दुनिया में झांक ताक एक अवसर ब्लॉग लेखन ने मुझे पुनः मुहैया करवाया है। सो, जिन प्रवासी भारतीयों के लेख,विचारों और कविताओं को मैं अपने बोझिल होमवर्क में से समय चुरा कर जब तब पढ़ ले रहा हूं। उनकी रचनाओं से कहीं अधिक मेरा मन इस लिये आह्लादित हो रहा है कि वतन से सात समुन्दर दूर ये प्रवासी जन किस तरह से अपनी संस्कृति, अपनी पहचान एवं अपने संस्कार के लिये जागरूक हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह समूदाय एक दूसरे के उत्साहवर्धन के लिये तत्पर है। रेणु जी जैसी विदूषी गृहिणी जहां से शब्द साधना करते हूं , हम भारतीयों को जगा रही हैं  कि उठो, आगे बढ़ो और अपने अस्तित्व को पहचानों। ब्लॉग लेखन में मेरे जैसे बिल्कुल ही अनाड़ी अजनबी का उन्होंने जिस तरह से सहयोग किया, उस पर एक पत्रकार होने के लिहाज से सोच रहा हूं कि काश ! ऐसी ही सम्वेदनाएं , सहयोग और उससे भी कहीं ऊपर कर्मपथ पर कठिन परिस्थितियों में चलने वाले लोगों के सामाजिक संरक्षण का भाव हमारे देश, हमारे प्रदेश, हमारे शहर और गांव के वासिंदों में भी होता ... तो आज हमारे समाज की हालात ऐसी नहीं होती, हमारी नयी पीढ़ी के नौजवान धनबल, बाहुबल और अब तो एक बार फिर से जाति बल भी , को लेकर इस तरह से व्याकुल नहीं होतें !  जब भी आम चुनाव होता है , हम लोग इन्हीं तीन विषयों को केंद्र में रख वोट डालते हैं।  सफेदपोश बाजीगर भी हमारी इसी कमजोरी का लाभ  वाकपटुता से उठा लेते हैं। वहीं, सामाजिक संरक्षण के अभाव में हमारे ही गली-मुहल्ले का असली समाज सेवक ऐसे अनाड़ियों और बहुरुपियों के सामने समाज की इसी नादानी के कारण अवसाद में डूब जाते हैं, टूट जाते हैं। फिर क्या होता है , जानते है ? कर्मपथ पर अपनी उपेक्षा से वे ना भी हटें, तो उनसे जिस "अमृत कलश" की प्राप्ति की इस व्याकुल समाज को उम्मीद थी, उसे फिर कोई नहीं लाकर देगा आपकों...
      इस दर्द को बेहद ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करने के दौरान मैंने समझा है। जेब में इतना पैसा तब नहीं था उस वक्त कि अपनी भी गृहस्थी बसा सकूं। परंतु इस समाज से मिला क्या कोर्ट - कचहरी का दर्द और अपने संस्थान की उपेक्षा का दंश। हालांकि मैं इसलिए इससे विचलित नहीं हुआ हूं कि मैं जानता हूं कि सत्य की ही विजय तय है। परंतु मैंने उस कलम को तोड़ दी है, जो समाज को समर्पित थी। मैं इसीलिये ब्लॉग लेखन शुरु किया हूं कि एकाकी जीवन में  स्वयं ही अपने सवालों का जवाब ढ़ूंढने निकल पड़ूँ...

    गुरुदेव रविंद्रनाथ की ये पक्ति जिसे बचपन में कोलकाता में पढ़ा था, आज भी मुझे याद है -

' जोदि तोर डाक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे "

    पर समाज यह चिन्तन करे , वह महाभारत काल के उन महान शस्त्रविद्या के ज्ञानी आचार्य द्रोणाचार्य  का कुछ तो स्मरण करे, जिनके अबोध बालक को वह एक गिलास दूध भी नहीं उपलब्ध करवा सका। कितना भयानक परिणाम हुआ इसका। एक अजेय स्वाभिमानी आचार्य अपने मित्र के हाथों इसी कारण अपमानित होकर टूट गया। उसने कुरुवंश की गुलामी स्वीकार कर ली । जो राजकुमार अयोग्य थें उन्हें भी बलशाली उन्मादी योद्धा बना दिया। परिणाम कितना भयानक रहा,  इसी कारण वह महाभारत युद्ध भी उसी समाज को सहना पड़ा। जिसने आचार्य के पुत्र को एक गिलास दूध नहीं दिया था !

शशि 14/5/ 18

आत्म कथा, प्यारी प्यारी है, ओ मां, ओ मां

व्याकुल पथिक
( आत्मकथा )

        प्यारी प्यारी है, ओ मां ,ओ मां...
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         कल शनिवार को वाराणसी से मीरजापुर के लिये रात्रि के 8 बजे ही बस मिल पाई। तब जा कर अखबार का बंडल लगा।  सो, कम से कम सवा 10 बजे रात्रि तक का समय शास्त्री सेतु पर ही टहल घुम कर मुझे बिताना है, यह तो तय ही था। ऊपर से जाम लगने का अज्ञात भय। बड़े भैया चंद्रांशु जी की कृपा से मिले, उन्हीं के मुसाफिरखाने पर कह कर आया था कि भाई थोड़ा सहयोग करना साढ़े 11 बजे रात्रि तक तो निश्चित ही आ जाऊंगा। चूंकि यूपी में जो सरकार इन दिनों है, वह मेरे नजरिये से नौकरशाहों की सरकार है। अफसर यहां पर नेताओं सा आचरण कर रहे हैं और जनप्रतिनिधियों को पब्लिक की तनिक भी चिन्ता नहीं है, वे अफसरों से पंगा नहीं लेना चाहते हैं। वहीं विपक्षी पार्टियों की इतनी हैसियत नहीं है कि उसके नेता ऐसे अधिकारियों से पंजा लड़ा सकें। ऐसे में हम जैसे श्रमिक वर्ग के लोग अच्छे दिन की चाहत में बेहद ही बुरे दौर से गुजर रहे हैं। मैं एक पत्रकार हूं, करीब ढ़ाई दशक से इस मीरजापुर में हूं। परंतु जीवन में ऐसे बुरे दौर कभी नहीं देखने को मिलें हैं । अमूमन रात में साढ़े 10 बजे तक का समय,इसी शास्त्री पुल पर अनेकों वाहनों के काले धुएं और धूल से दोस्ती निभाने में व्यतीत हो जाता है। ऐसे में मन का व्याकुल होना स्वाभाविक है। यह मानव स्वभाव है। ऐसी मनोस्थिति में कभी कभी अतीत की सुखद स्मृतियां इस पीड़ा के उपचार के लिये जीवन संजीवनी बन जाती हैं। मुझे ही देखें न मैं यहां मीरजापुर के शास्त्रीपुल से पल भर में ही कोलकाता के हावड़ा ब्रिज पर जा पहुंचता हूं। बचपन में मां से जिद्द कर अकसर ही नीचे मिठाई कारखाने के आफिस में बैठें घोस दादू   
के साथ हावड़ा ब्रिज की ओर निकल पड़ता था। कभी -कभी तो पैदल ही पूरा ब्रिज पार कर हावड़ा रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाया करता था या फिर ब्रिज से नीचे उतर चार पांवों वाले इस विशाल झुले को अपलक निहारता रहता था...   इसी बीच बंडल लेकर आ गयी बस मुझे झकझोर देती है कि कहां खोया है, यथार्थ तुम्हारे सामने यह अखबार का बंडल है। अब साइकिल उठाओं और अपने कर्मपथ पर बढ़ चलो। बचपन में पढ़ा है न कि वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

    वैसे ,आज तो मदर डे है। हमारे बचपन में मदर और फादर डे  को कोलकाता जैसे महानगर में भी लोग नहीं जानते थें। हां, हम बच्चे अपने प्रियजनों के जन्मदिन पर उन्हें भी कुछ उपहार देने की चाहत जरूर रखते थें। नियति की यह भी कैसी विडंबना है। जिसके पास तीन - तीन मां हो (नानी मां, मौसी मां और मम्मी तो है हीं )  , आज वह एक वक्त के भोजन से ही समय गुजर लेता है, मन ही नहीं होता रात्रि में खाने का।  खुद के हाथ से बने खाने में मां के भोजन जैसा मिठास ही कहां है।  जब भोजन की बात कर रहा हूं, तो याद आती है कि 12 वर्षें की उस अवस्था में मैंने  खाना बनाना भी तो मां से ही सीखा था। तब घर पर तीन लोग ही थें , मां , बाबा और मैं। मां की बीमारी बढ़ने लगी थी, फिर खाना कौन बनाये। सुबह देशबंधु के यहां से जलपान आ जाता था। दोपहरमें इटली- डोसा से हम काम चला लेते थें। परंतु रात में बिना पराठे के बाबा से रहा नहीं जाता था। शुद्ध देशी घी का पराठा और आलू का पराठा बाबा को पसंद था। ऐसे में मां ने ही बेड पर लेटे-लेटे मुझे आटा गुथना सिखाया था। हां पराठे बनाने में थोड़ी कठिनाई जरुर होती थी। सो, मुझे उसमें उलझा देख जब कभी लिलुआ वाली नानी जी यहां मां को देखने आ जाती थीं, तो वे मुझे चल हट किनारे बैठ , कह स्वयं ही पराठा बना देती थीं। उन्होंने अंतिम समय तक मां का साथ नहीं छोड़ा था। वे देर शाम लोकल ट्रेन पकड़ लिलुआ से आती थीं और रात्रि में जब बाबा ऊपर कमरे में आते थें, तब घर वापस जाती थीं। रात्रि के 12 तो बज ही जाते होगें उन्हें अपने घर लिलुआ पहुंचने में, परंतु काफी हिम्मती महिला थीं। इसी तरह से सादी सब्जी बनानी भी मैंने मां से ही सीख ली थी।
     शायद मां को यह आभास हो गया हो कि उनके बाद जीवन भर मुझे अपने ही हाथों का बनाया भोजन खाना है, इसिलिये तो उन्होंने मुझे खाना बनाने का बचपन में ही प्रशिक्षण दे दिया था , ताकि उनका मुनिया भूखा नहीं रहे ...
 
मां को आज के दिन और क्या कहूं कि

 तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी प्यारी है, ओ मां, ओ मां....

क्रमशः

(शशि) 13/5/18

Friday 11 May 2018

हमारी मुस्कान हमारी पहचान

व्याकुल पथिक

             हमारी मुस्कान हमारी पहचान
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         हर इंसान अपने में एक अलग कहानी है, बिल्कुल सच्ची कहानी है  !  जो हमारे लिये आत्मकथा है, वह औरों के लिये कहानी है। आत्मकथा लेखन हमारे अतीत की न सिर्फ खट्टी मीठी यादों से हमें सराबोर करता है, वरन् हमें आत्मावलोकन का भी भरपूर अवसर देती है। वह एक ऐसे पड़ाव पर हमें ला खड़ा करता है, जहां हम अपने कर्मपथ की दुर्गम राह आसान कर सकते हैं । भूतकाल की गलतियों का भान होने पर हम स्वयं में सुधार लाने के साथ ही दूसरों का मार्गदर्शन भी कर सकते हैं।  पत्रकारिता को लेकर इसीलिए बहुत कुछ मैंने पूर्व में लिखा भी था, क्यो कि ढ़ाई दशक से वहीं तो मेरा सबकुछ है...न बंधु ,न परिवार, न घर, न स्वास्थ्य और ना ही धन ...
       सब-कुछ घर पर छोड़ कर बनारस से 25 वर्ष पूर्व निकला था, तो यहां मीरजापुर में दो चीजें लेकर आया था। एक स्वस्थ तन और दूसरा चेहरे पर मुस्कान। अच्छे स्वास्थ्य ने मुझे पैदल ही मीरजापुर की सड़कों पर, गलियों में भटकने के लिये प्रर्याप्त उर्जा दिया, पर सदैव मुस्कुराते रहने की मेरी आदत ने यहां के लोगों के करीब मुझे लाया। यदि चेहरे पर हमारे मुस्कान है, तो निश्चित ही हमारी वाणी भी मधुर होगी , इसमें संदेह नहीं है। और सारे संबंधों का मूल यह वाणी ही तो है ! इसके अतिरिक्त कर्मपथ पर बढ़ने के लिये दो और गुण हमारे पास होने चाहिए,  सच्चाई और ईमानदारी। असत्य का मायाजाल स्वयं हमकों ही व्याकुल करता रहेगा। इससे एक अज्ञात भय बना रहता है। हम सभी ऐसे दौर से कभी ना कभी गुजरते हैं, परंतु इस झूठ के आवरण का जितना शीघ्र हो सके, त्याग कर देना चाहिए, अन्यथा हमारी मुस्कान हमसे छीन जाएगी। मैं ऐसे सारे अवसाद भरे दौर से गुजर चुका हूं। इसीलिये यह पैगाम बांट रहा हूं कि औरों के सामने मुस्कुराते रहिये ! अनाड़ी पिक्चर का मुकेश साहब का वो गीत याद है न -
   किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में...

    यदि हम दर्द में हैं , तो भी हमें जोकर फिल्म में रंगमंच पर राजकपूर के विदूषक के अभिनय को देख मुस्कुराते रहना सीखना होगा। जीवन के इस रंगमंच पर मैंने भी इस महान विदूषक(जोकर) से बड़ी सीख ली है। हम सभी जानते है कि हमारा दर्द कोई नहीं बांटेगा। फिर क्यों न उसे अपना साथी बना  मुस्कुराते रहें। मुस्कान सच्ची हो, बनावटी हो, थकान भरी हो, दर्द भरी हो ... यह सामने वाले को पता नहीं लगे, यही तो एक अच्छे विदूषक का कर्म है ! वर्ष 1998 में मलेरिया का गलत उपचार होने से अपना स्वस्थ शरीर ही नहीं कई अपनों को भी खोने के बाद आज भी उसी तरह मैं मुस्कुराते आपकों मिलूंगा , जीवन के सफर में यही मेरी पहचान है !

(शशि)12/5/18

Thursday 10 May 2018

लोभ मुक्त कर्म

व्याकुल पथिक

            लोभ मुक्त कर्म ही हमारी पहचान
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       मेरा स्वयं से एक सवाल सदैव रहा है कि बिना किसी तैयारी, बिना किसी जानकारी के ही मैं नये नये कार्यों में क्यों उलझ जाता हूं। अब देखें न बचपन में मैं एक पेंटर बनना चाहता था। पेंटिंग के अभ्यास के लिये मुझे एक कुशल चित्रकार के यहां भेजा भी गया था। रंगों को हल्का-गाढ़ा कर चित्र पर भाव लाने की उनकी कला मुझे मंत्रमुग्ध किये हुये थी। उन्होंने भी मुझसे कहा था कि निश्चित ही तुम भी एक अच्छे चित्रकार बनोगे, परंतु हाईस्कूल में पिता जी ने मुझे साइंस  दिलवा दिया। तो मेरा मन गणित के सवालों को सुलझाने में उलझ गया। गणित के दोनों पेपर में बराबर अंक मिले। सौ में 98 अंक प्राप्त करना सचमुच मेरी एक बड़ी उपलब्धि ही थी।  परंतु मैं इंजीनियर भी तो नहीं बन सका। पढ़ाई बीच में छूट गयी। परिस्थितियों ने मुझे कलम थमा दिया। हिन्दी से जितना दूर मैं भागता था, वह मुझे जबर्दस्ती अपने पास खींच लायी, जीवन के पच्चीस साल कब इस मीरजापुर की सड़कों पर इस भाग दौड़ में गुजर गये कि कोई खबर छूटने न पाये। मैं कभी किसी से पीछे जो नहीं रहना चाहता था, यहां तक कि भदोही और सोनभद्र की बड़ी घटनाओं की सूचना सबसे पहले प्रेस को दे, वहां बैठें वरिष्ठ जनों को भी चौका देता था। और अब मन की व्याकुलता शांत करने के लिये यूं ही अचानक बिना किसी तैयारी के ब्लॉग लेखन करने लगा। न किसी की आत्मकथा पढ़ी , न ही कोई साहित्य पढ़ा बस लगा अनाड़ियों की तरह मोबाइल फोन का बटन दबाने। इस तरह का दुस्साहस कर मैं अपने उपहास का मार्ग स्वयं ही क्यों प्रशस्त करता हूं, मुझे नहीं पता, बावजूद इसके मेरे कई विद्वान शुभचिंतक  जब यह कहते हैं कि बहुत बढ़िया लिखा, शब्द साधना करते रहो, तो अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ी ही लज्जा की अनुभूति होती है। सोच रहा हूं कि काश ! मैं हिन्दी का विद्यार्थी होता,  तो गर्व के साथ अपनी तारीफ पर सिर उठा तो सकता न...
     फिर भी मन की ये जो भावनाएं हैं, वह भला कहां मानती हैं। अपनों की यादें मुझे व्याकुल ही किये जा रही थीं और मैंने  अतीत और वर्तमान दोनों को एक साथ लेते हुये चिन्तन युक्त आत्मकथा लेखन शुरु कर दिया, अपना एकाकीपन दूर करने के लिये। मेरा मानना है कि यदि हम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन अपने कार्य में कर रहे हो और उसमें सच्चाई की सुगंध हो, तो सरस्वती की कृपा निश्चित ही प्राप्त होनी है। इसीलिये तो पत्रकारिता में यहां मुझे क्या सम्मान और स्नेह मिला है और उसमें अब तो और वृद्धि भी हो रही है, उसे वे पत्र प्रतिनिधि कभी नहीं समझ सकेंगे , जो जुगाड़ में ही रहते हैं। एक बिल्कुल ही अनजाने शहर में सिर्फ दो रोटी की रोटी के लिये मैं वाराणसी से देर शाम यहां मीरजापुर आ कर पैदल ही अखबार बांट लौट जाया करता था। आज भी मैं उन दिनों को याद करता हूं, तो चकित सा रह जाता हूं कि मेरे किस गुण के कारण लोगों ने मुझे इतना सम्मान और स्नेह दिया ! आज घर-परिवार, स्वास्थ्य सब-कुछ खोने के बावजूद भी मैं एक खुशहाल फकीर क्यों हूं। मेरे चेहरे पर आप अत्यधिक काम के बोझ के कारण थकान तो देख सकते हैं, परंतु इसे लेकर मैं चिन्ता में हूं, यह नहीं कह सकते हैं आप !
      कारण मैंने  महान संत कबीर की एक छोटी सी थ्योरी पढ़ी है,  वह यह है न कि
   रुखा सुखा खाई के, ठंडा पानी पी।
   देख पराई चुपड़ी , मत ललचाओ जी ।।

  बड़े से बड़े  शास्त्रों का ,विद्वानों का ,चिंतकों का सारा का सारा ज्ञान , इसी दो लाइन के दोहे में समाहित है। जरुरत तो इस पर प्रैक्टिकल की है हमें।  और यह प्रयोग हमें स्वयं पर करना है। आज मैं क्यों पूरे आत्मविश्वास के साथ कहता हूं कि मुझमें तनिक भी लोभ नहीं, तो इसके लिये लम्बा अभ्यास भी तो किया हूं। तब जा कर इस स्थिति में अब हूं कि मेरे सामने आप छप्पन भोग ही क्यों न रख दें , परंतु मुझे तो सिर्फ चार सूखी रोटी और थोड़ी सी सब्जी की ही तलाश रहती है । इन मेवा- मिष्ठान से अपने को क्या काम।  यहीं लोभ पर संयम मेरी स्थाई पुंजी है। जिसे मैं इस शहर की गलियों में पच्चीस साल से अखबार बांट कर कमाई है। जिसका परिणाम यह है कि मेरे लिये मजदूर और सेठ में कोई फर्क नहीं है। आज इस समाज में जो मेरा जो सम्मान है न, वह भी कारण है कि मैंने किसी सेठ के सामने हाथ नहीं फैलाया है।

( शशि)11/5/18

Wednesday 9 May 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
 आत्मकथा
            मेरी दुनिया थी मां तेरे आंचल में
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    मुनिया कहां है...बिल्कुल सुनता नहीं ना...चौधरी देखों इसका...ठीक है जब नहीं रहूंगी तब तकलीफ पाएगा ...
            मां चाहे कितनी भी नाराज हो जाती थी, लेकिन मैं जानता था कि उन्हें कैसे मनाना है। सो, मुझे याद नहीं कि मां की डांट पर कभी मैंने मुंह बनाया हो। उसी तरह से उछलता कूदता रहता था कभी बरामदे में तो कभी सीढ़ियों पर , तो कभी नीचे दूसरी मंजिल पर भाग जाता था । मां को कबूतरों के लिये मेरा घर बनाना पंसद नहीं था । सबसे अधिक डांट उसे लेकर ही पड़ती थी। परंतु इन कबूतरों में रुचि मेरी मां के कारण ही तो जगी थी। जब तक उनमें सामर्थ था, रात्रि में जो भी परेठा बच जाता था या कुछ अधिक ही वे बनाती थीं , उसे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर वे बारजे पर जैसे ही डालती थीं, तमाम कबूतर पंख फैलाये चले आते थें। गौरया के लिये भी पानी की व्यवस्था मां नहीं भूलती थी। परंतु मैं पढ़ाई से ज्यादा समय इन कबूतरों के आशियाने पर देने लगा था। मां चाहती थी कि मेरी पढ़ाई कहीं से कमजोर नहीं रहे, ताकि मेरे शिक्षक पिता जी ताना न मारे... बड़ी मुश्किल से दूसरी बार करीब 11- 12 वर्ष की अवस्था में मुझे अपने ननिहाल कोलकाता में रहने देने के लिये वे सहमत हुये थें। दार्जिलिंग में मां के छोटे भाई की पुत्री( रिश्ते में मेरी मौसी) के विवाह में मां और मम्मी के संबंध फिर से मधुर हुये थें। यूं समझे कि मां ने वहां जब मुझे वर्षों बाद देखा, तो स्वयं को रोक नहीं पाईं थीं। बनारस में मैं बहुत दुर्बल हो गया था। वो मम्मी नहीं मां थीं, भला मुझे ऐसे कैसे देख सकती थीं । खैर अहम् त्याग पापा ने एक बार फिर मुझे मां के आंचल में समा जाने का अवसर दिया। मुझे याद है उस गर्मी की छुट्टी में जब मैं परिजनों संग कोलकाता आया था और माह भर बाद मेरी वापसी का टिकट बुक नहीं हुआ, तो मैं किस तरह से खुशी से चहकते हुये मां की गोंद में जा गिरा था। मां ने हिदायत दी थी... ठीक से पढ़ेगा न ! अपने बाब से बेज्जती तो नहीं करवाएगा !
    वैसे,तो वहां मेरे दोनों ही जन्मदिन पर बाबा ने ढेरों उपहार लाकर दिये थें। मां ने कितने ही लोगों को बुलवाया था । मुनिया का बर्थ डे है। हम सभी शाकाहारी रहें,अतः संदेश, काजू, चाकलेट पाउडर और खोवा से निर्मित विशेष तरह का केक नीचे कारखाना से हाड़ी दादू ने बना कर भेजा था। एक जन्मदिन पर मां ने मेरे लिये बंगाली धोती कुर्ता मंगवाया था। वह मेरा आखिरी जन्मदिन मना था, मां के जाने के बाद फिर कभी मैंने अपना जन्मदिन नहीं मनाया। जब मैं मुजफ्फरपुर में था, तो जन्मदिन पर कुछ खास करने के लिये मौसी जी को भी मैंने मना कर दिया।  मां ही नहीं रही , तब जन्मदिन कैसा... मैंने तो मां के बाद कभी होली दीपावली भी नहीं मनाई है।
         फिर वह दिन भी आया जब मैं अपनी मां की परीक्षा में खरा उतरा। अपने क्लास 6 में फस्ट जो आया था। रिजल्ट मिलते ही, सीधे मां के पासा भागा आया, लेकिन मां तो मृत्यु शैया पर पड़ी हुई थी ....
      फिर भी मां के कान में वो शब्द मैंने ही आखिरी बार कहे थें , यदि वे चेतना में रही होंगी, तो निश्चित ही मुझे शाबाशी दी होगीं। मां और बाबा दोनों ही मेरी शिक्षा पर ध्यान देते थें। मास्टर साहब प्रति दिन कोलकाता के बड़ा बाजार स्थित हमारे निवास स्थान पर पढ़ाने आते थेंं। मां बेहद तकलीफ में थीं। कोई भी दवा काम नहीं कर रही थी। ऐसे में मुझे अपनी कक्षा में प्रथम स्थान मिलने का उपहार कौन देता।  बाबा जो वर्षों से मौत को पीछे ढकेल मां को वापस ले आया करते थें। इस बार उनका हर संघर्ष व्यर्थ होता दिख रहा था। मां ने अंतिम बार उन्हें चौधरी कह कर पुकारा था। इसके बाद फिर कुछ न बोली थीं। जिस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उन्होंने नश्वर शरीर को त्याग था , बाबा और लिलुआ वाली नानी जी संग मैं भी कमरे म सहमा- सहमा व्याकुल से नर्स की बातें सुन रहा था।परंतु दुर्भाग्य से मुझे झपकी आ गयी ।  बाबा की चींख सुन जब जगा, तो मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी। परिवार के इतने सदस्यों के रहते हुये भी मैं अनाथ हो गया था।  कहां तो मेरे मित्र स्कूल में मानीटर के रुप में मेरे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थें और कहां मुझे फिर  जबर्दस्ती बनारस मम्मी-पापा के साथ भेज दिया गया। मैंने करीब 13 वर्ष की अवस्था में मां को पहली बार कंधा दिया था। हालांकि जो लोग मौजूद थें, वे नहीं चाहते थें कि मैं इस अवस्था में श्मशान घाट हरि बोल कहते हुये जाऊं। पर मेरे जिद के आगे किसी की नहीं चली। इसके बाद आज तक अपने परिवार के किसी भी सदस्य के शव यात्रा में मैं शामिल नहीं हुआ हूं, बाबा,दादी, मौसा जी, बहन और पापा इसी बीच गुजर चुके हैं । मेरी दुनिया तो मां के आंचल में ही थी , सो फिर शेष अब बचा ही क्या रहा ...

(शशि)10/5/18

क्रमशः

Tuesday 8 May 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
  आत्मकथा
           
         अपनों से वियोग का प्रथम आभास
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         मृत्यु भय से कहीं अधिक अपनों से वियोग  का दर्द होता है। मनुष्य चाहे जितना भी ज्ञान अर्जित कर ले, संत ही क्यों न हो जाए। फिर भी अपनों के बिछुड़ने की पीड़ा उसे निश्चित ही होगी !  बुद्ध के निर्वाण पर आनंद की मनोस्थिति इसका प्रमाण है। हां,  यह और बात है कि हमारा वैराग्य भाव हमारी व्याकुलता कम कर देता है...

        प्रियजनों के दूर जाने की कसक आज भी मुझे है। परन्तु इतना ही सत्य यह भी है कि मृत्यु के समय यदि मैं चैतन्य अवस्था में रहूंगा, तो बुद्ध की तरह ही मोह रहित निर्वाण को प्राप्त करूंगा। ऐसा मेरा विश्वास है। कर्मपथ के आगे जो मुक्तिपथ होता है न , उसकी तैयारी वानप्रस्थ अवस्था में पहुंच कर हमें शुरू कर देनी ही चाहिए। थकान भरे जीवन सफर का यह सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। जो हमें आखिरी मंजिल की ओर ले जाता है। जिसकी तैयारी अब मैं भी शुरू करने वाला हूं। सो, पांव में किसी प्रकार की बेड़ियों को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं है ! मेरा मन आजाद पंक्षी की तरह खुले आसमान में विचरण करने के लिये मचल रहा है। पत्रकारिता का यह बंधन भी अब सहन नहीं हो रहा है !

      आत्मकथा लेखन के लिये अब जब मैं अपने अतीत में झांक रहा हूं, तो किन स्वजनों की जुदाई पर मुझे अत्यधिक पीड़ा हुयी, यादों की वे सारी तस्वीरें मानों फिर से सजीव हो उठती हैं। समय तेजी से पीछे भागा जाता है। मुझे याद है कि जब मैं वाराणसी में कक्षा पांच में पढ़ता था। संकठा घाट पर गंगा किनारे हमारा विद्यालय था। जिस खिड़की की तरफ कक्षा में मैं बैठा करता था, वहां से गंगा दर्शन भी करता रहता था। उस दिन को याद कर आज भी मैं सिहर उठता हूं। जब पहली बार एक सुंदर , स्वस्थ्य और गौरवर्ण युवक का शव गंगा में बहता देखा था। उसके मृत शरीर पर लाल रंग का गमछा पड़ा था। उस दिन जब तक क्लास रुम में था, मेरी निगाहें उसी शव पर टिकी हुई थी।   करीब दस वर्ष की ही तो अवस्था रही होगी मेरी, जब इस शव ने पहली बार मुझे जीवन के इस सत्य से परिचित कराया की सब कछ नश्वर है। मेरा मन कितना अधिक व्याकुल हो उठा था, इसे बताने के लिये शब्द नहीं है। वह रात मुझे आज भी याद है, जब मैं सोया तो अपनों के समीप ही था , लेकिन पलकें आंसुओं से भींगती ही जा रही थीं। पूरी रात यह सोचता रहा कि क्या दादी, पापा- मम्मी सभी मुझे इसी तरह से छोड़कर चले जाएंगे। मेरी यह मनोदशा कितने दिनों तक बनी रही, यह तो मुझे ठीक से याद नहीं। परंतु मृत्यु से वह मेरा प्रथम साक्षात्कार रहा। फिर भी मैं कोई सिद्धार्थ तो था नहीं कि इस दुख से मुक्ति का मार्ग तलाशने लगता ! अतः मनोस्थिति सहज हो गई होगी मेरी।
     लेकिन , सच तो यही था कि गंगा में युवक का वह शव  यह संदेश दे गया था कि मेरा जीवन ही अपनों से बिछुड़ने के दर्द को सहने के लिये बना है।  और कुछ ही वर्षों में यह प्रत्यक्ष भी हो गया था। जो मुझे सबसे प्रिय था , वह मेरी मां मुझे छोड़ कर चली गयी... मुझे याद है, जब वे मृत्यु शैय्या पर थीं , तो मैंने उनके कान में धीरे से क्या बोला था।  वह शब्द था कि मां सुन रही हैं न आपका मुनिया फस्ट हो गया है और क्लास सेवेन में अब वह मानिटर होगा...पता नहीं मां ने सुना भी था कि नहीं ! हां, लिलुआ वाली नानी जी ने मुझे विश्वास जरुर दिलवाया था कि मां ने तुम्हारी बात सुन ली है।

(शशि) 9/5/18